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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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स्वर्गीय श्रीमती रतनदेवी
{ Fans feat 17-10-8) धर्मपत्नी श्री धरमचन्दजी पापडीवाल की
पुण्य-स्मृति मे धर्म-साधना हेतु सप्रेम भेंट
पापडीवाल कॉटेज
अजमेर रोड,
जयपुर ।
फर्मपालीवाल ग्रादसं
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॥ॐ॥
। जैन स्तोत्र पूजा पाठ संग्रह
[ दैनिक एवं पर्व के दिनों में करने योग्य
सभी पूत्रानो व पाठों का मान
प्रकाशक
वीर पुरतक भण्डार मनिहारो का रास्ता, जयपुर-३
(राजस्थान)
हरिश चन्द्र ठोलिया
15. नवजीवन उपवन, मोती डू गरी रोड, जयपुर-4
परिवदित संस्करण
- art-दर्शन
मूल्य २० १६-.. जयपुर
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प्राप्ति स्थान
वीर पुस्तक भण्डार
मनिहारी का रास्ता, जयपुर-३ ( गज०) [ फोन ७३५२५, निवाम ७६६६७ ]
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वीर
पुस्तक
मन्दिर
श्री महावीरजी, जिला-मवाई माधोपुर
( राजस्थान )
--
मुद्रक
श्री वीर प्रेम
मनिहारो का रास्ता, जयपुर - 3
कृपया सशोधन करके पढ़ें ।
पृष्ठ १५० - पक्ति १४ वी मे धूप की जगह दीप पढ़ें उसके बाद पढे दश विधि ले घूप बनाय, तामे गध मिला ।
तुम सन्मुख खेऊ प्राय, ग्राठो कर्म जला । चादन० ॥ धूप ||
पृष्ठ १५१--१क्ति २० वी के बाद पढ़ें ।
ॐ ह्री महावीर जिनाय वैशाख शुक्लादशम्या केवलज्ञानप्राप्तायाध्यं ।
कार्तिक जु श्रमावश कृष्ण, पावापुर ठाही ।
भयो तीनलोक मे हर्ष, पहुॅके शिव माही || चादन० ॥
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२९
३६
विषय-सूची क्रम स०
'पृष्ठ सं. १. मङ्गलाचरण
२ अभिषेक पाठ 1 • लघुपञ्चामृताभिक भाषा ४ विनय पाठ । पृ७ ५ पूजन प्रारम्म । .६ देव शास्त्र गुरु की भाषा पूजा ७ देवशास्त्रगुरुपूजा (श्रीयुगलजी कृत)
। १७ ८ वीस तीर्थङ्कर भाषा पूजा । ९ देरशास्त्रगुरु, विद्यमान तीर्थकर एवं सिद्धपूजा (समुच्चय) २६ १० तीस चौबीसी का अर्थ
२८ ११. विद्यमान वीस तीर्थकर का अर्ष
२६ १२ कृत्रिम व अकृत्रिम चैत्यालयो का अर्थ १३ सिद्धपूजा द्रव्याष्टक । १४ सिद्धपूजा का भावाष्टक १५ सिद्ध चक्र पूजा (पष्ट करम करि०) १६ समुच्चय चौवीसी पूजा १७ सित पूजा (परमब्रह्म-द्यानतराय कृत) । ४३ १८ सिद्ध पूजा (स्वय सिद्ध जिन-कवि लाल कृत) । । ४७ १६. निर्वाण क्षेत्र पूजा पृ ५१ २० सप्तऋषि पूजा ५४. २१. सोलह कारण पूजा पृ ५८ २२. पञ्चमेरु पूजा २३. नन्दीश्वर द्वीप (अष्टाह्निका) पूजा । २४ दश लक्षण धर्म पूजा २५ रत्नत्रय पूजा (समुच्चय) २६ दर्शन पूजा पृ. ७६ २७ ज्ञान पूजा ७८ २८ चारित्र पूजा पृ.८० २६ देव पूजा (प्रभु तुम)८२ ३. सरस्वती पूजा पृ ५५ ३१ गुरु पूजा ८८ ३२. अकृत्रिम चैत्यालय पूजा ३३. श्री ऋषि मण्डल पूजा ३४ तीस चोवीसी की पूजा
१०५
६४
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क्र स०
( ख )
३५ रविव्रत पूजा
३६ श्रीश्रादिनाथ पूजा ( नाभिराय मरुदेवि के ) ३७ पचवालयती तीर्थङ्कर पूजा ३८ पचपरमेष्ठी पूजा पृ १२३ ४०. श्रीशान्तिनाथ पूजा पृ १३२ ४२ श्रीपार्श्वनाथ पूजा
पृष्ठ म०
११०
११५
११६
१२७
१३६
१४०
१४५
१४६
१५४
१५८
१६४
४६ श्रीचपापुर सिद्धक्षेत्र पूजा पृ १६६ । ४६ श्रीगिरनार पूजा १६६ ५० श्रीपावापुर सिद्ध क्षेत्रपूजा पृ १७२ । ५१ श्रीवाहुवली पूजा १७४ ५२ नवग्रह अरिष्ट निवारक पूजा
१७८
५३ कलिकुण्ड पार्श्वनाथ पूजा पृ १५१ । ५४ रक्षावधन पूजा १८६ ५५ सलूना पर्व पूजा
१८६
५६ चौसठ ऋद्धि (समुच्चय) पूजा
३६ श्रीचन्द्रप्रभ पूजा ४१ श्रोनेमिनाथ पूजा
४२ श्रीपद्मप्रभ पूजा (० क्षेत्र पद्मपुरा क्षेत्र स्थित )
४४ चांदनगाँव महावीर पूजा (श्रीमहावीर क्षेत्र स्थित ) ४५. श्रीचन्द्रप्रभ पूजा (प्र० क्षेत्र देहरा- तिजारा स्थित ) ४६ सिद्धक्षेत्र श्रीसम्मेद शिखर पूजा ४७ श्रीकैलागिरि पूजा
१६२
५= महा प्रघं १९६
२०१
२०२
२०३
२०४
२०७
६४ विसर्जन
२०६
६५ श्री त्रय जिनेन्द (शांतिनाथ चन्द्रप्रभ महावीर जिन) पूज्य २०४ पृष्ठ २१४ पर ( अन्तिम तीन पक्ति गलती से छप गई काट दें
५७ श्रीवर्द्धमान जिन पूजा पृ १६४ ।
५६ पचपरमेष्ठी जयमाला ( प्राकृत ) ६० गान्तिपाठ भाषा
६१ भजन नाथ तेरी पूजा को फल पायो ।
६२ भाषा स्तुति (तुम तरण तारण)
६३ शान्ति पाठ संस्कृत
६६ व्रतो की जायें
६७ आरती
६८. श्री पार्श्वनाथ की स्तुति (तुमसे लागी लगन )
२१५
२१७
२१८
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विषय-सूची सं. नाम पृष्ठ | सं० नाम पृष्ठ
शास्त्रस्वाध्याय का भगला. क | २७ चन्द्रप्रभ चालीसा १ णमोकार मन्त्र
१२८ पहिच्छत्र पानायचालीसा ८७ २ दर्शन पाठ सस्कृत १.२६ सामायिकपाठ भाषा रामचद्र ६. ३ विनती बुधजनजी (प्रभुपतित) २३. निर्वाण काण्ड(गाथा) ९६ ४ दशन पाठ (सफलज्ञेय.) ३ ३१ महावीराष्टक स्तोत्र (संस्कृत) ५ विनती (पहो जगत गुरु०) ५ ३२
(भाषा) १०० ६ पालोचना पाठ
६
३३ बारह भावना (मगतराम) १०१ ७ भाषा सामायिक (काल) १३४ मेरोद्रव्य पूजा(जुगलकिशोर) १०७ ८ निर्धारण काण्ड भाषा
३५ वैराग्य भावना (गैतराग) १०८ ९ मेरी भावना
३६ गुरु स्तुति (वन्दो दिगम्बर)१११ १. समाधिमरण छोटा (गौतम)१९
३७ गुरु स्तुति (ते गुरु मेरे उर) ११३ ११ बारह भावना भूधर (राजा) २१
३८ शातिनाप स्तोत्र (भये पाप) ११४ १२ प्राप्त कालीन स्तुति (वोत.) २२
३६ बौर स्ववन(श्रीमन्महावीर)११५
४. ऋषिमडल स्तोत्र १३. सायकालीन (स्तुति हे सवज्ञ) २३ १४ भावना भजन (भावना दिन) २३
४१. कल्याण मदिर स्तोत्र भाषा १२३ १५ चौबीस तीर्थंकरों के चिह्न २४
१२ एकीभाव स्तोत्र भाषा १२५
४३ जिनवाणी स्तुति १३२० १६ समाधिमरण भाषा (बदो) २५
४४ भजन सिखधक १७ पाश्वनाथ स्तोत्र (नरेन्द्र०) ३५
२५ ४५ मगलाष्टक १८ दुखहरण स्तुति (श्रीपति०) ३६
४६ स्वयभू स्तोत्र भाषा १६ भक्तामर स्तोत्र
४७ वैराग्य भजन (सत साधु) १३६ २० मोक्ष शास्त्र
४८ जिन सहस्रनाम स्तोत्र २१ भक्तामरस्तोत्रभाषा(हेमराज) ६२४९ पखवाडा - २२ सकटहरण स्तुति (हादीन) ६९ ५० विषापहार स्तोत १५६ २३ प्रठाई रासा (वरत मठाई) ७३ ५१ तत्त्वाथ सूत्र हिन्दी। २४ पद्मावती स्तोत्र ७६ ५२ बडी पठाई २५ महावीर चालीसा ८१ ५३ लाडू की विनती २६ पमप्रभ चालीसा २३ ५४ बारह मासा राजुलजी २०७
११६१
१३७
१६६
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शास्त्रस्वाध्याय का प्रारम्भिक मंगलाचरण प्रोकारं विन्दुसयुक्त, नित्य ध्यायन्ति योगिन ।
कामदं मोक्षद चंव, प्रोकाराय नमो नमः ।।१।। अविरल-शब्द-घनौघ-प्रक्षालित-सकल-भूतल-मल-कला । मुनिभित्पासित-तीर्था, सरस्वती हरतु नो दुरितान् ।।२।। अज्ञान--तिमिरान्धाना ज्ञानाञ्जन-शलाकया ।। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरुवे नमः ।।३।।
* श्रीपरमगुरुवे नमः, परम्पराचार्यगुरुवे नम: सकल-कलुष-विध्वंसक, श्रेयमा परिवर्धक,धर्म-सम्बन्धक भव्य-जीव-मनः प्रतिबोध-कारक, पुण्य-प्रकाशकं, पाप-प्ररणाशकमिद शास्त्रं भी · " नामधेय, अस्य मूल ग्रन्थक्त्रः श्री सर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्य कर्तार. श्रीगणधर देवा. प्रतिगणधरदेवास्तेषा वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीकुन्दकुन्दाद्याम्नाये श्री..... विरचित, श्रोतारः सावधानतया शृण्वन्तु ।
मङ्गल भगवान् वीरो, मङ्गल गौतमो गणी । मङ्गल कुन्दकुन्दायो, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।।१।। सवमङ्गल-माङ्गल्यं, सर्व-कल्याण-कारक । प्रधान सर्व-धर्माणां, जन जयतु शासनम् ।।२।।
॥ इति ।
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1
1 *
॥ श्रीतरागाय नमः ॥
* नित्य पूजा *
ॐ नमः सिद्ध ेभ्य. ॐ नमः सिद्ध ेभ्यः ॐ नमः सिद्धो भ्यः परविवि पञ्चपरमगुरु गुरु जिन शासनो, सकल सिद्धि दातार सु विधन विनाशनो । शारद श्ररु गुरु गौतम सुमति प्रकाशनो, मङ्गल कर चउ सङ्घहि पाप परणासनो | पापहि परणासन गुणहि गरुश्रा, दोष भ्रष्टादश - रहिउ । घरि ध्यान कर्म विनाशि केवल ज्ञान प्रविचल जिन लंहिउ । प्रभु पञ्चकल्याणक विराजित सकल सुर-नर घ्यावहीं, त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनंबर जगत मङ्गल गावहो । उदक-चन्दन- तंदुल पुष्पकैश्चरु- सुदीप - सुधूप - फलार्धकः । घवल- मङ्गल गान - रवाकुले जिनगृहे पञ्चकल्याण मह बजे || F ॐ ह्री श्री भगवान के गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पञ्च कल्याणकेभ्योऽघ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
1
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•
अभिषेक पाठ
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श्रीमज्जिन तुम चरण नख, नथ्य कज हित सूरि । विघ्न-शिलोच्चय दलन पवि, नमूं हरन भव भूरि ॥१॥
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अपराजित मन्त्रोऽयं, सर्व-विघ्न-विनाशकं । मङ्गलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मङ्गलं मत ।।
मत्तगयन्द छन्द श्री जिनके पदपंकजको नमि नित्य सही विधि न्हौन प्रसार। ताहित सन्मुख तिष्टत उज्ज्वल द्रव्य सुधार यहां विस्तारै ।। कचन पीठक पै करि स्वस्तिक पुष्प सुगंधित धोकरि हारे । तामपि तोय शिवालय-नायक हो अभिषेक हितार्य सुधार ।।
___ॐ ह्री सिंहपीठे जिनविम्ब स्थापयाम्यहम् ।।। नीर महाशुचि गंधत चदन अक्षत पुष्प सु ले अनियारे । व्यंजन सजुत ले चरु उत्तम दीप धूप फल प्रघं सुधारे ॥ यो वसु द्रव्य तनों करि अर्घ उतारि-उतारि यजो पद थारे। यो मुझ शीघ्र शिवालय वास सा तुम भव्य उबारन पारे । ॐ ह्री स्नपनपीठे स्थित-जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । कृत्रिम और प्रकृत्रिम विम्ब सनातन राजत श्री जिन तेरे । तास तनी नित इन्द्र उपासन ठानत भानत कर्म करेरे ॥ क्षीर समुद्र नदी नद तीरथ तास तनो जल प्रासुक हेरे । कचन कुंभ भरे परिपूरण ल्याय यथाक्रम उत्थित टेरे ॥१॥ कर्मजंजीर जरयो यह जीव शुभाशुभ भोगत ज्ञान न पायो। पं प्रब कालसुलब्धि प्रसाद लह्यो तव दर्शन प्रानन्द प्रायो।। हो तुम कर्मकल विनाशक प्रेम तक इत प्रेरित लायो । हो गुनकार करों अभिषेक घरों शिवनारि समय प्रब प्रायो॥२॥ यो कहि दीप चहो विशिश जोय कियो बहु धूमसु धूपक करो।
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[ ५
धन्य-धन्य जिनराज लोक में वसुविध कर्म जलावन हारे ॥ इति पठित्वा जिनबिम्वस्य सम्मार्जनं करोम्यहम् ।
दोहा - मार्जन, करि वेदी विषे सिहासन परि थापि ।
•
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प्रातिहार्य युत निरख जिन, यजन करो गुन जापि ॥ ॥ पुष्पाजलि ॥
लघुपंचामृताभिषेक भाषा
शुद्ध घृत दुग्ध आदि से पञ्चामृत अभिषेक करना हो तो यह पाठ बोलना अथवा पंचामृत के प्रभाव मे सिर्फ जलधारा से काम लेना । दोहा - श्रीजिनवर चौबीस वर, कुनयध्वांतहर भान । १ श्रमितवीर्यदृगवोधसुख, -युत तिष्ठौ इहि थान ॥
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नाराच छन्द
गिरीश शीस पाडुपे, सचीश ईश थापियो । महोत्सवो अनदकन्दको, सबै तहा कियो || हमे सो शक्ति नाहि व्यक्त देखि हेतु श्रापना |
, यहा करे जिनेन्द्रचन्द्रकी, सुविस्त्र थापना ||
पुष्पाजलि क्षेपणकर श्रीवर्णपर जिनबिम्व की स्थापना करे । कनकमणिमय कुंभ सुहावने, हरि सुक्षीर भये प्रति पावने ।
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हम, सुवामित नीर यहाँ भर, जगतपावन-पाय तर घरं ||३|| पुष्पाजलि क्षेपणकर वेदी के कोनो मे चार कलश स्थापित करें | शुद्धोपयोग समान भ्रमहरु परम सौरभ पावनो । प्राकृष्ट भृङ्ग समूह, गग- समुद्भवो प्रति भावनो ।। मरिकनककुम्भ निशुम्भकिल्विष, विमल शीतल भरि घरों ।
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श्रम स्वेद मल निरवार जिन त्रय धार दे पायर्यान परौ ॥४॥
ॐ ह्री श्रीमत भगवन्त सकलकर्मक्षयार्थ अद्य जलेनाभिषिच्ये । अति मधुर जिनधुनि सम सुप्रीणित प्राणिवर्ग सुभावसो। बुधचित्तसम हरिचित्त नित्त, समिष्ट इष्ट उछावसो॥ तत्काल इक्षुसमुत्थ प्रासुफ रतनकुम्भ विष भरौं । श्रम त्रास ताप विचार जिन त्रय धार देपायनि परौं ।।५।। ___ॐ ह्री श्रीमत भगवन्त सकलकर्मक्षयार्थ अद्य इसरसेन भिषिच्ये । निस्तप्त-क्षिप्त-सुवर्ण-मद-दमनीय ज्यों विधि जैनको। प्रायुप्रदा बलबुद्धिदा, रक्षा सु यो जिय-सैनको । तत्काल मंथित क्षीर उत्थित, प्राज्य मणिभारी भरौं । दीजै अतुलबल मोहि जिन, त्रय धार दे पायनि परौं ॥६।।
ॐ ह्री श्रीमत भगवन्त सकलकर्मक्षयार्थ अद्य घृतेनाभिषिच्ये । शरदभ्र शुभ्र सुहाटका ति सुरभि पावन सोहनो। क्लीवत्वहर बल धरन पूरन, पय सकल मनमोहनो। कृतउष्ण गोथनतै समाहृत मरिणजटितघट मे भरौं । दुर्बल दशा मो मेट जिन त्रय धार दे पायनि परों ॥७॥ ___ॐ ह्री श्रीमत भगवन्त सकलकर्मक्षयार्थ अद्य दुग्धेनाभिषिच्ये । वर विशद जैनाचार्य ज्यो लघुरामलकर्कशता धरै। शुचिकर रसिक मथन विमंथित नेह दोनो अनुसरै ।। गोदधि सुमरिणमृङ्गार पूरन लायकर आगे घरौं । दुखदोष कोष निवार जिन त्रय धार दे पायनि परौं ॥८॥
ॐ ह्री श्रीमत भगवन्तं सकलकर्मक्षयार्थ अद्य दध्नाभिषिच्ये ।
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सर्वोषधी मिला के, भरि कंचन भृङ्गार ।
जर्जी चररण श्रय धार दे, तारतार अवतार ||६||
ॐ ही श्रीमत भगवन्त सबलमायार्थमय सर्वोपधिभ्यामभिषिच्ये ।
विनय पाठ
दोहा
इह विधि ठाडो होय के प्रथम पढे जो पाठ | धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशे कर्म जुम्राठ ॥१॥ अनन्त चतुष्टय के धनी, तुमही हो सिरताज । मुक्तिव के कंय तुम, तोन भुवन के राज ॥२॥ तिहुं जरा को पोड़ा हरम भवदधि शोषणहार । ज्ञायक हो तुम विश्व के, शिव सुख के करतार ||३|| हरता प्रघ-प्रधियार के, करता धर्म प्रकाश । थिरतापद दातार हो धरता निज गुण राश ॥४॥ धर्मामृत उर जलधिसो, ज्ञान- भानु तुम रूप । तुमरे चरण सरोज को, नावत तिहू जग भूप ॥५॥ मैं बन्दों जिनदेव को, कर प्रति निर्मल भाव । कर्मबंध के बने, पोर न कछू उपाव ॥६॥ भविजन को भवकूपते, तुमही काढनहार । दीनदयाल अनाथपति, प्रातम गुरण भडार ॥७॥ चिदानद निर्मल कियो, धोय कर्म रज मैल 1 सरल करो या जगतमे, भविखनको शिव गैस || 5 || तुम पद पंकज पूजतें, विघ्न रोग टल जाय ।
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भत्रु मित्रता को घरे, विष निरविषता याय 11 It चनी सगर इन्द्रपन, मिनं प्रापर्ने प्राए । अनुक्रम कर मिश्पद लह, नेम सनन हनि पाप ॥१०॥ तुन दिन में व्याकुल नरो, जो इन दिन मीन । जन्म रा मेरी हरो, करो गेहि स्वाधीन ॥१॥ पतित बहुत पावन न्येि, गिन्ती कौन करेव । अंजन ने तारे प्रदू, जर जय जय जिनन ॥१२॥ थनी नाव नरि मि, तुम उनु पार करे। देवड़िया नुन हो प्रभू, जय जय जय जिनदेव ॥१॥ राम सहित जग में नल्यो, निले नरागी देव । वीतराग नेन्गे अर, नेटो सग कुव ॥१४॥ स्ति निगोर ति नासो, रित तिच प्रजान । प्राज वन्य मानुष भयो पायो जिनवर पान ॥१५॥ तुनको पूरे सुरपती, प्रपिति नरपति देव । उन्य भाग मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव ॥१॥ अगरण के नुन गरण हो, निरागर प्राचार । नै त भत्रि में, बेर लगानो पार ॥१४ इन्द्रादिन गणपति थने, कर हिननी भगवान । अरनो विन्द निहान्ने, को श्राप समान ॥१८॥ मर्ग क मुटिन जग उनन है पर ।
हा यो कान हूँ के निहार निझार ॥१६॥ सो रहा और हों, तो न दि ग्वार ।
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मेरी तो तोसौं बनी, तातै करों पुकार ॥२०॥ वन्दौं पांचो परम गुरु, सुर गुरु वन्दत जास । विघ्न हरन मगल करन, पूरन परम :प्रकाश ॥२१॥ चौबीसो जिनपद नमो, नमो शारदा माय ।
शिवमग साधक साधु नमि, रच्यो पाठ सुखदाय ॥२२ अन्य पोवोहिणकदेव-( पुष्पाजलि क्षेपण करें ) स्तव समेतश्लीज वदनाथाम् पूर्वाचार्या नुक्रमे मकलकर्म सयार्थ भाग जन प्रारम्भ प्रतिज्ञा कात्सिर्ग ॐ जय जय जय ! नेमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु । · कर
णमो अरिहतारण, रणमो सिद्धारण, रणमो-पाइरियारण । णमो उवज्झायारणं, णमो लोये सव्वसाहूण ॥१॥
ॐ ह्रीं अनादिमूलमत्रेभ्यो नमः । (पुष्पांजलि क्षेपण करना ) चत्तारि मङ्गल-अरिहता,मङ्गल, सिद्धा मङ्गलं, साहू मङ्गल, केवलिपण्णत्तो. धम्मो मङ्गल । चत्तारिलोगुत्तमा-अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहूलोगुत्तमा, केलिपण्णतो धम्मो लोगुत्तमो चत्तारि . सरण पव्वज्जामि-परिहते सरणं पध्वजामि, सिद्ध। सरण पन्वज्जामि, साहू सरण पन्यज्जामि, केलिपणत्त धम्म मरणं पन्चज्जामि ।। ॐ नमोऽहते स्वाहा ..... - - - (पुष्पाजलि ) • . अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोपि वा ।
ध्यायेत्पञ्चममस्कार, सवपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ ." -अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपिवा 17 ' .. त्यः स्मरेत्परमात्मानं स ,बाह्याभ्यन्तरे शुचिः ॥२॥
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१. ]
अपराजित-मन्त्रोऽय सर्वविघ्न-विनाशनः । मङ्गलेषु च सर्वेषु प्रथम मङ्गल मतः ।।३।। एसो पञ्च रामोयारो सवपावप्परणासपो । मङ्गलारण च सवसि पढम होइ मंगल ।।४॥ अहमित्यक्षरं ब्रह्म-वाचक परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्वीज सर्वतः प्रणमाम्यह ॥५॥ कर्माष्टकविनिमुक्तं मोक्षलक्ष्मी-निकेतन । सम्यक्त्वादिगुणोपेत सिद्धचक्र नमाम्यह ।।६।। विनोधाः प्रलय यान्ति शाकिनी-भूतपन्नगाः । विष निविषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे । ७॥
(यहा पुष्पाजलि क्षेपण करना चाहिये ) । यदि अवकाश हो तो यहाँ पर सहस्रनाम पढकर दश अर्घ देना चाहिये, नही तो नीचे लिखा श्लोक पढकर एक अर्घ चढावें।] उदक-चन्दन-तदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्धकः । धवल-मगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाथमह यजे ।। ॐ ह्री श्री भगवज्जिन-सहस्रनामेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
॥स्वस्ति मगल । श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवद्य जगत्त्रयेशं, स्याद्वाद-नायकमनंतचतुष्टयाहम् । श्रीमूलसङ्घ-सुद्दशां सुकृतकहेतुजैनेन्द्र-यज्ञ-विधिरेष मयाऽभ्यधायि ॥६॥ स्वस्ति त्रिलोकगुरुवे जिनपुङ्गवाय, स्वस्ति-स्वभाव-महिमोदय-सुस्थिताय । स्वस्तिप्रकाश-सहजोज्जितहड मयाय, स्वस्ति प्रसन्न-ललिताद्भुत-वैभवाय ॥१०॥
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स्वस्त्युच्छल द्विमल-बोध-सुधाप्लवाय, स्वस्ति स्वभाव- परभावविभासकाय, स्वस्ति त्रिलोक- विततै कचिदुद्गमाय, स्वस्ति त्रिकाल सकलायत विस्तृताय ॥। ११॥ द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूप, भावस्य शुद्धिर्माधिकामधिगतुकामः । श्रालवनानि विविधान्यलयम्ब्य वलगढ़, भूतार्थयज्ञ-पुरुषस्य करोमि यज्ञ । १२ । श्रहंत्पुराण- पुरुषोतम पावनानि वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेकएव । श्रस्मिन् ज्वलद्विमल केवल बोधबह्नौ, पुण्य समग्रमहमेकमना जुहोमि ।।१३॥
ॐ ह्री विवियज्ञ - प्रतिज्ञानाय जिनप्रतिमाये पुष्पाजलि क्षिपेत् । श्री वृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्री श्रजितः । श्री संभवः स्वस्ति, स्वस्ति श्री श्रभिनन्दनः । श्री सुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्री पद्मप्रभः । श्री सुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्री चन्द्रप्रभः । श्री पुष्पदन्तः स्वस्ति, स्वस्ति थी शीतलः । श्री श्रेयासः स्वस्ति, स्वस्ति श्री वासुपूज्यः । श्री विमलः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अनन्तः । श्री धर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्री शान्तिनाथः । श्री कुन्युः स्वस्ति, स्वस्ति श्री प्ररनाथः । श्री मल्लिः स्वस्ति स्वस्ति श्री मुनिसुव्रतः । श्री नमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्री नेमिनाथः । श्री पार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्री वर्द्धमानः ॥ ( पुष्पाजलि क्षेपण करें )
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१२ ]
नित्याप्रकम्पाद्भुत - केवलौघाः स्फुरन्मनः पर्यय-शुद्धबोधाः । दिव्यावधिज्ञानबलप्रबोधाः स्वस्ति क्रियासु . परमर्षयो नः ॥ १ ॥ ( यहा से प्रत्येक श्लोक के अन्त मे पुष्पाजलि क्षेपण करना चाहिये ) कोष्ठस्थ-धान्योपममेकबीज सभिन्न सश्रोतृ-पदानुसारि । चतुविध बुद्धिवल दधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः | २ | संस्पर्शन सश्रवरण च दूरादास्वादन प्रारणविलोकनानि । दिव्यान् मतिज्ञान वलाद्वहता स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः। ३ प्रज्ञा-प्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः प्रत्येकबुद्धाः दशसर्वपूर्वैः । प्रवादिनोऽष्टाङ्ग निमित्तविज्ञा. स्वस्ति क्रियासु परमर्षयो नः४ जङ्घावलि श्रेणि फलाम्बु-तंतु-प्रसून बीजांकुर चारणाह्वा । नभोऽङ्गरण- स्वर - विहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो न. ५ परिणनि दक्षाः कुशला महिम्निः लघिम्नि शक्ता. कृतिनो गरिणि मनोवपुर्वाग्वलिनश्च नित्य स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो न. ६ सकामरूपित्त्वव शिव मेश्य प्राकाम्यमंतद्विमथाप्तिमाप्ता. । तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाः स्वस्ति क्रियासु परमषयो न ॥७ दीप्त च तप्त च तथा महोग्र घोर तपो घोरपराक्रमस्थाः । ब्रह्मापर घोरगुरणा श्चरतः स्वस्ति क्रियासु परमर्षयो न 15 श्रामर्षसर्वोषधयस्तथाशीविषविषा दृष्टिविष विषाश्च । सखिल्ल विड्- जल्ल मलौषधीशा स्वस्ति क्रियासु परमर्षयोन 8 क्षीर स्रवतोऽत्र घृत स्रवन्तो मधुस्रवन्तोऽप्यमृत लवन्तः । प्रक्षीणसवास महानसाश्च स्वस्ति क्रियासु परमर्षयो न. ( इति पुष्पाजलि ( [ इति परम ऋषि स्वस्ति मगल विधान ]
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देव-शास्त्र-गुरु की भाषा-पूजा
[कवि द्यानतराय कृत । (अडिल्ल छन्द)-प्रथम देव अरिहन्त सुश्रुत सिद्धान्तजू ।
गुरु निर्ग्रन्थ महन्त मुकतिपुर पथजू ।।
तीन रतन जग माहि सो ये भवि ध्याइये। ___. .. तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाइये ॥१॥ दोहा-पूजौं पद अरिहन्त के, पूर्जी गुरुपद सार ।
. पूजौं देवी सरस्वती, नित प्रति प्रष्ट प्रकार ।। ॐ ह्री देव-शास्त्र-गुरु समूह । अत्र अवतर अवतर सवौषट् आह्वानम् । ॐ ह्री देवशास्त्र गुरु समूह । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । ॐ ह्री देवशास्त्र गुरु समूह । अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् ।
॥ गीता छन्द ।। सुरपति उरगनरनाथ तिनकर, वन्दनीक सुपदप्रभा । अति शोभनीक सुवर्ण उज्ज्वल, देखि छवि मोहित सभा ।। वर नोर क्षीरसमुद्र घट भरि, अग्न तसु बहुविधि नचूं। अरिहत श्रुत सिद्धान्त गुरु, निम्रन्थ नित पूजा रचूं। .. दोहा-मलिन वस्तु हर लेत सब, जल स्वभाव मल छीन ।
जासों पूर्जी परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ॐ ह्री देव-शास्त्र गुरुभ्यो जन्म जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्व० । जे त्रिजग उदरं मंझार प्रारणी, तपत अति दुद्धर खरे । तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ।। तसु भ्रमर लोभित प्राण पावन, सरस चदन घसि सच्। मरिहत श्रुत सिद्धान्त गुरु निम्रन्थ 'नित 'पूजा रचू।।
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~~~~~~~~~~..... दोहा-चन्दन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन ।
जासो पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ॐ ह्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो ससार-ताप-विनागनाय चन्दन निर्व० । यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई । अति दृढ परमपावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ।। उज्ज्वल प्रखडित सालि तदुल, पुञ्ज घरि त्रयगुण जचू । अरिहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्गन्थ नित पूजा रचू॥ दोहा-तदुल सालि सुगध अति, परम अखण्डित बीन ।
जासो पूर्जी परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥३॥ ॐ ह्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षत निर्व० स्वाहा ॥३॥ जे विनयवत सुभव्य उर, अबुज प्रकाशन भान हैं। जे एक मुख चारित्र भाषित त्रिजग माहिं प्रधान है ।। लहि कुन्द कमलादिक पहुप, भव भव कुवेदन सो बचू ।
अरिहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निम्रन्थ नित पूजा रचू। दोहा-विविध भाति परिमलसुमन, भ्रमर जासु प्राधीन ।
___जासौं पूर्जी परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥४॥ ॐ ह्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्पं निर्व० स्वाहा । प्रति सबल मदकंदर्प जाको, क्षुधा उरग अमान है। दुस्सह भयानक तासु नाशनको, सु गरुड़ समान है ।। उत्तम छहो रस युक्त नित, नैवेद्यकरि घृत मे पचूं। अरिहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचू ॥
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স্বী-নানাবিযি মুগ, যেসন নয়ন।
जासों पूजी परमपद, देव गार गुरुतीन ॥५॥ हो देशमा मगरको गारोगाAmir fito AII जे निजग राम नाग कोने, मोतिमिर ली। तिहि कर्मघाती मानीप, प्रभाग ज्योति प्रभावलो ।। सहभाति खोप प्रशास, कंचन सुभाजन में । प्रारहन्त प्रत सिद्धान्त गुरु निर्णय नित पूग ५ । दोहा-स्यपर प्रशासक ज्योति मति, दीपक तमकर होन ।
जामों पूजी परम्पद, देय शास्त्र गुस्तीन ॥६ हो देगा मान्यों मंगानाNAEE Oifte me जे कम-इंधन दरन अग्नि, समूह मम उरत समं । पर पतामु सुगन्य ताकरि, सरल परिमलता हंसे ।। हि भाति पूर पढ़ाय नित, भवग्जवलन माही नहिं प। प्ररिहन्त शुसिद्धान्त गुरु निन्य नित पूजा रचू। दोहा-प्रग्नि माहिं परिमल दहन, बन्दनादि गुणानीन ।
जासों पूओं परमपद, देव शास्त्र गुरु नौन ॥७॥ ही मनायगुगन्यो अष्टरमपहनाय पूर्ण नियं• गया II लोचन सु रमना प्राण उर, उत्साह के करतार हैं। मोपं न उपमा जाय वरपी, सकस फस गुणसार हैं। सो फल चढायत प्रमंपूरन, परम प्रमृतरस स। अरिहन्त भुत सिदान्त गुरु निन्य नित पूना रचू॥
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दोहा-जे प्रधान फल फलविर्ष. पञ्चकरण रस लीन ।
जातो पूर्जी पर पद देव शास्त्र गुर तीन । ८।।
ही देवमात्यो मन्नार निव स्वाहा !! जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत पुष्प वर दोपर धरूं । वर उप निर्मल फन विविध. बह जन्म दे पातर हरू । इह भांति अर्थ नहाय नित भवि करत शिवपति न चरिहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्जन्य नित पूजा र । दोहा-वनुविधि अर्ध नंगेर ने. पति ज्वाह मन कीन ।
जातो पूजो परमपद, देव शास्त्र गुर तीन ॥६॥ हे देशाला त्यो चनदान नि स्वाहा ।।
देव शास्त्र गुर रतन शुभ, तीन रतन करतार । मित्र भिन्न रहुँ पारतो अल्प सुगुण विस्तार ॥१॥
जरि बन्द। मनको ३० प्रति नाशि, जोते अष्टादश दोषराशि । जे परमगुण है अनंत धीर. रत के छयाल्सि गुण गंभीर शुभ सम्वतरण शोभा अपार, शत इन्द्र मत कर शोतवार । देवाविव परिहंत देव, बन्दो मन-वच-तनकरि सुसेव ।।३।। जिनकी धुनि ह ओंकार रूर निर पक्षरमय महिला अनूप । दशष्ट महाभाषा समेत. लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥४॥ सो स्याहारमय सप्त भङ्ग, गणवर गूथे बारह तु पन। रवि शशिन हरसोतम हराय, सो शास्त्र नमो बहु प्रीति ल्या
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गुरु धानारज व्यसाय साथ, तन नगन रत्नत्रय निधिपाय |
ससार देह वैराव्य घार, निरयांद्रित शिवपद्य निहार ॥६॥ गुरा छत्तिस पति पाठ चीत, भवतारमन्तरन जानई । गुरको महिमा चरनी न जाप, गुरुनान जयौ मन-वनन- काय ॥७
कोक्ति प्रमान गति बिना श्रद्धा परं । 'जात' वान प्रजरभ्रमर-यव भोगये || श्रीजयम नियंति
देव-शास्त्र-गुरु- पूजा ( श्री युगलजी कृत )
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केवल रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है मन्तर । उस श्री जिनवाली में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन ॥ सद्दर्शन-बोध-रन-पथ पर, मिजो बचते मुनिना । उन देव परम श्रागम गुरु को शत-शत पद शत-शत वंदन ॥
1
हो देवा गुरु नमः ।
पट् ।
* ही देवार-गुरुग ! यष्टि स्थापनम् । ॐ मी देवानम्ह पन गन गरिदियो भव भय वषट् ।
1
प्रयाष्टक |
इन्द्रिय के भोग मधुर विप सम, लावण्यमयो' कचन फाया | यह सब कुछ जटको क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ॥ १ सुन्दर ।
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१८ ]
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मै भूल स्वय के वैभव को, पर ममता मे ग्रटकाया हूँ अव सम्यक् निर्मल नीर लिये, मिथ्या-मल घोने ग्राया हूँ || ॐ ह्री श्रीदेव-शाम्न गुरुभ्य मिथ्यात्वमन्न विनाशनाय जल नि० । जड़ चेतन की सब पररगति प्रभु ! अपने अपने मे होती है । अनुकूल' कहे प्रतिकूल' कहे, यह झूठी मन की वृत्ती है ॥ प्रतिकूल सयोगो मे क्रोधित होकर लमार वढाया है । सतप्त हृदय प्रभु 1 चदन नम, शीतलता पाने आया है || ॐ ह्री श्रीदेव-शास्त्र गुरुभ्य कोवकपायमल विनाशनाय चन्दन नि० 1 उज्ज्वल हूँ कुन्द' घदल हूँ प्रभु। परसे न लगा हूँ किचित् भी । फिर भी अनुकूल लगे उन पर करता अभिमान निरतर ही ।। जड़पर झुकझुक जाता चेतन, की मादंव की खडित काया । निज शाश्वत अक्षत निधि पाने, अव दास चररणरज मे प्राया ।। ॐ ह्री श्रादेव शास्त्र - गुरुभ्य मानकपायमल- विनाशनाय प्रक्षत नि० । यह पुष्प सुकोमल कितना है, त मे माया' कुछ शेष नहीं । निज अन्तर का प्रभु । भेद कहूँ, उसमे ऋजुता का लेश नहीं ॥। परचतन कुछ फिर सभापरण 'कुछ, किरिया कुछको कुछ होती है । स्थिरता निज मे प्रभु पाऊँ जो, ग्रन्तर का कालुष घोती है " ॐ ह्री श्रीदेव-शास्त्र-गुरुम्य मायाकपायमल- विनाशनाय पुप्पम् नि० । अब तक अगणित जड द्रव्यों से, प्रभु भूख न मेरी शात हुई || तृष्णा को खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही ।
५
1
१ अच्छा । २ वुरा । ३ एक श्वेत पुष्प | ५ अविनाशी । ६ कुटिलाई ८ सरलता । ८ वचन ।
४ निरभिमानता ।
खाली 1
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युग युग से गागर मे, प्रभु! गोते नाता amil पन्द्रिय मनपदास' नभनुपार म पीने लाया। लो -
T ETTERfault. जग के दीपाको अग्रता, समभा था मैने उनिगारा । मन्त्रा' नामोरे में, जो यन्ना प्रारनिमियाग। प्रतएप प्रमा! यह नश्पर चार, समपरा मनाया तेरी नानोमन पनर जलाने प्राण ॥
श्रीश्रीरामपE CfETAmarta जामं घुमाता मुभतो. यह मिया सानि नही मेरी। में राग किया परता, जब परिहातो मेरी यो नाप-करम मा भार-गण. माइयों में फरता प्राया। निज प्रनुपम गंध प्रनम' में प्रभु! परगजनाने या *सोपीय-शाम-गुम्यो माffi.fr पम् 1101 जग मे निमको निज पहना मैं वो मुझे चन देता है। मैं प्रानुन शाकुन हो रोता ग्यास हा फार यापु का। मैं गान्त निराल चैता हूँ.है कि रमा महचर मेरी। यह मोह तरफफर टूट परे, प्रभु ! मायंफ फन पूजा तेरी। *जी प्रौदेव-गास्त्र-गगन माप प्रानो कम्। क्षणभर निज ममो पो चेतन, मियामलप्तो पो देता है। कापायिफ माय यिनप्ट किये, निज प्रानन्द अमृत पीता है।"
-न्द्रिय व
मावि २-पौधी सेवसाग ४-गग्योति ५-६-पारण पीगि ७-माधिमा परिणमि।
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[२१ (मन-मचन- काय) मानस-वारणी अरु काया से, प्राश्रव का द्वार खुला रहता ॥ शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल । शीतल समकित किरणे फूटें, संवर' से जागे अन्तर्वल ॥ फिर तपकी शोधक बह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें। सर्वाङ्ग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निझर फूट पड़ें। हम छोड चलें यह लोक" तभी, लोकांत विराजे क्षरण मे जा। निज लोक हमारा वासा हो शोकात बनें फिर हमको क्या ? जागे मम दुर्लभवोषि" प्रभो ! दुर्नयतम सत्वर टल जावे। बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर-मोह विनश जावे ॥ चिर-रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जग मे न हमारा कोई था, हम भी न रहे जग के साथी ।। चरणों में पाया हूँ प्रभुवर!, शीतलता मुझको मिल जावत मुर्भाई ज्ञान-लता मेरी, निज अन्तरबल' से खिल जावे ॥ सोचा करता हू भोगो से, बुझ जायेगी इच्छा ज्वाला। परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक मे घी डाला ॥ तेरे चरणो की पूजा से, इन्द्रिय-सुख की ही अभिलाषा । अब तक न समझ ही पाया प्रभु! सच्चे सुखकी भी परिभाषा ।। तुम तो अविकारी हो प्रभुवर! जग मे रहते जग से न्यारे । प्रतएव झुकें तव चरणो मे, जग के मारिणक-मोती सारे ॥ स्याद्वावमयी तेरी वाणी शुधनय के झरने झरते हैं।' इस पावन नौका पर लाखों, प्रारणी भव-वारिधि तिरते हैं । -आत्म पुरुषार्थ २-अग्नि ३-भागम
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ॐ ह्री विद्यमानविंशति-तीर्थकरा । अत्र अवतरत अवतरत सवौषट् ॐ ह्री विद्यमानविंशति तीर्थकुरा । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ ठ । ॐ ह्री विद्यमानविंशतितीर्थङ्करा । अत्र मम सन्निहिता भवत २ वषट्
इन्द्र फरणीन्द्र नरेन्द्र वद्य, पद निर्मल धारी । शोभनीक संसार, सारगुरण हैं अविकारी ।। क्षीरोदधि सम नीरसो,(हो) पूजो तृषा निवार । सीमंधर जिन प्रादि दे बीस विदेह मझार ।।
श्री जिनराज हो भवतारण-तरण जहाज ॥१॥ ॐ ह्री विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्य जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि० ( इस पूजा मे वीस पुञ्ज करना हो, तो इस प्रकार मत्र वोलना
ॐ ह्री सीमघर-युगमधर-बाहू-सुवाह-सजातक-स्वयप्रभऋपभानन-अनतवीर्य-सूरीप्रम-विशालकीर्ति-वज्रधर-चद्राननभद्रबाहु-भुजङ्गम-ईश्वर-नेमिप्रभ-चीरसेन-महाभद्र-देवयशोऽजित वीर्येति विंशतिविद्यमान तीर्थङ्करेभ्य जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि तीन लोक के जीव, पाप प्राताप सताये । तिनको साता दाता, शीतल वचन सुहाये ।। वावन चदन सो जज (हो) भ्रमन-तपन निरवार । सीमघर ॐ ह्री विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो भवाताप-विनाशनाय चदन नि । यह संसार अपार, महासागर जिनस्वामी। तात तारे बड़ी, भक्ति नौका जगनामी ।। तल मल सुगधसो (हो) पूजो तुम गुरपसार । सीमंघर।३। ॐ ही विद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षत निर्व। भविक-सरोज-विकास, निध-तमहर-रवि से हो। यति श्रावक प्राचार, कथन को तुम ही बडे हो।। फूल सुबास अनेकसो (हो) पूजो मदन प्रहार ।। सोमं ।
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॥अथ जयमाला॥ सोरठा-ज्ञान-सुधाकर चन्द, भविक खेत-हित मेघ हो। भ्रम-तम-भान अमन्द, तीर्थङ्कर बीसो नमो।।
