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________________ ३०० अध्यात्ममतपरीदा. वे नही; किंतु अनेकांतपणुं संनवेजे. केम के, निश्चय तथा व्यवहारना मुख्य तथा अमुख्य विनाग स्वनाविकधर्मरूप नथी: किंतु आपेक्षिक जे. जेम श्रामलक बदरनी अपेदाए दीर्घ कहेवाय'; अने घटादिकनी अपेक्षाए म्हस्व कहेवाय. तेम ए बन्ने नयो एक बीजानी अपेक्षाए मुख्य तथा अमुख्य कहेवायडे, एम बतां पण जो व्यवहारनयवादी पोताना मतनुं मुख्यपणुं प्रकाशवानुं मामी न वाले तो तेणे वली था युक्तियेकरीने पोताना मननुं समाधान करी लेवु जोये के व्यवहारनुं जे मुख्यपणुं २ ते मात्र कहेवार्नु , अने निश्चयतुं मुख्यपणुं तो कार्यनो उपयोगी ने ; केम के, सामायक आदिदईने चौद पूर्वपर्यंत ज्ञान- सार ते चारित्र कह्यु , यतः “सामाश्यमाईचं, सुअनाणं जावं विंसारालं; तस्स वि सारो चरण, स्सारो चरणस्स निवाणं” इति आवश्यके.॥ ६३ ॥ सवणयमयत्तं पुण सवेसिं सम्मज विस ॥ णयणिव्यस्स तेणं सयल दिसत्त मेगस्स ॥ ६४ ॥ व्या: निश्चयनयने सर्वनयमय पणुं जे पूर्वे कयुं ते सर्वनय सम्मत थ र्थ माने तेमाटे कयुं एम जाण्याथी एकता निश्चयनयने सर्वनयसमूहरूप प्रमाणात्मक सकल देशपणुं पण दोषनुं करनार थशे नही. ॥ ६ ॥ जेणं सयला देसो अनेय वित्तीय णिचयाधीणो॥ तेणेव सोपमाणं ण पमाणं होइ ववहारो ॥६५॥ ___ व्या: जिहां एक धर्मनी धाराए सर्व धर्म जे सकलादेशनेविषे प्रतिपादन कराय ने , तिहां अस्तित्वादिक एक धर्मनी साथे बीजा सकल धर्मोनुं अनेदपणुं जे जाणवू ते निश्चयनयने आयत बे, एवी अपेक्षाएकरी निश्चयनयने प्रमाण कह्यो ; धने व्यवहारनयने अप्रमाण कह्योले; परंतु एकांत निश्चयनय प्रमाण कह्यो नथी. ॥६५॥ जम गुवयारोविचलं कासगंतिअंदवे तंपि॥ एग स्स मुकनावे णियमा अवरोवयारोत्ति ॥ ६६ ॥ व्याः कोई एम कहेले के निश्चयनय परमार्थयाही तेमां कोई उपचार न ही होवाथी ते बलवान, अने व्यवहार नय परमार्थयाही नथी, तेमां घणा उपचार होवाथी ते निर्बल, एपण एकांत नथी; केमके, बन्नेनय वस्तुग्राही , व्यवहारनय अंशग्राहीले, तेमां ज्यारे निश्चयनयनी मुख्यता विवदिए त्यारेनिश्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002166
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1876
Total Pages364
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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