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सूक्त मूक्तावली.
गति नर लेई विक्रमादित्य राख्यो ॥ २२ ॥ अथ उपशमविषेः ॥ उपशम हित कारी सर्वदा लोकमांही ॥ नुपशम धर प्राणी ए समो सौख्य नाही ॥ तप ज प सुर सेवा सर्व जे आदरे ने ॥ उपशमविण जे ते वारि मंथा करे ले ॥ २३ ॥ उपशम रस लोला जास चित्ते विराजी ॥ किम नर नव केरी रिधिमा तेह रा जी॥ गज मुनिवर जेहा धन्य ते ज्ञान गेहा ॥ तपकरि कृश देहा शांति पीयू ष मेहा ॥४॥ अथ त्रिकरणशुदिविषः ॥ जग जन सुखदाई चित्त एवं सदाई॥ मुखे अति मधुराई साच वाचा सुहाई ॥ वपु परहित हेते त्रण्य ए गुम जेने ॥ तप जप व्रत सेवा तीर्थ ते सर्व तेने ॥ २५ ॥ मण वच तनु त्रस्ये गंगज्यूं गुरू जेने ॥ निज घर निवसंतां निर्जरा धर्म तेने ॥ जिम त्रिकरण गुदे औप दी अंब वाव्यो ॥ घर सफल फलंतो शील धर्मे सुहाव्यो ॥ १६ ॥ श्रथ कुलविषे सहज गुण वशे ज्यूं शंखमां श्वेतताई ॥ अमृत मधुरताई चश्मां शीतलाई कुवलय सुरनाई इदुमा ज्यूं मिठाई ॥ कुलज मनुजकेरी त्यूं सुनावे नलाई ।। ॥२७ । जिण घर वर विद्या जो दुवे तो न दि॥ जिण घर उय लाने तो न सौजन्य वृद्धि ॥ सुकुल जनम योगे ते त्रणे जो लहीजे ॥ अजय कुमर ज्यूं तो जन्म साफल्य कीजे ॥ २७ ॥ अथ विवेक विषे ॥ हृदय घर विवेके प्राणि जो दीप वासे ।। सकल नव तणो तो मोह अंधार नाशे ।। परम धरम वस्तु त त्व प्रत्यक्ष नासे ।। करम नर पतंगा स्वांग तेने विधंसे ॥ श्ए । विकल नर कहीजे जे विवेके विहीना ।। सकल गुण नया जे ते विवेके विलीना ।। जिम सुम ति पुरोधा नूमि गेहे वसंते ।। नगति जुगति कीधी जे विवेके नगंते. ॥ ३० ॥ अथ विनय विषे ॥ निशिविण शशि सोहे ज्यू न शोले कलाई ॥ विनयविण न सोहे यूं न विद्या वमाई ॥ विनयवहि सदाई जेह विद्या सहाई ॥ विनय विण न कोई लोकमां सञ्चताई ॥३१॥ विनय गुण वहीजे जेहथी श्री वरीजे ।। सुर नर पति लीला जेह हेला लहीजे ॥ पर तणय शरीरे पेशवा जे सुविद्या ।। विनय गुणथि लाधी विक्रमे तेह विद्या ॥ ३२ ॥ अथ विद्याविषे ॥ थगम म ति प्रज्ये विद्ययें कोन गंजे ॥ रिपु दल बल नंजे विद्ययें विश्व रंजे ॥ धनथि बखय विद्या सीव एणे तमासे ॥ गुरुमुख नणि विद्या दीपका जेम नासे ॥ ३३ ॥ सुर नर सुप्रसंसे विद्ययें वैरि नाशे ॥ जगि सुजस सुवासे जेह वि द्या मपासे ॥ जिकरि नप रंज्यो नोज बाणे मयूरे ॥ जिणकरि कुमरिंदो रीजव्यो हेम सूरे ॥ ३४ ॥अथनपकार विषेः॥ तन धन तरुणाई श्रायु ए चंचला ।।
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