॥चौपाई १६ मात्रा ॥ सोमन्धर सीमन्धर स्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी।' बाहु बाहु जिन जगजन तारे, करम सुबाहु बाहुबल दारे ।। जात सुजात केवल-ज्ञान, स्वयंप्रभू प्रभु स्वय प्रधानं । ऋषभानन ऋषि भानन दोष, अनन्त वीरज वीरज कोषा२। सौरीप्रभ सौरीगुरणमालं, सुगुरण विशाल विशाल दयालं। वज्रधार भव-गिरिवज्जर है, चन्द्रानन चन्द्रानन वर हैं ।३। भद्रबाहु भद्रनिके करता, श्रीभुजङ्ग भुजङ्गम हरता। ईश्वर सबके ईश्वर छाजे, नेमिप्रभ जस नेमि विराजे ॥४॥ वीरसेन वीरं जग जाने, महाभद्र महाभद्र बखाने । नमों जसोधर जसघरकारी, नमो अजित-वीरज बलधारी ।। धनुष पाचौं काय विराज, प्रायु कोटिपूरव सब छाजे । समवसरण शोभित जिनराजा, भव-जलतारन-तरनजिहाना। सम्यक् रत्नत्रयनिधिदानी, लोकालोक-प्रकाशक ज्ञानी। शतइन्द्रनिकरि वदित सोहैं, सुरनर पशु सबके मन मोहै ।७। दोहा-तुमको पूजे वन्दना, करे धन्य नर सोय ।
'धानत' श्रद्धा मन धरै, सो भी धर्मी होय ॥ ॐ ह्री विद्यमानविंशतितीर्थरेभ्यो जयमाला पूर्णाय॑म् णिर्व।
॥ इत्याशीर्वादः॥
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२६ ]
श्री देव शास्त्र गुरु, विदेह क्षेत्रस्थ श्री विद्यमान बोस तीर्थङ्कर तथा श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी की
समुच्चय पूजा दोहा-देव शास्त्र गुरु नमन करि, बीस तीर्थकर ध्याय । • सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमू चित्त हुलसाय ।।
ॐ ह्री श्री देवशास्त्र-गुरुसमूह । श्री विद्यमान विंशति-तीर्थङ्करसमूह | श्री अनन्तानन्त । सिद्धपरमेष्ठी समूह | अत्रावतरावतर सवौषट् अाह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
अष्टक
( चाल-करले करले तू नित प्राणी, श्रीजिन पूजन करले रे।) अनादिकान से जग मे स्वामिन, जलसे शुचिता को माना । शुद्ध निजातम सम्यक् रत्नत्रय, निधि फो नहि पहिचाना ।। अब निर्मल रत्नत्रय जल ले, देवशास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥
ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुमभ्य श्री विद्यमान विंशति-तीर्थकरेभ्य श्री अनन्तानन्त-सिद्ध-परमेप्ठिम्यो जन्मजरा-मृत्यु-विनाशनाय जल नि०। भव आताप न्टिावन की, निज मे ही क्षमता समता है। अनजाने मे अब तक मैने, पर मे की झूठी ममता है । चन्दन सम शीतलता पाने, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्धप्रभु के गुण गाऊ ॥चन्दनार अक्षय पद के विना फिरा, जग की लख चौरासी योनी मे । प्रष्ट कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिग लाया मैं ।।
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[२७ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. अक्षय निधि निज की पाने अब, देवशास्त्र गुरु को ध्याऊं । विद्यमान श्री बोस तीर्थंकर, सिद्धप्रभु के गुण गाजा अक्षत।३ पुष्प सुगन्धी से प्रातम ने, शील स्वभाव नशाया है। मन्मथ वारणो से बिध करके, चहुं गति दुख उपजाया है । स्थिरता निज मे पाने को श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊं। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्धप्रभु के गुण गाऊ ॥पुष्पं। ४ षट रस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शान्त हुई। प्रातम रस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई। भूख सर्वथा मेटन को, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊं। विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ निवेद्य ५ जड़ दीप विनश्वर को भबातक, समझा था मैने उजियारा। निज गुण दरशायक ज्ञान दीपसे, मिटा मोहका अधियारा । ये दीप समर्पित करके मै, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥दीपा६ ये धूप अनल मे खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी। निज मे निज की शक्ति ज्वाला, जो राग द्वेष नशायेगी। उस शक्ति दहन प्रकटानेको, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊं। विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुरण गाऊं ॥धूपं ७ पिस्ता बदाम श्रीफल लवग, चरणन तुम किंग मै ले आया। आतमरस भीने निजगुरण फल,मम मन अब उनमे ललचाया। अब मोक्ष महाफल पाने को श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥फली
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२८ ]
अष्टम वसुधा पाने को, कर मे ये पाठो द्रव्य लिये । सहज शुद्ध स्वाभाविकता से, निज मे निज गुरण प्रकट किये ।। ये अर्घ समर्पण करके मै, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥ध्या
॥ जयमाला ॥ नशे धातिया कर्म अर्हन्त देवा, करै सुरअसुर नर मुनि नित्य सेवा । दरश ज्ञान सुख बल अनन्त के स्वामी, छियालीस गुरणयुक्त महाईश नामी । तेरी दिव्य वारणी सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वसिनी मोक्षदानी। अनेकान्त मय द्वादशांगी बखानी, नमो लोक गाता श्री जैन वारणी ।। विरागी अचारज उवज्झाय साब. दरश ज्ञान भण्डार समता अराधू । नगन वेशधारी सु एका विहारी, निजानन्द मडित मुकति पथ प्रचारी ॥ विदेह क्षेत्र मे तीर्थंकर बीस राजे, बिरहमान बन्दू सभी पाप भाजें। नमूसिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ।। छन्द-देवशास्त्र गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध हृदय बिच धरले रे ।
पूजन ध्यान गान गुरण करके, भवसागर जिय तरले रे॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान-विंशति-तीर्थकरेभ्य. श्री अनन्तानन्त-सिद्ध-परमेष्ठिभ्य जयमाला पूर्णाघ्यं नि० ।
तीस चौबीसी का अर्घ द्रव्य पाठो जु लीना है, अर्घ कर मे नवीना है । पूजता पाप छीना है, "भानुमल" जोर कीना है ।।
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दीप अढाई सरस राज, क्षेत्र दश ता विष छाजै । सात शत बीस जिन राज, पूजता पाप सब भाजे ।
ॐ ह्री पाच भरत, पाच ऐगवत दश क्षेत्र विष तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिन बिम्बेभ्योऽयं निर्व।
विद्यमान बीस तीर्थंकर का अर्घ उदक-चदन-तदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधप-फलार्घकः । धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिनराजमह यजे ॥१॥
ॐ ह्री सीमघर-युगमघर-वाहु सुवाहु-संजातक-स्वयंप्रभ ऋषभानन अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-भुजङ्गमईश्वर-नेमिप्रभ-बीरसेन-महाभद्र-देवयशो-अजितवीर्येति विशतिविद्यमान-तीर्थकरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
कृत्रिम व अकृत्रिम चैत्यालयो के अर्घ कृत्याकृत्रिम-चार-चैत्यनिलयान् नित्य त्रिलोकीगतान् । वन्दे भावनव्यतरान् धुलिवरान् स्वर्गामरावासगान् ।। सद्गन्धाक्षत-पुष्पदाम-चरुकैः, सद्दीप-धूपैः फलैः । द्रव्य!रमुखयंजामि सतत दुष्कर्मणा शान्तये ॥१॥ ॐ ह्री कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालय-सबधिजिनविम्बेभ्योऽयं निर्व० । • वर्षेषु वर्षान्तर-पर्वतेषु नन्दीश्वरे यानि च मन्दरेषु । यावति प्रत्यायतनानि लोके, सर्वारिण बन्दे जिनपुंगवाना।२। अवनि-तल-गतानां कृत्रिमाकृत्रिमारणां,
वन-भवन-गतानां दिव्य-वैमानिकानाम् । इह मनुज-कृताना देवराजाचितानां,
जिनवर-निलयानां भावतोऽह स्मरामि ।।
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[ ३१
कालं अच्चन्ति पुज्जन्ति वन्दन्ति गमस्संति । अहमवि इह सतो तत्थ सताइ रिणच्चकाल प्रच्चेमि पुज्जेमि वन्दामि रणमस्साम । दुक्खक्खो कम्मक्खो बोहिलाहो सुगइगमरण समाहिमरणं जिरगगुणसंपत्ती होउ मज्झ ।।
( इत्याशीर्वाद । पुष्पाञ्जलि क्षिपेत् ) अथ पौर्वाल्लिक देववन्दनाया पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ द्रव्यपूजा-वन्दना-स्तवसमेत श्रीसिद्धभक्ति-कायोत्सर्ग करोम्यहम् । णमो अरिहतारण णमो सिद्धाण गमो पाइरियारण । णमो उवझायारणं, णमो लोए सव्वसाहूरणं ।। ताव काय पावकम्म दुच्चरिय बोस्सरामि। [ इसके अन्तर नो बार णमोकार मत्र का जाप्य करना चाहिये ]
॥अथ सिद्ध पूजा द्रव्याष्टक ॥ • अधिोरयुत सबिन्दु-सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं ।
वर्गापूरितदिग्गताम्बुज-दल तत्सन्धि-तत्त्वान्वितं । अन्तःपत्र-तटेष्वनाहतयुत ह्रींकार-सवेष्टितं ।
देव ध्यायति यः स मुक्ति-सुभगो वैरोभ-कण्ठीरवः ।।
ॐ ह्री श्री सिद्धचक्राधिपते । सिद्धपरमेष्ठिन् । अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ ह्री थी सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिठ ठ ठ । ॐ ह्री श्री सिद्वचक्राधिपते । सिद्धपरमेष्ठिन् पत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् ।
नोट-अगर दोपहर को पूजन करें तो पौर्वाहिक के स्थान पर मध्याह्निक और सायकाल करे तो अपरालिक बोलना चाहिये ।
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निरस्त-कर्म-सम्बन्धं, सूक्ष्म नित्यं निरामयम् । बन्देऽहं परमात्मानममूर्त्तमनुपद्रवम् ॥१॥ [पुष्पाजलिम्]
जिन त्यागियो को विना द्रव्य चढाये भावो के द्रव्यो से ही पूजा करना हो, वे आगे के भावाष्टक को वोलकर करें। अष्टद्रव्य से पूजा करने वालो को भाव पूजा का अष्टक कदापि नही बोलना चाहिये ।
सिद्धौ निवासमनुग परमात्म्य गम्यं, हीनादि-भाव-रहित भव-वीत-काय । रेवापगा-वरसरो-यमुनोद्भवानां नीरैयजे कलशगैर्वर-सिद्धचक्रम् ।।१।। ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल० आनन्दकन्दजनक-धन-कर्म-मुक्त, सम्यक्त्व-शर्म गरिमं जननाति-चीत । सौरम्य-वासित-भुव हरि-चन्दनानां, गन्धर्यजे परिमलैर्वर-सिद्धचक्रम् ॥२॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने ससारतापविनाशनाय चंदन सर्वावगाहन-गुण सुसमाधि-निष्ठ,सिद्ध स्वरूप-निपुरणं कमलं विशालं । सौगन्ध्य-शालि-वनशालि-वराक्षतानां, पुंजर्यजे शशि-निभर्वर-सिद्धचकम् ।।३।। ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने प्रक्षयपदप्राप्तये अक्षत । नित्य स्वदेह-परिमाणमनादि-संज्ञं, द्रव्यानपेक्षममृत मरणाद्यतीतम् । मन्दार-कुन्द-कमलादि-वनस्पतीनां, पुष्पैर्यजे शुभतमैर्वर-सिद्ध-चक्रम् ॥४॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामवाण विध्वसनाय पुष्प० । ऊर्ध्व-स्वभाव-गमन सुमनोव्यपेतं, ब्रह्मादि-बीज-सहितं गग
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नावभासम् । क्षीरान-साज्य-वटकै रस-पूर्ण-गर्भ-नित्यं यजे चरुवरर्वर-सिद्ध-चक्रम् ॥५॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविध्वंसनाय नैवेद्यम् । प्रातक-शोक-भय-रोग-मद-प्रशांतं,निर्द्वन्द्वभाव-घरण महिमानिवेश । कर्पूर-वति-बहुभिः कनकावदाते-र्दीपर्यजे चिवरवर. सिद्ध-चक्रम् ॥६॥ ॐह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीप । पश्यन्समस्त-भुवनं युगपनितांतं, काल्य वस्तु-विषये निविड. प्रदीपम् । सद्व्य-गंध-घनसार-विमिश्रितानां, धूपर्यजे परिमलवर-सिद्ध-चक्रम् ।।७॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपम् । सिद्धासुराधिपति-यक्ष-नरेंद्र-चक्र-ध्येय शिव सकल-भव्य-जनैः सुवद्यम् । नारिंग-पूग-कदलीफल-नारिकेलः, सोऽहं यजे वरफलवर-सिद्ध-चक्रम् ॥६॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फल गंधाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः सग वर चन्दनम् । पुष्पौघ विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरु दीपकम् ।। धूपं गधयुत वदामि विविध श्रेष्ठं-फल लब्धये । . सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तर वांछितं ॥६॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य ० । ज्ञानोपयोग-विमलं विशदात्मरूप, सूक्ष्म-स्वभाव-परमं
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ग्रदनंतवीयं । कमों घ-कक्ष-दहन सुख-शस्य-बीज, वन्दे सदा निरूपम वर-सिद्ध-चक्रम् ।।१०।। ॐ ह्री मिद्धचमाधिपतये गिढपरमेष्टिन महायं नियंपामीति म्वाहा। त्रैलोक्येण्घर-बन्दनीय-चरणा प्रापुः श्रिय शाश्वती । यानाराव्य निगद्ध-चण्ड-मनस मतोऽपि तीर्थडरा. ।। मत्सम्यक्त्व-विवोध-वीर्य विशदाऽव्याबाधताद्यगुणः । युक्तारतानिह तोप्टवीमि सतत सिद्धान् विशुद्धोदयान् ।।
(पुष्पाल)
श्रय जयमाला। विराग मनातन शात निरण, निरामय निर्भय निर्मल हस । सुधाम विवोध निधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह १। विरित-समृति-भाव निरंग, समामृत-पूरित देव विसग । अवध कपायविहीन विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ।२। निवारित-दुष्कृत-कर्मविपाश, सदामल-केवल-कलि-निवास । भवोदधिपारग शान्त विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ।३। अनत-सुखामृत-सागर-धीर, फलक-रजोमल-भूरि-समीर । विखटितकाम विगम विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ४। विकार-विजित तजित-शोक, विवोध-सुनेत्र-विलोकित-लोक विहार-विराव विरग विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ।५। रजोमलखेदविमुक्त विगात्र, निरन्तर नित्य सुखामृतपात्र । सुदर्शनराजित नाथ विमोह, प्रमोद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ।६।
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नरामरवन्दित निर्मल-भाव, अनन्त मुनीश्वर पूज्य विहाव । सदोदय विश्व महेश विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ।७। विदर्भ वितृष्ण विदोष विनिद्र, परापर शकर सार वितन्द्र । विकोप विरूप विशंक विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमह ।। जरामरणोज्झित वीतविहार, विचितित निर्मल निरहंकार । अचित्य-चरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूहा। विवरण विगंध विमान विलोभ, विमाय विकाय विशब्द विशोभ अनाकुल केवल सर्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ।१०। (घत्ता)-असम-समयसार चारुचैतन्यचिह्न, पर-परणति-मुक्त पद्मनन्द्रीन्द्र वंद्य । निखिल गुण-निकेत सिद्धचक्र विशुद्ध, स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिम् ।।११॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महायं । प्रथाशीर्वाद
-अडिल्ल छन्द। अविनाशी प्रविकार परम-रस-घाम हो,
समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त हो,
जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवन्त हो ।।१। ध्यान अग्निकर कर्म कलक सबै दहे,
नित्य निरजन देव सरूपी व रहे। ज्ञायक ज्ञेयाकार ममत्व निवारिके,
सो परमातम सिद्ध नर्मों सिर नायक ॥२॥
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दोहा अविचल ज्ञान-प्रकारात, गुण ग्रनन्त की खान । ध्यान धरै सो पाइये, परम सिद्ध भगवान ॥
___ इत्यागीर्वाद पुप्पाजलि ।
सिद्ध पूजा का भावाष्टक निज-मनो-मरिण-भाजन-भाग्या, शम-रसंक-सुधा-रस-घारया । सकल-बोध-कला-रमरणीयक, महज-सिद्धमहं परिपूजये । सहज-कर्म-फलक-विनाशनरमल-भाव-सुवासित-चन्दन । अनुपमान-गुरगादलि-नायक, सहज-सिद्धमह परिपूजये ।। सहज-भाव-निर्मल-तन्दुले , सकल-दोष-विशाल-विशोधनः । अनुपरोघ-सुबोध-निधानकं, सहज-सिद्धमहं परिपूजये ।। समयसार-सुपुष्प-तुमालया, सहज-कनकरेण विशोषया । परम-योग-वलेन-वशीकृत सहज-म्खिमह परिपूजये ।। अकृत-बोध सुदिव्य-निवेद्यकविहित-जन्म-जरा-मरणातक. । निरवधि-प्रचुरात्म-गुरणालय, सहज-मिद्धमहं परिपूजये ।। सहज-रत्न-रुचि-प्रतिदोपका, रुचि-विभूति-तमः प्रविनाशने । निरवधि-स्वविकाम-विज्ञामनं, सहज-सिद्धमह परिपूजये ।। निज गुणाक्षय-रूप-मुधूपन , स्वगुण घाति-मल-प्रदिनाशनः । विशद-बोध-सुदीर्घ-सुखात्मकं, सहज-सिद्धमह परिपूजये ।। परम-भाव-फलावलि-सम्पदा, सहज-भाव-कुभाव-विशोधया। निज-गुरण-स्फुरणात्म-निरजर्न, सहज-सिद्धमह परिपूजये ।।
नेत्रोन्मीलि-विकास-भाव-निवहैरत्यन्त-बोधाय वै । वागंधाक्षत-पुष्प-दाम-चरुक सद्दीप चूप. फलं.।।
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[३७ यश्चिन्तामरिण-शुद्ध-भाव-परम-ज्ञानात्मकरर्चयेत् । सिद्ध स्वादुमगाव-बोधमचलं सचर्चयामो वयं ॥६॥इति।।
सिद्धचक्र पूजा (अडिल्ल छन्द) प्रष्ट करम करि नष्ट अष्ट गुरण पायक ।
अष्टम वसुधा माहिं विराजे जायके । ऐसे सिद्ध अनन्त महन्त मनायक ।
संवौषट् प्राह्वान करू हरषायक ।। ॐ ह्री सिद्धपरमेष्ठिन् । अत्र अवतर अवतर, सवौषट् । ॐ ह्री सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ ठ । ॐ ह्री सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितो भव भव वपटु ।
छन्द त्रिभगी हिमवनगत गगा आदि प्रभगा तीर्थ उतंगा सरवगा। . प्रानिय सुरसगा सलिल सुरगा, करि मन चगा भरिभृङ्गा। त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अन्तरजामी अभिरामी । शिवपुरविधामी निजनिधि पामी, सिद्धजजामी सिरनामी ।
ॐ ह्री श्री अनाहतपराक्रमाय सर्वकम विनिमुक्ताय सिद्धचक्राधि'पतये जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ हरिचन्दन लायो कपूर मिलायो, बहु महकायो मनभायो । जलसग घसायो रगसुहायो, चरण चढायो हरषायो ।त्रि.२। ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।२। तन्दुल उजियारे शशिदुतिहारे, कोमल प्यारे अनियारे । तुषखड निकारे जलसु पखारे, पुंज तुम्हारे ढिग धारे । त्रि.३
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प्रोटक छन्द सुस सम्यग्दर्शन जान लहा, गुरु-लघु सूक्षम वीर्य महा । अवगाह अवाघ अधायक हो, सब सिद्ध नमो सुखदायफ हो । असुरेन्द्र सुरेन्द्र नरेन्द्र जजे, भुवनेन्द्र खगेन्द्र गणेन्द्र भजे ।
जर जामन मरण मिटायफ हो, सब० ॥३॥ अमलं प्रचल प्रकलं प्रफुलं. प्रहल असल प्ररलं प्रतुल ।
अरलं सरल शिवनायफ हो, सब० ॥४॥ अजर अमर अधर सुघरं, अडर प्रहरं अमर अधर ।
प्रपर असरं सब लायक हो, सब ॥५॥ वृपवृन्द अमन्द न निन्द लहैं, निरदन्द प्रफन्ध सुछन्द रहै।
नित प्रानन्दवृन्द बघायफ हो, सब० ।।६।। भगवत सुसत प्रनतगुणी, जयवंत महंत नमत मुनी।
जगजन्तु-तणे अघधायक हो, स्व० ॥७॥ प्रकलक अटक शुभकर हो निरडक निशक शिवंकर हो।
अभयकर शकर क्षायक हो, सव० ।।८।। प्रतरंग प्ररंग प्रसग सदा, भवभंग प्रभग उतग सदा ।
सरवंग अनग नसायक हो, सब० ॥६॥ ब्रह्मण्ड जु मण्डलमण्डन हो, तिहुँ दडप्रचड विहण्डन हो ।
चिद पिड़ प्रखंड अकायक हो, सब० ॥१०॥ निरभोग सुभोग वियोग हरे, निरजोग प्ररोग प्रशोग घरे ।
भ्रमभजन तीक्षण सायफ हो, सब० ॥११॥
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४० ]
जय लक्ष्य लक्ष्य सुलक्ष्यफ हो, जय दक्षक पक्षक रक्षक हो।
पण प्रक्ष प्रत्यक्ष खपायक हो, सव० ॥१२॥ निरभेद अखेद अछेद सही, निरवेद अवेदन वेद नहीं ।
सबलोक अलोकहि ज्ञायक हो, सब० ॥१३।। अमलीन अदीन मरीन हने, निजलीन अधीन प्रछीन बने ।
जमको घनघात बचायक हो, ब० ॥१४॥ न अहार निहार विहार कवै, अविकार अपार उदार सबै ।
जगजीवन के मन भायक हो. सव० ॥१५॥ अप्रमाद प्रमाद सुस्वादरता, उनमाद विवाद विषादहता ।
. समता रमता अकषायक हो, सब० ॥१६॥ असमंध प्रघंद प्ररन्ध भये, निरवन्य प्रवन्ध अगन्ध ठये ।
अमनं अतनं निरवायक हो, सब० ॥१७॥ निरवर्ण प्रकरण उघरा बली, दुखहणे अशर्ण मुकर्रा भली ।
बलि मोह को फौज भगायक हो, सब० ॥१८॥ अविरुद्ध अक्रुद्ध प्रजुद्ध प्रनू. प्रतिशुद्ध प्रशुद्ध समृद्ध विनू ।
परमातम पूरन पायक हो, सब० ॥१६॥ विररूप चिद्र प-स्वरूप युती, जसकूप अनूपम भूप भुती।
कृतकृत्य जगत्त्रयनायक हो. सब० ॥२०॥ सब इष्ट प्रभीष्ट विशिष्ट हितू, उतकिट वरिट गरिष्ट मितू ।
शिव तिष्टत सर्व सहायक हो, सबः ॥२१॥ जय श्रीधर बीघर श्रीवन हो, जय श्रोकर श्रीभर धीमर हो।
जय ऋद्धि सिद्धि बढायक हो, सब० ॥२२॥
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दोहा-सिबरगुरण फो सहि न, ज्यो विलस्त नभ मान ।
'हिराचन्द' तातं जज, फरह सफल माल्यारा ।।२३।।
ही घो मनाहारामाय मानयिनि तार मिला. चिनिये मनमाना नियामीति न्याहा।
(मा निर्णन भी गारना चाहिये) अस्ति-गि जज तिनको नहि प्रावै शापदा ।
पुत्र पौफ धन धान्य लहै सुख सम्पदा ।। इन्द्र नन्द्र पणन्द्र नरेन्द्र जु होयफ। जाय मुक्ति प्रभार फरम सब स्वोयफ ॥२४॥ {ानीय । पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
रामुच्चय चौबीसी पूजा वृषभ प्रजित संभव अभिनन्दन, सुमति पदम सुपाय जिनगय चन्द्र पुहुप शीतल श्रेयान नमि, वासुपूज्य पूजितसुरराय ।। विमल अनन्त धर्मनम उज्ज्वल,शाति-फुयुअर महिलमनाय । मुनिसुव्रत नमि नेमि पाच प्रभु,यर्द्धमान पक्ष पुष्प चढाय ।।
ही श्री वृपभादि-महावीगत चतुर्विशति-जिन-मगृह 1 प्रभ अवतर अवनर, गंवोपट पाहाननम् । अन तिष्ठ तिप्ठ स्थापनम् । प्रम मम सन्निहितो भर मय वपद, सनिधिकरणम् । मुनिमन सम उज्ज्वल नीर, प्रासुफ गघ भरा।
भरि फनफ फटोरी धीर वोनी धार धरा ।। चौबीसों प्रीजिनचन्द, आनन्दकन्द मही ।
पद जजत हरत भवफद, पावर मोक्षमही ।।२।।
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जय ऋषभदेव प्रापिगण नमन, जय प्रजित शीतयन प्ररि तुरंत। जय गंभव भवभर फात घर, जय प्रभिमान प्रानन्दपूर ।। जय सुमति सुमतिदायक दयान,जय पर पतितन रसाल । नय जय सुपाम भषणसनाम, जय चंद घद-मनतिप्रकाश ।। जय पुरपदत दुतिक्त-सेत, जय शोतान शीतलगुण निपेत । जय घेपनाय नृतमहम-मजा, जय यासयपूजित बासुपूज्ज । जय विमल विमानपद देनहान, जय लय अनत गुनगन-अपार । जय धर्म धर्म शिवाम देत गए शाति शांति पुष्टो फरेत । जय अन्य कुन्यवाटिका मेय, जय परांजन पसुपरि क्षयफरेय। जय मल्लि मलहन मोह मल्ल, जमुनिसुनत यतथल्ल-पल्ला जय नमि नित सपनुन मपैम, जय नेमनाथ यूपचक्र नेम । जय पारसनार प्रनाथनाथ, जय पद्धं मान शिवनगर माथ । पत्ता--चौबीस जिनन्दा, प्रानंदफदा, पापनियांदा तुमफारी।
तिनपटनगचदा, उदय प्रमंदा, पासव यदा, हितधारी।। ॐ ही सपमादिचतुमिनिमिनेन्यो महायं निवंगामोति स्याल । सोरठा-भक्ति मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराज पर । तिनपद मनवचधार, जो पूर्ज मोशिय लहै ।। (इन्यागीदि । पुष्पाजनि क्षिपेत् ।
सिद्ध पूजा
(कवि धानतगय विरचित ) परम ब्रह्म परमात्मा, परम ज्योति परमीश । परम निरजन परम शिव, नमो सिद्ध जगदीश ॥१॥
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४८ ]
ही जमोति मिद्रारमेटिन यायनगवनर मबीपद ग्राहानन । अर निष्ट निष्टकट म्यान । म म ननिहितो मन मव पट् मनिषितरण। निरस्त-फर्म-सम्बन्ध सूक्ष्म नित्य निगमयम् । वन्देऽह परमात्मानममूत्तिमनुपद्रवम् ।। यत्र म्यापनम् ।।
अथाष्टकम् मोग्ठा-मोहि तृपा दुम देहि, तो तुमने जीती प्रनू ।
जलसो पूर्जा नेह, मेरो रोग मिटाइयो ॥१॥
ॐ ह्री णमो गिलाण मि-प मेष्टिन्यो सम्मान्य ज्ञान-दर्शनवीर्यसुमत्त-अवगाहन-अगलघु-प्रवाबाधाय जन्मजगमृत्युविनागनार जल निर्वपामीति स्वाहा। हम भव प्रातप माहिं तुम न्यारे संसार ते । कीज सोनल छाहि, चन्दन मो पूजा करो ।। चन्दन ॥२॥ हम औगुरा समुदाय, तुम अक्षय गुण के भरे । पूजो अक्षत लाय, दोष नाश गुरण कीजिये । अक्षतः॥३॥ फाम 'प्रगनि है नोहि निश्चय शील स्वभाव तुम । फूल चढाऊ तोहि, सेवक फी वाघा हरो ॥ पुष्प ॥४॥ मोहि क्षुधा दुख भूरि, ज्ञान खडगसो तुम हती। मेरी बाधा चूरि, नेवज सो पूजा करो ॥ नैवेद्य ।।५।। मोहतिमिर हम पास, तुम पर चेतन ज्योति है । पूज् दीप प्रकाश मेरो तम निर्वारिये ।।दीप ॥६॥ रुल्यो करम बन जाल, मुक्ति माहि तुम सुख करौ ।
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देज धूप रसाल, मम निकाल बन जाल ते ॥ धूपं ।।७।। अन्तराय दुष्पफार, तुम प्रनन्त घिरता लिये। पूजफर परमार, विधन टार शिय फल पारो फला।।। हम मे पाठों दोग, भी परघको सिद्धजी। दो यह गुण मोक्ष, पर जोरे 'चानन" कह ॥प्रया
मारती दोहा-पाठ करम इट बन्ध मो, नम निव संध्यो जहान । बन्ध रहित यमुगुग सहित, नमो मित भगवान ।।
मोटर सुख सम्पपा ६शंन ज्ञान पर, बनना गुपना लघु वाघ हर । अवगाह पमूरति नाया है, यसिन नमो सय वायफ हैं। अमलं अनल प्रतुल घटल सनन अमन प्रयच अपुल । मनर अमर जग जायफ है, सब मि नमो सुख वायफ है ।। निरभोग स्वभोग प्ररोग पर, निरयोग प्रसोग वियोगहरं । प्ररस स्वरसं दुग्य धाया है, सब शिक्ष नमो सुखदायक हैं । मव कर्म फलक घटक अज, नरनाथ सुरेश समूह जज । मुनि ध्यावत सज्जन दायक है म सिह नमो मुख दायफा है ।। प्रविरुद्ध विशुद्ध प्रयुद्ध मय, सब जानत लोक प्रलोक चयं । परमं घमं शिव लायक हैं, सब मिद नमो सुखदायक हैं। निरवन्ध प्रवन्ध अगध पर, निरभय निरखय निरनय परं। निस्प निरूप प्रकायफ हैं, सब सिद्धनमो सुखदायक हैं ।। निरभेद अखेद प्रछेद गहा, निरद्वन्तु सुखद छन्द महा ।
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अक्षुधा अतृषा अकषायक हैं, सब सिद्ध नमों सुखदायक हैं ।। असम अनमं प्रतम लहिय, अगमं सुगमं सुखम गहियं । जमराज की चोट बचायक हैं, सब सिद्ध नमो सुखदायक हैं।। निरधाम मुघाम अकाम युतं, अविहार प्रहार निहार च्युत । भव नाशन तीक्षण सायक हैं, सव सिद्ध नमो सखदायक हैं।। निरवर्ग प्रकर्ण अर्ण नुतं, अगतं प्रमतं अक्षत परत । प्रति उत्तम भाव सुपायक हैं, सब सिद्ध नर्मों सुखदायक है ।। निररग असंग अभगसदा, अतय अजयं अचयं सुखदा । अमदं प्रगद गुण छायक हैं, सव सिद्ध नमो सुखदायक हैं । अविषाद अनाद अवाद परं, भगवन्त अनन्त महन्त तर तुम ध्येय महा मुनि घ्यायक हैं, सव सिद्धनमो सुखदायक हैं। निरनेह प्रदेह अगेह सुखी, निरमोह अकोह प्रलोह तुषो । तिहुँ लोकके नायक पायक हैं, सव सिद्ध नमों सुखदायक है । पन्द्रह से भाग महान वसं, नवलाख के भाग जघन्य लसै। तन वातके अन्त सहायक हैं, सव सिद्ध नमों सुखदायक हैं । सोरठा-वह विधि नाम बखान, परमेश्वर सबही भजे ।।
ज्यों का त्यों सरधान, "द्यानत" सेवै ते बड़े ॥१६॥
___ॐ ह्री सिद्धपरमेष्ठिम्यो महायं । अविनाशी अविकार परम रस धाम हो,
समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त हो,
जगन शिरोमरिण सिद्ध सदा जयवन्त हो ॥१॥
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ध्यान लगनिकर कर्म कलंक सर्व व
नित्य निरंजन ज्योति स्यम्पो है रहे । शायक ज्ञेयाकार ममत्व निधार,
सो परमातम मि नमो उर धारिकै ॥१॥ दोहा-प्रविवल ज्ञान प्रकाशर्त गुण प्रनन्त को ज्ञान । ध्यान घरं मो पाइये, परम सिद्ध भगवान ||२|| इरमाशीर्वाद पनि ।
श्रथ सिद्ध पूजा ( कवि लालकृत )
स्वयं सिद्ध जिन भवन रतनमई विस्य विराजे । नमत सुरामर इन्द्र दरस लखि रवि शशि लार्ज ॥ चार शतक परनाम प्राठ भुविलोक बताये । तिन पद पूजन हेत, भाव घरि मंगल गाये ॥ मनमय मङ्गल फग्न, शिवपद दायक जानिर्फ । श्राह्नान करके जजो सिद्ध मफल उर मानिर्फ || ही गम मिद परमेष्ठिन् । पत्रावतरायनर गंवीपट् महाननं । णमा णि मि परमेष्ठिन् पत्र तिष्ठ तिष्ठ ठस्थापन | ॐ ही णमो सिद्धाण मित्रपरमेष्ठिन् मन मम सन्निहिनो भवभव पर मत्रिधिकरणम् ।
उज्ज्वल जल शीतन लाय, जिन गुण गावत हैं । सब मिनको सु चढाय, पुण्य वढावत हैं । सम्यक सुक्षायक जान, यह गुण गावत है । पूज श्री सिद्ध महान, बलि बलि जावत हैं ||
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नमो पिसाप निधारमेलियो समागंगान । रोपफ को ज्योति जगाय, सिद्धन को पूनो। फरि पारति मन्मुपजाय, निमल पट जो।। प पाटि न याधि प्रमाण, गुगलघु गुरगरायो।
मसीए नमाबत शान, तुम गुरग मुग्ल भाल्यो । होमम्मे मिलान किया नोगिमागमाय दी। पर धूप सुटायघि नाय, दयिघि गन्ध परं । बस कर्म जन्नापत ताप, मानो नत्य परं ।। इक मिल में मिड अनन्त, सत्ता मय पार्य। यह प्रवगाहन गुरण सन्त, सिद्धन के पाय ।। ही नमो निमामिल किन्यो पप्टमायानाय पूपम् । ले फम उत्कृष्ट महान, सिद्धन को पूजों। लहि मोक्ष परम गुगा धाम, प्रभुमम नहि दूजी । यह गुण थापफरि होन, बाघा नाश भई । मुम्ब प्रयावाघ सुचीन, शिव सुन्तरि तुमई॥ ही पगो गिदाण गिदपरमेष्ठिन्यो गोक्षफनप्राप्नये फलम् । जल फल भरि कंचन थाल, घरचत कर जोरी। प्रन सुनिये दोनदयाल, यिनती है मोरी ॥ हो गमो गिद्धाण गिद्धपरमेष्टिम्यो अनध्यपदप्राप्तये प्रध्यम् । कर्मादिक दुष्ट महान, इनको दूर करो । ' तुम सिद्ध सदा सुखदान, भव भव दुःव हरो ।
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५० ]
जननाला ( दोहा ) नमो सिद्ध परमात्मा, अद्भुत परम रमाल । तिन गुरग महिमा अगम है सरम रची जयमाल ।
परिछन्द जय जय श्री मिन प्रणाम, जय शिव मुखमागर के मुयान । जय वलिबलि जात सुरेश जान, जय पूजत नन मन तान। जय क्षायिक्गुण सम्यक्त्व लोन, जय केवलजान सुगुरए नवीन। जय लोकालोक प्रकाशमान, जय केवल अतिशय हिय प्रान ॥ जय सर्व तत्व दरसे महान सो दर्शन गुण तोजो महान । जय वीर्य अनन्तो है अपार, नाकी पटतर दूजो न मार॥ जय सूक्षमता गुण हिये धार, मब नेय लख्यो एकह नुवार । इक सिद्ध मे सिद्ध अनन्त जान, अपनी अपनी सत्ता प्रमाण ।। अवगाहन गुण अतिशय विशाल तिनके पक्ष्वन्दे नमितभाल । कछु घाटि न वाधि कहे प्रमाण, गुरु अगुल्लघू धारे महान ॥ जय बाधा रहित विराजमान, सो अव्यावाघ को वस्खान । ये वसु गुण हैं व्यवहार सन्त, निश्चय जिनवर भाषे अनन्त ॥ जय सिद्धनके गुण कहे गाय, इन गुणकरि शोभित है जिनाय । तिनको भविजन मन-वचन-फाय, पूजत वसुविधि अतिहर्षलाया सुरपति फरणपति चक्रीमहान, वलि हरि प्रतिहार मन्मथ सुजान गणपति मुनिपति मिल घरतध्यान,जयसिद्धशिरोमरिगजगप्रधान सोरठा-ऐसे सिद्ध महान, तिव गुण महिमा अगम है ।
वरगन करयो बखान, तुच्छ वुद्धि "कविलाल"जू ॥
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५२ ]
मोती-समान अखड तन्दुल, अमल अानन्दरि तरौं । प्रौगुन हरौ गुन करी हमको जोरकर विनती करौं । सम्मेद. । ३॥ ॐ ह्री श्री चतुर्विशति तिर्थकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्य अक्षतान् नि० ॥३॥ शुभ फूल रास सुवासवासित, खेद मब मन की हरौं । दुखधामकामविनाश मेरो, जोरकर विनती करौं । सम्मेद.।। ॐ ह्री श्रीचतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाण-क्षेत्रेभ्य पुष्प नि० ॥४॥ नेवज अनेक प्रकार जोग, मनोग धरि भय परिहरौं । यह भूपदूखन टार प्रभुजी, जोरकर विनती करौं ।सम्मेद। ॐ ह्री श्रीचतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाण-क्षेत्रेभ्य नैवेद्य निर्व० ॥५॥ दीपक प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिरसेती नहिं डरौं । सशयविमोहविभ्रम-तमहर जोरकर विनती करो ।सम्मेद.। ॐ ह्री श्रीचतुर्विंशति-तीर्थकर निर्वाण-क्षेत्रेभ्य दीप निर्व० ॥६॥ शुभधूप परम अनूप पावन, भावपावन पाचरौं । सब करमपुञ्ज जलाय दीज्यो, जोरकर विनती करौं ।।सम्मेद.।। ॐ ह्री श्रीचतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाण क्षेत्रेभ्य धूप निर्व० ॥७॥ बहुफल मगाय चढाय उत्तम, चारगतिसो निरवरौं । निहचै मुकतिफल देह मोको, जोरकर विनती करौं ।सम्मेद.। ॐ ह्री श्रीचतुर्विंशति-तीर्थकर-निर्वाण क्षेत्रेभ्य फलं निर्व० ॥८॥ जल गन्ध अक्षत पुष्प चरु फल, दीप धूपायन घरौं । 'द्यानत करो निरभय जगतसो, जोरकर विनती करों ।सम्मेद ॥६॥ ॐ ह्री श्रीचतुर्विंशति-तीर्थकर निर्वाण-क्षेत्रेभ्य अयं नि० ॥६॥
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५४ ]
अथ सप्त ऋषि पूजा
छप्पय प्रथम नाम श्रीमन्य दुतिय स्वरमन्त ऋषीश्वर । तीसर मुनि धोनिचय सर्वसुन्दर चौथो बर।। पंचम श्रीजयवान विनयलालस षष्ठम भनि । सप्तम जयमित्राल्य सर्द चारित्रघाम गनि ।। ये सातो चारणऋद्धिधर, करूं तास पदथापना। मैं पूजूमनवचकाय करि, जो सुख चाहूँ प्रापना ॥
ॐ ह्री चारण ऋद्धिघर श्री सप्तऋपीश्वर । प्रत्र अवत रावतर सवौषट् आह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ १०, स्थापनं । अब मम मन्निहितो भव भव वषट्, सन्निधिकरणम् ।
अष्टक-गीता छन्द शुभतीर्थउद्धव जल अनुपम, मिष्ट शीतल लायक । भवतुषा-कन्द-निकन्दकारण, शुद्ध घट भरवाय ।। मन्वादिचारणऋद्धिधारक, मुनिन की पूजा करूं। ता करें पातिक हरे सारे सकल आनन्द वित्तीं ॥२॥
ॐ ह्री श्रीमन्व, स्वरमन्व, निचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनय लालस, जयमित्र-ऋषिभ्य जलम् निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ श्रीखंड कदलीनन्द शर, मद मद घिसायकं । तसु गन्ध प्रसरित दिगदिगन्तर, भर कटोरी लायकै ॥मन्वादि.॥२॥
ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धि-घारी-सप्त ऋषिभ्यो चन्दन नि० ॥२॥
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[ ५५ प्रति धवल अक्षत खंड-वजित, मिष्ट राजन भोग के । कलधौत-थारा भरत सुन्दर, चुनित शुभ उपयोग के ।म ।३। ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धि पारी-सप्त-ऋपिभ्यो अक्षतान् नि० ॥३॥ बहु वर्ण सुवरण-सुमन पाछे, अमल कमल गुलाब के। केतकी चंपा चारु मरुमा, चुने निज कर चाव के म.॥४॥ ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धिधारी-सप्त-ऋषिभ्य पुष्प नि० ॥४॥ पकवान नानाभांति चातुर, रचित शुद्ध नये नये । समिष्ट लाडू प्रादि भर बहु, पुरटके थारा लये ॥म.॥५॥ ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण ऋद्धिधारी-सप्तऋषिभ्य नैवेद्य नि० । कलधौत दीपक जड़ित नाना, भरित गोघृतसारसो। अति ज्वलितजगमग ज्योति जाकी, तिमिरनाशनहारसों।म.६ ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धिघारी-सप्तऋपिम्य दीप नि० ॥६॥ दिक्चक्र गधित होत जाकर, धूप दश-अगी कही। सो लाय मनवचकाय शुद्ध, लगायकर खेऊ सही मन्वादि। ॐ ह्री श्रीमन्वादिचारण-ऋद्धिधारी-सप्तऋपिम्य धूपं नि० ॥७॥ वर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायकै । द्रावड़ी दाडिम चार पुगी, थाल भर भर लायक । मन्वादि.। ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धिधारी-सप्तऋपिम्य फल नि० ॥८॥ जल-गंध-अक्षत-पुष्प-चरुवर, दीप धूप सु लावना । फल ललित पाठो द्रव्यमिषित, अर्घ कीजे पावना । मन्वादि। ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धिधारी-सप्तऋषिभ्यो अध्यं नि० ॥६॥
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अथ जयमाला । छन्द विभगी बन्दूं ऋषिराजा, धर्मजहाजा, निजपरकाजा, करत भले । करणा के धारी, गगन-विहारी, दुख-अपहारी भरम दले ।। काटत जमफंदा, भविजन-वृन्दा, करत अनदा चरणन मे। जो पूजे घ्यावे मगल गावै, फेर न प्रावै भव वन मे ॥१॥
छन्द पद्धरि जय श्रीमनु मुनिराजा महंत, त्रस थावर की रक्षा करंत । जय मिथ्यातम नाशक पतग, करुणारसपूरित अङ्ग अङ्ग।। जय श्रीस्वरमनु अकलकल्प, पद सेव करत नित अमर भूप। जय पंच अक्ष जीते महान, तप तपत देह कंचनसमान ।।३।। जय निचय सप्त तत्त्वार्थ भास तप-रमातनो तन मे प्रकाश । जय विषयरोध सबोध भान, परगतिके नाशक अचल ध्यान ।४ जय जयहिं सर्वसुन्दर दयाल,लखि इन्द्रजालवत जगत-जाल । जय तृष्णाहारी रमण राम, जिन परगतिमे पायो विराम ।५ जय आनदधन कल्याणरूप, कल्याण करत सबको अनूप । जय मद-नाशन जयवान देव, निरमद विरचित सब करत सेव जय जयहि विनयलालस अमान, सब शत्रु मित्र जानत समान जय कृशितकाय तपके प्रभाव, छवि-छटा उडति प्रानददाय ७ जयमित्र सकल जगके सुमित्र, अनगिनत अघम कीने पवित्र । जय चन्द्रवदन राजोव-नैन, कबहूँ विकथा बोलत न बैन ।। नय सातो मुनिवर एक संग, नित गगन गमन करते अभंग ।
प्राये मयुरापुर नझार, तहँ मरीरोगको प्रति प्रचार ।।
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जय जय तिन चरणनिके प्रसाद, सब मरी देवकृत भई वाद । जय लोककर निर्भय समस्त, हम नमत सदा नित जोडहस्त ।१० जय ग्रीषमऋतु परवत मझार, नित करत प्रतापन योगसार। जय तृषापरीषह करत जेर, कहुं रंच चलत नहिं मनसुमेर।११॥ जय मूल अठाइस गुणनधार, तप उग्न तपत प्रानन्दकार । जय वर्षाऋतुमे वृक्षतीर, तहँ अति शीतल झेलत समोर ।१२। जय शीतकाल चौपट मंझार, के नदी-सरोवर तट विचार । जय निवसत ध्यानारूढ होय, रंचकनहिं मटकत रोम कोय।१३। जय मृतकासन वज्रासनीय, गोदहन इत्यादिक गनीय । जय प्रासन नानाभाति धार, उपसर्ग सहत समता निवार।१४। जय जपत तिहारो नाम कोय, लख पुत्र पौत्र कुलवृद्धि होय । जय भरे लक्ष अतिशय भंडार, दारिद्रतनों दुख होय क्षार ।१५ जय चोर अग्नि डाकिनपिशाच अर ईति भीतिसब नसतसांच। जय तुम सुमरत सुखलहत लोक, सुरप्रसुर नमत पद देत घोक।।
