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अध्यात्ममतपरीदा.
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तो ते निर्धन जेवोज होय . एम सचेल साधुविषे पण जाणी लेवु. सर्वथा थ चेल तो ज्यारे स्कंध ऊपरथी देवकुष्य वस्त्र पडे त्यारे तीर्थकर कहेवाय. ॥३॥
एएण जइ अचेला, जिणंद जिणकप्पिाश्या सुम पीता एसोच्चिय मग्गो, णमोत्ति पराकयं वयणं॥३०॥ व्या:- एणेकरी, जिनतीर्थकर तथा जिनकल्पिप्रमुख अचेला, तेथी एज मार्ग उत्तम ; अने स्थिविरकल्पनो मार्ग उत्तम नथी : एम कहेनारानुं निराकरण कयुं. कारणके, जे जिनकल्पीछे ते पण एकांते अचेला नथी. केमके, जे जिनकल्पीने पात्रनी लब्धि होय, हाथ बिरहित श्रया होय; किंतु वस्त्रनी लब्धि न होय ते ओमांना कोइएकने रजोहरण, मुहपति, तथा एक कल्पक ए त्रण नपधि होय ने ; कोइकने रजोहरण, मुहपति, तथा बे कल्पक मत्ती चार उपधि होय : को इकने रजोहरण, मुहपति, तथा त्रण कल्पक मनी पांच उपधि होय; जेने व स्त्रनी लब्धि होय, किंतु पात्रनी लब्धि न होय तेने सप्तविध पात्रनिर्योग, रजोह रण, तथा मुहपती मली नव उपधि होय ; जेने बन्ने लब्धिमांनी एके लब्धि न होय तेश्रोमांना कोकने सात पात्रा, रजोहरण, मुहपती तथा एक कल्पक मली दश उपधि होयडे; कोकने सात पात्रा, रजोहरण, मुहपति तथा बे कल्प क मली अग्यार उपधि होयडे, अने कोश्कने सात पात्रा, रजोहरण, मुहपति, तथा त्रण कल्पक मली बार नपधि होय. अर्थात पोतानी शक्तिने अनुसारे उप धि होय. अने जेने बन्ने लब्धीयो होय तेने पण रजोहरण तथा मुहपति ए बे उपधि तो निश्चयथी होय. एवो नियम. ॥ ३० ॥
जिएकम्मेव य कम्मं, जश् काय त तुहं श्दयं ॥
ग्वएस सिस्स दिका, गुरुवयणाईदि किं कज्जं ॥३१॥ व्या:- जो तमे कहेशो के, जे कार्य जिनेश्वरे नथी कत्युं ते अमारे पण क र नथी ! त्यारे धर्मोपदेश, शिष्य, दीदा, तथा गुरुवचनादिकनुं तमारे मु उप योग जे ! जेम नगवंते ज्ञान उपना पनी धर्मोपदेश दीधो , किंतु केवलज्ञाननी पूर्वे कोईने उपदेश कस्यो नथी; तेम तमारे पण केवसझान उत्पन्न थाय त्यारेज उपदेश करवो जोये. तेनी पूर्व कांई पण धर्मोपदेश प्रमुख करवू जोईये नही वारु !!! ॥३१॥
पिरतिसयाणं कप्पो, थेरापदिन अि तव ॥ पमिवज्जन जिणकप्पं, पंचदि तुलणाइ जुत्तो तो॥ ३२॥ ..
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