छन्द रोला ये सातों मुनिराज, महातप लछमी धारी । परम पूज्य पद धरे, सकल जग के हितकारी ।। जो मन वच तन शुद्ध होय सेवै प्रो ध्यावै ।
सो जन 'मनरंगलाल' अष्टऋद्धिनको पावै ॥१६॥ दोहा--नमन करत चरणन परत, अहो गरीबनिवाज । "
पंच परावर्तननित, निरवारो ऋषिरान ॥१७॥ ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्विधारी-सप्तऋषिभ्य पूर्णायं नि ।
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सोलहकारण पूजा अडिल्ल-सोलहकारण भाय तीर्थकर जे भये,
हरये इन्द्र अपार मेरु पर ने गये । पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चावसो,
हमहूं षोडशकारण भाव भावसों ।। ॐ ह्रीं नविशुद्धयादि-पोडशकारणानि अत्र अवतरत अवतरत सौपट् अाह्वाननं । अत्र तिष्ठत २० ठ स्थापन । अत्र मम सन्निहितानि भवत भवत वषट् सन्निविकरण ।
अथाष्टक
कंचन-झारी निर्मल नीर, पूजंजिनवर गुण-गंभीर । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो । दर्श-विशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-पाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।
___ॐ ह्रीं दर्शनविद्धि १, विनयसम्पन्नता २ शीलव्रतेप्वनतिचार ३, अभीष्णनानोपयोग ४, संवेग ५, शक्तितस्त्याग ६, शक्तितस्तप ७, साधुसमावि ८, वैयावृत्यकरण ६, अर्हद्भक्ति १०, प्राचार्यभक्ति ११, बहुश्रुतभक्ति १२, प्रवचनभक्ति १३, आवश्यकापरिहाणि १४, मार्गभावना १५, प्रवचनवात्सल्य १६, इति पोडकारणेभ्य नम जलं ॥१७॥ चन्दन घसो कपूर मिलाय, पूजू श्रीजिनवर के पाय । परमगुरु हो जय जय चाथ परम गुरु हो । दर्शवि० ॥२॥
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ॐ ही दर्शनादि- पोउदाकार सैन्य चन्दन नि० । तंदुल धवल प्रखड तूप, पूजूं जिनवर तिहुँ जग भूप । परमगुरु हो, जयजय नाथ परमगुरु हो । दर्शवि० ||३|| ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धयादि-पोडाफारच्यो अक्षत नि० ।
फूल सुगन्ध मधुप- गुञ्जार, पूजूं जिनघर जग प्राधार । परमगुरु हो, जयजय नाथ परमगुरु हो । दर्शनि ||४||
ॐ ह्री दर्शन विशुद्धवादि-पोडकारणेन्य पुष्पं नि० ।
सव नेवज बहु विधि पकवान, पूजूं श्रोजिनवर गुणसान | परमगुरु हो, जयजय नाथ परमगुरु हो । दर्श य० ॥५॥ ॐ ही दर्शन विशुद्धयादि-पोडाकारणेभ्य नवेद्य नि० । दीपक ज्योति तिमिर क्षयकार, पूजू श्रीजिन केवल धार । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दशं वि० ||६|| ॐ ह्री दर्शन विशुद्धधादि-पोडणकारभ्य दीप नि० ।
नगर कपूर गन्ध शुभ सेय, श्री जिनवर आगे महकेय । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दर्शवि० ||७|| ॐ ह्री दर्शन विशुद्धयादि-पोटशकारणेभ्य घ्रुप नि० । श्रीफल आदि बहुत फल सार, पूजूं जिन वाछितदातार । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दर्शवि० ||८|| ॐ ह्री दर्शनविशुद्धयादि- पोडशकारणेभ्य फल नि० ।
जल फल प्राठो द्रव्य चढाय, 'द्यानत' वरत करो मन लाय । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दर्शवि० ॥ ॥ ॐ ह्री दर्शन विशुद्धयादि पोटशकारणेभ्य अर्घ्यं नि० ।
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६० ]
॥ जयमाला ॥ दोहा-पोडशकारण गुण करै, हरै चतुरगति वास । पाप पुण्य सब नाश के, ज्ञान भानु परकाश ॥
॥चौपाई॥ दर्श विशुद्धि घरे जो कोई, ताको आवागमन न होई । विनय महा धारे जो प्राणी, शिवबनि ताकी सखो बखानी ।। शील सदा दृढ जो नर पाले. सो औरन की प्रापद टाले । ज्ञानाभ्यास करे मय माहीं, ताके मोह-महातम नाहीं ॥३॥ जो सवेग-भाव विस्तारै स्वर्ग-मुक्ति-पद प्राप निहारै । दान देय मन हर्ष विशेष, इह भव यश परभव सुख देखे ।४। जो तप तप खपै अभिलाषा, चूरे कर्मशिखर गुरु भाषा । साधुसमाधि सदा मन लावै, तिहुं जग भोग भोगि शिवजावै ।। निदिन वैयावृत्य करैया, सो निश्चय भवनीर तिरेया। जो अरहत-भक्ति मन पाने, सो जन विषय कषाय न जाने ।। जो प्राचारज-भक्ति कर है, जो निरमल प्राचार धरै है। बहु श्रुतवन्त-भक्ति जो करई, सो नर संपूरण श्रुत घरई ७। प्रवचन भक्ति कर जो ज्ञाता, लहै ज्ञान परमानन्द-दाता । षट् प्रावश्य काल जो साधे, सोही रत्नत्रय आराध ।।। धर्म प्रभाव करै जो ज्ञानी, तिन शिव-मारग रीति पिछानी। वात्सलअंग सदा जो ध्यावै, सो तीर्थङ्कर पदवी पावै ।।६।। दोहा-ये ही षोडश भावना, सहित घर व्रत जोय ।
देव-इन्द्र-नर-वंद्य पद, 'द्यानत' शिव पद होय ॥
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ॐ ही दर्शनविशुद्धयादिपोरा पूर्णाध्यं निर्वपामीति
मना तेर्गुमा
सुन्दर बोउशकारण भावन निर्मन चित्त सुधारक मारे, क्मं श्रनेक हने शति दुर्धर जन्म जय भय मृत्यु निवारें । दुःख दारिद्र विपत्ति हरं भव नागरने तर पार उतारे । 'ज्ञान' हे यहि पोडशकाररण, कर्म निवारण सिद्धि सुधारं । उपाशीर्वाद
जाप्य -- ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धये नमः । ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नताय नमः, ॐ ह्रीं शीतव्रताय नमः, ॐ ह्रीं गभीरणज्ञानोपयोगाय नमः, ॐ ह्रीं सचेनाय नमः, ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागाय नम, ॐ ह्रीं शक्तितस्तपसे नमः, ॐ ह्रीं साधुसमाध्यं नमः, ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरणाय नमः, ॐ ह्रीं ग्रह
क्त्यै नमः, ॐ ह्रीं प्राचार्यभवत्यं नमः ॐ ह्रो वहुतभक्त्यै नमः, ॐ ह्रीं प्रवनभवत्यं नमः, ॐ ह्रीं प्रावश्यकापरियं नमः, ह्रों मार्गप्रभावनायं नमः, ॐ ह्रीं प्रवचन
वत्सलत्वाय नमः ॥ १६ ॥
पंचमेरु पूजा
गीता छन्द - तीर्थङ्करो के ह्रवन जलतं, भये तीरथ सर्वदा । ताते प्रदच्छन देत सुर-गन, पचमेरुनकी सदा ॥ दो जलधि ढाईद्वीप मे सब गनत मूल विराजहीं ।
पूज सी जिनधाम- प्रतिमा, होहि सुख दुख भाजहीं ॥१॥ ॐ ह्री पचमेरु सम्वन्धि-जिन चैत्यालयस्थ- जिनप्रतिमा-समूह
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अत्रावतरावतर, संवौपट् । ॐ ह्री पचमेरु-सम्बन्वि-जिन-र्चत्यालयम्ध-जिन-प्रतिमा-समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठ ठ । ॐ ह्री पचमेरुसम्बन्धि-जिन-चैत्यालयस्थ-जिन-प्रतिमा-समूह | अत्र मम मनिहितो भव भव वषट् ।
अथाष्टक, चौपई पाचलीवद्ध ( १५ मात्रा) शीतल-मिष्ट-सुवास मिलाय, जल सौं पूजों श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख सुख होय ।। पाचो मेरु अमी जिनधाम, सब प्रतिमाको करो प्रणाम । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥१॥
ॐही सदर्शनमेरु, विजयमेरु, अचलमेरु, मन्दिरमेल, विद्य माली. मेरु, पचमेरु सम्बन्धी प्रस्सी जिन चैत्यालयेभ्य जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामोति स्वाहा ।।१॥ जल केशर कपूर मिलाय, गन्धसों पूजो श्री जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ, परमसुख होय ।। पाचो० ।। २ ।। ॐ ह्री पचमेरुसम्बन्धि जिन-चैत्यालयस्थ-जिनबिम्वेम्य चन्दन नि० अमल अखण्ड सुगन्ध सुहाय, अच्छतसो पूजो जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचो० ॥ ३ ॥ ॐ ह्री पचमेरु सम्बन्धि जिन-चैत्यालयस्थ-जिनविम्वेभ्य अक्षतान नि वररण अनेक रहे महकाय, फूलनसो पूजो जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पांचो० ॥ ४ ॥ ॐ ह्री पचमेरु सम्बन्धि जिन-चैत्यालयस्थ-जिनविम्बेभ्य पुष्पं नि० मनवांछित बहु तुरत बनाय, चरुसो पूजौं धीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचो० ॥ ५॥ ॐ ह्री पचमेरु-सम्बन्धि-जिन-चैत्यालयस्थ-जिनविम्बेभ्य नैवेद्य नि०
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तमहर उज्ज्वल ज्योति जगाय, दीपसो पूजो श्रोजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ।। पानो० ॥६॥ ॐ ही पंचमेरु सम्बन्धि जिन-चैत्यालयस्थ-जिन-विम्बेन्य दीप नि । खेऊ अगर अमल अधिकाय, धूपसो पूर्जी श्रीजिनराय । महासुख होय, देले नाथ परमसुख होय ॥ पाचो० ॥७॥ ॐ ह्री पचमेक-सम्बन्धि-जिन-चैत्यालयम्प-जिन-विम्वेभ्य धूप नि.। सुरस सुवरणं सुगंध मुभाय, फलसौं पूनों श्रीजिनराय । महासुम्य होय देखे नाय परमसुख होय ।। पांचो० ॥८॥ ॐ ह्री पचमेरु-मम्बन्धि-जिन-चैत्यालयस्य-जिन-विम्वेन्य फन निन पाठ दरवमय अरघ वनाय, "धानत' प्रजों श्रीजिनराय । महासम्व होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों० ॥६॥ ॐ ह्री पंचमेरु-सम्बन्धि-जिन-चैत्यालयम्य-जिन-विम्बेभ्य अध्यं निका
जयमाला-मोग्ठा प्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मन्दिर कहा। विद्युन्माली नाम, पंचमेर जगमे प्रकट ॥ १० ॥
वेसरी छन्द
प्रथम सुदर्शन मेरु विराज । भद्रशाल बन भूपर छाजे । चैत्यालय चारो सुखकारी । मनवचतन कर बन्दना हमारी॥ ऊपर पांच शतक पर सोहै । नदनवन देखत मन मोहे ।चैत्या. साढे वासठ सहस ऊंचाई । बन सुमनस शौम अधिकाई ।। ऊँचा योजन सहस छत्तीसं । पाडुकवन सोहैं गिरिशीष चि.। चारो मेरु समान वखानो । भूपर भद्रसाल चहुँ जानो। चैत्यालय सोलह सुखकारी । मनवचननकर ववना हमारी १६
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ऊँचे पाद शत- पर भाखे । चारी नन्दनवन भिलाखे । चैत्याला मोह सुखकाने । मनवनतन कर वदना हमारी साढे पचपन महा तगा । वन नीमनम नार बहुरंगा । चैत्यालय मोलह सुपमागे । मनवचतनकर बदना हमान। उच्च प्राइस महम बताये, पाक बागेदन शुभ गाये ॥ चैत्यालय मोलह मुखकागे । मनवचतन्कर बदना हमारी। सुर नर चारन वन्दन पावै । मो शोभा हम विह मुखगावें। चत्याल्ह प्रस्मी सुखकारी । मनवनतन कर वन्दना हमारी। दोहा-पंचमेर की प्रारती, पढें सुन जो कोय ।
चानत' फल जान प्रभू, तुरत महा सुखहोय।।१।। ॐ ही ग्वमेल-सम्बन्धि-जिन-चैत्यालयम्य-जिन-विम्वेन्यो सर्मनि:
नन्दीश्वर द्वीप ( अष्टाह्निका ) पूजा अडिल्ल छन्द-सर्व पर्व मे बडो अठाई पर्व है।
नन्दीश्वर सुर जाहि लिये वसु दर्व है। हमे शक्ति नौ नाहि इहां करि थापना ।
पूजों जिनगृह प्रतिमा है हित प्रापना । ॐ ही श्रीनन्दोस्वन्द्वोपे-द्विप वागत-जिनालयस्य-निन्द्रनि समह । अत्र अवतर अवतर, सवोपट । अत्र तिष्ठ निष्ठ । सन्निहितो भव भव वपटू । कंचन मणिमय शृंगार, तीरथ नीर भरा ।
तिहँ घार दई निरवार, जाम् रन जरा
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नन्दीश्वर श्री जिनधाम, बावन पूज करों।
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, प्रानन्दभाव घरो॥१॥ ॐ ही मासोत्तमै मासे मासे शुभे शुक्लपदो अष्टाहिकाया हामहोत्सवे नन्दीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिमोत्तरे एका अजनगिरि, बार दधिमुख, पाठ रतिकर, प्रतिदिशि तेरह तेरह इति बावन जिन वैत्यालयेभ्यो जन्म-गरामृत्युविनाशनाय जल निर्वमापीति स्वाहा ॥१॥ भवतपहर शीतल वास, सो चन्दन नाहीं । प्रभु यह गुन कोज सांच, प्रायो तुम ठाहीं ।। नन्दी० ।। ॐ ह्री श्रीनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयन्य-जिन-प्रतिमान्य चन्दनं निर्व० उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज घरे सोहै। सब जीते अक्षसमाज, तुम सम अरु को है ।। नन्दो० ॥३॥ ॐ ह्री योनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयस्थ जिन-प्रतिमाम्यो अक्षताद निर्व० । तुम काम विनाशक देव, ध्याऊ फूलनसों। लहि शील लक्ष्मी एव, छुई शुलनसो ।। नन्दी० ॥४॥ ॐ ह्री श्रीनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयस्थ-जिन-प्रतिमाम्य पुष्पं निवं। नेवज इन्द्रिय-बलकार, सो तुमने चूरा। चरु तुम ढिग सोहै सार, अचरज है पूरा ॥ नन्दी० ॥॥ ॐ ह्री श्रीनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयस्थ-जिन-प्रतिमाभ्य नैवेद्य निर्व। दीपक को ज्योति प्रकाश, तुम तन माहि लस । टूटे करमन को राश, ज्ञानकरणी दरसे नन्दी०॥६॥ ॐ ह्री श्रीनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयस्थ-जिन-प्रतिमाभ्य दीपं नि०। कृष्णागर धूप सुवास, दशदिशि नारि वर। अति हरषभाव परकाश, मानो नृत्य करै ।। नन्दी० ॥७॥ ॐ ह्री श्रीनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयस्थ-जिन-प्रतिमाभ्य धूपं निर्व० ।
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बहुविधफल ले तिहुंकाल, प्रानन्द राचत हैं। तुम शिवफल देहु दयाल, सो हम जाचत हैं ।। नन्दी० ॥८॥ ॐ ह्री श्रीनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयस्थ जिन-प्रतिमाभ्य फल निर्व० । यह अर्घ कियो निज हेतु, तुमको अरपत हो । 'द्यानत' कीनो शिवखेत, भूमि समरपत हो। नन्दी। ॐ ह्री धीनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयस्थ-जिनप्रतिमाभ्यो अयं निर्व० ।
जयमाला-दोहा कातिक फागुन षाढ़के, अन्त पाठ दिन माहि । नन्दीश्वर सुर जात हैं, हम पूजे इह ठाहिं ॥१॥ एकसौ पैसठ कोड़ि जोजन महा, लाख चौरासिया एकदिशि में लहा ॥१॥ पाठमो द्वीप नन्दीश्वरं भास्वर। भौन बावन्न प्रतिमा नमो सुखकरं ॥२॥ चारदिशि चार अंजनगिरि राजहीं। सहस चौरासिया एकदिशि छाजहीं ।३॥ ढोलसम गोल ऊपर तले सुन्दरं ॥भौन०॥४॥ एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी । एक इक लाख जोजन अमल जलभरी । चहुँदिशा चार वन लाख जोजन वर।भौन०।।४।। सौल वापीन मधि सोल गिरि दधिमुख । सहस इस महा जोजन लखत हो सुखकरं । बावरी कोण दो मांहि दो रतिकर ।।भौन०॥५॥ शैल बत्तीस इक सहस जोजन कहे, चार सोले मिले सर्व बावन लहे । एक इक सीस पर एक जिनमंदिरं । भौन०।६। बिंब पाठ एकसौ रत्नमयि सोहहीं । देव देवी सरव नयन मन मोहही। पाचसै धनुष तन पद्मनासन पर ॥भौन०॥७॥
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लाल नख-मुख नयन श्याम अरु श्वेत हैं। श्याम रंग भौंह सिर-केश छवि देत हैं। वचन बोलत मनो लसत कालुपहरं । मौन | कोटि शशि भानु-दुति-तेज छिप जात है । महा वैराग्य परिणाम ठहरात है। वचन नहिं कहैं लखि होत सम्पफघर भीन. ।।६।। सोरठा -नन्दोश्वर-जिनधाम, प्रतिमा महिमा को कहै ।
'धानत' लीनो नाम, यह भगति सब सुख करै ।। ॐ ह्री श्रीनन्दीश्वरद्वीपे जिनालयस्थ-जिन-प्रतिमान्य पूर्णाऽध्यं नि० ।
दशलक्षरणधर्म पूजा उत्तम छिमा मार्दव प्रार्जव भाव हैं।
सत्य शोच संयम तप त्याग उपाय हैं ।। प्राकिचन ब्रह्मचर्य धरम दस सार हैं ।
चहुंगति दुखते काढि मुकति करतार हैं ।।१।। ॐ ह्री उत्तमक्षमादि-दशललणधर्म! पत्रावतगवतर । सवीपट् । ॐ ह्री उत्तमक्षमादि-दा-लक्षणधमं । मन तिप्ठ निष्ठ । ठ.। ॐ ह्री उत्तमक्षमादि-दश-लक्षणधर्म ! अत्र गम सन्निहितो भव २ वपट सोरठा-हेमाचल की धार, मुनिचित सम शीतल सुरभि ।
भव-प्राताप निधार, दशलक्षण पूजों सदा ॥१॥ ॐ ह्री उत्तमक्षमा, मादव, आर्जव, सत्य, शौच, सयम, तप, त्याग, प्राचिन्य, ब्रह्मचर्यादि-दश-लक्षणधर्माय जल नि०॥१॥
चदन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा ।
भव-प्राताप निवार, दशलक्षण पूजों सदा ।।२।। ॐ ह्री उत्तमक्षमादि-दश-लक्षणधर्माय चन्दन नि० ॥२॥
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चौपाई मिश्रित गीता छन्द उत्तम छिपा गहो रे भाई, इहभव जस परभव सुखदाई। गाली सुनि मन सेद न प्रानो, गुनको प्रोगुन कहै अयानो ।।
कहि है प्रयानो वस्तु छोने, बांध मार बहुविधि करे। घरत निकार तन विदार, वर जोन तहां घर ।। ते करम पूरय किये खोटे, सह पयों नहिं जीयरा ।
अतिक्रोध प्रगनि बुझाय प्रानी, साम्य जल ले सीयरा ॥ ॐ ह्री उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय मध्य निवंपामीति स्वाहा ॥२॥
मान महाविषरूप, करहि नीचगति जगत मे ।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्राणी सदा ।। उत्तम मार्दवगुन मन माना, मान करनको फोन ठिकाना । बस्यो निगोदमाहित आया, दमरी स्कन भाग विकाया ।।
रूकन बिकाया भाग वशत, देव इकइन्द्री भया । उत्तम मुग्रा चाढाल हुप्रा, भूप कीडो मे गया । जीतन-यौवन-धन गुमान, कहा करे जल-वुदबुदा।
करि विनय बहगुन बडे जनकी, ज्ञान का पावै उदा ।। ॐ ही उत्तममार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपापीति म्वाहा ॥४॥
कपट न कीजै कोय, चोरन के पुर ना बसे ।
सरल सुभावी होय, ताके घर बहु सम्पदा ॥३॥ उत्तम प्रार्जव रीति बखानी, रञ्चक दगा बहुत दुखदानी। मनमे होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तनसो करिये ।।
करिये सरल तिहुँ जोग, अपने देख निरमल पारसी।
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मुख कर जैसा लख तैसा, कपट प्रीति अंगारसी ।। नहि लहै लक्ष्मी अधिक छलकर, करमवंब विशेषता ।
भय त्यागि दूध बिलाव पोवै, आपदा नहिं देखता ॥३॥ ॐ ह्रीं उनमाजववर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
कठिन वचन नत वोल, परनिंदा अरु भू तज ।
रांच जवाहर खोल, सतवादी जग मे सुखी ।। उत्तम सत्यवरत पालीज, पर-विश्वास-घात नहिं कीजै । साँचे भूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो।
पेखो तिहायत पुरुष सांचेको, दरव सब दीलिये । मुनिराज श्रावक्रकी प्रतिष्ठा, सांचगुन लख लीलिये ॥ ऊँचे सिंहासन वैठि बनुनृप, घरमका भूपति भया ।
वच झंक सेती नरक पहुँचा, सुरगमें नारद गया ॥४॥ ॐ ह्री उत्तमसत्यवर्मागाय अयं निर्वपाति स्वाहा।
घरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देहसो ।
शौच सदा निरदोष, घरम बड़ो संसार मे ।। उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोन पाप को वाप बखाना । आशा-पान महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ।।
प्रानी मदा शुचि शील नप तप, ज्ञान-ध्यान-प्रभावते । नित गंगजमुन समुद्र न्हाये, अशुचि दोष सुभावते ॥ ऊपर अमल मलभरयो भीतर, कौनविधि घटशुचि कहूँ ।
वह देह मैलो सुगुन थैली, शौचगुन सावू लहै ॥५॥ ॐ ह्रीं उत्तमात्रधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
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काय छहो प्रतिपाल, पंचेन्द्रो मन वश करो।
संजमरतन सभाल, विषय चोर बहु फिरत हैं ।। उत्तम संजम गहु मन मेरे, भवभव के भाजै अघ तेरे । सुरग-नरफपशुगति मे नाही, पालस-हरन करनसुख ठाहीं।
ठाही पृथ्वी जल अग्नि मारत, रूख बस फरना घरो। सपरसन रसना प्रान नैना, कान मन सब यश करो। जित विना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग कोच में।
इक घरी मत विसरो फरो नित, प्रायु जममुख वीचमे।६, ॐ ह्री उत्तमसंयमधर्मागाय अयं निर्वपामोति स्वाहा।
तप चाहे सुर राय, परमशिखर को वन है।
द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्तिसम । उत्तम तप सव माहि बखाना, करमशिखरको वज्र समाना। बस्यो अनादि निगोद मंझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा।
धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल प्रायु निरोगता । श्रीजनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगिता ।। प्रति महादुर्लभ त्याग विषय, कपाय जो तप आदर ।
नरभव अनुपम कनक घरपर, मणिमयी कलशा घर।७। ॐ ह्री उत्तमसयमधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
दान चार परकार, चार सघको दीजिये ।।
धन विजली उनहार, नरभव लाहो लीजिये ।। उत्तम त्याग कहो जग सारा, प्रौषधि शास्त्र अभय अहारा निहचे राग-द्वेष निरवार, ज्ञाता-दोनों-दान-संभार ।
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दोनो सभारे कूप जलसम, दरद घर मे परिनया। निज हाय दीजे साथ लीजे, खाया खोया वह गया ।। धनि साध शास्त्र अभयदिवया, त्याग राग विरोध कों।
विन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाही वोधको ।। ॐ ह्री उत्तमत्यागधर्मागाय अयं निर्वपामीति म्वाहा।
परिग्रह चौविस भेद, त्याग कर मुनिराजजी ।
तृष्णाभाव उछेद, घटती जान घटाइये ।।८।। उत्तम प्राकिञ्चन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुखही मानो। फांस तनकसी तनमे साल, चाह लंगोटो की दुख भाल ॥
भाले न समता सुख कभी नर, विना मुनि-मुद्रा धरे । धनि नगन-पर-तन नगन ठाडे, सुर असुर पानि परै ॥ घरमाहि तृष्णा जो घटाव, रुचि नहीं संमार सौं।
वह धन वराह भला कहिये लीन पर-उपकारसौं ।। ॐ ह्री उमत्तग्राकिचन्यधर्मागाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
शील वाडि नौ राख, ब्रह्मभाव अन्तर लखो।
करि दोनो अभिलाख, करह सफल नर भव सदा ॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन प्रानौ, माता बहिन सुता पहिचानौ । सहैं वान-वर्षा बहु सूरे, टिक न नयन-बान लखि कूरे ।।
कूरे तिया के अशुचि-तन मे, कामरोगी रति करें। बहु मृतक सहि मसानमाही, काक ज्यो चोचे भरं ।। संसार में विष बेलि नारी, तजि गये जोगीश्वरा ।
'धानत' धरम दशपैडि चढिके, शिवमहल मे पगधरा।१० ॐ ह्री उतमब्रह्मचर्यधर्मागाय गय निर्वपामीति स्वाहा ।
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जयमाला।
दोहा-दशलच्छन बन्दौ सदा, मनवाछित फलदाय । कहाँ भारती भारती, हम पर होउ सहाय ॥१॥
बेसरी छन्द उत्तम क्षमा जहाँ मन होई, अन्तर बाहर शत्रु न कोई । उत्तम मार्दव विनय प्रकासे, नानाभेद ज्ञान सब भासे ।। उत्तम प्रार्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागि सुगति उपजावे। उत्तम सत्य-वचन मुख बोले, सो प्रानी संसार न डोले । उत्तम शौच लोभ-परिहारी, सतोषी गुण रतन भण्डारी । उत्तम सयम पाल ज्ञाता नरभव सफल कर ले साता ।। उत्तम तप निरवांच्छित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले । उत्तम त्याग कर जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ॥५॥ उत्तम आकिंचनवत धार, परम समाधिदशा विस्तार। उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावै, नरसुर सहित मुकतिफल पावै ।६। दोहा-कर करम की निरजरा, भव पीजरा विनाशि । ___ अजर अमरपद को लहै, 'धानत' सुखकी राशि ॥
ॐ ह्री उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य-दशलक्षणधर्यांगाय पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय पूजा दोहा-चहुँगति-फरिण-विष-हरन-मरिण, दुख-पावक-जलधार ।
शिवसुख-सुधा-सरोवरी, सम्यक्त्रयी निवार ॥१॥ ॐ ह्री सम्यग्रत्नत्रय | प्रत्रावतरावतर, सवौषट् ।
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ॐ ह्री सम्यगरत्नत्रय । अत्र तिष्ठतिष्ठा ॐ ह्री सम्यगलत्रय । अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । सोरता-क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहनो।
सनम रोग निरवार, सम्यक्रत्नत्रय भवों ॥१॥ ह्री सम्यग्ररत्नत्रयाय जन्मरोगविनाशनार जलम् निर्वपामीति स्वाहा चन्दनकेशर गारि, परिमल महा सुगन्धमय ।
जनम रोग निरवार, सम्यकलत्रय भजों ॥२॥ ॐ ह्री मम्यारलत्रयाय भवतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वः ।
तन्दुल अमल चितार, वासमति मुखदाय के ।
जनम रोग निरवार, सन्यकरत्नमय भजो ॥३॥ ॐ ह्री सम्यग्न्लत्रयाय अजयपदप्राप्तये अबनान् मि० ।
महक फूल अपार, अलि गुंजै ज्यो युति करें।
जनम रोग निरवार, सम्यकलत्रय भजों ॥४॥ ॐ ह्री सम्यरित्नत्रयाय कामवादिष्वशनार पुप्पं निर्व० ।
लाडू बहु विस्तार, चोकन मिष्ट सुगन्धयुत ।
जनम रोग निरवार, सम्यक्रत्नत्रय भजों ॥५॥ ॐ ही सम्यरत्नत्रयाय सुवारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व० ।
दीप रतनमय सार, जोत प्रकाश जगत मे ।
जनम रोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजो ॥६॥ ॐ ह्री सम्यग्ग्लत्रयाय मोहान्वकार विनाशनाय दीपं निव० ।
धूप सुवास विथार, चन्दन अगर कपूर की।
जनम रोग निरवार, सम्यत्रतत्रय भजों ॥७॥ ॐ ह्री मम्यगरलत्रयाय अष्टकर्मविनागनाय धूपं निर्व० ।
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फल शोभा अधिकार, लोंग छुहारे जायफल | जनम रोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजो ॥८॥ ॐ ह्री सम्यग्रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फल नि० ।
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आठ दरब निरधार, उत्तमसो उत्तम लियो । जनम रोग निरवार, सम्यक्रत्नत्रय भजो ॥६॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये श्रध्यं निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक दर्शनज्ञान, व्रत शिवमग तीमो मयी ।
पार उतारन थान, 'द्यानत' पूजो व्रत सहित ॥१०॥ ॐ ह्री सम्यग्रत्नत्रयाय पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा ।
समुच्चय जयमाला ।
दोहा - सम्यक् दर्शन ज्ञान व्रत, इन बिन सुकति न होय पन्ध पंगु अरु श्रालसी, जुदे जलै दवलोय ॥ १ ॥ चौपई |
जाप ध्यान सुथिर बन श्रावे, ताके करमबन्ध कट जाये । तास शिवतिय प्रीति बढावे, जो सम्यक् रत्नत्रय घ्यावे |२| ताक चहुँगति के दुख नाहीं, सो न परे भवसागर माहीं । जनम-जरा-मृत्यु दोष मिटावे, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै ॥ ३ ॥ सोई दशलच्छन को साधे, सो सोलह कारण प्राराधे । सो परमातम - पद उपजावै, जो सम्यक् रत्नत्रय घ्यावे ||४|| सोई शक्र - चक्रि-पद लेई, तीन लक के सुख विलसेई । सो रागादिक भाव बहावै, जो सम्यक् रत्नत्रय घ्यावे ॥ ५ ॥ सोई लोकालोक बिहारै, परमानन्द दशा विस्तारै । श्राप तिरै श्रोरन तिरवावै, जो सम्यक् रत्नत्रय घ्यावे ||६||
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दोहा-एक स्वरूप प्रकाश निज, वचन कहो नहिं जाय ।
तीन भेद व्योहार सब 'द्यानत' को सुखदाय ॥७॥ ॐ ह्री सम्यग्रत्नत्रयाय महायं निवंपामोति स्वाहा ।
दर्शन पूजा दोहा-सिद्ध प्रष्टगुनमय प्रकट, मुक्तजीव सोपान ।
ज्ञानचरित्र जिहं विन प्रफल, सम्यग्दर्श प्रधान ॥१॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शन । अत्र अवतर अवतर, सवौषट् । ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शन | अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठ ठ । ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शन । अत्र मम सन्निहितो भव भव, वषट् । सोरठा-नीर सुगन्ध अपार, तृषा हर मल छय करें।
सम्यक् दर्शन सार पाठ पग पूर्जी सदा ॥१॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय जलं निर्व।
जल केसर धनसार, ताप हर शीतल करें।
सम्यक् दर्शन सार, आठ अङ्ग पूर्जी सदा ॥२॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय चन्दन निर्व० ।
अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरे ।
सम्यक् दर्शन सार, पाठ अङ्ग पूर्जी सदा ॥२॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय अक्षतान् निर्व।
अछत अनूप निहार, दारिद नाश सुख भरं ।
सम्यक्दर्शनसार, पाठ अङ्ग पूर्जी सदा ॥३॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय अतिान् निर्व०।
पहुप सुवास उदार, खेद हर 'मन शुचि करै।
सम्यक्दर्शनसार, पाठ अङ्ग पूजौं सदा ॥४॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय पुष्पं निर्व.।
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नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करे।
सम्यकदर्शनसार, आठ अङ्ग पूजौं सदा ॥५॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय नैवेद्य नि• ।
दीप-ज्योति तमहार, घट पट परकाशै महा ।
सम्यग्दर्शनसार, पाठ अङ्ग पूजौं सदा ॥६॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय दीप नि० ।
धूप घ्राणसुखकार, रोग विघन जडता हरे ।
सम्यग्दर्शनसार, पाठ अङ्ग पूजौं सदा ॥७॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय धूप निर्व०।।
श्रीफल प्रादि विथार, निहचै सुर शिवफल करै।
सम्यग्दर्शनसार पाठ अङ्ग पूजौं सदा ॥८॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय फल नि० ।
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु ।
सम्यग्दर्शनसार, पाठ अङ्ग पूजौं सदा ॥९॥ ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय अध्यं नि० ।
जयमाला दोहा-आप माप निहचे लख, तत्त्वप्रीति व्योहार । रहित दोष पच्चीस हैं, सहित अष्टगुण सार ।।१०॥
चौपाई मिश्रित गीता छन्द । सम्यग्दर्शन रतन गहीजै, जिन-वच में सन्देह न कीजै । इह भव विभव-चाह दुखदानी, पर-भव भोग चहे मत प्रानी। प्राणी गिलान न करि पशुचि लखि, धरम गुरु प्रभु परखिये। परदोष ढकिये धरम डिगते को, सुथिर कर हरखिये ।
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७८ ] ~~~~~~~~~~~~~mmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmm चउसघ को वात्सल्य कीजै, धरम की परभावना । गुरण प्रा०सौ गुन पाठ लहि के, इहां फेर न भावना ॥२॥ ॐ ह्री अष्टागसहित-पचविंशतिदोषरहिताय सम्यग्दर्शनाय पूर्णाध्य ।
ज्ञान पूजा पञ्चभेद जाके प्रकट, ज्ञेय प्रकाशन भान ।
मोह-तपन-हर-चन्द्रमा, सोई सम्यकज्ञान ।। ॐ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञान । अत्र अवतर अवतर, सवौषट् । ॐ ह्री अष्टविधसम्यग्ज्ञान । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ह्री अष्टविघसन्यग्ज्ञान । अत्र मम सन्निहितो, भव भव वषट् । सोरठा-नीर सुगन्ध प्रपार, तृषा हरै मल छय करें।
सम्यज्ञान विचार, पाठ भेव पूजौं सदा ॥१॥ ॐ ही प्रष्टविषसम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामोति स्वाहा ।
जल केशर घनसार, ताप हरे शीतल करे ।
सस्यज्ञान विचार. पाठ भेद पूर्नी सदा ॥२॥ ॐ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै ।
सम्यक्ज्ञान विचार, आठ भेद पूर्जी सदा ॥३॥ ॐ ह्री अष्टविषसम्यग्ज्ञानाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
पहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे ।
सम्यक्ज्ञान विचार, आठ भेद पूर्जी सदा ॥४॥ ॐ ही अष्टविघसम्यग्ज्ञानाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ।
नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करें।
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सम्यक्ज्ञान विचार, पाठ भेद पूजो सदा ॥५॥ ॐ ह्री अष्टविघसम्यग्ज्ञानाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा।
दीपज्योति तमहार, घट पट परकाश महा।
सम्यक्ज्ञान विचार, पाठ भेद पूजो सदा ॥६॥ ॐ ह्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप घ्राण सुखकार, रोगविघन जड़ता हरै।
सम्यक्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजो सदा ।।७।। ॐ ह्री अष्टविघसम्यग्ज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल आदि विथार, निहचे सुरशिवफल करें।
सम्यक्ज्ञान विचार, पाठ भेद पूजो सदा ॥८॥ ॐ ह्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय फल निर्वपामीति स्वाहा
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यक्सान विचार, पाठ भेद पूजों सदा ॥॥ ह्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
___ जयमाला हा-आप आप जाने नियत, ग्रन्थ पठन व्योहार । संशय विभ्रम मोह विन, अष्टमग गुनकार ॥१॥
चौपाई मिश्रित गीता छन्द सम्यक्ज्ञान रतन मन भाया । आगम तीजा नैन बताया ।। मक्षर प्ररथ शुद्ध पहिचानो । अक्षर अरथ उभयसग जानो।
जानों सुकाल पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये । तपरीति गहि बहु मान देके, विनय गुन चित लाइये ।।
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८० ]
ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञानदर्पण देखना।
इस ज्ञानहीसो भरत सीझा, और सब पट पेखना ।। ॐ ह्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
चारित्र पूजा दोहा-विषयरोग औषधि महा दव-कवाय-जल-धार।
तीर्थडर जाको घरै, सम्यक् चारितसार ॥१ ॐ ह्री त्रयोदशविघसम्यक्चारित्र | अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ ह्री त्रयोदशविघसम्यक्वारित्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ४ ।। ॐ ह्री त्रयोदशबिधसम्यक्वारित्र । अत्र मम सन्निहितो भव भव सोरठा-नीर सुगन्ध पार, तृषा हरे मल छय करें। ___सम्यकचारित सार, तेरह विध पूर्वा सदा ॥१ ॐ ही त्रयोदश विधसम्यक्चारित्राय जल निर्व।
जल केसर घनसार, ताप हरे शीतल करें।
सम्यक्चारित सार, तेरह विष पूजों सदा १६ *ही भयोदश विधसम्यक्चारित्राय चन्दन निन।
अछत अनुप निहार, दारिद नाशं सुख भरे । सस्यश्चारित सार, तेरह विष पूजो सदा ।।। ही प्रयोदश विधसम्यक्चारित्राय अक्षतान् निन०।। पहूप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करें। सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजो सदा ।।। ही पोदश विधसम्यक्चारित्राय पुष्पं निन०) नेवज विविध प्रकार, क्षुषा हरै थिरता करें। सम्याचारित सार, तेरह विध पजों सदा॥ ही गयोवषिषसम्यक्वारित्राय नैवेद्य निर्व० ।
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दीपजोति तमहार, घटपट परकाश महा । सम्यक्चारित सार. तेरह विध पूजौं सदा ||६|| ॐ ह्री त्रयोदशविषसम्यक्चारित्राय दीपं निर्व० ।
धूप धारण सुखकार, रोग विधन जड़ता हरं । सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजौं सदा ॥७॥ ॐ ह्री त्रयोदशविघसम्यक्चारित्राय घूप निर्व० ।
श्रीफल प्रावि विचार, निश्चय सुर शिवफल करें । सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजौं सदा ॥८॥ ॐ ह्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय फल निर्व० ।
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु | सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजौं सदा ॥ ६ ॥ ॐ ह्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अध्यं निर्ण० । जयमाला- दोहा
श्राप भाप थिर नियत नय, तप संजम व्योहार । स्वपर दया दोनो लिये, तेरह विध दुखहार ॥१०॥ चौपाई मिश्रित गीता- छन्द
सम्यक्चारित रतन सँभालो । पांच पाप तजिकै व्रत पालो । पचसमिति त्रय गुप्ति गहोजे । नर भव सफलं करहु तन छोजे ।
छोजे सदा तनको जतन यह, एक सयम पालिये ।
बहु रुल्यो नरक निग़ोद मांहीं, विषय कषायनि टालिये ॥
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शुभ करम-जोग सुघाट प्राया, पार हो दिन जात है । 'द्यानत' धरम की नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ॥२॥ ॐ ह्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय महाघ्यं निर्व० ।
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दव पूजा दोहा-प्रभु तुम राला जगत के, हमें देय दुख मोह ।
तुम पद पूजा करत हूँ, हमपं कवरणा होहि ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टादश-दोष-रहित-पवलारिखद्-गुण-वहित-श्रीजिनेन्द्र भगवन् ! अबावतरावतर संवापट् । ॐ ह्रीं अष्टादश-दोष-रहित पद चत्वामित् गुणसहित-श्रीजिनेन्द्र भगवन् अत्र विष्ट विष्ट 6:01 ॐ ह्रीं अष्टादन-दोप-रहित षट्चत्वारिंशत्-गण-सहित श्री जिनेन्द्र भगवन् ! अत्र मम सहिहितो मद मद वपद।
छन्द त्रिमंगी बहु तृषा सतायो अति दुख पायो, तुमपं पायो जल लायो। उत्तन गंगाजल, शुचि अति शीतल, प्रासुक निर्मलगुन गायो। प्रनु अन्तरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी दोष हो। यह अरज सुनी ढोल न कीज, न्याय करीज दया परो॥ ___ ह्रीं अष्टादश दोप-रहित षट्चत्वारिंशद् गुण-इहित श्रीजिनेन्द्र भगवद्भ्यो जन्ममृत्यु-विनाशनाय जलं निर्दपामीति स्वाहा । अवतपत निरन्तर अगानि पटतर, मो उर अंतर खेद करयो । ले बावन चंदन दाहनिकंदन, तुम पदवदन हरख घरो॥ ॐ ह्रीं अष्टा० श्रीजिनम्यो भवतापविनाशाय चन्दनं निव। .
ओसुन दुखदाता कहो न जाता, मोहि प्रसाता बहुत करें। तंदुल गुनमंडित अमलमखंडित, पूजत पंडित प्रीति घरं . ॐ ह्रीं अप्टा श्रीनिनेभ्यो अमयादप्राप्त प्रमतान् नि । सुरनर पशुको दल कामनहाबल, बात कहत छल मोह लिया। ताके शर लाऊल चढ़ाऊँ, भगति बढ़ाऊँ खोल हिया टही असा श्रीजिनम्यो कामबाणविनाशनाय पुपं निर्वा
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सब दोषनमाही जासम नाहीं, भूख सदा ही मो लागे। सद घेवर बावर लाडू बहुधर, थालकनक भर तुम आगे ॥प्र. ॐ ही अष्टा० श्रीजिनेभ्यो क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्य निर्वः। प्रज्ञान महातम छाय रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम दुख पावै । तम मेटनहारा तेज ,प्रपारा, दीप सवारा जश गावै ।।प्र. ॐ ह्री अष्टा० श्रीजिनेभ्यो मोहान्धकार-विनाशाय दीपं निर्व। इह कर्म महावन भूल रह्यो जन, शिवमारग नहिं पावत हैं। कृष्णागरुधूपं अमल अनूप, सिद्धस्वरूपं ध्यावत हैं ॥प्र. ॐ ह्री अष्टा० श्रीजिनेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूप निर्व। सबतै जोरावर अन्तराय करि, सुफल विघ्न करि डारत हैं। फलपुजविविधभर नयन मनोहर, श्रीजिनवर पद धारत हैं। ॐ ह्री अष्टा० श्रोजिनेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व० ।
आठौं दुखदानी पाठ निशानी, तुम ढिग प्रानि निवारन हो। दीनन निस्तारन अधम उधारन, 'धानत' तारन कारन हो । ॐ ह्री प्रष्टा• श्रीजिनेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं ।
जयमाला दोहा-गुरण' अनन्त को कहि सके, छियालीस जिनराय । प्रकट सुगुन गिनती कहूँ, तुम ही होहु सहाय ॥१॥
चौपाई । १६ मात्रा.) एक ज्ञान केवल जिनस्वामी, वो पागम अध्यातम नामी। तीच काल विधि परगट जानी, चार अनंतचतुष्टय ज्ञानी ।। पञ्च परावर्तन परकासी, छहो दरव गुण परजय भासी। सात-भंग वानी परकाशक, पाठो कर्म महारिपु नाशक ॥३॥
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वहु फूलसुवास विमलप्रकाशं, प्रानन्दरास लाय धरे । मम काम मिटायौ शील बढायौ सुख उपजायौ दोष हरे । तीर्थ ॐ ह्री श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्य पुष्पं निर्व० ॥४॥ पकवान बनाया, वहुकृत लाया, सब विध भाया मिष्ट महा । पूजू थुति गाऊँ प्रीति बढाऊँ, क्षुधा नशाऊँ हर्ष लहा । तीर्थ. ॐ ह्री श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै नैवेद्य निर्व० ॥५॥ करि दीपकज्योतं तमछयहोत, ज्योति उदोतं तुमहि चढ़े । तुमहो परकाशक भरमविनाशक, हमघट भासक ज्ञान बढ़े। ॐ ह्री श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै दीपं निर्व० ॥६॥ शुभगंध दशौंकर पावकमे घर, धूप मनोहर खेवत हैं । सब पाप जलाव; पुण्य कमाव, दास कहावै सेवत है ।। तीर्थ० ॥ ॐ ह्री श्रीजिनमुखोद्भवसरस्पतीदेव्यै धूप निर्व० ॥७॥ बादाम छुहारी लौंग सुपारी, श्रीफल भारी ल्यावत हैं। मनवांछित दाता मेट असाता, तुम गुन माता ध्यावत हैं ।ती. ॐ ह्री श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै फलं निर्व० ॥८॥ नयननिसुखकारी मृदुगुनधारी, उज्ज्वल भारी मोल धरै। शुभगषसम्हारा वसन निहारा, तुमतरु धारा ज्ञान करे ।ती। ॐ ह्री श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै वस्त्र निर्व० ॥६॥ जल चदन अच्छत फूल चरु चत, दीप धूप प्रति फल लावै । पूजाको ठानत जो तुम जानत, सो नर 'धानत' सुखपावै ।ती०। ॐ ह्री श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यऽयं निर्वपामीति स्वाहा। सोरठा-प्रोकार धुनिसार, द्वादशांग वारणी विमल ।
नमो भक्ति उरधार, ज्ञान करै जड़ता हरे॥
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गुरु पूजा दोहा-चहुँ गति दुखसागरविष, तारनतरन जिहाज ।
रतनत्रयनिधि नगन तन, धन्य महा मुनिराज ।।१।। ___ॐ ह्री श्रीग्राचार्योपाध्याय-सर्वमाधुगुरुसमूह | अत्रावतरावतर सवौषट् । ॐ ह्री श्रीग्राचार्योपाध्याय-मर्वमाधुगुरुसमूह | अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्री श्रीप्राचार्योपाध्याय-सर्वसाधुगुरुसमूह । अत्र मम मन्निहितो भव भव, वषट् । शूचि नोर निरमल छोरदधिसम, सुगुरु चरन चढाइया । तिहुँ धार तिहुँ गदटार स्वामी, अति उछाह बढाइया ।। भवभोग तन वैराग धार, निहार शिव तप तपत हैं । तिहुं जगतनाथ अराध साधु सु, पूज नित गुन जपन हैं ।।१। ॐ ह्री प्राचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुम्य जल नि० ॥१॥ करपूर चन्दन सलिलसौं घसि, सुगुरु पद पूजा करौं । सब पाप ताप मिटाय स्वामी, धरम शीतल विस्तरो।।भव० ॐ ह्री प्राचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुम्य चन्दन नि० ।।.॥ तन्दुल कमोद सुवास उज्ज्वल, सुगुरु पगतर धरत हैं । गुनकार प्रौगुनहार स्वामी, वन्दना हम करत हैं ।भव०॥३ ॐ ह्री प्राचार्योपाध्यायमर्वसाधुगुरुभ्यो अक्षतान् निर्व० ॥३॥ . शुभफूलरासप्रकाश परिमल, सुगुरुपायनि परत हों। निरवार मार उपाधि स्वामी, शीलहढ उर धरत हो भव। ॐ ह्री प्राचार्योपाध्यायसर्वमाधुगुरुभ्यः पुष्प नि० ॥४॥ पकवान मिण्ट सलोन सुन्दर, सुगुरु पायन प्रीतिमों।
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भव. । ५
कर क्षुधारोग विनाश स्वामी, सुथिर कीजे रीतिसो ॐ ह्री प्राचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्य नैवेद्य नि० ||५|| दीपक, उदोत सजीत जगमग सुगुरु पद पूजो सदा । तमनाश ज्ञान उजास स्वामी, मोहि मोह न हो कदा | भव. | ॐ ह्री प्राचार्योपाध्याय सर्वसाघुगुरुभ्य दीप नि० ||६||
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बहु अगर प्रादि सुगन्ध खेऊ सुगुरग पद, पद्महि खरे ।
दुख पुंजकाठ जलाय स्वामी गुरण श्रखय चितमे घरे |भव|| ॐ ह्री प्राचार्योपाध्याय सर्वसाघुगुरुम्योऽष्टकर्मदहनाय धूप नि० ॥७॥ भर थार पूरंग बदाम बहुविधि, सुगुरुक्रम श्रागे घरों । मंगल महाफल करो स्वामी, जोर कर विनती करौं । भव. ॐ ह्री प्राचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्य मोक्षफलप्राप्तये फल नि० । जल गंध प्रक्षत फूल नेवज, दीप धूप फलावली । 'द्यान' सुगुरुपद देह स्वामी, हमह तार उतावली । भव ॥ ॐ ह्री आचार्योपाध्याय सर्वं साघुगुरुभ्योऽनर्घ्य पदप्राप्तये श्रध्यं नि० ।
जयमाला
दोहा -- कनककामिनी विषयवश, दीसं सब संसार । त्यागी वैरागी महा, साधु सुगुरु भंडार ॥१॥ तीन घाटि नवकोड सब, बन्दों शीश नवाय ।
गुन तिन अट्ठाईस लौं, कहूँ भारती गाय ॥२॥ एक दया पालै मुनिराजा, रागद्वेष द्वं हरन परं । तीनो लोक प्रकट सब देखे, चारों प्राराधन निकरं ॥ पंच महाव्रत दुद्धर घारे, छहों दर्व जानें सुहित । सातभग-वानी मन लावे, पावे श्राठ रिद्ध उचित ।।
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नवों पदारथ विधिसौं भाख, बन्ध दशौं चूरन करन । ग्यारह शंकर जाने माने, उत्तम बारह व्रत धरन । तेरह भेद काठिया चूरे, चौदह गुण थानक लखिय । महा प्रमाद पवदश नाशे, शील कषाय सवै नखियं ।। बन्धादिक सत्रह सब चूरे, ठारह जन्म न मररण मुन ।। एक समय उनईस परीषह, वीस प्ररूपनि मे निपुनं । भाव उदीक इकोसौं जाने, वाइस प्रभखन त्याग कर ॥ अहमिदर तेईसौं बन्दै, इन्द्र सुरग चौबीस वर ॥५॥ पच्चीसो भाषन नित भाव, छब्बिस अङ्ग उपग पढे । सत्ताइससो विषय विनाश, अट्ठाईसौ गुण सु बढे ।।६।। शीत समय सर चौहटवासी, ग्रीषमगिरिशिर जोग घरै । वर्षा वृक्षतरै थिर ठाडे, पाठ करम हनि सिद्धि वरै ॥७॥ दोहा-कहों कहा लो भेद मै, बुध थोडी गुण पूर । __हेमरान' सेवक हृदय, भक्ति भरी भरपूर ॥ ॐ ह्री प्राचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो अध्यं निर्व० ।
अकृत्रिमचैत्यालय पूजा
॥चौपई । पाठकरोडरु छप्पनलाख । सहस सत्यारणव चतुशतभाख । जोड़ इक्यासी जिनवर थान । तीनलोक पाह्वानकरान ॥१॥ ____ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि-षट्पञ्चाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्रचतु शतकाशीति-अकृत्रिमजिनचैत्यालयानि अत्र अवतरत २ सवौषट् । अत्र तिष्ठत २ ठ ठ । अत्र ममसन्निहितानि भवत २ वषट् ।
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छन्द त्रिभगी ।
क्षीरोदधिनीर, उज्ज्वल छोरं, छान सुचीरं, भरि भारी । प्रति मधुर लखाबन, परमसुपावन, तृषाबुझावन, गुरणभारी । वसुकोटि सु छप्पन लाख सताणव, सहस चारशत इक्यासी । जिनगेह प्रकीर्तिम तिहूं जगभीतर, पूजत पद ले अविनाशी ।
ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षट्पञ्चाशल्लक्ष सप्तनवतिसहस्रचतु शतैकाशीति अकृत्रिम जिनचैत्यालयेभ्यो जल निर्वपामीति० ॥ १ ॥ मलयागिर पावन, चंदन बावन, तापबुझावन, घसि लीनो । धरि कनककटोरी, द्व कर जोरी, तुमपदश्रोरी, चित दीनो। वसु.
ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षट्पञ्चाशल्लक्ष- सप्तनवतिसहस्रचतु शतैकाशीति अकृत्रिम जिन चैत्यालयेभ्यो चन्दन निर्व० ॥२॥ बहुभाति अनोखे तंदुल धोखे, लखि निरदोखे, हम लीने । घरि कंचनथाली, तुमगुणमाली, पु जविशाली, करदीने । वसु.
ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षट्पंचाशल्लक्ष सप्तनवतिसहस्रचतु शतैकाशीति अकृत्रिम जिनचैत्यालयेभ्यो अक्षतान् निर्व० ||३|| शुभ पुष्पसुजाती है बहू भांती, पलि लिपटाती, लेय वरं । घरि कनक-रकेबी करगह लेवी, तुम पदजुगकी, भेटघर । वसु.
ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षट्पचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्रचतु शर्तकाशीति-प्रकृत्रिम जिनचैत्यालयेभ्य पुष्प निर्व० ॥४॥ खुरमा गिदौड़ा, बरफी पेडा, घेवर मोदक, भरि थारी । विधिपूर्वक कोने, घृतमय भीने, खडमें लीने, सुखकारी ॥ वसु.
ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षट्पंचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्रचतु शर्तकाशीति अकृत्रिम जिन चैत्यालयेभ्य नैवेद्य ं निर्व० ||५||
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१२ ।
मिथ्यात महातम, छाय रह्यो हम, निजभव परगति, नहिंतूझ। इह कारण पाकै दीप सजाक, थाल घराक, हमपूजे ।। वसु०। ____ॐ ही त्रैलोक्यसम्वन्ध्यप्टकोटि-पट्पचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहवचतु शतकाशीति अकृत्रिमजिनचंत्यालयेभ्य दीप निर्व० ॥ ६ ॥ दशगध कुटाके, धूप बनाके, निजकर लेके, धरि ज्वाला । तसु धूम उडाई दश दिशि छाई, बहु महकाई अति आला वसु०
ॐ ही त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि-पटपंचागल्लत-सप्तनवतिसहत्रचतु गतेकाशीति-अकृत्रिमजिनचैत्यालयेन्य धूप निर्व० ॥ ७॥ वादाम छुहारे, श्रीफल वारे, पिस्ता प्यारे दाखवरं। इन आदि अनोखे लखि निरदोखे, थालपजोखे, भेट घरं विसु. ___ॐ ही त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि-पटपचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहत्रचतु गतः शोति अकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो फल निर्व० ॥८॥ जल चदन तदुल कुसुम रु नेवज, दीप धूप फल, थाल रौँ। जयघोष कराऊ बीनबजाऊं, अर्घ चढाऊं, खूब नों।। वसु.
ॐ ही लोक्यसम्बन्ध्यप्टकोटि-षट्पंचाशल्लक्ष सप्तनवतिसहत्रचतु शतकाशीति अकृत्रिमजिनचंत्यालयेभ्यो अर्घ्य निर्व०॥६॥
अथ प्रत्येक अर्घ ( चौपई ) अधोलोक जिन आगमसाख । सात कोडि अरु बहतर लाख । धीजिनभवन महा छवि देइ । ते सब पूर्जी वसुविधि लेइ ।। ___ॐ ह्री अधोलोकसम्बन्धि सप्तकोटि-द्विसप्तति-ल, कृत्रिम श्री जिनचैत्यालयेभ्यो अर्घ्य निर्व० ॥१॥ मध्य लोक जिन मन्दर ठाठ । साढचारशतक अरु पाठ। ते सब पूजो अर्घ चढाय । मन वच तन त्रयजोग मिलाय ।।
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। ॐ ह्री मध्यलोकसम्बन्धि चतू शताष्टपञ्चाशत श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अध्यं निर्वपामीति० ॥२॥ अडिल-ऊर्ध्वलोक के माहि भवन जिन जानिये,
लाख चौरासी सहस सत्यानव मानिथे । ताप धरि तेईस जजो शिरनायके,
कंचनथालमझार जलादिक लायक ॥३॥ ॐ ह्री ऊर्चलोकसम्बन्धि चतुरशीतिलक्ष सप्तनवतिसहस्र-त्रयोविशति श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अध्यं ॥३॥
गीता छन्द बसुकोटि छप्पन लाख ऊपर, सहस सत्यारणव मानिये । शतच्यार में गिनले इक्यासी, भवनजिनवर जानिये ॥ तिहुँ लोक भीतर सासते,, सुर असुर नर पूजा करें। तिन भवनको हम अर्घ लेके, पूजि हैं जगदुख हरै ॥४॥ ___ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षटपञ्चाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्रचतु शतकाशीति-अकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्य पूर्णायं निर्व० ॥४॥
अथ जयमाला। दोहा-अब वरणू जयमालिका, सुनो भव्य चित लाय । जिनमन्दिर तिहुँ लोकके, देहं सकल दरशाय ।
पद्धडि छन्द। जयप्रमल अनादि अनंतजान । अनिमितज़ प्रकीर्तमप्रचलमान जय अजय अखंड अरूपधार । षट् द्रव्य नहीं दीसं लगार ॥ जय निराकार अविकार होय । राजत अनंत परदेश सोय ।
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६४ ।
जयशुद्धसुगुरण प्रवगाहपाय । दशदिशामाहि इह विध लखाय ।। यह भेद अलोकाकाश जान । तामध्य लोक नभ तीन मान ।। स्वयमेव बन्यौ अविचल अनत । अविनाशि अनादिजु कहतसत। पुरुषाकार ठाडो निहार । कटि हाथ घारि द्वं पग पसार ।। दच्छिन उत्तरदिशि सर्व ठौर । राजू जुसात भाख्यो निचोर।। जय पूर्व अपरदिशि घाटवाधि । सुन कथन कहू ताकोज साधि।। लखि श्वभ्रतले राजू जु सात । मधिलोक एक राजू रहात ।। फिर ब्रह्मसुरग राजू जु पाच । भू सिद्ध एक राजू ज सांच ।। दश चार ऊँच राजू गिनाय । षद्रव्य लये चतुकोण पाय ॥ तसु वातवलय लपटाय तीन । इहनिराधार लखियो प्रवीन ।। वसनाडी तामधि जान खास । चतुकोन एक राजू ज व्यास ।। राजू उतङ्ग चौदह प्रमान । लखि स्वयंसिद्ध रचना महान ।। तामध्य जीव स प्रादि देव । निज थान पाय तिष्ठे भलेय ।। लखि अधोभागमे श्वभ्रथान । गिन सात कहे मागम प्रमान ॥ षट्थानमाहिं नारकि बसेय । इक श्वभ्रभाग फिर तीनभेय ।। तसु अधोभाग नारकि रहाय । पुनिऊर्ध्वभाग द्वय थानपाय ॥ बसरहे भवन ब्यतरजु देव । पुर हर्म्य छजै रचना स्वयमेव ॥ तिहथान गेह जिनराजभाख । गिन सातकोटि बहत्तर जुलाख। ते भवन नमो मनवधन काय । गतिश्वभ्रहरन हारे बखाय । पुनि मध्यलोक गोलाकार । लखिदीप उदधि रचना विचार । गिन असख्यात भाखे जुसंत । लखि संभुरमन सबके जुनंत ।। इक राजव्यासमै सर्व जान । मधिलोकतनो इह कथन मान ।।
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[ ९५
सबमध्य द्वीप जम्बू गिनेय । त्रयदशम चिकवर नाम लेय ।। इन तेरह में जिनधाम जान । शतचार अठावन है प्रमान । खग देव प्रसुरनर प्रायप्राय । पद पूज जाय शिर नायनाय ।। जय अवलोक सुर कल्पवास । तिहथानछजे जिनभवनवास। जय लाखचुरासोपं लखेय । जयसहस सत्यारणव और ठेय ।। जय बोसतीन पुनि जोड़देय । जिन भवन प्रकीर्तम जानलेय।। प्रतिभवन एकरचना कहाय । जिनबिंब एकशत पाठ पाय ।। शतपञ्च धनुष उन्नत लसाय । पदमासनयुत वर ध्यानलाय।। शिरतीन छत्रशोभित विशाल । त्रयपादपीठ मरिणजटितलाल। भामण्डलको छबि कौन गाय । पुनिचवरदुरत चौसठि लखाय ।। जय दुन्दुभिरव अद्भुत सुनाय । जयपुष्पवृष्टि गंधोदकाय ।। जय तरुप्रशोक शोभा भलेय । मंगल विभूति राजत प्रमेय ।। घटतूप छजे मरिणमाल पाय । घटधूम्रपूम्र दिग सर्व छाय । जयकेतुपक्ति सोहै महान । गधर्व देव गुन करत गान । सुरजनमलेतलखि अधिपाय । तिसथान प्रथम पूजनकराय ॥ जिनगेहतनो वरनन अपार । हम तुच्छबुद्धि किम लहतपार।। जयदेव जिनेसुर बगत भूप । नमि "नेम" मंगै निज देहरूप ॥ दोहा तीनलोक मे सासते; पोजिन भवन विचार । . मनवचतन करि शुद्धता, पूजो अरघ उतार ॥
ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षट्पंचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्रचतु-शतकाशीति अकृत्रिम श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। २३॥
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८६ J
तिहू जगभीतर श्रीजिनमन्दिर, बने ग्रकीर्तम प्रति मुखदाय । नर मुर खगरि वदनीक जे, तिनको भविजन पाठ कराय ॥ धनधान्यादिकमपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय । मुर युग इन्द्र होयके, करम नाश शिवपुर सुख थाय ।। (उत्याशीर्वाद पुपाजन क्षिपेत् )
स्व • त्यागी दौननगमजी वर्णी कुन श्री ऋषि-मण्डल पूजा
स्थापना || दोहा || चौवीस जिन पद प्रथम नमि, दुतिय सुगरणधर पाय । तृतीय पञ्च परमेष्ठि को, चौथे शारद माय ॥ मन चच तन ये चरन युग, करहु सदा परनाम | ऋषि मण्डल पूजा रचों, बुधि वल द्यो श्रभिराम ॥ ग्रडिन्न छन्द- चौविस जिन वसु वर्ग पञ्च गुरु जे कहे । रत्नत्रय चव देव चार श्रवधी लहे ||
भ्रष्ट ऋद्धि चव दोय रहत दश दिग्पाल
ह्रीं तीन जू ।
सूर यन्त्र मे लीन जू ॥
दोहा - यह सब ऋषि मण्डल विषै, देवी देव प्रपार । तिष्ठ तिष्ठ रक्षा करो, पूजूं वसु विधि सार ॥
ॐ ह्रीं वृषभादि चौवीसतीथंङ्कर, श्रटवर्ग ग्रहंदादि पञ्चपददर्शन ज्ञान चारित्रमहितचतुर्निकायदेव, चार प्रकार अवधि वारक श्रमण, श्रष्टऋद्विसयुक्त चतुर्विंशति सूरि, तीन ही, ग्रद् विम्ब, दसदिग्पाल यत्रमम्वन्धिपरमदेव श्रत्र श्रवतर २ सर्वोपट् श्राह्वानन 1
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[ ९७ अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
अथाष्टक क्षीर उदधि समान निर्मल, तथा मुनि-चित सारसों। भरमृग मरिणमय नीर सुन्दर, तृषा तुरित निवारसों ।। जहँ सुभग ऋषि मण्डल विराजे पूजि मन वच तन सदा । तिस मनोवाछित मिलत सब सुख स्वप्नमे दुख नहिं कदा । ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवविनाशनसमर्थाय यन्त्रसम्बन्धिपरमदेवाय जलं ॥१॥ मलय चन्दन लाय सुन्दर, गंध सों अलि झंकरै । सो लेहु भविजन कुम्म भरिके तप्त दाह सबै हरै।
__जहं सुभग ऋषि० ॥ तिस मनो० ॥ चदनं ।। इन्दु किरण समान सुन्दर, ज्योति मुक्ता की हरै । हाटक रकेबी धारि भविजन, अखय पद प्राप्ती करै ।।
जहँ सुभग ऋषि । तिस मनो० ॥ अक्षत ।। पाटल गुलाब जुही चमेली, मालती बेला धने । जिस सुरभित कलहस नाचत, फून गुथि माला बने ।
जहें सुभग ऋषि० ॥ तिस मनो० ॥ पुष्पं ॥ अद्ध चन्द्र समान फेनी, मोदकादिक ले घने । घृतपक्व मिश्रित रस सु पूरे, लख क्षुधा डाइनि हने ।
जहें सुभग ऋषि० ॥ तिस मनो० ॥ नैवेद्यं ।। मरिण दीप ज्योति जगाय सुन्दर, वा कपूर अनूपकं । हाटक सुथाली माहि धरिके, वारि जिनपद भूपकं ।
जहं सुभग ऋषि० ॥तिस मनो० ॥ दीपं ॥
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९९ कामिनी मोहनी छन्द परम उत्कृष्ट परमेष्ठी पद पांच को, नमत शत इन्द्र खगवृन्द पद साँच को। तिमिर अघ-नाश करणार्थ तुम अर्क हो,
अर्घ लेय पूज्य पद देत बुद्धि तर्क हो । ॐ ह्री सर्वोपद्रवविनाशनसमर्थाय पचपरमेष्ठिपरमदेवाय अध्यं ।
सुन्दरी छन्द सुभग सम्यक् दर्शन ज्ञान जू, कह चारित्र सुधारक मान जू । अर्घ सुन्दर द्रव्य सु आठ ले, चरण पूजहुँ साज सु ठाठ ले ॥ ॐ ह्री सर्वोपद्रवविनाशनसमर्थेभ्यो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्योऽध्य० ।
हरिगीता छन्द ' भवनवासी देव व्यन्तरज्योतिषी कल्पेन्द्र ज,
जिनगृह जिनेश्वर देव राज रत्नके प्रतिविम्ब न । तोरण ध्वजा घण्टा विराज चँवर ढरत नवीन जू,
वर अर्घले तिन चरण पूजों हर्ष हिय प्रति लीन ज ।। ॐ ह्री सर्वोपद्रवविनाशनसमर्थेभ्य भवनेन्द्रव्यतरेन्द्र-ज्योतिषेन्द्र-कल्पेन्द्रचतु प्रकारदेवगृहेभ्य श्रीजिनचैत्यालयसंयुक्तेभ्यो अर्घ्य नि० । दोहा-प्रवधि चार प्रकार मुनि, धारत जे ऋषिराय ।
अर्घ लेय तिन चरण जजि, विधन सघन मिट जाय ॥ ॐ ह्री सर्वोपद्रवविनाशनसमर्थेभ्य चतु.प्रकारअवधिधारकमुनिभ्योऽयं०
भुजङ्गप्रयात छन्द कही पाठऋद्धि घरे जे मुनीश, महाकार्यकारी बखानी गनीशं । जल गंध आदि दे जजो चर्न नेरे, लहो सुक्ख सगरे हरों दुःख फेरे ॐ ह्री सर्वोपद्रवविनाशनसमर्थेभ्य अष्टऋद्धिमहितमुनिभ्यो अध्यं ।
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१०० ]
श्री देवी प्रथम वग्वानो, इन श्रादिक चौवीसो मानी । तत्पर जिन भक्ति विषै हैं, पूजत सत्र रोग नशे है ॥ ॐ हो मर्योपद्रव विनामननमयन्य श्री ग्रादिचनु विद्यतिदेवी यो प्रध्यं
हमा छन्द
9
यन्त्र दिये वरन्यो तिरके न हों तहें तीन युक्त सुखभोन । जल फलादि वसु द्रव्य मिलाय, घं महित पूज् शिरनाय ॥ ॐ ही सर्वोपद्रवविनाशनममर्थाय निकोणमध्ये तीनही नयुक्तायार्घ्यं तोमर छन्द
दस प्राठ दोष निरवारि, छियालीस महा गुण धारि । वसु द्रव्य अनूप मिलाय, तिन चनं जजो सुखदाय ।। ॐ ह्री सर्वोपद्रवविनाशनममर्थाय ग्रष्टादगदोपहिताय पट्चत्वारिंगत महागुणयुक्ताय श्रर्हपरमेष्ठिने ग्रयं ।
नोरठा - दश दिश दिग्पाल, दिशानाम सो नामवर । तिनगृह श्री जिन प्राल, पूर्जो मै वन्दों सदा ॥ ॐ ह्री नर्वोपद्रवविनाशनसमर्थेम्य दगदिग्पालेभ्य जिनभक्तियुक्तेभ्योऽ दोहा - ऋषिमण्डल शुभयन्त्र के, देवी देव चितारि । घं सहित पूजहुँ चरन, दुख दारिद्र निवारि ॥ ॐ ह्री सर्वोपद्रर्वाविनाशनसमर्थेभ्य ऋपिमंडल - सम्बधिदेवीदेवेभ्योऽर्घ्यं •
जयमाला
दोहा - चौबीसो जिन चरन नमि, गणधर नाऊँ भाल । शारद पद पंकज नमू, गाऊं शुभ जयमाल ॥ जय आदीश्वर जिन त्रादिदेव, शत इन्द्र जर्ज मै करहुँ सेव । जय अजित जिनेश्वर जे अजीत, जे जीत भये भवते प्रतीत ॥
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जय सम्भव जिन भवकूप माहि, डूबत राखहु तुम शरण प्राहिं । जय अभिनन्दन प्रानन्द देत, ज्यों कमलों पर रवि करत हेत ॥ जय सुमति सुमतिदाता जिनन्द, जय कुमतितिमिर नाशमदिनंद जय पनालकृत पनदेव, दिनरैन करहुँ तव चरन सेव ।। जय श्रीसुपार्श्व भवपाश नाश, भविजीवन दियो मुक्तिवास। जय चन्द जिनेश दया निधान, गुरगसागर नागर सुख प्रमान । जय पुष्पदत जिनवर जगीश शतइन्द्र नमत नित प्रात्मशीश । जय शीतल वच शीतलजिनद, भवताप नशावत जगतचन्द ।। जयजय श्रेयास जिन प्रति उदार,भविकंठ माहि मुक्तासुहार । जय वासुपूज्य वासव खगेश, तुम स्तुतिकरि पुनि नमिहै हमेश ।। जय विमल जिनेश्वर विमलदेव, मलरहित विराजत करहुं सेव। जय जिन अनतके गुण अनंत, कथनी कथ गणघर लहै न अंत ।। जय धर्मधुरंधर धर्मधीर, जय धर्मचक्र शुचि ल्याय वीर । जय शाति जिनेश्वर शांतभाव, भववन भटकत शुभमग लखाव। जय कुन्यु कुन्यवा जीव पाल, सेवक पर रक्षा करि कृपाल । जय अरहनाथ अरि कर्म शैल, तपवज्र खड लहि मुक्ति गैल ॥ जय मल्लि जिनेश्वर कर्म पाठ, मल डारे पायो मुक्ति ठाठ । जय सुव्रत मुनिसुव्रत घरत, जय सुव्रत व्रत पालत महत ।। जय नमियनमत सुरंवृन्द पाय, पद पंकज निरखत शीश नाय । जय नेमि जिनन्द दयानिधान, फैलायो जगमे तत्त्वज्ञान ॥ जय पारस जिन पालस निवारि, उपसर्ग रुद्र कृत जीतधारि । जव महावीर महाधीरधार, भवकूप थको जगतै निकार ॥
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जय वर्ग पाठ सुन्दर अपार, तिन भेद लखत बुध करतसार । जय परमपूज्य परमेष्ठि सार, जिन सुमरत वर्षे आनंदधार । जय दर्शन ज्ञान चरित्र तीन, ये रत्न महा उज्ज्वल प्रवीन । जय चार प्रकार सुदेव सार, तिनके गृह जिन मदिर अपार ।। जो पूजै वसुविधि द्रव्य लाय, मै इत नजि तुमपद शीशनाय । जो मुनिवर धारत अवधिचारि, तिन पूजे भवि भवसिंधु पार । जो आठ ऋद्धि मुनिवर धरंत, ते मोपै करुणा करि महत । चौबीस देवि जिन भक्ति लीन, वन्दन ताको सु परोक्ष कोन ॥ जे ह्रीं तीन त्रैकोरण पाहि, तिन नमत सदा आनन्द पाहिं । जय जय जय श्रीअरहत बिंब तिन पद पूजू मै खोइ डिब । जो दश दिग्पाल कहे महान, जे दिशा नाम सो नाम जान । जे तिनके गृह जिनराज धाम, जे रत्नमयी प्रतिभाभिराम ॥ ध्वज तोरण घण्टा युक्तसार, मोतिन माला लटके अपार । जे ता मधि वेदी है अनूप, तहँ राजत हैं जिनराज भूप ॥ जय मुद्रा शान्ति विराजमान, जा लखि वैराग्य बढ़े महान । जे देवी देव सु आय प्राय, पूजे तिन पद मन वचन काय ।। जलमिष्ट सु उज्ज्वल पय समान, चदन मलयागिरिको महान । जव अक्षत अनियारे स लाय, जे पुष्पन की माला बनाम ।। चरु मधुर विविध ताजी अपार, दीपक मेरिणमय उद्योतकार । जे धूप सु कृष्णागरु सुखेय. फल विविध भाँतिके मिष्ट लेय । वर अर्घ अनूपम करत देव, जिनराज चरण आगे चढेव । फिर मुखते स्तुति करते उचार, हो करुणानिधि समार तार ।
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L १०२
मै दुःख सहे संसार ईश, तुमते छानी नाहीं जगोश । जे इहविधि मौखिक स्तुति उचार, तिन नशत शीघ्र संसारभार इहविधि जो जन पूजन कराय, ऋषिमंडल यत्र सू चित्तलाय । जे ऋषि मंडल पूजा करन्त, ते रोग शोक संकट हरन्त ॥ जे राजा रन कुल वृद्धि जान, जल दुगं सु गज केहरि बखान । जे विपतिघोर श्ररु कहि मसान, भय दूर करे यह सर्कल जान ॥ जे राजभ्रष्ट ते राज पाय, पद भ्रष्ट थकी पद शुद्ध थाय ।
धन अर्थी धन पावे महान, यामे संशय कछु नाहि जान भार्या अर्थी भार्या लहन्त, सुत अर्थी सुत पावे तुरन्त । जे रूपा सोना ताम्रपत्र, लिख तापर यन्त्र महा पवित्र || ता पूजे भागे सकल रोग, जे वात पित्त ज्वर नाशि शोग । तिन गृहतं भूत पिशाच जान, ते भाग जाहि संशय न श्रान ॥ जे ऋषि मंडल पूजा करन्त, ते सुख पावत कहि लहे न अन्त । जब ऐसो मैं मन माहिं जान, तब भाव सहित पूजा सुठान ॥ वसुविधिसे सुन्दर द्रव्य ल्याय, जिनराज चरण आगे चढ़ाय । फिर करत भारती शुद्धभाव, जिनराज सभी लख हर्ष श्राव ॥ तुम देवन के हो देव देव, इक प्ररज चित्त में धारि लेव । जे दीनदयाल दया कराय, जो मै दुखिया इह जग भ्रमाय ॥ जे इस भव वन मे वास लीन, जे काल श्रनादि गमाय दीन । मैं भ्रमत चतुर्गति विपिन माहि, दुख सहै सुक्ख को लेश नाहि ।। ये कर्म महारिपु जोर कीन, जे मनमाने ते दुःख दीन । को नहि डर धराय, इनते भयभीत भयो अघाय ॥
ये
काहू
?
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१०४ ] यह एक जन्म को बात जान, मैं कह न सकत हूँ देवमान ।। जब तुम अनन्त परजाय जान, दरशायो तसृति पथ विधान । उपकारी तुम दिन और नाहि, दीखत मोको इस जगत माहि ।। तुम लव लायक नायक जिनन्द, रत्नत्रय तपति यो प्रनन्द । यह अरज करू मैं श्रीलिनेश, भव भव लेवा तुम पद हमेश ।। भवभवमे श्रावक कुल महान, भवभवमे प्रकरित तत्त्वज्ञान । भवनवमे व्रत हो अनागार, तिस पालनते हो भवाब्धिपार ॥ ये योग सदा मुझको लहान, हे दीनबन्धु करुणा निधान । "दौलत पोतेरी" मित्र दोय तुम शरण गही हरषित सुहोय ॥ पत्ता-जो पूजे घ्यावे भक्ति बढावे, ऋषिमण्डन शुभयत्र तनी ।
या भव मुखपावे सुजस लहावे,परभव स्वर्ग नुमोक्षघनी ।।
ॐ ही ननद्रव वनागनननर्याच गोगोर नर्वस हगव नशान्तिप्टिमगर, श्रीवृपमादि चौबीन तीर्थकर प्रप्टवर्ग अन्तादि पचपद, दर्गन जान चारित्र सहित चतुनिनाय देव, चव प्रकार प्रधिघारक प्रमण अप्ठ ऋद्धिनयुक्त बोस चार नि तोन हो, पहंदिर, दादिपान पत्र सम्बन्धि परमदेवार जयमाला पीय निर्वपानीति न्वाहा।
ऋषिमण्डल शुभ यन्त्र को, नो पूजे मन लाय । ऋद्धिमिद्धि ता घर बने, विघन नघन मिट जाय ।। विघन नघन मिट जाय, सदा सर वो नर पावै । ऋषि मप्रल शुभ यन्त्र तनो, जो पूज रचावं ।। भावभक्ति युन होय, मदा जो प्राणी घ्यावं । या भव में नर भोग, स्वर्ग की सम्पति पावै ।।
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[ १०५ या पूजा परभाव मिटे, भव भ्रमण निरन्तर । यात निश्चय मान करो नित भाव भक्ति घर ।। इत्याशीर्वाद । पुष्पाजलि क्षिपेत् ।
सम्वत् भू ग्रह माहिं जो, सावन सार प्रसेत । पहर रात बाकी रही, पूर्ण करी सुख हेन । इति
श्रीतीस चौबीसीजी की
पूजा
पाँच भरत शुभ क्षेत्र पाँच ऐरावते,
श्रागत-नागत वर्तमान जिन सास्वते ।
सो चौबीसी तीस जजू" मन लायके,
श्राह्नानन विधि करू बार त्रय गायके ||
ॐ ह्री पंचमेरूसम्बन्धि - पंचभरत - पंचऐरावत क्षेत्रस्थ भूतानागतवर्तमान-सम्वन्धिसप्तशतविंशतितीर्थङ्करा
अत्र अवतरत अवतरत
पट् इति श्राह्वाननं । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठठ स्थापन । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वपट् सन्निधिकरणम् ।
नीर दधि क्षीर हम ल्यायो, कनक को भृङ्ग भरवायो । श्रबे तुम चरण ढिग आयो, जन्म-मृत्यु रोग नशवायो || द्वीप प्रढाई सरस राजे, क्षेत्र दस ता विषै छाजे । सात शत बोस जिनराजे, पूजताँ पाप सब भाजे ||१||
ॐ ह्री पचभरत पंचऐरावत क्षेत्रस्थ भूतानागत- वर्तमानकाल सम्बन्धी तीस चौबीसी के सातसौवीस तीर्थंकरेभ्य नमं जलं निर्व० |
सुरभिजुत चन्दन ल्यायो, सग करपूर घसवायो ।
धार तुम चरण ढरवायो, भव- श्राताप नशवायो ॥ द्वीप० ॥
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१०६
ह्री पाच भरत पाँच ऐगवत क्षेत्र सम्बन्धी तीम चौबीमी के सात सा वीम जिनेन्द्रेभ्य नम चन्दन निर्व० ।
चन्द्रमम तन्दुल सारं, किरण मुक्ता जु उनहार । पुञ्ज तुम चरढिग पारं,अक्षयपद प्राप्तिके कार द्वोप०।।
ॐ ह्री पांच भगत पाँच ऐगवत क्षेत्र सम्बन्धी तीम चौवीमी के सात मो बीम जिनेन्द्रेभ्य नम अक्षत नि० । पुष्प-शुभ गन्धजुत सोहे, सुगन्धित तासु मन मोहे । जजत तुम मदन क्षय होवे, मुक्तिपुर पलकमे जोवे द्वीप०॥
ॐ ह्री पात्र भरत पाँच ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी तीम चौवीमी के मात मी वीस जिनेन्द्रेभ्य नम पुप्प निर्व० । सरम व्यजन लिया ताजा, तग्त वनवाइया खाजा । चरन तुम जजत महाराजा क्षुधादग्व पलकमे भाजाराद्वीप०॥
ह्री पांच भरत पांच ऐगवत क्षेत्र सम्बन्धी तीस चौवीमी के मात मो वीम जिनेन्द्रेभ्य नम नैवेद्य निर्व०।। दीप तम नाशकारी है, मुरभिजुत ज्योतिधारी है । दशों दिश कर उजारी है, धूम्र मिस पाप छारी है ।।द्वीप०॥
ॐ ह्री पांच भग्त पांच ऐगवन क्षेत्र सम्बन्धी तीम चौवीमी के सात मी बीम जिनेन्द्रेभ्य नम दीप निर्व० । सुगन्धित धूप दश अंगी. जलाऊँ अग्नि के मगी। करम की मन्य चतुरगी, पूजते पाप सव भगी ॥द्वीप०॥
___ॐ ही पांच भग्न पाँच ऐगवन क्षेत्र सम्बन्धी तीम चौबीसी के मान मी बीम जिनेन्द्रभ्य नम धूप निर्व। मिष्ट उत्कृष्ट फल ल्यायो, प्रप्ट अरि दुप्ट नशवायो । घोजिन भेंट घरवायो, कार्य मनवांछता पायो द्वीप०॥
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[ १०७
ॐ ह्री पाँच भरत पाँच ऐरावत क्षेत्र संबंधी तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनेन्द्रेभ्य नम फल नि० ।
द्रव्य आठो जु लीना है, श्रर्घ कर में पूजते पाप छीना है, 'भानमल' जोड
नवीना है । कोना है || द्वीप० ॥
ॐ ह्री पाँच भरत पाँच ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी तीस चौबीसी के सात सौ वीस जिनेन्द्रेभ्य' नम अघ्यं निर्व० ।
प्रत्येक अर्ध ।
जम्बूद्वीप की प्रथममेरुकी, दक्षिणदिशा भरत शुभ जान । तहाँ चौबीसी तीन विराजे प्रगत नागत नौ वर्तमान ॥ तिनके चररणकमलको निशदिन, अर्धचढ़ाय करूँ उर ध्यान । इस ससार भ्रमरणते तारो, श्रहो ! जिनेश्वर करुणावान ||
ॐ ह्री सुदर्शन मेरु की दक्षिण दिशि भरत क्षेत्र सम्बन्धी तीन चोवीसी के बहत्तर जिनेन्द्रेभ्य नम अघ्यं निर्व० । सुदर्शनमेरु की उत्तर दिशमे, ऐरावत क्षेत्र शुभ जान । श्रागत नागत वर्तमान जिन, बहतर सदा सास्वते जान || तिनके चरणकमलको निशदिन, श्रर्घचढ़ाय करूँ उर ध्यान । हम ससार भ्रमरणते तारो, ग्रहो जिनेश्वर ! करुणावान || ॐ ह्री सुदर्शन मेरु की उत्तर दिशि ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी तीन चौबीसी के वहत्तर जिनेन्द्रेभ्य नम. अर्घ्यं निर्व ० खण्ड घातकी विजय मेरुके, दक्षिण दिशा भरत शुभ जान । तहाँ चौबीसी तीन विराजे, श्रागत नागन श्ररु वर्तमान || तिनके चरणकमलको निशदिन, प्रघचढ़ाय करू उर ध्यान । इस ससार भ्रमरणते तारो, श्रहो जिनेश्वर ! करुणावान ||
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१०८ ]
ॐ ही घातकीखण्ड द्वीपकी पूर्व दिशि विजय मेरु की दक्षिण दिशि भरत क्षेत्र सम्वन्धी तीन चौवीसी के बहत्तर जिनेन्द्रेभ्यो नम प्रर्घ्यं नि० इसी द्वीपको प्रथम शिखरकी, उत्तर ऐरावत जु महान । श्रागत नागत वर्तमान जिन, बहतरि सदा सासते जान || तिनके चररणकमलको निशदिन, अर्धचढाय करू उर ध्यान । इस संसार भ्रमरणतै तारो, श्रहो जिनेश्वर ! करुणावान ||
ॐ ह्री घातकीखण्ड द्वीप की पूर्व दिशि विजय मेरु की उत्तरदिशि ऐरावतक्षेत्र सवधी तीन चीबीसी के बहत्तर जिनेन्द्रेभ्यो नम अर्घ्यं नि० चौपाई |
खडघातकी अचल सुमेर, दक्षिण तास भरत चहुँ घेर । तामे चौबीसी त्रय जान, श्रागत नागत रु वर्तमान || ॐ ह्री घातकीखण्ड की पश्चिम दिशि अचल मेरु की उत्तर दिशि ऐरावतक्षेत्र सबधो तीन चौबीसी के बहत्तर जिनेन्द्रेभ्य नम अर्घ्यं नि०
अचल मेरु उत्तर दिश जान, ऐरावत शुभ क्षेत्र बखान । तामे चौबीसी त्रय जान, श्रागत नागत प्ररु वर्तमान ||
ॐ ह्री घातकीखण्ड की पश्चिम दिशि प्रचल मेरु की उत्तर दिशि ऐरावतक्षेत्र सबधी तीन चौबीसी के बहत्तर जिनेन्द्र भ्य नम अर्घ्य नि० सुन्दरी छन्द
द्वीप पुष्करकी पूरब दिशा, मन्दिर मेरुकी दक्षिरण भरतसा । ताविषे चौबीसी तीन जू, अर्घ लेय जजू परवीन जू ॥
ॐ ह्री पुष्कर द्वीप की पूर्वं दिशि अचलमेरु की दक्षिण दिशि भरत क्षेत्र सवघी तीन चौवीसी के बहत्तर जिनेन्द्रेभ्य नम अध्यं नि० । गिरि सु मन्दिर उत्तर जानिये, क्षेत्र ऐरावत सु बखानिये | ताविषे चौबीसी तीन जू, श्रर्घ लेय जजू परवीन जू ॥
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[ १०६ ॐ ह्री पुष्कर द्वीपकी पूर्वदिशि मन्दरमेरु की उत्तर दिशि ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी तीन चौबीसी के बहत्तर जिनेन्द्र भ्य. नम अध्यं नि।
पद्धरि छन्द पश्चिम पुष्करगिरि विद्युतमाल, ताके दक्षिण भरतसु विशाल । तामे चौबीसी हैं जु तीन, वसु द्रव्य लेय पूजू प्रवीन । ____ॐही पुष्कराद्ध द्वीपकी पश्चिम दिशि विद्य तमालोमेरु को दक्षिण दिशि भरतक्षेत्रसवधी तीन चौबीसीके बहत्तर जिनेन्द्रेभ्य. नम अध्यं । याही गिरि के उत्तर जु ओर, ऐरावत क्षेत्र बनो निहोर । तामे चौबीसी हैं जु तीन, वसु द्रव्य लेय पूजो प्रवीन ।।
ॐ ह्री श्रीपुष्कराद्धंद्वीपकी पश्चिम दिशि विद्य त-मालीमेह की उत्तरदिशि ऐरावतक्षेत्रसम्बन्धी तीसचौबीसीके बहत्तर जिनेन्द्रेभ्योऽयं । द्वीप अढाई के विष, पञ्चमेरु हित दाय ।
दक्षिरण उत्तर तासुकै, भरत ऐरावत भाय । भरत ऐरावत भये, एक क्षेत्र के माहीं ।
चौबीसी है तीन, दसों दिशि ही के ठाहीं॥ दसों क्षेत्र के तीस सात सौ बीस जिनेश्वर ।
अर्घ लेय फरजोडि जर्जी मन शुद्ध मुदित कर ।। ॐ ह्री पचमेर सम्बन्धी भरतरावत क्षेत्र के विष तीन चौबीसी के सात सौ बीस जिनेन्द्रेभ्य नम अध्यं नि०।
जयमाला दोहा-चौवीसी तीसो नमों, पूजा परम रसाल ।
मन-वच-तन को शुद्धकरि, अब वरणों जयमाल ।। जय द्वीप अढ़ाई मध्य सार, गिरि पांच मेरु उन्नत अपार ।
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११० । तागिरि पूरव-पश्चिम जु ओर, शुभक्षेत्र विदेह बस जुठोर ।। ता दक्षिण क्षेत्र भरत सु जानि, है उत्तर ऐरावत महान । गिरि पाचतनै दश क्षेत्र जोय, ताको वरनन सब सुनो लोय ॥ है भरतक्षेत्र दक्षिण जु व्यास, ऐरावत ताहि प्रमारण भास । इक क्षेत्र बोच विजयाद्ध एक, ता ऊपर विद्याधर अनेक ।। इक क्षेत्र विष षट खड जानि, तहाँ छहो काल बरत महान । जो तीन कालमे भोगभूमि, दस जाति कल्पतरु रहे झूमि ।। जब चौथो काल लग जाय, तब कर्मभूमि वर्ते सुभाय । तब तीर्थङ्कर को जन्म होय, मुरलेय जज गिरि पर सुजोय ।। बहु भक्ति करें सब देव पाय, ताथेई थेई-थेई की तान लाय । हरि ताण्डव नृत्य करे अपार, सब जीवन मन आनन्दकार ।। इत्यादि भक्ति करिके सुरेन्द्र, निजथान जाय जुत देव वृन्द । याहीविधि और कल्यान जान, हरिभक्ति कर अतिहर्ष ठान ।। या कालविर्ष पुण्यवत जीव, नरजन्मधार शिव लहै अतीव । जे त्रेसठ पुरुष प्रधान होय, सब याही काल विर्ष जु होय ।। जब पञ्चमकाल करे प्रवेश, मुनि धर्म रहे कह कह प्रदेश । बिरले कोइ दक्षिन देश माहि, जिनधर्मी नर बहुते जु नाहिं ।। जब षष्ठम काल करे प्रवेश, दुख ही दुख व्याप सर्व देश । तब मासभक्षी नर सर्व होय, जहँ धर्म नाम सुनिये न कोय । या विधि दशक्षेत्र मझार सार, इहकाल फिरन सब एकसार । हद पर्वत नदि रचना प्रमान, पागम अनुकूल लखो सुजान ।। इक क्षेत्र चौबीसी तीन जान, प्रागत नागत अरु वर्तमान ।
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दशक्षेत्र सातशत जोडबीस, नित नन्दनकरूं कर जोडशोश ।। सबही जिनराज नमो त्रिकाल, मोहिंभवसागरसे लेहु निकाल । मम हृदयमध्य तिष्ठो जिनेश, काटो भव फद जजो जगेश ।। रविमलकी विनती सुनहु नाथ, तुमशरणलई कर जोडिहाथ । मनवाछित कारज सार-सार, यह परज हिये मे धार-धार ।। पत्ता-शत सातज़ बीसं, श्रीजगदीशं, भागत नागत वर्ततु है ।
मनवचतन पूज, शुध-मन हूनै, सुरगमुक्तिपद धरतजु है ।। ॐ ह्री पञ्चमेरु सम्बन्धी दशक्षेत्र विष तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनेन्द्रेभ्य नम अध्यं निर्व. दोहा - सम्वत् सत उन्नीस के, ता ऊपर पुनि आठ ।
पौष कृष्ण तृतीया गुरू, पूरन भयो जु पाठ ।। अक्षर मात्रा की कसर, बुध-जन शुद्ध करेय । अल्पबुद्धि मोहि जानके, दोष कबहुं नहिं देय ॥ पढयो नहीं व्याकरण मैं, पिङ्गल देख्यो नाहिं । जिनवारणी, परसादतै, उमंग भई घट माहिं । मान बड़ाई ना चहूँ, चहूं धर्म को अङ्ग । नित प्रति पूजा कीजियो, मनमें धारि उमङ्ग । ___ इत्याशीर्वाद. । पुष्पालि ।
रविव्रत पूजा यह भविजन हितकार, सु रविनत जिन कही।
करहु भन्यजन लोक, सुमन देके सही। पूजो पार्श्व जिनेन्द्र त्रियोग लगाय के।
मिटै सकल सताप मिले निधि प्रायके ।।
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११२ ।
महिसागर इक सेठ कथा ग्रन्थन कही ।
उनही ने यह पूजा कर श्रानन्द लही || ताते रविव्रत सार, सो भविजन कीजिये ।
सुख सपति संतान, अतुल निधि लीजिये ।। पार्श्व जिनेश को, हाथ जोड़ शिर नाथ । परभव सुख के कारने, पूजा करू बनाय || एतवार व्रत के दिना, एही पूजन ठान ।
ताफल सुख सम्पति लहै, निश्चय लीजे मान ॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र । श्रत्र श्रवतर श्रवतर मवीपट् श्राह्वाननम् । श्रत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ प्रतिष्ठापनम् । श्रत्र मम सन्निहितो भव भव वपद्, सन्निधिकरणम् । उज्ज्वल जल भर कर प्रति लायो रतन धार देत प्रति हर्ष बढ़ावत, जन्म जरा पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के सुख सम्पति वहु होय तुरत हो, श्रानन्द ॐ ह्री श्रीपादवनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जन || १ || मलयागिरि केशर ग्रति सुन्दर, कुंकुम रंग बनाई ।
―
कटोरन माहीं ।
मिट जाहीं ॥ दिन भाई । मंगलदाई ॥
धारदेत जिन चरणन श्रागे, भव प्राताप नशाई । पारस. चदन | मोतीसम प्रति उज्ज्वल तन्दुल ल्यायो नीर पखारो । प्रक्षयपद हेतु भावसो श्रीजिनवर ढिंग धारो । पारस. प्रक्षत। बेला पर मचकुन्द चमेली, पारिजात के ल्यावो ।
चुनचुन श्रीजिन प्रग्र चढाऊँ, मनवांछित फल पाऊँ । पा. पुष्पं । वावर फेनी गुञ्जा श्रादिक, घृत मे लेत पकाई । कंचनयार मनोहर भरके, चरणन देत चढाई || पारम. नैवेद्य ||
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मणिमय दीप रतनमय लेकर, जगमग ज्योति जगाई। जिनके आगे आरति करके, मोह तिमिर नशजाई ।पा.दीपं। चूरणकर मलयागिरि चन्दन, धूप दशांग बनाई। पावक तट में खेय भावसो, कर्मनाश हो जाई ।पारस धूप।। श्रीफल आदि बदाम सुपारी, भांति-भांति के लावो । श्रीजिनचरण चढ़ाय हर्ष कर, तातै शिवफल पावो पा.फल।। जल गन्धादिक प्रष्ट द्रव्य ले, अरघ बनायो भाई। नाचत गावत हर्षभावसो, कंचनथार भराई पा.अध्य।।
गीतिका छन्द - . मन वचन काय विशुद्ध करके, पार्श्वनाथ सु पूजिये । जल आदि अर्घ बनाय भविजन, भक्तिवन्त सु हूजिये ।। पूज्य पारसनाथ जिनवर, सकल सुख दातारजी। . जे करत हैं नरनार. पूजा, लहत सौख्य अपारजी ॥प्रय।।
जयमाला दोहा-यह जग मे विख्यात है. पारसनाथ महान । जिनगुण की जयमालिका, भाषा करों बखान ॥
पद्धरि छन्द जयजय प्रणमो श्रीपार्श्वदेव, इन्द्रादिक तिनकी करत सेव । जयजय सु बनारस जन्म लीन, तिलोक विष उद्योत कीन ॥ जय जिनके पितु पीअश्वसेन, तिनके घर भए सुखचैन एन । जय बामा देवी मात जान, तिनके उपजे पारस महान ॥२॥ जय तीन लोक मानन्द देन, भविजन के दाता भए ऐन ।
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जय जिनने प्रभुको शरण लीन, तिनको सहाय प्रभुजी सोकीन जय नाग नागनी भये अधीन, प्रभुचरणन लाग रहे प्रदीन । तजिके तो देह स्वर्गे तुजाय, घरगेन्द्र पद्मावती नये आय ॥४॥ जय चोर सुजन प्रधम जान, चोरी तज प्रभुको घरो ध्यान जय मृत्यु भये स्वर्ग सु जाय, ऋद्धी अनेक उनने तो पाय |५| जय मतिसागर इक सेठ जान, जिन रविव्रत पूजा करी ठान । तिनके तुत थे परदेश माहि जिन अशुभ कर्म काटे नु ताहि ॥ जे रविव्रत पूजन करो सेठ, ता फलकर सबने भई रेट | जिनरने प्रभुका शररण लीन, तिन ऋद्धिसिद्धि पाई नवीन |७| जे रविव्रत पूजा करहि जेय, ते लौस्य अनन्तानन्त लेय । वरगेन्द्र पद्मावती हुए सहाय, प्रभुभक्त जान तत्काल आय 15 | पूजा विधान इहि दिघ रचाय, मन वचन काय तीनों लगाय । जे भक्तिभाव जयमाल गाय, सो हो सुख संपति अतुन पाय || वाजत मृदंग बीनादि हार गावत नाचत नाना प्रकार । तन नननननननन ताल देत, सन तननननन सुर भर तुलेत ॥१० ता येई थेई थेई पग घरत जाय, छमछमछमछम घुंघरू बजाय जे कर हिनिरत इहि भाँत भाँत, ते लहहि सौख्य शिवपुर सुजात दोहा - रविद्रन पूजा पार्श्व की, करे भविक जन जोय । सुख सम्पति इह भव लहे, तुरत सुरंग पद होय ॥
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्थं नि० ।
डिल – रविव्रत पार्श्व जिनेन्द्र पूज
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भव भव के प्रताप सकल
भवि मन घरें । छिन में टरं ॥
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[ ११५ होय सुरेन्द्र नरेन्द्र प्रादि पदवी लहे। सुख सम्पति सन्तान अटल लक्ष्मी रहे ।। फेर सर्व विध पाय भक्ति प्रभु अनुसरै। नाना विध सुख भोग बहुरि शिवतियवर ।
इत्याशीर्वाद ।
श्री आदिनाथ जिन पूजा नाभिराय मरुदेविके नन्दन, आदिनाथ स्वामी महाराज । सर्वार्थसिद्धिते श्राप पधारे, मध्यम लोक माहि जिनराज ॥ इन्द्रदेव सब मिलकर आये, जन्म-महोत्सव करने काज । प्राह्वानन सब विधि मिल करके, अपने फर पूजे प्रभु पाय ।। ॐ ह्री श्रीयादिनाथ जिनेन्द्र । अत्र अवतर अवतर, सवोपट् । ॐ ह्री श्रीयादिनाथ जिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्री श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र । अत्र मम सन्निहितो, भव भव वपद । क्षीरोदधि को उज्ज्वल जल ले, श्रोजिनवर पद पूजन जाय । जन्म-जरा दुख मेटन कारन, ल्याय चढाऊँ प्रभु के पांय ॥ श्रीमादिनाथके चरणकमल पर, बलि-२ जाऊँ मनवच-काय । हो करुणानिधि भवदुख मेटो, याते मै पूजों प्रभु पाय ।। ॐ ह्री श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं । मलयागिरि चन्दन दाह निकन्दन, कचनझारी मे भर ल्याय । श्रोजिनके चरण चढ़ावो भविजन,भवाताप तुरत मिट जाय ।।
श्री आदि० ॥ चन्दनं ।।
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१९६ ]
शुनगालि ग्रसहित मौरभ-मस्ति, प्रागुरुजलमी घोर ल्याय । श्रीजीके चरन चायो, भविजन, अक्षयपदको तुन्त उपाय ।
श्री आदि० ।। प्रक्षत ।। फमल पेतकी वेल चमेली, श्रीगुलाब के पुप्प मंगाय । श्रीजीके चरण चढाबो भविजन, रामबाण तुन्न नशि जाय ।।
श्री प्रादि० ।। पुष्पं । नेवज लीना तुन्त रस भोना, श्रीजिनवर नागे घरवाय । थाल भराऊ क्षुधा नाऊँ, ल्याऊँ प्रभुके मगन गाय ॥
श्री ग्रादि० निवेद्य। जगमग गमग होत दशो दिशि, ज्योति रही मदिरमे छाय। श्रीजीके सम्मुख करत भारती, मोह-तिमिर नाग दुसदाय ।।
__ श्री ग्रादि० ॥ दीपं ॥ अगर कपूर सुगन्ध मनोहर, चन्दन कूट सुगन्ध मिलाय । श्रीजीके सम्मुख खेय धुपायन, कर्म जरे चहुँ गति मिट जाय ।
श्री आदि० ॥ धूप ॥ श्रीफल और बदाम सुपारी, केला ग्रादि छुहारा ल्याय । महामोक्ष फल पावन कारन, ल्याय चढाऊँ प्रभु के पाय ।।
श्री आदि० ॥ फलं ॥ शुचि निरमल नीर गन्ध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हरषाय । दोप धप फल अर्घ सु लेकर, नाचत ताल मृदग बजाय ।।
श्री सादि० ॥ अयं ॥
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पन्चान्याय
नर्यातिद्धितं दये, मरदेवी उर माय । दोन sfer घावाटको नजू तिहारे पाय || ॐ से पापापादिना गापामा श्रोपादिनाना।
संत वदी नौमी दिना, सम्या श्रीभगवान ।
सुरपति उत्सव प्रति वरघा, में पूजो पर ध्यान ॥
होना माना श्री पादिनाप नेमिनिस्वाहा ।
नृपवद ऋषि छांड़िये, तप पारधी बन जाय । नमो त घमेत की, व तिहारे पयि ॥
ॐ ही
नवम्यां वानराणाद भी सादिनागनिमोनिया।
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1 ११७
फाल्गुन यदि एफादशी, उपज्यो देवलज्ञान । इन्द्र प्राय पूजा करो, में पूजों यह पान ॥ फागुन कप्राणाय श्रीमादिनान्द्राय पध्ये नवपामीनि व्याहा ।
माघ चतुर्दशि कृष्णकी, मोक्ष गये भगवान । भय जीवो को बोधिके, पहुँचे शिवपुर धान ॥ ॐ हो या गीताकापाय श्रोपादिनाथ जिनेन्द्राय पच्यं निर्वपामीति व्याा ।
जयगाना
प्राोश्वर महाराज में विनती तुमसे करें ।
चारों गति के माहि में दुख पायो सो सुनो ।
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१९५ J
प्रष्ट कर्म मै हूं एकलो, यह दुष्ट महादुख देत हो । कवहूं इतर निगोद मे मोकूं, पटकत करत श्रचेत हो । म्हारी दीनतरणी सुन वीनती ॥१॥ प्रभु ! कबहुँक पटक्यो नरकमे, जठ जीव महादुख पाय हो । नितउठि निरदई नारकी, जठे करत परस्पर घात हो । म्हा. प्रभु ! नरकतरा दुख व कहूँ, जठे करत परस्पर घात हो । कोइयक बाँधे खम्भसो, पापी दे मुद्गर की मार हो || ।। म्हा. ॥ कोइक काटे करोतसो, पापी अंगतरणी दोय फाड़ हो । प्रभु ! यह विधि दुखभुगत्या धरणा, फिर गतिपाई तिरयचहो | म्हा.
हिररणा बकरा बाछडा, पशु दीन गरीब अनाथ हो । प्रभु! मै ऊंट बलद, भैसा भयो, ज्यापै लदियो भार अपार हो । म्हा नाह चाल्यो जठै गिरपरचो, पापी दे सोहन की मार हो । प्रभु | कोइ पुण्य सँजोगसू, मैतो पायो स्वर्ग निवास हो || म्हा देवांगना सम रमि रह्यो, जठे भोगनिको परिताप हो । प्रभु सग अप्सरा रमि रह्यो, कर कर प्रति अनुराग हो । म्हा । कबहुँक नन्दनवन - विषै, प्रभु कबहुं वन-गृह माहि हो । प्रभु यहविधि काल गमायके, फिर माला गई सुरभाय हो । महा. । देवतिथि सब घट गई, फिर उपज्यो सोच प्रपार हो । सोचकरता तन खिरपड़यो, फिर उपज्यो गरभमे जाय हो । म्हा. प्रभु ! गर्भतरणा दुख अब कहूँ, जठै सकड़ाई की ठौर हो । हलन चलन नहि करि सक्यो, जठै सधनकोच घनघोर हो | म्हा
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{ itc माता सायं चरपरो, फिर नागं रान सन्ताप हो । प्रभु ! जो ननो तातो भयं फिर उपजे तन सताप हो म्हा
मुए भूत्यो रह्यो फेर नियमन फोन उपाय हो । कठिन करो, असे निसरं जतीने तार हो ॥हा॥ प्रभु फिर निकत हो रयां पडो फिर लागोनूल पार हो रोम-रोम घलो. दुप येवनमो नहि पार हो
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प्रभु ! मैटन गम, पातं लागू तिहारे पनि हो । सेवक प्ररज करें प्रभु मोक्षं, भयोरपि पार उतार हो हा - पीजी को महिमा गम है न पा पार । मैं पति पत्ष प्रज्ञान हो, गोन करें विस्तार || श्री श्रीपाद नामोति व्याहा । दोहा-विनती जिनेश को, जो पटुसो मन लाय । स्वर्गों में तय नहीं, निश्चय शियपुर जाय ॥ इत्यादिः #1
पञ्चवालयती तीर्थकर पूजा
दोहा - योजिन पञ्च नंगजित, वामुपूज्य मलि नेम । पारसनाथ सुवोर प्रति, पूर्ण चित घरि प्रेम ॥ ही
पाज्ञाननं । चत्र चप गरि ।
तो मनात प्रयारत संदीपट् निश् ठ स्थापन | राम त्रिदिना
,
शुचि शोतल सुरभि सुनीर लायो भर भारी ।
दुख जामन मरन गहीर,
याको परिहारो ॥
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१२० ]
श्री वासुपूज्य मलि नेम, पारस वीर श्रति । नमु मन वच तन धरि प्रेम, पाँचो वालयती ॥
ॐ ह्री श्री वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी, श्री पञ्च बालयती तीर्थंकरेन्य नम जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन केशर करपूर, जल मे घनि आनो ।
भव तपभजन सुखपूर, तुमको मैं जानो । श्रीवासु ॥ चन्दन ॥ दर प्रक्षत विमल बनाय, सुवरण याल भरे ।
वह देश देश के लाय, तुमरो भेट घरे || श्रीवासु ॥ अक्षत ॥
यह काम भट प्रति सूर, मनमे क्षोभ करो ।
मै लायो सुमन हजुर, याको वेग हरो ||श्रीवासु । पुष्प || पस पूरित नवेद्य, रसना सुखकारी ।
द्वय करम वेदनी छेद, श्रानन्द भारी ||श्रीवासु ॥ नैवेद्य ॥ घरि दीपक जगमग ज्योति, तुम चरणन जागे ।
म्म मोह तिमिर क्षय होत, आतम गुरण जागे ॥ श्रीवासु । दीप ||
ले दशविधि धूप अनूप, खेॐ गन्ध मयी ।
दशबन्ध दहन जिन भूप, तुमही कर्म जयी ।। श्रीवासु ॥ धूपं ॥ पिस्ता अरु दाख बदाम, श्रीफल खेय घने ।
तुम चररण जजू गुरणषाम, द्यो सुख मोक्ष तने ॥ श्रीवासु । फलं ॥ सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ, अर्घ बनावत है | वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नशादत हैं । श्रीवासु । अर्घ्यं ॥
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[ १२१
जयमाला
दोहा-बाल ब्रह्मचारी भये, पांचो श्री जिनराज ।
तिनकी अव जयमालिका, कहू स्वपर हितकाज ।। जय जय जय जय श्रीवासुपूज्य, तुम सम जगमे नहीं और दूज । तुम महा लक्ष सुर लोक छार, जब गर्भ मात माही पधार ।। पोडश स्वपने देखे सुमात, बल अवधि जान तुम जन्म तात । अति हर्पधार दम्पति सुजान, बहु दान दियो जाचक जनान ।। छप्पन कुमारिका कियो प्रान, तुम मात सेव बहु भक्ति गान । छ. मास प्रगाऊ गर्भ पाय. धनिपति सुधरन नगरी रचाय ।। तुम मात महल प्रागन मंझार. तिहुफाल रतन धारा अपार । वरषाये षट् नवमास सार, धनि जिन पुरुषन नयनन निहार ।। जय मल्लिनाथ देवन सुदेव, शतइन्द्र करत तुम चरन सेव । तुम जन्मत हो त्रयज्ञान धार, प्रानन्द भयो तिहुँ जग अपार ।। तबही ले चहु विधि देव सङ्ग, सौधर्म इन्द्र पायो उमङ्ग । सजि गज ले तुम हरि गोद प्राप, वन पांडक शिल ऊपर सुथाप। सोरोदधि ते बहु देव जाय, भरि जल घट हाथो हाथ लाय ।। करि न्हवन वस्त्र भूषण सजाय, दे ताल नृत्य ताडव कराय ।। पुनि हर्ष धार हिरदै अपार, सब निर्जर रद जय जय उचार । तिस अवसर प्रानन्द हेजिनश, हम कहिवे समरथ नाहि लेश ।। जय जादोपति धी नेमनाथ, हम नमत सदा जुग जोर हाथ । तुम व्याह समय पशुवन पुकार, सुन तुरत छुडाये दयाघार ।। कर कंकरण अरु सिर मौर बन्द, सो तोड भये छिनमे स्वछन्द ।
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१२२ ]
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तबही लौकातिक देव पाय, वैराग्य वर्द्धनी थुति कराया ।। तत्क्षण शिविका लायो सुरेन्द्र, प्रारूढ भये तापर जिनेन्द्र । सो शिविका निज कन्धन उठाय, सुरनरखग मिल तपवन राय कचलौच वस्त्र भूपरण उतार, भये जती नगन मुद्रा सुधार । हरि केश लेय रतनन पिटार, सो क्षीर उदधि माही पधार ।। जय पारसनाथ अनाथ नाथ, सुर असुर नमत तुम चरण माथ। जुग नाग जरत फीनी सुरक्ष, यह बात सकल जगमे प्रत्यक्ष ।। तुम सुर धनु सम लखि जग असार, तपतपन भये तन ममतक्षार शठ कमठ कियो उपसर्ग प्राय, तुम मन सुमेरु नहिं डगमगाय ।। तुम शुक्लध्यान गहि खडग हाथ,परि चार घातिया कर सूघात। उपजायो केवलज्ञान भानु, आयो कुवेर हरि वच प्रमाण ॥ की समोसरण रचना विचित्र, तहा खिरत भई वारणी पवित्र। मुनि सुर नर ग्वग तिर्यञ्च प्राय,सुन निजनिज भाषा बोध पाय जय वर्द्धमान अन्तिम जिनेश, पायो न अन्त तुम गुण गणेश । तुम चार प्रघाती करम हान, लियो मोक्षस्वयसुख अचलथान।। तबही सुरपति बल अवधि जान, सब देवन युत बहु हर्षठान । सजि निज वाहन प्रायो सुतीर, जहँपरमौदारिक तुम शरीर ॥ निर्वाण महोत्सव कियो भूर, ले मलयागिर चन्दन कपूर । बहु द्रव्य सुगंधित सरस सार, तामे श्रीजिनवर वपु पधार ।। निज अगनिकुमारिन मुकुटनाय,तिद रतननिशुचि ज्वाला उठाय तिस सिर माही दीनो लगाय, सो भस्म सबन मस्तक चढाय ॥ अति हर्ष थकी रचि दीपमाल, शुभ रतनमई दशदिश उजाल ।
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पुनि गीत नृत्य बाजे बजाय, गुरण गाय ध्याय सुरपति सिधाय । सो नाथ प्रबं जगमे प्रत्यक्ष, नित होत दीपमाला सुलक्ष । हे जिन तुम गुरण महिमा अपार, वसु सम्यग्ज्ञानादिक सुसार ॥ तुम ज्ञानमाहि तिहुँलोक दर्व, प्रतिबिम्बित हैं चर चर सर्व । लहि तम अनुभव परम ऋद्धि, भये वीतराग जगमें प्रसिद्ध || ह्व बालयति तुम सबन एम, श्रचिरज शिवकांता वरी फेम । तुम परम शांतिसुद्रा सुधार किय अष्टकर्म रिपु को प्रहार ॥ हम करत बिनती बार बार, कर जोर स्व मस्तक धार धार तुम भये भवोदधि पार पार, मोको सुवेग ही तार तार ॥ अरदास दास ये पूर पूर, वसु कर्म शैल चकचूर चूर । दुख सहन करन अब शक्ति नाहि, गहि चरण शरण कीजे निचाह चौ० - पांचो बालयति तीर्थेश, तिनकी यह जयमाल विशेष ।
नवच काय त्रियोग सम्हार, जे गावत पावत भवपार ॥ ॐ ह्री पच बालयति तीर्थङ्कर जिनेन्द्राय नम पूर्णाम् । दोहा - ब्रह्मचर्य सो नेह घरि, रचियो पूजन ठाठ ।
पांचों बाल यतीन को, कीजे नित प्रति पाठ ||२६|| || इत्याशीर्वाद ||
पंच परमेष्ठी की पूजा
दोहा - मंगल मय मंगल करन, पंच परम पदसार । अशरण को येही शरण, उत्तम लोक मकार ॥१॥ चव श्ररिष्ट को नष्ट कर, प्रनन्त चतुष्टय पाय । परमइष्ट अरिहन्त पद, बन्दों शीष नवाय || २ ||
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वसुविधिहरि वसु भू बसे, वसुगुरगयुत शिव ईश । नमूनाम वसु अङ्ग तिन, दायक पद जगदीश ॥३॥ पाप धरै प्राचार शुभ, पर अचरावन हार । सो आचारज गुणनघर, नमू शीष कर धार ।।४।। आप अङ्ग पूरव पढे, शिषिन पढ़ावत सोय । ते उवझाय सु नाय सिर, नमूदेव घी मोय ।।५।। मोक्ष मार्ग साधन उदित, धरै मूलगुरण साध । मै शिव साधन साधु पद, नमूहरन भव बाध ।।६।। इहि विधि पंचनि प्रगमिकर, रचू पूज सुखकार । सातै प्रथमहिं पढनि को, समुचय जजिहूं सार पुष्पाजलि
(अथ पच परमेष्ठी सामान्य पूजा) (अडिल्ल)-प्रथम नमूरिहन्त सिद्ध अरु सूर ही,
उपाध्याय सब-साधु नमूगुण पूरही। परम इष्ट यह पंच जजों जुग पादही,
माह्वानन विधि करू सगुण गण गायही ॥ ॐ ह्री श्रीमरहतादि सर्वसाधुपर्यन्त पचपरमेष्ठिन् । अत्रावतर अवतर सवौषट् आह्वाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ , स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्, सन्निधिकरणम् ।
॥अथाष्टक-गीता छन्द ।। वर मिष्ट स्वच्छ सुगन्ध शीतल, सुर सरित जल लाइये । भरि कनक भारी धार देतें, जन्म मृत्यु नशाइये ।। अरिहन्त सिद्ध भाचार्य, अध्यापक सुपद सब साध ही।
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[ १२५
पूजू सदा मन वचन तन ते, हरो मो भव बाघ ही ।।
ॐ ह्री श्रोअरिहन्त सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय सर्वसाधुभ्य जन्म जरामृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। मलय माहि मिलाय केशर, घसो चन्दन बावना। भृङ्गार भरकरि चरण पूजत, भवाताप नसावना परिचदनं। अक्षत अखडित सुरभि श्वेत हि, लेत भर करि थाल ही। जे जजै भविजन भाव सेती, अक्षयपद पावै सही परि.अक्षत। स्वर्ण-रूप्यमई मनोहर, विविध पुष्प मिलाइये। भरि कनकथाल सुपूजिहैं, भवि समर-वान नशाइये ।अरि.पुष्पं बहु मिष्ट मोदक सुष्ट फैनी, आदि बहु पकवान ही। भरियाल प्रभुपद जज विधित,नश क्षुत दुखनाशही अरि नैवेद्यं मरिण स्वर्ण आदि उद्योत कारण, दीप बहु विधि लीजिये । तन मोह पटल विध्वंसने, जुग पाद पूजन कीजिये परि.दीपा कर्पूर अगर सुगन्ध चन्दन, कनक धूपायन भरें। भवि करहि पूजा भाव सेती, प्रष्ट कर्म सबै जरै ॥अरि.धूपं। बादाम श्रीफल लौंग खारिक, दाख पुंगी आदि ही। भरि थाल भविजन पूजि करते,मोक्ष फल पावै सहीअरि.।फलं। जल गन्ध अक्षत पुष्प चरु ले, दीप धूप फलो गही। करि अर्घ पूजे पंचपद को, लहैं शिव सुख वृन्द ही अरि.अध्य
जयमाला दोसा-नमप्रथम अरिहन्त सिद्ध, माचारज उवझाय ।
साधु सकल विनती करू, मन वच तन सिरनाय ॥१॥
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१२६ )
॥ पद्धरि छन्द ।। चच घाति चूर प्ररिहन्त नाम, पायो च्युत दोप न सुगुरगधाम। तिनमै पटचाल जु मुरय याय, तिनमे दसगुग्ग जनमत उपाय ।। जय केवल ज्ञान उद्योत ठान, उपजे दश गुण को कहि बखान । चौदह गुण देवनि कारत होय, तिनको महिमा वरणे सु कोय ।। वर ट प्रातिहारज सयुक्त, चामर छत्रादिक नाम युक्त । फेवल दांन वरज्ञान पाय, सुख वीर्य अनन्त चतुष्ट पाय ॥ ये कहिवे के गुण हैं छियार, गुरण अनन्त लसै तिनको न पार। तातै पूर्जी करि अर्घ लेय, मोहि तारि २ अरिहन्त देव ।। वसुविविहरि वसुभू बसे सिद्ध,सुगुरण प्रादिक लरि प्रत्यतरिद्ध। पूजू मन वच तन अर्घ ल्याय, मोकू तुम थानक मे बसाय ।। वर द्वादश तप दश धम भेव, षट् पावस पचाचार येव । जय गुप्ति सुगुन छत्तीसपाय, सब सघ ज्येष्ठ गुरु सूरिथाय ।। बहु-जीवन वृष को मग बताय, शिवसपति दोनो मु मुनिराय । पूजू मन वच तन अर्घ लेय, मोकू अजरामर पद करेय ।। वर ग्यारह अरु चवद पूर्व, पढि उपाध्याय पद लह्यौ पूर्व । तिनके पद पूजत प्रर्घ लाय, सबभ्रम नाशन जिन ज्ञान पाया। गुरण मूल अष्टविंशति प्रनप, धरि है सब साधु सु शिव सरूप । व्रत पचसमिति परणइन्द्र रोध, षट् प्रावस भूमि सुशयन सोध।। तजि स्नान वसन कर लौच ठानि, लघु भोजन ठाढ करत पान दतौन त्याग ये अष्टबीस, धरि साधै शिव तिन नमत शीष । फरि प्रष्ट द्रव्य को अर्घ लेय, सब साधुन को करिहो जु सेव ।
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[ १२७ मैं मन वच तनतै शीश नाय, नमिहो मो शिवमग को बताय। जल थल रन बन मग विकट माहि, ये पंच परमगुरुशरण थाहिं डायन प्रेतादि उपद्रव माहि, इन पंच परम धिन को सहाय । बहु जीव जपत नवकार येव, रिद्ध सिद्ध लहि संकट हरेव ।। मौ कथन पुरान पुरान माहि, हम ताकी महिमा का कहाहि । पत्ता-ये पंच अपराध, भव दुख बाधे, शिवसंपति सहजै वरई ।
मै मन वच गाऊ,शीश नवाऊं,मो अविचल थानहि धरई।
ॐ ह्री पञ्चपरमेष्ठिजिनेभ्यः जयमाला पूर्णाध्य । सोरठा-विधन विनाशनहार, मंगलकारी लोक में । सो तुमको भी सार, पंच सकल मंगल कर ।।
इत्याशीर्वाद ।
श्रीचद्रप्रभ जिनपूजा छप्पय-चारुचरन पाचरन चरन चितहरन चिहनचर ।
चदचंदतमचरित, चंदथल चहत चतुर नर ।। चतुक चंड चकचूरि, चारि चिदचक्र गुनाकर ।
चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र धनुरहर ।। चरचरहितू तारनतरन, सुनत चहकि चिरनंद शुचि । जिनचन्द चरन चरच्यो गहत, चितचकोर नचि रचि रुचि।१। दोहा—धनुष डेढ़सौ तुङ्ग तन, महासेन नृपनन्द ।
मातुलछमनाउर जये, थापो चन्दजिनंद ॥२॥ ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र । अत्रावतर अवतर । संवौषट् । ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ ठ ।
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मजरा ॥
१२८ ] ____ॐह्री यीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र । अत्र मम सनिहितो भव भव वषट् ।
अष्टक चाल-द्यानतरायकृत नन्दीश्वरअष्टककी, अष्टपदी तथा होली आदिमे । गगाह्रदनिरमलनीर, हाटकभृङ्गभरा।
तुम चरण जजो वरवीर, मेटो जनमजरा ।। धीचंदनाथदुति चंद, चारजन चद लगे।
मनवचतन जजत अमद आतम जोति जगे ॥१॥ ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनागनाय जलं नि । श्रीखण्डकपूर सुचंग, लेशर रग भरी। घसि प्रासुकजलके सग, भवाताप हरी ।। श्रीचंद. ॥२॥ ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चदनं नि० स्वाहा । तदुल रित सोम समान, सम ले अनियारे । दिय पुञ्ज मनोहर पान, तुमपदतर प्यारे ॥श्रीचद.॥३॥ ॐ ह्री श्रीचद्रप्रमजिनेन्द्राय प्रक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि० स्वाहा। सुरद्रुमके सुमन सुरग, गधित अलि पावै । तामो पद पूजत चंग, कामविथा जावै ।।श्रीचंद.।।४।। ॐ ह्री श्रीचंद्रप्रभजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंशनाय पुष्प नि० स्वाहा । नेवज नानापरकार, इन्द्रिय वलकारी । सो ले पद पूनों सार, प्राकुलताहारी ॥श्रीचंद.॥५॥ ॐ ह्री श्रीचदप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि० स्वाहा । तमभंजन दीप सँवार, तुम ढिग धारतु हो। मम तिमिरमोह निरवार, यह गुण धारतु हो ॥धीचंद.।।६।। ॐ ही श्रीचंद्रप्रमजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा ।
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[ १२९
दशगंधहुतासन माहि, हे प्रभु खेवतु हौं ।
मम करम दुष्ट जरि जाहि, यात सेवतु हौं ॥धीचं.॥ ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप नि० स्वाहा । अति उत्तमफल सु मंगाय, तुम गुरणगावत हौँ ।
पूजौं तन मन हरषाय, विधन नशावतु हौं ॥श्रीचं.८॥ ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल नि० स्वाहा। सजि पाठों दरब पुनीत, पाठों अंग नमो।
पूजो अष्टमजिन मीत, अष्टम अवनि गमो॥श्रीच.६।। ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्रायाऽनय॑पदप्राप्तये अर्घ्य नि० स्वाहा। (पञ्चकल्याणक अर्घ] [छन्द द्रुतविलवित तथा सुन्दरी मात्रा १६] कलिपचमचैत सुहात अली । गरभागम मगल मोद भली। हरि हर्षित पूजत मातु पिता । हम ध्यावत पावत शर्मसिता।। ॐ ह्री चैत्रकृष्णापञ्चम्या गर्भमङ्गलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्रायाध्य कलि पौषइकादशि जन्म लयो, तब लोकविर्ष सुखथोक भयो। सुर ईश जज गिरशीश तबै । हम पूजत हैं नुतशीश अब ।२। ॐ ह्री पौषकृष्णकादश्या जन्ममगलप्राप्ताय श्रीचंद्रप्रभजिनेन्द्रायाध्य । तप दुद्धर श्रीधर आप धरा । कलिपौष इग्यारसि पर्व वरा॥ निजध्यानविष लवलीन भये । धनि सोदिन पूजत विघ्न गये। ॐ ह्री पौषकृष्णकादश्या तप मगलमडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्रायाध्य । वर केवलभानु उद्योत कियो । तिहुँलोकतणो भ्रम मेट दियो। कलि फाल्गुनसप्तमि इन्द्र जजे । हम पूजहिं सर्वकलंक भजे ॥ ॐ ह्री फाल्गुनकृष्णासप्तम्या केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीचद्रप्रभजिनेन्द्रायाऱ्या
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सित फाल्गुण सप्तमि मुक्ति गये । गुरणवत अनत अबाय भये । हरि प्राय जर्जे तित मोदधरें । हम पूजतही सब पाप हरें ।। ॐ ह्री फाल्गुणशुक्लासप्तम्यामोक्षमगलमडिताय श्रीचद्रप्रभजिनेन्द्रायाय
प्रय जयमाला।
हे मृगांकअकितचरण, तुम गुरग अगम अपार ।
गणधरसे नहिं पार लहि, तौ को वररगत सार ।। पै तुम भगति हिये मम, प्रेरै अति उमगाय ।
___ तातै गाऊँ सुगुरण तुम, तुम ही होउ सहाय ॥ जयचन्द्रजिनेन्द्र दयानिधान, भवकानन-हानन दवप्रमान ।। जयगरभजनममगल दिनद, भवि जीवविकाशन शर्मकद ॥३। दशलक्षपूर्वकी आयु पाय, मनवाछित सुख भोगे जिनाय । लहि कारण ह्व जगतै उदास,चित्यो अनुप्रेक्षा सुखनिवास ।४। तित लोकांतिक बोध्योनियोग,हरिशिविकासजि धरियो अभोग। तापं तुम चढ़ि जिनचन्दराय, ताछिनकी शोभाको कहाय ।।५।। जिन अग सेत सितचमर ढार, सितछत्रशीष गलगुलकहार। सित रतनजडित भूषण विचित्र,सितचंद्रचरण चरचैपवित्र ।। सिततनुश्रुति नाकाधीश प्राप, सितशिविका कांधेधरिसुचाप । सित सुजस सुरेश नरेश सर्व, सित चितमै चितत जात पर्व ।७। सित चदनगरत निकसि नाथ, सित वनमे पहुचे सकलसाथ । सितशिलाशिरोमरिणस्वच्छछाँह,सित तपतितधारयो तुमजिनाह सित पयको पारण परमसार, सित चन्द्रदत्त दोनों उदार ।
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छन्द चोवोला आठो दरव मिनाय गाय गुण, जो भविजन जिनचद जज । ताके भव भवके अघ भाज, मुक्तिसार मुख ताहि सजै ॥२०॥ जमके त्रास मिटै सब ताके, सकल अमगल दूर मजै ।। 'वृन्दावन' ऐमो लखि पूजत, जातै शिवपुरि राज रज ॥२१॥
इन्यागीर्वाद । पुष्पालि क्षिपेत् । इति श्रीचन्द्रप्रभजिनपूजा ममाप्तम् । श्री शान्तिनाथ जिन पूजा
मत्तगयन्द छन्द ( पनकालकार ) या भवकानन मे चतुरानन, पापपनानन घेरि हमेरी । प्रातम जानन मानन ठानन, वान न होइ दई गठ मेरी॥ तामद भानन आपहि हो, यह छान न पान न प्राननटेगे। श्रान गही गरनागतको, अव श्रीपतजी पत गखहु मेरी ॥१॥
ही थीगान्निनाथ जिनेन्द्र । अत्रावतर अवतर, मवीपट । *ही श्रीगान्तिनाथ जिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ निष्ठ,ठ ठ ।
ही श्रीगालिनाय जिनेन्द्र | अब मम मनिहितो भव भव, वपट् । [ अष्टा ] ठन्द विभगी। अनुप्रासक । ( मात्रा ३२ नगनजित।। हिमगिरिगतगगा, धार प्रभगा प्रामुक मगा, भरि मृगा । जरजन्म मृतगा, नागि अघगा, पूजि पदगा मृदुहिगा ।। श्रोशान्तिाजनेश, नुतनावगं, वृपचक्रेशं चक्रेग । हनि परिचक्रेणं, हे गुनवेश, दयामृनेश मग १॥ ॐ ही योगाग्निनाय जिनेन्द्रार जन्मजगमृत्युविनागनाय जल नि म्या १.उसारस्प जगन। २ नमन। ३ पार नष्ट करने वा।८ ग्रान्मायो जानने, ममनने प्री-उसमे स्थिर होनेकी पादत न होने टना।
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[ १३३
वर बावनचंदन, कवलीनन्दन, धनप्रानन्दन सहित घसो। भवतापनिकन्दन, ऐरानन्दन, वन्दि अमन्दन,चरण वसोंधी.।२
ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदन नि० स्वाहा । हिमकरकरि लज्जत,मलयसुसज्जत, प्रच्छत जज्जत भरिथारी। दुखदारिद गज्जत,सदपदसज्जत, भवभयभज्जत प्रतिभारी।श्री. ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षतान् नि० स्वाहा। मंदार सरोज कदली जोज, पुंज भरोज, मलयभर । भरि कचनथारी, तुमढिग धारी मदनविदारी धीरघर श्री.।४
ही श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प नि० स्वाहा।' पकवान नवोने, पावन कीने, षटरसभीने सुखदाई। मनमोइनहारे, क्षुधा विदारे, प्रागै घार, गुनगाई ।श्री.॥५॥
ही श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि म्वाहा । तुम ज्ञानप्रकाशे. भ्रमतमनाशे, शेयविकाशे सुखराशे । दीपक उजियारा, यातै धारा, मोह निवारा निजभासे।श्री.।६। अह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोहाधकार विनाशनाय दीप नि स्वाहा। चन्दन करपूर करिवर चूर, पावक भूरं, माहिजुरं । तसु घूम उडावे, नाचत प्रावै, अलि गुजावे, मधुरसुराश्री.1७ ॐ ह्री श्रोशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्व० स्वाहा । वादाम खजूरं, दाडिम पूरं, निबुक भूर, ले पायो । तासों पद जज्जों,शिवफल सज्जों, निजरसरज्जो, उमगायो।बी। ॐ ह्री श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल नि० स्वाहा । वसु द्रव्य सवारी, तुमढिंग धारी, प्रानन्दकारी गप्यारी । तुम हो भवतारी, करुनापारी, यातै थारी, शरनारी श्री.।।
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१३४ ]
ॐ ह्री श्रीमान्तिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये घ्यं नि० स्वाहा ।
[ पच कल्याणक श्रर्व ] ( सुन्दरी तथा द्रुतविलवित छन्द ) प्रसित सालय मादव जानिये, गरभमगल तानि मानिये | शचि कियो जननी पद चर्चन, हम करं इत ये पद अर्चन || ॐ ह्री भाद्रपदकृष्ण - सप्तम्या गर्भमंगलम डिताय श्रीगा तिनाथायार्घ्यं ० जनम जेठ चतुर्दशि श्याम है, सकल इन्द्र सु श्रागत धाम है । गजपुरं गजसानि सबै तबै गिरि जर्ज इत में जनि हो श्रवे ॥ ॐ ह्री ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्या जन्ममगलप्राप्ताय श्रीगातिनाथायार्घ्यं • भव शरीर सुभोग प्रसार है, इमि विचार तबै तप धार हैं । भ्रमर चौदशि जेठ सुहावनी, धरमहेत जजों गुन पावनी ॥ ॐ ह्री ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्या तपमगलम डिताय श्रीशातिनाथायाघ्यं ० । शुकलपोष दशै सुखराश है, परम- केवल-ज्ञान प्रकाश है । भवसमुद्र उधारन देवकी, हम करे न्ति मगल सेवकी ||४|| ॐ ह्री पौपशुक्लादशम्या केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीगातिनाथायाघ्यं ० । प्रसित चौदशि जेठ हनें श्ररी, गिरि समेदथको शिव-तिय-वरी सकलइन्द्र जर्जे तित श्रायके, हम जर्ज इत मस्तक नायकै | ५ || ॐ ह्री ज्येष्ठकृष्णा चतुर्दश्या मोक्षमगलप्राप्ताय श्रीशातिनायायाघ्यं ० । [जयमाला] छन्द रथोद्धता, चन्द्रवत्म तथा चन्द्रवत्म, वर्णं ११ लाटानुप्रास शांति शांतिगुनमंडिते सदा । जाहि घ्यावत सु पडिते सदा ॥ मैति भक्तिमंड सदा । पूजिहो कलुषहंडिते सदा ॥१॥ मोक्षहेत तुम ही दयाल हो । हे जिनेश गुनरत्नमाल हो । मै अबै सुगुनदाम ही घरो । ध्यावतं तुरित मुक्ति-ती वरो । २
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[ १३५
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छन्द पद्धरि (१६ मात्रा) • जय शातिनाथ चिद्रूपराज । भवसागरमे अद्भुत जहाज ॥ तुम तजि सरवारथसिद्धथान । सरवारथजुत गजपुर महान।। तित जनम लियो आनन्द धार । हरि ततछिन आयौ राजद्वार इन्द्रानी जाय प्रसूतथान । तुमको करमे ले हरष मान ॥२॥ हरि गोद देय सो मोदधार । सिर चमर अमर ढारत अपार।। गिरिराज जाय तित शिला पांड । ताप थाप्यौ अभिषेक मांडा३ तित पचमउदधि तनो सु वार । सुरकर करकरि ल्याये उदार । तब इन्द्र सहसकर करि पानंद । तुम सिर धारा ढारयो सुनंद४ अघ घघघघघघ धुनि होत घोभिभभभभभ धधधध कलशशोर हमहमहमहम बाजत मृदंग । झन नननननननन नू पुरंग ।। तननननननननन तनन तान । घननननन घटा करत ध्वान । ता थेइथेइथेइथेइथेइ सुचाल । जुत नाचत नावत तुमहिं भाल६ चटचटचट अटपट नटत नाट । झटझटझट हट नट शट विराट इमि नाचत राचत भगतरग । सुर लेत जहा अानन्द सग।७। इत्यादि अतुलमगल सुठाट । तित बन्यो जहां सुरगिरि विराट पुनि करिनियोग पितुसंदन प्राय। हरि सौंप्यौ तुम तितवृद्धथायद पुनि राजमाहि लहि चक्ररत्न । भौग्यौ छखण्ड करि धरम जत्न पुनि तप धरि केवलरिद्धिपाय । भवि जीवनको शिवमग बताय शिवपुर पहुचे तुम हे जिनेश । गुनमंडित अतुल अनन्त भेष । मैं ध्यावतु हो नित शीश नाय । हमरी भवबाधाहरि जिनाय१० सेवक अपनो निज जान जान । करुणाकार भौभय भान-भान
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१३६ । यह विधन मूलतरु खण्डखंड । चितचितित आनंद मंड मंड११ (घत्ता)-धीशांति महता, शिवतियकता, सुगुन अनंता, भगवंता।
भव भ्रमन हनंता. सौल्यअनता, दातारं तारनवंता ।१२। ॐ ह्री श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
छन्द रूपक सवैया ( मात्रा ३१ ) शान्तिनाथजिनके पदपंकज, जो भवि पूजे मनवचकाय । जनम जनम के पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवांछित सुख पावै सौ नर, बांचे भगतिभाव अति लाय ! तात "वृन्दावन" नित बन्दै, जातै शिवपुरराज कराय॥
इत्याशीर्वाद । परिपुष्पालि क्षिपेत् ।
श्री नेमिनाथ जिन पूजा
( छन्द लक्ष्मी, तथा अई लक्ष्मीधरा ) जयति जय जयति जय जयति जय नेमकी, ___धर्म औतार दातार शिव चनको' । श्रीशिावनन्द भौफन्द निकन्द की,
ध्यावै जिन्हे इन्द्र नागेन्द्र प्रौ मैनको ॥ परम कल्याणके देनहारे तुम्ही, देव हो एव तातै करो ऐनको । थापिहोवार त्रय शुद्ध उच्चारके, युद्धताधार भवपारकू लेनकी।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिन । अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
१ मानन्द की । २ हनने वाले। : कामदेव । ४ पूगे।
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[ १३७ दाता मोक्ष के श्री नेमिनाथ जिनराय दाता० ॥ टेक ॥। निगमनदी कुश' प्रासुक लीनो, कंचन भृंग भराय । मनवचतनत घार देत ही, सकल कलङ्क नसाय | दाता मोक्ष के श्री नेमिनाथ जिनराय, दाता० ॥१॥ * ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलम् निर्व० । हरिचन्दनजुत कदली नन्दन कुंकुम संघ घसाय । विघ्नतापनाशनके कारन जज तिहारे पांय || दा. || चन्दन |२| पुण्य राशि तुम यश सम उज्ज्वल, तन्दुल शुद्ध मंगाय । प्रखयसो भोगनके कारण, पुञ्जधरो गुरागाय दा । श्रक्षतान् पुंडरीक तृराहमको प्रादिक, सुमन सुगन्धित लाय । वर्णकमन्मथ' भञ्जनकारन, जजहु चरण लवलाय | दा. 1 पुष्प | ४ | घेवर वावर खाजे साजे, ताजे तुरित मगाय ।
क्षुधा वेदनी नाश कररणको, जजह चररण उमगाय |दा. | नवेद्यं । कनक दीप नवनीत' पूरकर, उज्ज्वल जोति जगाय । तिमिर मोहनाशक तुमको लखि, जजहु चरन हुलसायादा, दीपं दशविध गन्ध मंगाय मनोहर, गुञ्जत लिगरण श्राय । दशोंबध जारन के कारन, खेवीं तुम ढिग लाय 11 दा. | धूप ॥७ सुरसवररण रसना मनभावन, पावन फल सु मंगाय । मोक्ष - महाफल काररण पूजो, हे जिनवर तुम पाय | दा. फलं । जल फल श्रादि साज शुचि लोने, प्राठो दरब मिलाय । अष्टम-क्षिति के राज करनकों, जजों प्रंग वसुनाय | दा. | श्रर्घ्य। ६
१ जल । २. घमण्डी कामदेव | ३ घृत । ४ मुक्ति ।
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१३८ ]
पचकत्याणक सित कातिक छट श्रमदा, गरभागम श्रानन्द कन्दा । शचि सेव शिवापद आई, हम पूजत मन वच काई ॥१॥ ॐ ह्री कार्तिक शुक्ला पष्ठ्या गर्भमगलप्राप्ताय श्री नेमिनाथायाध्यं । सित सावन छट्ट प्रमदा, जनमे त्रिभुवन के चन्दा । पितु रामुद महासुख पायो, हम पूजत विघन नशायो ।।२।। ॐ ह्री श्रावणशुक्लापण्ठ्या जन्ममगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथायाध्यं । तजि राजमति व्रत लीनो, सित सावन छट्ट प्रवीनो। शिवनारि तबै हरषाई, हम पूजें पद शिर नाई ॥३॥ ॐ ह्री श्रावण शुक्लापण्ठ्या तपकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथायायं । सित श्राश्विन एकम चरे, चारों घाती अति कूरे । लहि केवल महिमा सारा, हम पूजे अष्ट प्रकारा ॥४॥ ॐ ह्री ग्राश्विन शुक्लाप्रतिपदाया केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीनेमिनाथायाऱ्या सित पाढ अष्टमी चूरे, चारो अघातिया कूरे । शिव ऊर्जयन्ततै पाई, हम पूजे ध्यान लगाई ।।५।। ॐ ह्री पापाढशुक्ला अष्टम्या मोक्षमगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथायायं ।
जयमाला दोहा-श्याम छवी तन चाप' दश, उन्नत गुणनिधि धाम ।
शंख चिह्न पदमे निरखि, पुनि पुनि करो प्रणाम.१॥ जय जय जय नेमि जिनन्द चन्द, पितु समुद देन प्रानन्द कन्द। शिवमात कुमद मन मोद दाय, भविवृन्द चकोर सुखी कराया२ जय देव अपूरव मारतड', तुम कोन ब्रह्मसुत' सहस खण्ड । शिवतिय मुख जलज विकासनेश,नहिं रह्यो सृष्टि मे तम अशेष।३
१ घनुप । २ सूर्य । ३ कामदेव । ४ मुक्ति-स्त्री का मुख कमक ।
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भवि भीत कोक' कोनो अशोक, शिव मग दरशायो शर्म थोक । जय २ जय २ तुम गुरण गभीर, तुम आगम निपुरण पुनीतधोर।४ तुम केवल ज्योति विराजमान, जय जय जय जय करुणानिधान। तुम समवसरण मे तत्त्व-भेद, दरशायो जाते नशत खेद ।। तित तुमको हरि प्रानन्द धार, पूजत भक्ती जुत बहु प्रकार । पुनि गद्य-पद्य-मय सुजश गाय, जय बल अनन्त गुणवन्तराया जय शिव शङ्कर ब्रह्मा महेश, जय बुद्ध विधाता विष्णवेष । जयकुमति मतंगन'को मृगेन्द्र, जय मदन-ध्वान्तको रविजिनेंद्र।७ जय कृपासिन्धु अविरुद्ध बुद्ध, जय ऋद्धि सिद्धि दाता प्रबुद्ध । जय जग जन मन रजन महान, जय भवसागर महसुप्ठयान १८ तुम भक्ति करते धन्य जीव, ते पावै विव' शिवपद सदीव । तुमरो गुण देव विविध प्रकार, गावत-नित किन्नरको जु नारद तुम भक्ति माहि लवलीन होय, नाचे ताथेइ-थेइ थेइ बहोय । तुम करुणासागर सृष्टि पाल, अब मोको नेगि करो निहाल।१० मैं दुख अनन्त चसु करम जोग, भोगे सदीव नहिं और रोग। तमको जगमे जान्यो दयाल, हो वीतराग गुरण रतन माल।११ तातं शरणा अब गही पाय, प्रभ करो बेगि मेरी सहाय । यह विघन करम मम खड खड, मनवाछित कारज मड मंड।१२ ससार कष्ट चकचर चुर. सहजानन्द मम उर पूर पूर । निज पर प्रकाश वुद्धि देह देह, तजिके बिलम्ब सुधि लेह लेह१३ हम जांचत है यह बार बार, भव सागर ते मो तार तार । नहीं सह्यो जात यह जगत दुःख, तातै बिनवो हे सुगुन मुक्ख१४
१ चकवा । २. कुमति रूपी हाथी । ३ सवारी । ४ स्वर्ग ।
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१४० } घत्ता-श्री नेमिकुमार जितमदमार, शीलागारं, सुखकार ।
भवभयहरतार शिवकरतार, दातार धर्माधार ।१५॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय महाध्य निर्वपामीति स्वाहा। मालिनी-सुख, धन, यश, सिद्धी पुत्र पौत्रादि वृद्धी।
सकल मनसि सिद्धी होति है ताहि ऋद्धी ।। जजत हर्षधारी नेमिको जो अगारी । अनुक्रम परि जारी सो वर मोक्षनारी ।।१६।।
इत्याशीर्वाद
श्री पार्श्वनाथ पूजा
गीता छन्द । वर स्वर्ग प्रानतको विहाय, सुमात वामा सुत भये । अश्वसेनके सुत पाव जिनवर, चरण जिनके सुर नये ।। नवहाथ उन्नत तन विराज, उरग लच्छन पद लसै । थापू तुम्हे जिन प्राय तिष्ठो, करम मेरे सब नसै ॥१॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र । अत्र अवतर अवतर, सवीपट् । ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ ठ ।। ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र । अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् ।
अथाष्टक नाराच छन्द ।। क्षीरसोम के समान अम्बुसार लाइये ।
हेमपात्र धारकै सु आपको चढाइये ॥ पार्श्वनाथ देव मेव आपको करूं सदा ।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ॥१॥
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[ १४१ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल० । चन्दनादि केशरादि स्वच्छ गन्ध लीजिये। आप चणं चर्च मोहतापको हनीजिये ॥ पार्श्व० ।।२।। ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दन नि० । फेन चन्दके समान अक्षतान् लाइक । चर्णके समीप सार पुञ्जको नसाइये ॥ पार्श्व० ॥३॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षत । केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाइये । धार चर्णके समीप कामको नसाइये ॥ पाव० ॥४॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय कामबाणविध्वसनाय पुष्प । घेवरादि बावरादि मिष्ट सद्य में सने।। आप चर्ण प्रर्चते क्षुधादि रोग को हने ॥ पार्श्व० ॥५॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य । लाय रत्नदीप को सनेहपूर के भरूं । वातिका कपूर वारि मोह ध्वातईं हरू।पार्श्व० ॥६॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं । धूपगन्ध लेयक सु अग्नि संग जारिये। तासु धूपके सुसंग प्रष्ट कर्म वारिये । पाश्व० ॥७॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं । खारिकादि चिरभटादि रत्नथाल मे भरू। हर्षधारिक जजू सुमोक्ष सुक्ख को वरू।पार्श्व० ॥६॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल । नीरगन्ध अक्षतान पुष्प चर लीजिये। दीप धूप श्रीफलादि अर्घतै जजीजिये ।। पार्श्व० ॥॥
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१४२ ] ॐ ह्री श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं ।
पञ्चकल्याणक। शुभप्रानत वन विहाये, वामा माता उर पाये । वैशाखतनी दुतिकारी, हम पूजे विघ्न निवारी ॥१॥ ॐ ह्री वैशाखकृष्णाद्वितीयाया गर्भमङ्गलमण्डिताय श्रीपार्श्वनाथ जिने. न्द्राय अर्घ्य । जनमे त्रिभुवन सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता । श्यामातन अद्भुत गज, रविकोटिक तेजसु लाजै ॥२॥ ॐ ह्री पौषकृष्णकादश्या तपोमगलमडिताय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्रायाऱ्या कलि पौष इकादशि आई, तब बारह भावन भाई । अपने कर लोच सु कोना, हम पूजे चरण जजोना ।।३।। ॐ ह्री पौषकृष्णकादश्यातगोमगलमडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्रायाध्य कलि चैत चतुर्थी प्राई, प्रभु केवलज्ञान उपाई। तब प्रभु उपदेश जु फीना, भविजोवनको सुख दोना ॥४॥ ॐ ह्री चैत्रकृष्णाचतुर्थीदिने केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्रायाय सित सातै सावन प्राई, शिवनारि वरी जिनराई ।। सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजे मोक्ष कल्याना ॥५॥ ॐ ह्री श्रावणशुक्लासप्तम्या मोक्षमंगलमडिताय श्रीपार्श्वनाथायाध्य ।
जयमाला।
पारसनाथ जिनेन्द्रतने वच, पौनसखी जरतें सुन पाये। फरयो सरधान लह्यो पदप्रान, भये पद्मावति शेष कहाये ॥ नाम प्रताप टरै संताप सु, भव्यन को शिवशरम दिखाये । हे विश्वसेनके नन्द भले, गुणगावत हैं तुमरे हरखाये ॥१॥
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। १४३ दोहा-केकी कण्ठ समान छवि, वपु उतंग नव हाथ । लक्षरण उरग निहार पग, वन्दो पारसनाथ ।।२।।
पद्धरि छन्द। रची नगरी छहमास अगार, बने चहुँ गोपुर शोभ अपार । सुकोटतनी रचना छवि देत, कगूरनपै लहफै बहुफेत ॥३॥ बनारसकी रचना जु अपार, करी वहभांति धनेश तयार । तहाँ विश्वसेन नरेन्द्र उदार, कर सुख वाम सु दे पटनार ॥४॥ तज्यो तुम मानत नाम विमान, भये तिनके घर नद मुभान । तवै सुरइन्द्र-नियोगन प्राय, गिरिद करी विधि न्हौन सुजाय ॥ पिताघर सोपि गये निज घाम, कुवेर कर वसु जाम सुकाम । वढे जिन दोज मयंक समान, रमै बहु वालक निर्जर प्रान ।६। भये जब अष्टम वर्ष कुमार, धरे अणुवत्त महा सुखफार । पिता जव प्रानकरी अरदास, करो तुम व्याह वरं मम पास ७। करी तव नाहि, रहे जगचन्द, किये तुम काम कषायजु मंद । चढ़े गजराज कुमारन संग, सु देखत गगतनी सु तरग ॥८॥ लख्यो इक रैक कर तप घोर, चहूंदिशि अग्नि जलै प्रतिजोर । कही जिननाथ अरे सुन भ्रात,कर बहुजीवनको मत घात ।।६।। भयो तव कोप कहे कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव । लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव ब्रह्मऋपीसुर प्राय ।। तवै सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निजकध मनोग। कियो बनमाहिं निवास जिनद, धरे व्रत चारित पानदकंद ॥
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१४४ ] गहे तहँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु प्रवास । दियो पयदान महासुखकार, भई पनवृष्टि तहाँ तिहिवार ।१२। गये तब काननमाहि दयाल, धरयो तुम योग सबहिं अघटाल । तब वह धूम सुकेत प्रयान, भयो कमठाचरको सुर प्रान ।१३। करै नभगौन लखे तुम बीर, जु पूरव वैर विचार गहीर । कियो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहुतीक्षण पवन झकोर ।। रह्यो दसहूं दिशिमे तम छाय, लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय । सुरुण्डनके बिन मुण्ड दिखाय, पड़े जल मूसलधार अथाय ।१५। तबै पदमावति कथ निंद, नये युग प्राय तहाँ जिनचंद । भग्यो तब रंकसु देखत हाल, लहोत्रयकेवलज्ञान विशाल ।१६॥ दियो उपदेश महा हितकार, सुभव्यन बोधि समेद पधार । सुवर्णभद्र जहँ कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसुरिद्ध ।१७। जजू तुम चरन दुहूँ करजोर, प्रभु लखिये अबही मम ओर । कहे 'बखतावर' रत्न बनाय, जिनेश हमे भवपार लगाय ।१८।
पत्ता जय पारस देव, सुरकृत सेवं, वन्दत चरण सुनागपती । करुणा के धारी, परउपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ॥१॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनायजिनेन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामी ति स्वाहा। अडिल्ल-जो पूजे मनलाय भव्य पारस प्रभु नितही,
ताके दुख सब जायें, भीति व्यापै नहिं कितही। सुख सम्पति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे, अनुक्रमसो शिव लहै 'रतन' इमि कहै पुकारे ॥२०॥
इत्याशीर्वाद (पुष्पालि)
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प्रतिशय क्षेत्र श्रीपद्मपुरा में विराजित श्रीपद्मप्रभ जिन पूजा
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श्रीधर नन्दन पद्मप्रभ, वीतराग जिननाथ । विधन हरण मंगल करन, नमो जोरि जुग हाथ ॥ जन्म महोत्सव के लिए मिलकर सब सुर राज ।
आये कौशाम्बी नगर, पद पूजा के काज ॥ पद्मपुरी मे पद्मप्रभ, प्रकटे प्रतिमा रूप
परम दिगम्बर शान्तिमय, छवि साकार अनूप ॥ हम सब मिल करके यहां, प्रभु पूजा के काज ।
श्राह्वान करते सुखद, कृपा करो महाराज ॥ ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र । ग्रय प्रवतर श्रवतर, सवीपट् । ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र । श्रथ तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन | ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र । श्रथ मम सन्निहितो भव भव वपट् ।
प्रष्टक
क्षीरोदधि उज्ज्वल नीर, प्रासुक गन्ध भए । कचन झारी से लेय, दोनी धार धरा ॥
वाडा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही । काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ॥१॥ ॐ ही श्रीपद्मप्रभ - जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि० । चन्दन केशर करपूर, मिश्रित गन्ध धरो ।
शीतलता के हित देव, भव श्राताप हगे || वाडा के० ॥ ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभ- जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनम् नि० ।
ले
तन्दुल अमल अखण्ड, थाली पूर्ण भरो । प्रक्षय पद पावन हेतु, हे प्रभु पाप हरो || बाडा के० ॥
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१४६ ] ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभ-जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्व० । ले कमल केतकी बेल, पुष्प धरू प्रागे । प्रभु सुनिये हमरी टेर, काम कला भागे ।। बाडा के० ॥ ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभ-जिनेन्द्राय कामबाणविध्वसनाय पुष्प निर्व० । नैवेद्य तुरत बनवाय, सुन्दर थाल सजा । मम क्षुधा रोग नश जाय, गाऊ वाद्य बजा ।। बाडा के । ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभ-जिनेन्द्राय शुधारोग-विनाशनाय नैवेद्य निर्व० । हो जगमग २ ज्योति, सुन्दर अनियारी । ले दीपक श्री जिनचन्द, मोह वशे भारी ।। बाडा के० ।। ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभ-जिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीप निर्व० । ले अगर कपूर सुगन्ध, चन्दन गन्ध महा । खेवत हो प्रभु ढिग आज, पाठो कर्म दहा ॥ बाडा के० ॥ ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभ-जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्व० । श्रीफल बादाम सुलेय, केला आदि धरे । फल पाऊ शिव पद नाथ, अरमोद भरे ।। बाडा के० ।। ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभ-जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फल निर्व० । जल चन्दन अक्षत पुष्प, नेवज आदि मिला। मै प्रष्ट द्रव्य से पूज, पाऊ सिद्ध शिला ॥ बाडा के० ॥ ॐ ह्री श्रीपद्मप्रभ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्व० ।
अर्घ्य चरणो का चरण कमल श्री पद्म के, बन्दो मन वच काय । अर्घ्य चढाऊं भाव से, कर्म नष्ट हो जाय ॥ बाडा के० ॥ ॐ ह्री श्रीपदाप्रभ जिनेन्द्राय-चरणकमलेभ्यो अध्यं निर्वः ।
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(दोहा)-नौवीत अतिशय नहित. बाजा के भगवान । जयमाला श्री पन की. गाऊं तुखद महान ।।
द्धरि इन्द जय पननाय परमात्म देव । जिनकी करते तर चरपतेव ।। जय पम २ प्रभु तन रमाल । जयर को मुनिनन विशाल।। कौशाम्बी मे तुम जान लीन । बाड़ा में बहु अतिशय करीन।। इक नाः पुत्र ने जमी लोद : पाया तुमको होकर नमोद । सुनकर हर्षित हो भविक वृन्द मात्र पूजा को हुन्न निरंद ।। करते दुरियो का दुःख दूर । हो नष्ट प्रेत बाधा जरूर " । डाक्ति शास्नि सब होय चूर्ण । अन्वे हो जाते ते पूर्ण ।। श्रीपाल से० अंजन सुचोर । तारे तुमने उनको विभोर ।। मर नकुल सर्प गता सनेत । तारे तुमने निज भक्ति हेत ॥ हे संक्ट मोचन भत्त-पाल । हमको भी तारो पुरण-विशाला विनती करता हूँ बारबार । होवे नेरा दुख भार क्षार ।। नीना गूजर सब नाः जन । भार पूर्ज कर तृप्त नैन ।
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१५० ]
चांदनपुर के महावीर, तेरी छवि प्यारी । प्रभु भव प्राताप निवार, तुम पद बलिहारी ॥१॥ ॐ ह्री श्री चादनगाव महावीर स्वामिने नम जलम् । मलयागिर और कपूर, केशर ले हरषो । प्रभु भव प्राताप मिटाय, तुम चरणनि परसौं ।चांदन.चिदन। तन्दुल उज्ज्वल अति धोय, थारी मे लाऊ । तुम सन्मुख पुञ्ज चढ़ाय, अक्षयपद पाऊ ।।चादन. अक्षत।। बेला केतकी गुलाब, चंपा कमल लऊ । दे काम बारण करि नाश, तुमरे चरण दऊं ।।चादन.।पुष्प।। फेनी गुंजा पकवान, मोदक ले लीजे । करि क्षुधा रोग निरवार, तुम सम्मुख कीजे ॥चादन. नैवेद्या घृत मे कर्पूर मिलाय, दीपक मे जारो। करि मोह तिमिर को दूर, तुम सन्मुख वारो ॥चादन.॥धूपं।। पिस्ता किसमिस बादाम, श्रीफल लोग सजा । श्री वर्धमान पद राख, पाऊ मोक्ष पदा ॥चाद ॥फलं।। जल गन्ध सु अक्षत पुष्प, चरुवर जोर करो। ले दीप धूप फल मेलि आगे अर्घ करो ॥चांदन.प्रिय।।
____चरणो का अर्घ्य जहां कामधेनु नित प्राय, दुग्ध जु बरसावै । तुम चरणनि दरशन होत, आकुलता जावै ।। जहां छतरी बनी विशाल, अतिशय बहु भारी । हम पूजत मन वच काय, तजि संशय सारी ।। चांदन० ॥
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[१५१
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ॐ ही टोफ में स्थापित श्री महावीर चरणेभ्य नम अध्य० ।
टोले में विराजमान का अर्घ्य टोले के अन्दर आप सोहे पनासन,
जहां चतुरनिकाई देव, श्रावें जिन शासन । नित पूजन करत तुम्हार फर मे ले झारी,
हम हूं वसुद्रव्य बनाय, पूजें भरि थारी ॥चादन। ॐ ह्री चादनपुर महावीरजिनेन्द्राय टोले में विराजमान समय का अध्य
पंचकल्याणक कुण्डलपुर नगर मंझार, त्रिशला उर आये।
सुदि छठि अषाढ सुर प्राय, रतनज बरसाये ।।चांदन.।। *ही श्रीमहावीरजिनेन्द्राय प्रापाढशुपला पप्ठ्या गर्भमगलप्राप्नायाऱ्या
जनमत प्रनहत भई घोर, सब जग सुख छाई।
तेरस शुक्ला की चैत्र, सुरगिरि ले जाई चांदन.।। ॐही श्रीमहावीर जिनेन्द्राय चत्रशुक्लात्रयोदश्यां जन्ममगलप्राप्तायाध्य
कृष्णा मगसिर दश जानि, लौकान्तिफ पाये। करि केशलोच तत्काल, झट वन को धाये । चादन ।। ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मगसिर कृष्णादगम्या तपमगलप्राप्तायाऱ्या वैशाख सुदी दश माहि, घाती क्षय करना
पायो तुम केवलज्ञान, इन्द्रन की रचना ॥चांदन.॥ ॐ ह्रीश्रीमहावीरजिनाय कार्तिककृष्णामावस्यायां निर्वाणप्राप्तायाध्य ।
जयमाला मंगलमय तुम हो सदा, श्री सन्मति सुखदाय । चादनपुर महावीर की, कहूँ भारती गाय ।।
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१५२ ]
जय जय चांदनपुर महावीर तुम भक्त जनों को हन्त पीर । 'चेनन जग मे लवत ग्राप, कई हादशांग वानी नाप ॥१॥
अब पचन काल मार् ग्राय, चांदनपुर मे दौर, तिहरा गाव
निशय दिखाय । प्रापीर ॥२॥
टोले के अन्दर के वाला को फिर गाह कौन, उद दर्शन अपना श्राप दीन । मूरत देवी ही तूप, नग्न दिगम्बर शान्ति रूप | ३ | तहां श्रावक जन वह गये प्राथ, कीन्हे वशन नन वचन काय । है कि ठीक ज्ञान, निश्चय हैं ये श्री वर्द्धमान ॥४॥ सब देगनके श्रावक जु आय, विन भवन अनूपन दियो बनाया फिर शुड दई वेदी राय, तुरतहि गजरयमु लियो सजाय ५ । ये देख ग्वान मनमे वीर, मम गृह को त्यागो नहीं दीर । तेरे दर्शन दिन तजुळे प्राण सुन मेरी हे कृपा निधान ॥६॥ कीने रथ ने प्रभु विराजमान, रथ हुआ प्रचल गिरि के मान तब तरह २ के किये जोर, बहुतक रथ गाडी दिये तोड |७| निशिमाहि स्वप्न चिहि दिलात स्थचले ग्वालका हाथ। भोरहिट चरण दियो बनाय, नन्तोष दियो ग्वालह कराय । करि जय जय प्रभुको कमी ढेर, रथ चल्यो फेर लागी न देर । बहुनृत्य करत बाजे बजाय, स्थापन कोने तहं भवन बाय ।। इकदिन मंत्री को लगा दोष, घरि तोप कही नृप खाइ रोष । तुमको जब घ्याया वहां वीर, गोला से झड बच गया वजीर मंत्री नृप चांदन गांव आय, दर्शन करि पूजा की बनाय । करि तीन शिखर मन्दिर रचाय, कंचन कलशा दोने घराया
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... ...rrrrrr यह हुक्म कियो जयपुर नरेश, सालाना मेला हो हमेश । अब जुडन लगे बहु नर औ नार, तिथि चैत सुदी पूनों मंझार ।। मीना गूजर आवें विचित्र, सब वर्ण जुडे करि मन पवित्र । बहु निरत करत गावें सिहाय, कोई कोइ दीपक रह्या चढाय ।। केई जय २ शब्द करे गम्भीर, जय जय जय हे श्री महावीर । जैनी जन पूजा रचत प्रान, केई छत्र चमर के करत दान ।। जिसकी जो मन इच्छा करत, मन वाछित फल पावे तुरन्त । जो करे वन्दना एक बार, सुख पुत्र सपदा हो अपार ।। जो तव चरणो मे रखें प्रीत, ताको जग मे को सके जीत । है शुद्ध यहां का पवन नीर, जहा अति विचित्र सरिता गंभीर ।। पूरनमल पूजा रची सार, हो भूल लेउ सज्जन सुधार । मेरा है शमशाबाद ग्राम, त्रिकाल.करूं प्रभु को प्रणाम ।।
छन्द त्रोटक ।। श्री वर्धमान तुम गुणनिधान, उपमा न बनी तुम चरणन की। है चाह यही नित बनी रहे, अभिलाष तुम्हारे दरशन की । दोहा-प्रष्ट कर्म के दहन को, पूजा रची विशाल ।
' पढ़े सुने जो भाव सो, छूटे जग जजाल ।। ॐ ह्री श्रीचांदनपुर महावीर जिनेन्द्राय पूर्णाध्यं । ' .
संवत् जिन चौबीस सौ, है बासठ की साल । एकादश कातिक बदी, पूजा रची सम्हाल ।।
इत्याशीर्वाद ।।
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[ १५५ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि।
बेला गुलाब मुचकन्द, सुमन सुगन्ध भरे ।
तुमको पूजत प्रभु चन्द, काम कलंक हरे ॥देहरे०॥ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प नि ।
नैवेद्य जु विविध प्रकार, षट् रस बलकारी ।
कर क्षुधा वेदनी क्षार, भूख नशे म्हारी ॥देहरे॥ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि०
घृत के भर दीप जलाय, धारूँ तुम पागे ।
मम तिमिर मोह नशि जाय, ज्ञान कला जागे ।देहरे०।। ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि.
शुभ धूप दशांग बनाय, पावक मे खेऊँ।
मम प्रष्ट करम जर जाय, मोक्ष धरा लेऊ ॥देहरे०।। ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि० ।
पिस्ता बादाम अनार, केला सुखकारी।
धारे प्रभु चन्द्र पगार, पावे शिव नारी ।देहरे०॥ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि ।
मज जल फल प्रादिक अर्घ, तुम गुण गावत हूँ ।
पद पाऊँ नाथ अनर्घ, शीश नमावत हूं देिहरे॥ ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अय॑म् नि ।
*पंच कल्याणक * बदि चैत सुपंचमि आई, तज वैजयंत जिनराई। लक्ष्मरणा मात उर आये, सुर इन्द्र जजे शिरनाये ।।
ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय चैत वदी पचमी को गर्भमगल मण्डिताय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
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१५६ ]
कलि पौष एकादशि आई, जन्मे थे त्रिभुवन राई। सुर चन्द्रपुरी मिल पाये, अभिषेक सुमेर कराये ।।
ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पोप कृष्णा एकादशी को जन्ममंगलमण्डिताय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु भवतन भोग अपारा, निस्सार जान जग सारा । बदि पौष एकादशि प्यारी, बनमे जा दीक्षा धारी ।।
ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पोपकृष्णा एकादशी को तपोमडलमण्डिताय अयं निर्वपामोति स्वाहा।।
चहँ कर्म घातिया नाशा, शुभ केवलज्ञान प्रकाशा। फाल्गुण शुभ सप्तम कारी, बना समोसरण मनहारी॥
ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय फाल्गुण वदी सप्तमी को केवलज्ञान प्राप्ताय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्मेद शैल प्रभु नामी, है ललित कूट अभिरामी । फाल्गुरण सुदि सप्तमि चूरे, शिव नारि वरी विधि फरे।
ॐ ह्री देहरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय फाल्गुण सुदी सप्तमी को मोक्षमंडलमण्डिताय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥जयमाला ॥ दोहा-चन्द्र वदन लक्षरण विमल, निष्कलक निष्काम ।
ऐसे श्री जिन चन्द्र को, वन्दौं पाठो याम ।। शान्ति मूर्ति लख पापकी, कटे अनन्ते पाप । रोग शोक दारिद्र दुख, नशत आप से प्राप ।।
॥ पद्धरि छन्द ।। जय चन्द्रनाथ धुति अमल चंद, जय इन्द्रचंद्र वंदित सुचर्ण । जय चन्द्रपुरी में जन्मलीन, महासेन नृपति गृह शोभ कीन ।।
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1१५७
ARRANASAN
जय माल लक्ष्मणा गोद पाय, नाना क्रीड़ा फोनी जिनाय । देवन कुमार संग सेन कोन, प्रभु वृद्धि भये मन मोद नीन ।। दश लक्ष पूर्व पप लही श्राप, रहे इन्द्र अमरगरण सदा साथ । ले राज्य भार चिरकाल कोन, जानो नहिं काल व्यतीत हीन ।। मन वस्त्र प्राभरण देव लाय, श्रीजिन को संतोषित कराय । इदिन शृगार फरी जु नाथ, दपगमे लख निज मुख सु प्राप।। एक चिह्न जु मुखपर लख प्रवीन, भव भोगन वाछा छोडदीन । वर चन्द्र पुत्र को राज्य देय, सम्बोधित ह्व प्रभुजी स्वयमेव ।। 'विमला' जु पालकी मे बिठाय, ले गये नाथ को इन्द्र प्राय । सर्वतुक वन वीक्षा मुलीन, सह इक हजार राजा प्रचीन । कर पन मुन्ठि से लोन फेश, धारो ज दिगम्बर नग्न वेश । था नलिन नगर पुर का सुराय, तसुनाम सोमदत्तजी कहाय ।। फोनो ज पारनौ तास गेह, जहाँ रत्नो फा वरसा जु मेह । फिर प्रारमध्यान मे भये लोन, लहि केवल कोने कर्म छीन ।। कोनो विहार भारत जु वर्ष, यह पुण्य धरा प्रघटी प्रत्यक्ष । धर्मोपदेश से भव्य तार, प्राये सम्मेद शिखर पहार ॥ तहाँ योग नियोग किये जु सार, पहुंचे प्रभु मोक्षमहल मझार यह पचम दुखमा काल जान, हुई धर्म कर्म सवको जु हान ।। इस नगर तिजारा मध्य सेत, देहरा पवित्र सुन्दर सुक्षेत्र । श्रावण शुक्ला दशमी अनूप, बर वार वृहस्पति शुभ स्वरूप। सम्बत् तेरह दो सहस वर्ष, मध्याह्न समय अभिजित मुहूर्त । जिन प्रकट भये अतिशय सरूप,दिखलाया अपना दिव्य रूप ॥
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१५८ ]
प्रभु के दर्शन लख कटत पाप,सुखशांति मिलत तुम नाम जाप । सब भूत प्रेत भयभीत होय, डरकर भागत हैं नमत तोय ।। पर दुल अनेक नाते पलाय, जो भाव सहित प्रभुको जुध्याय। उनके सकट रहते न कोय, बिन भाव किया नहिं सफन होय । सब अरज सुनो मेरी कृपाल, मैं भव दुख दुखिया है क्याल । मत देर करो सुनिये पुकार, दु० प्रष्ट करम मेरे निवार । पत्ता-श्रीचन्द्र जिनेशं दुख हर लेतं, लब सुख देतं मनहारी।
गाऊँ गुणमाला जगउजियाला, सोतिविशाला सुखकारी। ॐ ह्री देहेरे के श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय महायं निर्वपामोति स्वाहा । दोहा-देहरे के धीचन्द्र को, मन वच तन जो ध्याय । ऋद्धि-वृद्धि होवे 'तुमति', सकट जाय पलाय ॥
।' इत्याशीर्वाद ॥ सिद्ध क्षेत्र श्री सम्मेद शिखर पूजा दोहा-सिद्ध क्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्ट स्थान ।
शिखर समेद सदा नौं, होय पाप की हान ॥१॥ अगिनित मुनि जहं ते गये, लोक शिखर के तीर ।
तिनके पद पङ्कज नमौं, नाशै भवकी पीर ॥२॥ अडिल्ल छन्द-है वह उज्ज्वल क्षेत्र सु अति निर्मल सही।
परम पुनीत सूऔर महा गुनकी मही॥ सफल सिद्ध दातार महा रमनीक है।
बंदों निज सुख हेत अचल पद देत है ॥३॥ सोरा-शिखर सम्मेद महान, जगमे तीर्थ प्रधान है।
महिमा अद्भुत जान, अल्पमती मैं किम कदा ॥४॥
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पदरी छन्द सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है, अति सु उज्ज्वल तीर्थ-महान है। करहि भक्तिमु जे गनगायक, बरहि शिव सुरनर सुस पायक। (मडिल्ल छन्द)-सुर हरि नरपति प्रादि सु जिन वदन करें।
भवसागर ते तिरे, नही भवदघि पर ।। सुफल होय जो जन्म सो जे दर्शन करें। जन्म जन्म के पाप सकल छिन मै टरै ।।६।।
पद्धरी छन्द श्री तीर्थबर जिनवर वीस, अरु मनि प्रमख्य सब गुनन ईग। पहंचे जहते वोवल सुधाम, तिन सवको अव मेरा प्रणाम ॥७॥ (गीता छन्द)- सम्मेदगढ है तीर्थ भारी सवन को उज्ज्वल करे।
चिरकाल के जे कर्म लागे दरश तैछिन मे टरे॥ हैं परम पावन पुण्य दायक प्रतुल महिमा जानिये।
है अनूप मरूप गिरिवर तासु पूजा ठानिये ॥८॥ दोहा-श्री सम्मेद शिखर महा, पूजो मन वच काय ।
हरत चतुर-गति दुःख को, मनवाछित फल दाय ॥ ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र ! अभावतर अवतर सवौपद आह्वाननम् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् सन्निधिकरण।।
अथाष्टक क्षोरोदधि सम नीर सु उज्ज्वल लीजिए। कनक कलश मे भरके धारा दीजिए। पूजी शिखर सम्मेद सु मन वच काय जू ।
नरकादिक दुख टर प्रचल पद पाय जू ।। ॐह्री श्री सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरा मृत्यु विनाशनाय जल ।
पयसों घसि मलियागिरि चंदन ल्याइये ।
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१६० ]
केसर आदि कपूर सुगंध मिलाइये । पूजों शिखर सम्मेद सु मन वच काय ज ।
नरकादिक दुरव टरै अचल पद पाय जू ।। ॐ ह्री श्रीसम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो समारतापविनाशनाय चदन ।
धवल स उज्ज्वल तन्दुल खासे धोयके ।
हेम वरनके थार भरौं शुचि होयके ।।पूर्जी ।। ॐ ह्री श्रीसम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत ।।
फूल सुगन्ध सुल्याय हरष सो प्रान चढायो।
रोग शोक मिट जाय मदन सब दूर पलायो ।पूजी.। ॐ ह्री श्रीमम्मेदशिखर सिद्वक्षेत्रेभ्यो कामवाणविघ्वशनाय पुष्प ।
पदस के नैवेद्य कनक थारी भर ल्यायो।
क्षुधा निवारण हेतु सु पूजौं मन हरषायो ।पूजौं। ॐ ह्री श्रीसम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् ।
लेकर मरिणमय दीप सुज्योति उद्योत हो।
पूजत होत स्वज्ञान मोह तम नाश हो ।पूजो०॥ ॐ ह्री श्रीमम्मेदगिलर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोहावकारविनाशनाय दीप ।
दश विधि धूप अनूप अग्नि मे खेवहू ।।
अष्ट कर्म को नाश होत सुख लेवहूँ ।।पूजी०।। ॐ ह्री श्रीसम्मेदगिरवर मिक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्म विध्वसनाय धूप० ॥
केला लोग सुपारी श्रीफल ल्याइये । __ फल चढाय मनवाछित फल सु पाइये ।।पूर्जी०।। ॐ ह्री श्रीसम्मेद शिखर मिद्वक्षेत्रेभ्यो मोक्षफनप्राप्नाय फन० ॥
जल गन्धाक्षत फूल मु नेवज लीजिये ।
दीप धूप फल लेकर अर्घ चढाइये ॥ पूजी० ।। ॐ ह्री श्रीमम्मेदशियर मिक्षेत्रेम्यो अनयंपदप्राप्तये अध्य॑म ।।
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AAAAAANANA
प्रय जयमाला । लोलतरङ्ग छन्दमनमोहन तीरथ शुभ जानो, पावन परम सुक्षेत्र प्रमानो। उन्नत शिम्बर अनूपम नोहे, देखत ताहि सुरासुर मोहै। दोहा-तीरथ परम सुहावनो शिखर समेद विशाल । कहत अल्पबुधि उक्तियो, सुग्वदायक जयमाल ।
चौपाई १५ मात्रा-- सिद्धक्षेत्र तीरय मुखदाई । वन्दा पाप दूर हो जाई । शिखरशीप पर कूट मनोग्य । महे वीस प्रति शोभा योग्य ॥१॥ प्रथम सिद्धवरकाट सुचान । अजितनाथ को मुक्ति सुथान । कूटतनो दरशन फल एह । कोटि वतीस उपास गिनेह ॥२॥ दूजो धवलयूट है नाम । सम्भवप्रभु जहंत शिवधाम । दरमकोटि प्रोपवफल गान । लाग्य वियालिस को वखान ॥३॥ प्रानन्दकाट महामुपदाय । जहंत अभिनन्दन शिव जाय।। कूटतनो दरशन इमि जान । लास उपास तणो फल मान ॥४॥ अविचल कट महासुग्व वैग । मुक्ति गये जह सुमति जिनेश । कूट भाव धरि पूजे कोय । एक कोटि प्रोषध फल होय ॥५॥ मोहन कुट मनोहर जान । पद्मप्रभ जहते निर्वान । कूट पूज फल लेहु सुजान । कोटि उपास कह्यो भगवान ।।६।। मनमोहन है काट प्रभाम । मुक्ति गए जहं नाथ सुपास। पूर्ज कूट महाफल होय । कोटि वतीम उपास जु सोय ॥७॥ चन्द्रप्रभ का मुक्ति मुघाम । परम विशाल ललितघट नाम । कूटतनो दरशन फन जान | प्रोपव सोलह लाख बखान ।।८।। सुप्रभ कूट महासुखदाय। जस्तै पुष्पदन्त शिवपाय।। पूजो कट महाफल लेव । कोटि उपास कह्यो जिनदेव ।।।। श्रीविद्य तवर कट महान । मोक्ष गए शीतल धरि ध्यान । पूजे विविध जोग कर कोय । कोडि उपास तनो फल होय ॥१०॥ सकुल कूट महाशुभ जान । श्रीश्रेयास गये शिवथान । कूटतनो दर्शन फल सुन्यो । जोडि उपास जिनेश्वर भन्यो ॥११॥
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काट मुवीर परम गुपदाय । विमल जिनेग जहाँ गिवपाय । मन वच दरश कर जो कोय । कोटि उपामतनो फन होय ।।१२।। कूट स्वयम मुभग मु नाम । गये अनन्त अमरपुरधाम ।। यही कट को दग्शन करे । कोटि उपामतनो फल घरे ॥१३॥ है सुदत्तवर कूट महान । जहंत धर्मनाय निरवान । परम विगाल ट है मोय । कोटि उपाम दरगफन होय ॥१४|| ाट प्रभाग परम शुभ रह्यो । गातिनाथ जहते शिव लह्यो।
टतनो दग्गन है मोय । एक कोडि प्रोपध फल होय ।।१५।। परमजानघर है गुभाट । गिवपुर कुथु गये अबछूट । जाको पूजे जे कर जाडि फन उपास कह्यो इक कोडि । १६।। नाट कूट महाशुभ जान । जहंत गिवपुर पर भगवान । दग्गन कर कूट को जोय । छयानवकोटि वाम फल होय ॥१७॥ सबनकूट मरिलजिनराज । जहत मोक्ष भये शुभ काज । कट दरमफल कयो जिनेग । एक कोडि प्रोपध शुभ वेश ॥१८॥ निर्जर कूट फह्यो मुग्मदाय । मुनिमुव्रत जहंते शिव जाय। नाटतनो प्रव दरशन सोय । एक कोटि प्रोपच फल होय ॥१६॥ लूट मिनधरतै नमि मुक्ति । पूजत पाय सरासर मुक्ति । कूटतनो फल है सुखकन्द । कोटि उपास कह्यो जिनचन्द ।।२०॥ श्रीप्रभु पार्श्वनाय जिनराज । चहंगतिते छूटे महागज।। सुवरणभद्र कट को नाम । तासो माक्ष गये सुखधाम ॥२१॥ तीनलोक हितकरण अनूप । वदित ताहि मुरासुर भूप । चितामणि सुरवृक्ष समान । ऋद्वि-सिद्धि मगल सुखदान ॥२२॥ नवनिधि चित्रावेल' समान । जातै सुक्ख अनूपम जान । पारम और कामसुर धेनु । नानाविध प्रानन्द को देन ।।२३।। व्याधिविकार जाहिं सब भाज । मन-चीते पूरे ह काज । भवदधि-रोग विनाशक सोय । श्रीपधि जगमे और न कोय ॥२४॥ निरमल परम थान उत्कृष्ट । वन्दत पाप भजे अरु दुष्ट । जो नर ध्यावत पुण्य कमाय । जगगावत सब कर्म नशाय ॥२५॥
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। १६३ कटै अनादिकाल के पाप । भगे सकल छिनमे सन्ताप । नरपति इन्द्र फणीन्द्र जु सबै । और खगेन्द्र मृगेन्द्र जु नवै ॥ २६ ॥ नित सुरसरी करै उच्चार । नाचत गावत विविध प्रकार । बहुविधि भक्ति करें मनलाय । विविधति वादित्र वजाय ॥ २७ ॥ हम ममता बजे मृढग | घनघन घट वजे मुहचग | भुनभुन झुनझुन भुनिया भुनै । सरसरसर सारगी धुनं ॥ २८ ॥ मुरली बीन बजे घुनि मिष्ट । पटहा तूर सुरान्वित पुष्ट | सब सुरगण थुति गावत सार । सुरगण नाचत वहुत प्रकार ॥ २६ ॥ झन नन नन ना नूपुर वान । तन नन नन ना तोरत तान । ताथेइ थेइ थेइ कर चाल । सुर नाचत गावत निज भाल ||३०|| नाचत गावत नाना रग । लेत जहाँ सुर प्रानन्द संग | नितप्रति सुर जहं वन्दन जाय । नानाविधि के मंगल गाय ॥ ३१ ॥ अनहद धुनि की मोद जु होय । प्रापति वृषकी प्रति ही होय । ताते हमको सुख दे सोय । गिरवर बन्दों करधरि दोय ॥ ३२ ॥ मारुत मन्द सुगन्ध चलेय । गन्धोदक जहं नित वर्पेय । , जियको जाति विरोध न होय । गिरवर वन्दो करधरि दोय 11. ३|| ज्ञान चरन तप साधन सोय । निज अनुभवको ध्यान जु होय । शिवमंदिर को द्वारो सोय । गिरवर वन्दो करवरि दोय ||३४| जो भवि वन्दे एकहि बार । नरक निगोद पशू गति टार । सुर शिवपढको पावै सोय । गिरवर वन्दो करघरि दोय ॥ ३५ ॥ जाकी महिमा अगम अपार । गणधर कहत न पावै पार । तुच्छबुद्धि में मतिकर हीन । कही भक्तिवश केवल लीन ||३६|| धत्ता - श्री सिघखेत प्रति सुखदेत, शीघ्रंहि भवदघि पारकरं ।
अरिकर्म विनाशन शिवसुखभासन जय गिरवर जगतारवर । ३७ ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा । ( दोहा - ) शिखर सु पूजे जो सदा, मनवचतन हरषाय । दास 'जवाहर' यो कहे, सो शिवपुर को जाय ॥ ॥ पुष्पाजल क्षिपेत् ॥
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१६४ ]
श्री कैलाशगिरि पूजा श्री कैलाश पहाड जगत परधान कहा है ।
प्रादिनाथ भगवान जहां शिववाम लहा है ।। नाग कुमार महावाल व्याल आदि मुनिगई ।
गये निहि गिरिमों मोक्ष याप पूजों शिरनाई॥ श्री कैलाश पहाड़ मो. आदिनाय जिन देव ।
मुनी प्रादि जे शिव गये. थापि कगें पद मेव ।।
ही योजनान पर्वत ने श्री प्रादिनाय वानी तथा नागकुमारादि नुनि मोक्षपट प्राप्त अत्र अवतर २ मंत्रीपद् । अत्र तिष्ट निट । पत्र मम सन्निहितो नत्र २ वपद् । नदगड मुनिरमल नीरलाय, करि प्रामुक मत्कुम्भन भराय । जिन आदि मोक्ष के नाशथान, मुन्यादि पाद जज़ जोरि पानि ।
ॐ ह्रीं श्री कैलाग पर्वत ने आदिनाथ भगवान् और नाकुनागदि मोनफल प्राप्तये जनं निर्वगामीनि स्वाहा। मलयागिरि चन्दन को घसाय, कुंकुमयुत मत्कु भन भराय । जिन आदि मोक्ष कैलाश नाम, मुन्यादि पाद० ।। चन्दन । जिनवर कमोद वर शालि लाय, खण्डहीन घोय थारा भराय । जिन प्रादि मोक्ष कैलाश थान, मुन्यादि० ॥ अक्षतं । सुवेल चमेली जुही लेय, पाटिल वारिज थारी भरेय । जिन प्रादि मोक्ष कैलाश यान, मुन्यादि० ॥ पुष्पं मोदक घेवर खाजे बनाय, गोमा सुहाल भरि थाल लाय । जिन प्रादि मोक्ष कैलाश थान, मुन्यादि० ॥ ॥नवेद्य।।
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१६)
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प्रभु कर्म अघानी घात कीन पद्धम गति स्वामी प्राप्त कोन । हरि पान चिता रचि दाह कीन, परि नार मीश सुर गमनकीन ।
ह्या मो औरह मनि मुजान, हनि कर्म लह्यो है मोनयान । गिरि को वेढे खातिक मुजान, अरु माननगेवर झील मान । तानो यात्रा है कठिन जान, नहिं सुलभ चिनी दिगमो बनवान । हैं प्रा० नहन्त्र पेडो प्रमान नामो अष्टापद नाम जान ।। मुत कन्हईलाल भगवानदान कर जोरि नमै पल गिव निवान । मागत जिनवर मनिवर दयाल, भव भ्रमण काटद्यो शिव विठाल
प्रादोश्वर घ्यावे, भाव लगावे, पूज रचावे चावन मो।
नो होय निगेगी, वहृनुज भोगी, पुण्य उपावे भावन हो । ॐ ह्रीं श्री कैलान पर्वत ने श्री आदिनाथ भगवान तथा नाग कुमारादि मुनि मोक्षपद प्राप्तेभ्य अर्घ्य निर्वपा० ॥
जे पूजे कैलाश यादि जिन राय को, पढे पाठ वहुभाति नुभाव लगाय को। ते वन धान्यहि पुत्र पौत्र नम्पति लहै । नर नुर मुन्वको भोगि अन्त शिवपुर लहे। इत्यागीर्वाद ।
- चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूजा दोहा-उत्सव किये पनवार जह, सुरगरण युत हरि प्राय ।
जजो सुपल वसुपूज्य सुत, चम्पापुर हर्षाय ।।१॥ ॐ ह्री वासुपूज्यनिर्वाणक्षेत्र श्रीचम्पापुरसिद्धक्षेत्र अत्रावतर २ संवौषट् इत्याह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनं.अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् । परिपुष्पालि क्षिपेत् ।।
अष्टक । चाल-नन्दीश्वर पूजन की। सम अमिय विगन-वस वारि, लै हिम कुम्भ भरा। लख सुखद त्रिगद हर तार, दै त्रय धार धरा ।
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श्रीवासुपूज्य जिनराय, निर्वृति थान प्रिया । चम्पापुर थल सुखदाय, पूजो हर्ष हिया ॥
ॐ ह्री श्रोचम्पापुरसिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं । कश्मीरी केशर सार, अति हि पवित्र खरी । शीतल चंदन सग सार, लै भवताप हरी ॥श्रीवासु.।सुगंध।। मरिणद्युति सम खंड-विहीन, तन्दुल लै नीके । सौरभयुत नव वर बीन, शालि महानीके ॥श्रीवासुनिक्षत। अलि लुभन सुमन हग घ्राण, सुमन जु सुर द्रमके । ले वाहिम अर्जुनवान, सुमन दमन झुमके ॥श्रीवासु.।पुष्प।। रस पुरित तुरित पकवान, पक्क यथोक्त घृती। क्षुध गदमद प्रदमन जान, लैविध युक्तकृती ॥श्रीवासु.नैवेद्य।। तम-अज्ञ-प्रनाशक सूर, शिवमग परकाशी । लै रत्नदीप द्युतिपूर, अनुपम सुखराशी ॥ श्रीवासुदीपं। वर परिमल द्रव्य अनूप, शोध पवित्र करी। तसु चरण कर कर धूप, लै वसु कर्म हरी ॥श्रीवासु.।धूपं ।। फल पक्क मधुर रसवान, प्रासुक बहुविधके । लखि सुखद रसन हग घ्रान, लै प्रद पद-सिधके ॥श्रीवासु फलं। जल फल वसु द्रव्य मिलाय, लै भर हिमथारी । वसु अग घरापर ल्याय, प्रमुदित चितधारी ॥श्रीवासु.प्रयं
अथ जयमाला। दोहा-भये द्वादशम तीर्थपति, चम्पापुर शुभथान ।
तिन गुरणकी जयमाल कछु, कहाँ श्रवरण सुखदान ।।
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१६८ ]
जयजय श्रीचम्पापुर सुधाम, जहँ राजत नृप वसुपूज नाम । जग पौन पलासे धर्महीन,भवभ्रमन दुःखमय लखि प्रवीन ॥१॥ उर करुणा धर सो तम विडार,उपजे किरणावलि घर अपार । श्रीवासुपूज्य तिन तने बाल, द्वादशम तीर्थक्र्ता विशाल ॥२॥ भवभोग देहसें विरत होय, वय बाल माहि ही नाथ सोय । सिद्धन नमि महाव्रत धारलीन,तप द्वादशविध उग्रोनकीन ॥३॥ तहँ मोह सप्तत्रय प्रायु येह, दशप्रकृति पूर्व ही क्षय करेह । श्रेणोजु क्षपक प्रारूढ होय, गुण नवम लाग नवमाहि सोय ।४। सोलहवसु इक इकषट इकेय, इक इक इक इम इन क्रम सहेय । पुनि दशमथान इक लोभ टार, द्वादशमथान सोलह विडार '५। है अनत चतुष्टय युक्त स्वाम, पायो सब सुखद संयोग ठाम । तह काल त्रिगोचर सर्व ज्ञेय, युगपतहि समय माहीं लखेय ।६। कछु काल दुविध वृष अमियवृष्टि कर पोर्षे भविभुवि धान्यसृष्टि । इक मास प्रायु अवशेष जान, जिन योगनकी सुप्रत्तिहान ।७। ताही थल शुक्ल ध्यान ध्याय, चतुदशम थान निवसे जिनाय । तहँ दुबरम समय मझार ईश,जु प्रकृति बहत्तरतिनहि पीस ।। तेरह को चरम समय मॅझार, करके श्रीजगतेश्वर प्रहार । अष्टमअवनी इकसमयमद्ध, निवसे पाकर निज अचल रिद्ध है। युत गुरगवसु प्रमुख अमित गुणेश, हरहे सदाही इमहि वेष । तबहीसे सो थानक पवित्र, त्रैलोक्य पूज्य गायो विचित्र ।१०। मै तसु रज निज मस्तक लगाय, बन्दौं पुनि २ भुवि शीशनाय । ताही पद वाछा उरमझार, घर अन्य चाह बुद्धी विडार ।११।
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। १६६ ॐ ह्री श्रीवासुपूज्यनिर्वाणस्थान चम्पापुरक्षेत्राय पूर्णाय । दोहा-श्री चम्पापुर जो पुरुष, पूजे मन वच काय । वरिण 'दौल' सो पावही, सुख सम्पति अधिकाय ।।
इत्याशीर्वाद । श्री गिरनार पूजा
(स्व० कवि जवाहरलाल कृत ) छप्पय-श्री गिरनार शिखर परवत, दक्षिण दिश सोहे।
नेमिनाथ जिन मुक्तिधाम, सब जन मन मोहे ।। कोड बहत्तर सात शतक, मुनि शिवपद पायो ।
ता थल पूजन काज, भविक चित अति हर्षायो ।। तिस तीरथराज सु क्षेत्र को, अाह्वानन विधि ठानकर । पूज त्रियोग मनवचनतन, श्रावकजन गुन गानफर ॥२॥
ॐ ह्री श्री नेमिनाथ शबुकुमार प्रद्य म्नकुमार अनिरुद्धकुमार और बहत्तर करोड सातसे मुनि मोक्षपद प्राप्तिस्थान श्रीगिरनार सिद्धक्षेत्र पत्र अवतर २ सवौषट् आह्वाननं । प्रत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । मन मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरण ।
प्रभु तुम राजा जगत के, कर्म देहि दुख मोय । करू यथारथ वीनती, हमपं करुणा होय ॥
चाल लावनी की। तोरथ गढ गिरनार को, नित पूजो हो भाई। हेम मुंग भर तीर्थादिक, शुभ प्रासुक पावन लाई ॥ जन्म जरा मत नाशन कारन, धार देह ढरकाई॥नित०
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जम्बूद्वीप भरत प्रारज मे, सोरठ देश सोहाई । सेसावन के निकट ग्रचल तह, नेमिनाथ शिवपाई ॥ नित पूजो हो भाई तीरथगढ गिरनार को । नित० ॐ ह्री श्री गिरनार सिद्धक्षेत्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जन सुन्दर चन्दन कदली नन्दन, केशर सग घिसाई । भवदुखताप मिटावनलखके, अरची जिनपद आई । निज चि०| शशिनम श्वेतवरणं मुक्ताशित प्रछत श्रखड सुहाई ।
चरन शरन प्रभु अक्षं निधि लख, पुंजदिये सो पाई । निज । प्र० कुसुम वपन विविध गन्धजुत, चुन चुन भेट घराई । पूजन किय ह शीलवर्द्धना, मनोवारणज्य लाई । निज. | पुष्पं खाजा ताजा मोदक गुजा, फेनी सरस बनाई । पसव्यजन मिष्ट सुधामय, हेमथारभर लाई । नि. ज. नैवेद्यं दीप ललित कर घृत पूरित भर, उज्ज्वल जोत जगाई । करो प्रारती जिनपदकेरी, मिथ्यातिमिर पलाई । निज । दीप धगर लगर कर्पूर चूर बहु, द्रव्य सुगन्ध मिलाई । खेय धनञ्जय धूप धूम मिस, वसुविधि देय चढाई । निज धूप एला दाडिम श्रीफल पिस्ता, पूगीफल सुखदाई ।
कनकपात्रधर भविजन पूजें, मनवाछिनफल पाई । नि०ज० । फल श्रष्टद्रव्य का अर्ध संजोवो, घण्टा नाद बजाई ।
गीतनृत्यकर जजो 'जवाहर' सानन्द हर्षबधाई । नि० न० 1 प्रध्यं
जयमाला ( जोगीरासा )
उर्जयत गिरराज मनोहर देखत ही मन मोहे । राजु पति शिवयान विराजे, उत्तम तीरथ जो है ॥
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[ १७१ पुत्र पौत्र हरि कृष्ण प्रचुर मुनि, पंचमगति तह पाई ।
तास तनी महिमा को वरण, श्रवण सुनत हरषाई ॥१॥ (पद्धडि) जै जै जै नेमि जिनन्दचन्द्र, सुरनर विद्याधर नमत इन्द्र । जै सोरठ देश अनेक थान, जूनागढ पै शोभित महान ॥ २॥ तहा उग्रसेन नृप राजद्वार, तोरण मण्डप शुभ वने सार । जे समुदविजय सुत व्याह काज, आये हर वलि जत प्रान साज । तह जीव बन्धे लख दया धार, रथ फेर जन्तु बन्धन निवार । द्वादस भावन चिन्तवन कीन, भूषण वस्त्रादिक त्याग दीन ॥ ४ ॥ तज परिग्रह परिणय सर्व सग, ह्व अनागार विजयी अनग । घर पञ्च महाव्रत तप मुनीश निज ध्यान धरो हो केवलीश ॥५॥ इसहो सुथान निर्वाण थाय, सो तीरथ पावन जगत माय । अरु शंबु श्रादि प्रद्य म्न कुमार, अनिरुद्ध लह्यो पद मुक्ति पार ॥६॥ पुनि राजुलहू परिवार छाड, मन वचन कायकर जोग माड । तप तप्यो जाय तिय धीर वीर, सन्यास घार तजके शरीर ॥७॥ तिय लिंग छेद सुर भयो जाय, आगामी भवमे मुक्ति पाय । तह अमरगण उर धर अनन्द, नित प्रति पूजत हैं श्रीजिनन्द ॥८॥ अरु निरतत मधवा युक्तनार, देवनकी देवी भक्ति धार । ता थेई २ थेई २ करत जाय, फिर फिरि फिर फिरकी लहाय ।।९।। मुहचग बजावत तारवीन, तनन तनन तन अति प्रवीन । करताल ताल मिरदग और, झालर घण्टादिक अमित शोर ॥१०॥ प्रावत श्रावकजन सर्व ठाम, बहु देश देश पुरनगर ग्राम । हिलमिल सब संघ समाज जोर, हय गय वाहन चढ रथ बहोर ॥१२॥ यात्रा उत्सव निशिदिन कराय, नर नारिउ पावत पुण्य प्राय। , को वरनत तिस महिमा अनूप, निश्चय सुर शिवकै होय भूप ॥१२॥ पत्ता-श्री नेमिजिनन्दा आनन्दकन्दा, पूजत सुरनर हितकारी।
तिस नमत 'जवाहर' जुगकर शिर घर हर्षधार गढ गिरनारी ॥ ॐ ह्री श्री गिरनार सिद्धक्षत्र से नेमिनाथ शबु प्रद्य म्न अनिरुद्ध और बहत्तर कोटि सातसो मुनि मोक्षपद प्राप्तये महायं निर्वपा०
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जे नर बन्दत भाव घर, सिद्धक्षेत्र गिरनार ।
पुत्र पौत्र सम्पति लहे, पूरन पुण्य भण्डार ।। सम्वत् विक्रमराय प्रमान, वसु जुग निधि इक अक सु जान । पोप मास पख सोम बखान, पञ्चम तिथि रविवार सु जान ॥१५॥ रच्यो पाठ पूजन सुखदाय, पढत सुनत चित प्रति हुलसाय ।। यात्रा करत धन्य ते जीव, पावें फल ह शिवतिय पीव ।।१६।।
इत्याशीर्वाद।
पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा दोहा-जिहि पावापुर छिति प्रघाति, हत सन्मति जगदीश ।
भये सिद्ध शुभथानसो, जजों नाय निज शीश ।। ॐ ह्री श्रीमहावीरनिर्वाणभूमि पावापुरसिद्धक्षेत्र अत्र अवतर अवतर, सवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् सन्निधिकरण ।
अथ अष्टक ।। गीतिका छन्द ।। शुचि सलिल शोतो कलिल रीतो धमन चीतो ले जिसो । भर कनक झारी त्रिगद हारी द त्रिधारी जित तृषो ।। वर पद्मवन भर पसरवर वहिर पावा ग्राम ही। शिवधाम सन्मति स्वामि पायो जजो सो सुखदा मही ।। ॐ ह्री श्रीवीरनिर्वाणभूमि पावापुरक्षेत्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल भव भ्रमत भ्रमत अशर्म तपकी तपन कर तपताइयो । तसु वलयकदन मलयचदन उदयसग घसिल्याइयो ।वर.चदन।। तदुल नवीने अखड लीने ले महीने ऊजरे । मणिकुन्दइदुतुषारद्युतिजित करण रकावीमे धरे ।वर.अक्षत।।
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भनभन
हरवं
शोभन गुन मद समर पर समान नवेश न मिटायनमेव भावन गुत किया । रमप्रभु हरनिये ।।
तमन्नाशक व्यपरायणा
हिमपर पोपन तर निक्षेप प्रामोदय मावि दुपारी ज्ञानी । तर नदिन सुग्भ विज्ञानी प फन का दोहन जनमो
ग्रस्त मस्त मेकर प्रतिमोहनेर. फर्स मग ग्रादि मार
भग
मन प्रभाव उपाय कर में घाव व वनायकं वश्ये।।
अक्षा
।
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123
र
भ्रमणा
परम तो परतार श्री यमान जगपान । कल मन वन दिन विकम । गाऊँ तिन जयमाल ॥१॥ जयति भूमिमा पाया रोवान || पोमु विमान ठान ||१|| कृष्णपुर विदा नृपेशा मा जननी ॥ दिन नया युग विज्ञान | तम यश निवार भान ॥२॥ हिमपदिति दिनेश | ये हवन गनकगिरि-शिर सुरेश | योग गुगरान । मृग दिव्य भोग भुगते विशाम ॥ ३॥ा मारगरि प्रति म पनि शिविका विभित्र || घमि पुरन गिद्धन तीन नाय । पाये गम वर धर्मादाय ॥४॥
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१७४ ।
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गत वर्ष दश कर तप विधान । दिन शित वैनास दमै महान । रिजुकना सरिता तट स्व सोच । उपजायो जिनवर चरम बोध ॥५॥ तवही हरि अाना गिर चटाय । रवि समवनरण वर वनदराय । वासघ पति गौतम गनेन । युत तीस वरप विहरे जिने ॥६॥ भवि जीव देशना विविध देत। पाये वर पाबानगर खेत। कार्तिक अलि अन्तिम दिवन ईश । कर योग निरोध अघाति पीस ॥७॥ है अकल अमल इक मनय माहि । पचम गति निवते श्रीजिनाह । तव सुरपति जिन रवि अन्त जान । आये जुरत स्वस्व विमान ।।८।। कर वपु वरचा थुति विविध भात । लै विविष द्रव्य परमल विख्यात । तवही अग्नीद्र नवाय शीन । सत्कार देह की त्रिजगदीश ॥६॥ कर भल्म वन्दना निज महीय । निवने प्रनु गुन चितवन बहीय । पुनि नर नुनि गनपति याय प्राय । वदो सो रज सिर नाय नाय ॥१०॥ तबहीसे सौ दिन पुज्यमान । पूजत जिनगृह जन हर्ष मान । मैं पुन पुन तिस भुवि गोग घार । वर्दी तिन गुणवर उर मंझार ॥११॥ जिनही का अब भी तोर्थ एह । वर्तत दायक अति शर्म गेह। अरु दुखनकाल अवसान ताहि । वर्तगो भव थित हर सदाहि ॥१२॥ ॐ ही श्रीवर्धमान जिनमुक्तिधान श्रीपावापुरक्षेत्राय पूर्णाऱ्या ।
कुसुमलता छन्द । श्री सन्मति जिन अघ्रि-पन्न युग जजै भव्य जो मन वच काय । ताके जन्म जन्म सचित अघ नावहिं इक छिन माहि पलाय ।। बनधान्यादि शम्म इन्द्रीपद लहै सो शर्म अतीन्द्री याय । अजर अमर अविनाशी शिवथल वर्णी 'दौल' रहे शिर नाय ॥
इत्याशीर्वाद ।
श्री बाहुबली स्वामी पूजा दोहा-कर्म रिगण जीति के, दर्शायो शिवपंथ ।
प्रथम सिद्धपथ जिन लियो, भोगभूमिके अंत ।।
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[ १७५ समर दृष्टि जल जीत लहि मल्लयुद्ध जय पाय ।
वीर अग्रणी बाहुबलि, वन्दो मन वच काय ।। ॐ ह्री श्रीगोमटेश्वरबाहुवली स्वामिन् अम अवतर अवतर सवौषट्, माह्वानन । अत्र निष्ठ तिष्ठ ठ ठ, स्थापन । अब मम सन्निहितो भव भव वपट. मन्निविकरणम् ।
अथाष्टक-चाल जोगीरासा। जन्म जरा मरणादि तृपा कर, जगत जीव दुख पावे । तिहि दुख दूर करन जिनपदको, पूजन जल ले प्रावे ।। परम पूज्य वीराषिवीर जिन, वाहुवली बल धारी। जिनके चरणकमलको नितप्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥ ॐ ह्री कर्मारि विजयी वीराविवीर श्रीगोमटेश्वर वाहुवली परम योगीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि०। यह ससार मरुस्थल अटवी, तृष्णा दाह भरी है । तिहि दुख टारन चन्दन लेके, जिनपद पूज करी है । पर.चं.।। स्वच्छ सालि शुचि नीरज रज सम, गंध प्रखड प्रचारी। अक्षयपद के पावन झारन, पूजे भव जगतारी ॥ पर.अक्षत।। हरिहर चक्रपती सुर दानव, मानव पशु बस पाके ।। तिहि मकरध्वज नाशकजिनफो,पूजों पुष्प चढ़ाके । पर.पुष्प।। दुखद त्रिजग जीवनको अतिही, दोष क्षुधा अनिवारी । तिहि दुख दूर करनको चरुवर, ले जिन पूज प्रचारी।पर.न.।। मोह महातम ने जगजीवन, शिव मग नाहि लखावे । तिहि निवारन दीपक करले, जिनपद पूजन पावे ॥पर.दीपं।।
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१७ः । उत्तम धूप सुगन्ध बनाकर, दश दिशि मे महकावे । दशविधि बन्ध निवारक कारन, जिनवर पूज रचावे । पधूप।। सरत सुवरण सुगन्ध अनूपम, स्वच्छ महाशुचि लावे । शिवपद कारण जिनवरपदको, फलसो पूज रचावे पर फल।। वसुविधिके बस वसुधा वही, परबस अति दुख पावे । तिहि दुख दूर करनको भविजन, अर्घ जिनाग्र चढावे ।प प्रय॑।।
जयमाला। दोहा-पाठ कर्म हनि पाठ गुरण, प्रकट करे जिनरूप । सो जयवन्तो भुजवली, प्रथम भये शिव भूप ।।
कुसुमलता छन्द । जय जय जय जगतारण शिरोमणि, क्षत्रिय वश असग महान । जय जय जय जग जन हितकारी, दीनो जिन उपदेश प्रमाण ॥ जय जय जय चक्रपति सुत जिनके, गत सुत ज्येष्ठ भरत पहिचान । जय जय जय श्री ऋषभदेव जिन सो जयवन्त सदा जग जान ॥ जिनके द्वितीय महादेवी गुचि, नाम सनन्दा गुण की खान । रूप गोल सम्पन्न मनोहर, तिनके सत भुजवली महान ।। सवा पञ्च शत धन उन्नत तनु, हरित वरण शोभा असमान । वैडूर्यमणि पर्वत मानो नील कुलाचल सम थिर जान ।। वैजयन्त परमाणु जगत मे, तिनकरि रचौ शरीर प्रमाण । सत वीरत्व गुणाकर जाको, तिनकरि रचौ शरीर प्रमाण ॥ घोरज अतुल वज्र सम नीरज, सम वीराग्रणि प्रति बलवान । जिन छवि लखि मनु शशि छबि लाजै, कुसुमाच प लोनो सुखमान ॥ बाल समय जिन बाल चन्द्रमा, शशिसे अधिक घरे दुति सार । जो गुरुदेव पढाई विद्या, शस्त्र शास्त्र सब पढो अपार ।। ऋषभदेव ने पोदनपुर के, नर कीने भुजबली कुमार । दई अयोध्या भरतेश्वर को, आप बने प्रभुजी अनगार ॥
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[ १७७
राज काज पटखण्ड महीपति, सब दल ले चढि पाये प्राप । बाहुबली भी सम्मख पाये, मन्त्रिन तीन युद्ध दिये थाप ।। दृष्टि, नीर अरु मल्ल युद्ध मे, दोनो नप कीनो बल धाप । वृषा हानि रुक जाय सैन्य की, यात लडिये आपो-पाप ॥ भरत भुजवली भूपति भाई, उतरे समर भूमि मे प्राय। दृष्टि नीर रण थके चक्रपति, मल्लयुद्ध तव करो अघाय ।। पगतल चलत चलत अचला तव, कम्पत अचल शिखर ठहराय । निवघ नीर अचला घर मानो, भये चलाचल क्रोध वसाय ॥ भुज विक्रम वल वाहवली ने, लये चस्पति अपर उठाय । चक्र चलायो चक्रपती तत्र, तो भी विफल भयो तिहि ठाय ॥ अति प्रचण्ड भुजदण्ड सुण्ड सम, नृप सार्दूल वाहुबलि राय । सिंहासन मंगवाय जा समै, अग्रज को दीनो पघराय ।। राजरमा रामा सर घन में, जोवन दमक दामिनी जान। भोग भुजङ्ग जङ्गसम जय को, जान त्याग कीनो तिहि थान ।। अप्टापद पर वीर नपति वर, वीर व्रत घर कीनो ध्यान । अचल अङ्ग निरभङ्ग अङ्ग तज, सम्वतसरलों एक स्थान ।। विपघर वम्बी करी चरणतल, ऊपर वेलि चढी अनिवार । युग जहा कटि वाह वेढिकर, पहँची वक्षस्थल पर सार ।। सिर के केश वढे जिम माही, नभचर पक्षी बसे अपार । धन्य धन्य इम अचल ध्यान को, महिमा सुर गावै उरधार ।। कर्म नाशि शिव जाय वसे प्रभु, ऋपभेश्वर से पहिले जान । अप्ट गुणाङ्कित मिद्ध शिरोमणि, जगदीश्वर पद लयो प्रमान ।। वीरव्रती वीराग्रगण्य प्रभु, वाहुवली जग धन्य महान । वीरव्रती के काज जिनेवा, नमे सदा जिन विम्ब प्रमाण || दोहा-श्रवण वेलगुल विध्यगिरि, जिनवर बिम्ब प्रधान ।
छप्पन फुट उत्तङ्ग तन, खड्गासन अमलान ॥१॥
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१७८ ]
अतिशयवन्त अनन्त बल, धारक विव अनूप ।
अर्घ चढाय नमो सदा, जय जय जिनवर भूप ।। ॐ ह्री कर्मारिविजयी वीराधिवीर श्रीगोम्मटेश्वर बाहुवली पर योगीन्द्राय नम महायं निबंपामीति म्वाहा ।
इत्याशीर्वाद । नवग्रह अरिष्ट निवारक पूजा श्लोक-प्रणम्याद्यन्ततीर्थेश. धर्मतीर्थप्रवर्तक ।
भव्यविघ्नोपशान्त्यर्थ, प्रहाळ वर्ण्यते मया ।। मार्तण्डेन्दुकुजसौम्य-, सूरसूर्यकृतान्तकाः ।
राहुश्च केतुसंयुक्तो, ग्रहशान्तिकरा नव ।। दोहा-प्रादि अन्त जिनवर नौं, धर्म प्रकाशन हार ।
भव्य विघ्न उपशान्त को, ग्रहइजा चित धार ।। काल द्वेष प्रभावसो, विकलप छूटे नाहि । जिन पूजा मे ग्रहन की, पूजा मिथ्या नाहिं ।। इसही जम्बूद्वीप मे, रवि शशि मिथुन प्रमान । ग्रह नक्षत्र तारा सहित, ज्योतिश्चक्र प्रमान ।। तिनही के अनुसार सों, कर्म चक्र की चाल । सुख दुख जाने जीव को, जिन वच नेत्र विशाल । ज्ञान प्रश्न व्याकरण मे, प्रश्न अङ्ग है पाठ । भद्रबाहु मुख जनित जो,सुनत कियो मुख पाठ । अवधिधार मुनिराजजी, कहे पूर्व कृत कर्म । उनके वच अनुसार सौं, हरे हृदय को मर्म ॥
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___ समुच्चय पूजा। दोहा-प्रर्फ चन्द्र कुज सोम गुरु, शुक्र मनिश्चर राहु ।
केतु ग्रहारिष्ट नाशने, पी जिन पूज रचाह ।। ॐ ह्री मर्वयह परिष्ट निवारक नतुगिति जिन मार प्रयतर २ नंवोपट पाहानन । प्रम निष्ठ निष्ठ, ठ ठ स्थापनं । प्ररमम मषि हितो भय गव वगट मन्निधिकरणम् ।
पष्टया-नीतिका बन्द क्षीर सिंधु समान उज्ज्वल, नीर निमंल लीजिये। चौबीस श्रीजिनराज पागे, धार जय शुभ दीजिये ।। रवि सोम भूमज सौम्य गुरु कपि, शान नमो पूतफेतये । पूजिये चौदोस जिन, ग्रहारिष्ट नाशन हेतधे ।।
ॐ ह्री नवंग्रहारिष्टनिधारा श्रीचतुविशतितीर्थकर-मिनेन्द्राय पचफल्याणक-प्राप्ताय जल निवंगागीति स्वाहा। श्रीखण्ड कुमकुम हिम सुमिश्रित, घिसों मनफर चावसौं । चौबीस घोजिनराज अघहर, चरण चरचो भावसौं ।रधि.चं. अक्षत अखण्दित सालि तन्दुल, पुञ्ज मुक्ताफलसमं । चौबीस श्रीजिनगज पूजत, नाश नवग्रह भ्रम रवि.म. कुन्द फमन गुलाब फेतकि, पानती जाही जुही। कामवाण विनाश कारण, पूजि जिनमाला गुही रवि.पुष्पं फेनी सुहारी पुवा पापर, लेड मोदक घेवर । शताछद प्रादिक विविध व्यंजन,क्षुधाहर पह सुखकरं रवि.निवे मरिणवीप जगमग जोत तमहर, प्रभु भागे लाइये । अज्ञान नाशक निज प्रकाशक, मोह तिमिर नसाइये ।रविवोपं
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कृष्णा अगर घननार मिश्रित, लोग चन्द्र लेइये । ग्रहारिष्ट नाशक हेत भविजन, धूप जिनपद खेइये | रवि. धूप बादाम पिस्ता तेव श्रीफल, मोच नींबू तद फल चौबीस श्रीजितराज पूजत, मनोवांछित शुभ फलं । रवि फलं । जल गंध सुमन अखड तन्दुल, चरु सुदीप सुधूपक
फल द्रव्य दूध दही सुमिश्रित, अर्ध देय अनूपकं । रवि । श्रयं
जयमाला
दोहा - श्री जिनवर पूजा किये, प्रहारिष्ट मिट जाय । सब मिल सेवे प्रभु पांय ॥ पद्धरि छन्द
पंच ज्योतिषी देव
जय जय जिन आदि महन्त देव, जय अजित जिनेश्वर करहिं तेव जय जय संभव भव भव निवार, जय जय अभिनंदन जगत तार जय मति २ दायक विशेष, जय पद्मप्रभ लख पदम लेष । जय जय सुपार्स हर कर्म फाल, जय जय चन्द्रप्रभ तुख निवास ।। जय पुष्पदन्त कर कर्म प्रन्त, जय शीतल लिन शीतल करत । जय श्रेय करत श्रेयांस देव, जय वासुपूज्य पूजत तुमेव ॥ जय विमल २ कर जगतजीव, जय२ प्रनन्तसुत प्रति सदीव । जय धर्म धुरन्धर धर्मनाथ, जय शांति जिनेश्वर मुक्ति साथ || जय कुन्थुनाथ शिव सुखनिधान, जय घर जु जिनेश्वर मुक्तिधान जय मल्लिनाथ पद पद्म भास, जय मुनिसुव्रत सुव्रत प्रकाश || जय जय नमिदेव दयाल संत, जय नेमनाथ तसु गुरण अनन्त । जय पारस प्रभु सङ्कट निवार, जय वर्द्धमान श्रानन्दकार ॥
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१८१ नवग्रह परिष्ट जय होय पाय, तव पूजे भो जिनदेव पाय । मन वच तन मनसुख सिंधु होय. प्रहशांति रीत यह कही जोय
ॐ ह्री मयंग्रहारिष्टनिवारक श्रीच मितितीयंहार-जिनेन्द्राय पवरल्याणरुप्राप्नाय मध्य निर्वपामीति स्वाहा । दोहा-चौबीसौं जिनदेव प्रभु. ग्रह सम्बन्ध विचार । पुनि पूनों प्रत्येक तुम, जो पासुख सार ।
ज्याशीर्वाद ।।
कलि-कुण्ड पार्श्वनाथ पूजा सबके मध्य लिखा हींकार फिर पहुं ओर ब्रह्म अक्षर । उसके बाद लिखा स्वर खींचो पाठ वन रेखा दुर्द्धर ॥१॥ प्रणव वज्र रेखा प्रागे है मध्य प्रनाहत युगल लिखा । ह-भ-म-र-घ-भ-स-य पिण्ड युक्त निजवरणं सहित सशुद्ध लिखा पीछे वेष्टित किया यथाविधि यही मन्त्र फलिकुण्ड महान । पर-कृत विघ्न निवारक है पर चोर शाकिनी नाशक जान ३ जो मंत्रज्ञ डाभ से इसफो कास्य पात्र मे लिखते हैं । करते हैं श्रीखण्ड लेख जो उनको सत्सुख मिलते है ।॥४॥ दोहा-रोग शोक नाशक विमल, सिद्ध सु महिमावान । कशुद्ध संस्थापना, श्री कलिफुण्ड महान ।
ह्री श्री क्ली ऐ प्रह, पालिकुण्डदण्ड श्रीपाश्र्वनाथ घरगेन्द्र पद्यावती-सेवित अतुल-बलवीर्यपरामम सर्वविघ्नविनाशक | अत्र अवतर अवतर सवौपट पाहाननम् । अत्र तिष्ठतिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अब मम सन्निहितो भव भव वपट् सन्निधिकरणम् । शुभ तीर्थ गंगा नदी द्रह पदमादिप मै नाय के । शीतल सुगधित और शुद्ध पवित्र जल भर लायक ।।
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१८२ )
दुष्ट कृत उपसर्ग नाशक एक ही जिन नाथ को। मैं पूजता हूँ भाव से कलिकुण्ड पारस नाथ को । ___ॐ ह्री श्री क्ली ऐ अर्ह कलिकुण्डदण्ड-श्रीपार्श्वनाथाय घरणेन्द्रपद्मावती-लेविताय अतुल-वलवोर्य-पराक्रमाय सर्वविघ्नविनागनाय हम्ल्य. म्म्ल्य- म्म्ल्व्य व्यहँ मल्व्य मल्ल्यसम्ल्यह स्म्ल्य्य जन्म जरा मृत्यु विनामनाय जल निर्वपामीति स्वाहा । प्रतिगन्ध से जिस पै लुभाते भ्रमर नित्य अनेक हैं। वह मलयगिरि का वाहनाशक शुद्ध चन्दन एक है।दुष्टाचदन चन्द्र के सम शुक्ल स्वच्छ प्रखण्ड शालि बनाय कै । अविनाशि परकी प्राप्तिहेतु अनिध तदुल लायक ।दुष्टानक्षतं मंदार अरु रकुलादि के रमणीक पुष्प मंगायक। सर मे प्रफुल्लित कमल कुसम सुगंधसो महकायक दुष्ट.पुष्पं ताजे बनाये विविध घृत रसपूर्ण व्यञ्जन लायक । अति स्वच्छ सुन्दर कनक भाजनमे उन्हे रखवायकै नैवेद्य जग का प्रकाशक तम विनाशक कनकमय दीपक धीं। बहु जगमगाते ज्योतिमय प्रति ज्वलित से पूजा करू दुदीप कपूरचन्दन अगुरु काष्ठादिक अनेक मगायक । प्रति गंध युक्त अनूप धूप दशांगको बनवायकै ॥दु । धूपं। गोला छुहारे दाख पिस्तादिक अनेक सुलायक। मोक्ष का अभिलाष कर रमणीक फल मंगवायक फलं। जल गंध प्रक्षत पुष्प चरु फन दीप धूप मिलायक । वसु अर्घ से कलिकुण्ड पूजू, हर्ष भाव बढायफै ।।दुप्रिय।
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[ १८३ अडिल्ल छन्द--सूर्य चन्द्र मंगल बुध गुरु अरु शुक्र है,
राह केतु शनिश्चर नवग्रह चक्र है। इनकी शान्ति हेतु मै शान्त जु भाव से,
पूजू श्रीकलिकुण्ड प्रभु ! अति चाव से । ॐ ह्री श्री ऐ अहं कलिकुण्ड-श्रीपार्श्वनाथ धरणेन्द्रपद्मावतीसेविताय अतुल-बलवीर्य-पराक्रमाय सर्वविघ्नविनाशनाय हम्ल्व्यरूं म्ल्यूस म्म्ल्व्य रम्ल्व्यसम्ल्व्यर्स इम्ल्व्यरूं स्म्ल्व्यरूं साल्व्यस अनर्थ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्तुति। देवेन्द्रो से पूजित हो, सर्वज्ञ जिनेश्वर हो भगवान । सदुपदेशक हो जिनवर तुम, मै प्रणाम करता गुणगान,।। सर्व विघ्न विनाशक हो प्रभुवर तुम हो सद्गुण को खान । विनती करता नाथ आपको, हो नायक कलिकुण्ड महान ॥१॥ नित्य भक्तिपूर्वक निज मनमे, याद किया जो हैं करते। अपनी शक्त्यनुसार प्रार्थना, करके मन्त्र जपा करते ॥ पूजा करते भक्तिभाव से, यन्त्रराज की जो गुणगान । पूर्ण हुमा करती है उनकी, मनोकामना निश्चय जान ॥२॥ भक्ति जिन्हो की यन्त्रराज मे, है उनको सब सुख मिलता। उनके घर मे कल्पवृक्ष, मानो उत्पन्न हुआ करता ।। अथवा प्रकट होत चिन्तामरिण, रत्न चिन्त्य वस्तुदाता । या फिर मानव मनोरथो के, हेतु कामधेनु पाता ॥३॥ देवासुर से वन्दित है जो, रत्नपात्र में लिखा गया । रत्नत्रय पाराषन का कारण है जो सुना गया ।।
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श्रीकलिकुण्ड यन्त्र को मै, अध्यात्म प्रेम मे पगा हुआ। नमस्कार करता हूँ मन मे, भक्ति रंग से रंगा हुआ ।।४।। पडे जेलखानो मे जो हैं; या बन्धन में बंधे हुये । ज्वर अतिसार ग्रहणी रोगो मे, प्रारणी जो हैं फसे हुये ॥ सिंह करी साग्नि चोर प्रक, विष समुद्र के कष्ट अनेक । राज काज के सभी उरो को, यन्त्र दूर करता है एक ॥५॥ वन्ध्या स्त्री बहु-पुत्रवती हो, सुख का अनुभव करती है । सर्व अनर्थ दूर होते हैं, शान्ति पुष्टि नित होती है ।। सुख पर यश बढता है उनका, जो नित पूजन करते हैं । श्रीजिन के मुखसे निकले, कलिकुण्ड यन्त्र को भजते हैं ।।६॥ सब दोषो से रहित तथा, इन्द्रो से सम्पूजित हैं वे । सर्व सुखों के दाता है अरु, विघ्न विनाशकर्ता हैं वे ॥ जो जन परम भक्ति से पढते, और अर्चना करते हैं । पूर्ण सुखी होते हैं वे फिर, मुक्ति रमा को वरते हैं ॥७॥
परिपुष्पाजलिं क्षिपेत् । अय जयमाला। दोहा-जिनवर के सुमिरण किये, पाप दूर हो जाय । ज्यों रवि किरणो से सदा, अधकार नशि जाय ॥
पद्धरि छन्द । जय अजन पर्वतसम जिनेश धन गर्जन सम तव धुनि बहेय। . मदमत्त शात होता गजेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ॥१॥ अति क्रुद्ध जीभ मुह दांत फाड, यमराज समान रहा दहाड। मृग सम होता है वह मृगेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ।२।
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wmmmmmmmmmmmmmmmmmin. कुल रहे केश काले कराल, बहु रहा लाल प्रांखें निकाल । बनता प्रसन्न वह व्यन्तरेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ॥३॥ बहु भीषण जलचर से दुरुह, तट अधिक हुमा जलका समूह । गोखुर प्रमाण होता जलेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ॥४॥ सिर चमक रही मरिणफन महान, यलोक क्षोभ कारण महान नहिं डरता क्रूर भुजंगमेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ।।५।। जहँ तीव्र ज्वाल माला प्रसार, घृत तेल हवा से दुगुरणझार । वह शात होय जिम तारकेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ।। पड जेल बंधे जंजीर डार, बन्धु जिनके रोते अगार । वे छूट अभय पाते अशेष, मनमे भजते जो जन जिनेश ॥७॥ फंस रहा मनुज रिपुचाल बीच, बहु सकट कष्ट अनेक कोच । असि कमलवन नहिं हो क्लेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ।। दोहा-होते सुर असुरेश सब, अरु विद्याधरराज ।
वशमे उनके सर्वदा, सुमरत जो जिनराज ।। ॐ ह्री श्री क्ली ऐं अहं कलिकुण्डदण्डश्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्रपद्मावतीसेविताय अतुलवलवीर्यपराक्रमाय सर्वविघ्नविनाशनाय हम्ल्व्यरू भल्व्यू म्म्ल्व्यरूं रम्ल्व्य म्ल्व्यर्स इम्ल्व्य स्म्लष्यरूँ रूम्ल्व्यरूं अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षा-बन्धन-पूजा
(श्री विष्णुकुमार पूजा) अडिल्ल छन्द -विष्ण कुमार महामुनिको ऋद्धि भई ।
नाम विक्रिया तासु सकल प्रानन्द ठई ॥
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तो मुनि नाये हथनापुर के बीच मे । मुनि बचाये रक्षा कर बन बीच मे ॥१॥ तहाँ भयो आनन्द सर्व जीवन धनो। जिन चिन्तामणि रत्न एक पायो मनो ।। सब पुर जै-जैकार शब्द उचरत भये । मुनिको देय पाहार प्राप करते भये ॥२॥
*ही श्रीविष्णुकुमारमुनि अत्र अवतर अवतर सवौषट्, इति आह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ प्रतिस्थापन । अत्र मम सन्निहितो भव भव सन्निधिकरण।
प्रथाष्टक । चाल - सोलह पूजा की। गगाजल सम उज्ज्वल नीर, पूजो विष्णुकुमार सुधीर । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ।। सप्त सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करी विष्ण भगवान । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ।। ॐ ह्री श्री विष्णुकुमारमुनिभ्य नम जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल । मलयागिर चन्दन शुभसार, पूजों श्रीगुरुवर निर्धार । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ।।सप्त..दया।। ॐ ह्री श्रीविष्णुकुमारमुनिभ्य नम भवता विनाशनाय चन्दन नि । श्वेत अखडित अक्षत लाय, पूजो श्रीमुनिवर के पाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ।सप्त ॥दया। ॐ ह्री श्रीविष्णुकुमारमुनिभ्य नम अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षत नि० । कमल केतको पुष्प चढ़ाय, मेटो कामबाण दुखदाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥सप्त ॥दया.।।
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[ १८७ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमारमुनिभ्य नम कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि० । लाडू फेनी घेवर लाय. सब मोदक मुनि चरण चढ़ाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय || सप्त ।। दया. || ॐ ह्री श्राविष्णुकुमारमुनिभ्य नम क्षुधा रोगविनाशनाय नैवेद्य नि० । घृत कपूर का दीपक जोय, महातिलाई सब जावं खोय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त. ॥ दया. ॥ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमारमुनिभ्य नम मोहान्धकारविनाशनाय दीपं । अगर कपूर सुधूप बनाय, जारे भ्रष्ट कर्म दुखदाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त । दया. ॥ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमारमुनिभ्य नम प्रष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि० । लौंग लायची श्रीफल सार, पूजों श्रीमुनि सुख दातार । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय || सप्त. ॥ दया. ॥ ॐ ह्री विष्णुकुमारमुनिभ्य नम मोक्षफलप्राप्तये फल नि० ।
जल फल श्राठों द्रव्य संजोय, श्रीमुनिवर पद पूजो दोय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त । । दया. ॥ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमारमुनिभ्य नम अनर्घ्यपदप्राप्तये श्रध्यं नि० ।
अथ जयमाला ।
दोहा - श्रावरण सुदी सुपूर्णिमा, सुनि रक्षा दिन जान । रक्षक विष्णुकुमार मुनि, तिन जयमाल बखान ॥
चाल - छन्द भुजङ्गप्रयात ।
श्री विष्णुदेवा करूँ चर्ण सेवा |
हरो जनकी बाधा सुनो टेर देवा ॥
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गजपुर पधारे महा सुक्खकारी ।
घरो रूप वामनसु मनमे विचारी ॥२॥ गये पास वलिके हुआ वो प्रसन्ना ।
जो माहो सो पावो दिया ये वचन्ना ।। मुनि तीन डग धरती सु तापै ।
दई ताने ततक्षिन सु नहिं ढील थाप ॥३॥ कर विक्रिया सु मुनि काया बढाई ।
___ जगह सारी लेली सु डग दो के माहीं।। धरी तीसरी डग बली पीठ माहीं।।
सुमागी क्षमा तव बली ने बनाई ।।४।। जल की सुवृष्टि करी सुक्खकारी ।
सरव अग्नि क्षरण मे भई भस्म सारी। टरे सर्व उपसर्ग श्री विष्णुजी से ।
भई जे जैकार सरव नन हो से ।।५।।
चौपई फिर राजा के हुक्म प्रमान, रक्षा बन्धन वधी सुजान । मुनिवर घर घर कियो विहार, श्रावफजन तिन दियो प्रहार जाघर मुनि नहिं पाये कोय, निज दरवाजे चित्र सुलोय । स्थापन कर तिन दियो अहार, फिर सब भोजन फियो सम्हार तबसे नाम सलूना, जैन धर्म फा है त्यौहार । शुद्ध क्रिया कर मानो जीव, जासो धर्म बढे सु प्रतीय ।। धर्म पदारथ जगमे सार, घर्म विना झूठो ससार । सावन सुदी पूनम जव होय, यह दो पूजन कीजै लोय ।।
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[ १८६
सब भाइनको दो समझाय, रक्षाबन्धन कथा सुनाय । मुनिका नित घर करौ प्रकार, मुनि समान तिन देउ प्रहार सबके रक्षा बन्धन बांध, जैन मुनिन की रक्षा जान । इस विधि से मानो त्यौहार, नाम सलूना है ससार ॥ ( घत्ता ) - सुनि दीनदयाला, सब दुख टाला, श्रानन्द माला सुखकारी 'रघुसुत' नित वदे, प्रानन्द कंद, सुक्ख करन्दे हितकारी ॥ ॐ ह्री श्रीविष्णुकुमारमुनिभ्य नम महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । दोहा - विष्णुकुमार सुनिके चररण, जो पूजे धर प्रीत । 'रघु-सुत' पावै स्वर्गपद, लहैं पुण्य नवनीत || इत्याशीर्वादा
सलूना पर्व पूजा |
| श्री कम्पनाचार्यादि सप्तशत मुनि पूजा । ] ( चाल जोगीरासा )
पूज्य श्रकम्पन साधु शिरोमणि सात शतक मुनि ज्ञानी । श्री हस्तिनापुर कानन मे हुए अचल हढ़ ध्यानी । दुखद सहा उपसर्ग भयानक सुन मानव घबराये ।
श्रात्म-साधना के साधक वे, तनिक नहीं अकुलाये । योगिराज श्री विष्णु त्याग तप, वत्सलता वश प्राये । किया दूर उपसर्ग, जगत-जन मुग्ध हुए हर्षाये ||
सावन शुक्ला पन्द्रस पावन, शुभ
दिन था सुखदाता । पर्व सलूना हुआ पुण्य-प्रद यह गौरवमय गाथा || शान्ति दया समता का जिनसे नव आदर्श मिला है ।
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जिनका नाम लिये से होती जागति पुण्य-कला है। क्रू वन्दना उन गुरुपद की दे गुरण मैं भी पाऊ । अाह्वानन संस्थापन सन्निधि-करण करूं हर्षाऊ । *ही श्रीजन्नाचार्गदिनप्तगतमुनिधनूह अत्र अत्र अवतर २ सौषट् इत्याह्वाननम् । अत्र तिष्ठ २० ० त्यापनम् । अत्र नन सनिहितो भव भव षट् सन्निधिकरणम् ।।
प्रणष्टकन्-गीता-चन्द । मैं उर-सरोवर से विमल जल भाव का लेकर अहो । न्त पाद-पद्मो मे चला मृत्यु जनम जरा न हो । श्रीगुरु प्रकम्पन प्रादि मुनिवर मुझे नाहम शक्तिदें। पूजा करू पातक मि, वे सुखद ग्मता भक्ति दें। के ही अोधनम्पनाचार्यादिसप्तनतमुनिभ्यो जन्नजरानृत्यु विनाशाय जले सन्तोष मलयागिरिय चन्दन निराकुलता सरत ले । नत पापों से चढाऊ, विश्वताप नहीं जले॥धीगुरुराचंदन। तदुल अखंडित प्त प्रागाके नवीन सुहारने। नत पाद-पद्मो मे चला दीनता यता हने ।श्रीगुरु नक्षत। ले विविध विमल विचार सुन्दर सरत सुमन मनोहरे। नत पाद-पनों में बताऊं काम की बाधा हरे ॥श्रीगुरु. पुष्ण। शुभ भक्ति घृत मे विनयके पकवान पावन में बना ।। नत पाद-पझोमे चढा, मेटू क्षुधा की यातना ।श्रीगुरु.निवेद्य। उत्तम कपूर विवेकका ले प्रात्म-दीपक मैं जला । कर भारती गुरुकी हटाऊ मोह तमको यह बला श्रीगुरु दी. ले त्याग-तप को यह सुगन्धित घूप मैं खेऊ अहो। गुरुचरण-करुणाले करमका कष्ट यह मुझको न हो।श्रीगु-धूप
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[ १६१
शुचि-साधना के मधरतम प्रिय परस फल लेकर यहां। नत पाद-पद्मोमे चढाऊ मुक्ति मै पाऊ यहां । श्रीगुरु.फिल। यह आठ द्रव्य अनूप श्रद्धा स्नेह से पुलकित हृदय । नत पाद-पद्मो मे चढा भवपार मै होऊ अभय ।श्रीगुरु. अध्य
जयमाला सोरठा-पूज्य अकम्पन आदि, सात शतक साधक सुधी। यह उनकी जयमाल, वे मुझको निज भक्ति दें।
(पद्धडि छन्द) वे जीव दया पाले महान, वे पूर्ण अहिंसक ज्ञानवान । 'उनके न रोष उनके न राग, वे करें साधना मोह त्याग ॥
प्रिय असत्य बोले न बैन, मन वचन कायमे भेद है न । वे महासत्य धारक ललाम, है उनके चरणो मे प्रणाम ।। वेलें न कभी तणजल अदत्त, उनके न धनादिक मे ममत्त । वे व्रत प्रचौर्य हद धरै सार, है उनको सादर नमस्कार । वें करें विषय की नहीं चाह, उनके न हृदय मे काम-दाह । व शील सदा पाले महान, कर मग्न रहे जिन पात्मध्यान ।। मब छोड वसन भूषण निवास,माया ममता अरु स्नेह पास ।
घर दिगम्बर वेष शान्त, होते न कभी विचलित न भ्रांत ।। नित रहे साधना मे सुलीन, वे सहे परीषह नित नवीन । वकर तत्त्वपर नित विचार, है उनको सादर नमस्कार ।। पंचेन्द्रिय रमन करें महान, वे सतत बढावें प्रात्मज्ञान । संसार वेह सब भोग त्याग, वे शिव-पथ साधे सतत जाग ।
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१६० ]
जिनका नाम लिये से होती जागृति पुण्य-कला है। करू वन्दना उन गुरुपद की वे गुरण मै भी पाऊ । आह्वानन सस्थापन सन्निधि-करण करू हर्षाऊ ।। ॐ ह्री श्रीयकम्पनाचार्यादि सप्तशतमुनिसमूह अत्र अत्र अवतर २ सवौषट् इत्याह्वाननम् । अत्र तिष्ठ २०ठ स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
अथाष्टकम्-गीता-छन्द । मै उर-सरोवर से विमल जल भाव का लेकर अहो । नत पाद-पद्मो मे चढाऊ मृत्यु जनम जरा न हो। श्रीगुरु प्रकम्पन प्रादि मुनिवर मुझे साहम शक्तिदें । पूजा करू पातक मिटें, वे सुखद समता भक्ति दें। ॐ ह्री श्रीप्रकम्पनाचार्यादिसप्तशतमनिभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशाय जल सन्तोष मलयागिरिय चन्दन निराकलता सरस ले।। नत पादपद्मो मे चढाऊ, विश्वताप नही जले ॥श्रीगुरुचिदन। तदुल अखडित पूत प्राशाके नवीन सुहावने । नत पाद-पद्मो मे चढाऊ दीनता क्षयता हने ।श्रीगुरु.।प्रक्षत। ले विविध विमल विचार सुन्दर सरस सुमन मनोहरे । नत पाद-पद्मो मे चढाऊ काम की बाधा हरे ।।श्रीगुरु 'पुष्प। शुभ भक्ति घृत मे विनय के पकवान पावन मे बना । नत पाद-पद्मोमे चढा, मेटू क्षुधा की यातना श्रिीगुरु निवेद्य। उत्तम कपूर विवेकका ले प्रात्म-दीपक मै जला। कर आरती गुरुको हटाऊ मोह तमको यह बला ।श्रीगुरु दो ले त्याग-तप को यह मुगन्धित धूप में सेऊ अहो । गुरुचरण-करुणासे करमका कष्ट यह मुझको न हो।श्रीगु धूिप
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१६१
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मधुर फल लेकर यहा ।
मत पावसा मुक्ति में पाठ यश श्रीफलं । यह पाठ धनूप मा स्नेह में पुनर्पित हृदय ।
मत पात्रों में घटा भववार में होऊं अभय श्रीगुरु प्रध्ये
जन्मामा
सोरटा-पूज्य सम्पन सावि, मात शतक साधन नूयी । यह उनकी जयमान, ये मुनको निज भक्ति दें ॥ (Tk (7)
ये जीव दयापाले महान, ये पूर्ण पाहिमक ज्ञानयान । नये न शेष उनके न राग, घे करें साधना मोर त्याग ॥ प्रिय सत्य बोले न चैन मन वचन कायमे भेद है न । ये महामत्य धारफ सलाम है उनके चरणो मे प्रणाम || ये लें न कभी तृणजन प्रदत्त, उनके न घनादिक मे ममत्त । ये व्रत ची घरं मार, हे उनको सादर नमस्कार ।। ये करें विषय को नहीं चाह, उनके न हृदय में काम-वाह ये शील सदा पालें महान, फर मग्न रहे जिन प्रात्मध्यान ॥ सब छोट वसन भूषण निवास, माया ममता प्ररु स्नेह प्रास | वे घरे दिगम्बर वेष शान्त, होते न कभी विचलित न भ्रांत ।। नित रहे साधना मे सुलीन, वे सहें परोपह नित नवीन । वे करें तत्त्वपर नित विचार. हे उनको सादर नमस्कार || पचेन्द्रिय बमन करें महान, ये सतत बढायें श्रात्मज्ञान । संसार देह सब भोग त्याग, ये शिव-पथ सावे सतत जाग ।
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१३२ । 'कुमरेश' साधु वे हैं महान, उनसे पावे जग नित्य त्राण । मैं करूं वन्दना बार बार, वे करें भवार्णव मुझे पार ।। पत्ता-मुनिवर गुणधार पर-उपकारक भवदुख हारक सुखकारी
वे करम नशायें सुगुरग दिलायें, मुक्ति मिलायें भव-हारी ।। ॐ ही श्रीप्रकम्पनाचार्यादि नप्तशतमुनिन्यो महाय॑ निर्व० । सौरा-श्रद्धा भक्ति समेत, जो जन यह पूजा करे । वह पाये निज ज्ञान, उत्ते न व्यापे जगत-दुख ।।
इत्यागीर्वाद चौसठ-ऋद्धि ( समुच्चय ) पूजा (गीता छन्द)-संसार सकल तार जामे सारता कछु है नहीं,
धनधाम घरणी और गृहरणो त्यागि लीनी वनमही।
ऐसे दिगम्बर हो गये, अरु होयगे बरतत सदा, इस थापि पूजो मन वचन करि देह मंगल विधि तदा ।११
ॐ ह्री भूतभविष्यवर्तमानकालसम्बन्धि पंचप्रकारसर्वऋषीश्वरा अत्र अवतरत अवतरत सवाषट् । मत्र तिष्ठत तिष्ठत ० ० । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् ।
चाल रेखता लाय शुभ गगजल भरिक, कनक भृडार धरि करिक । जन्म जरमृत्यु के हरनन, यजो मुनिराज के चरणन ॥२॥
ॐ ह्री भूतभविष्यवर्तमानकालसम्बन्धिपुलाकवकुशकुशील निग्रंथस्नातकपत्रप्रकारतर्वमुनीश्वरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि० । घसो काश्मीर संग चंदन मिलावो केलिको नन्दन । करत भवतापको हरनन, यजो मुनिराज के चरणन ।।चदन
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[ १९३
अक्षत शुभचन्द्रके करसे, भरो करणथालमे सरसे । प्रक्षपद प्राप्तिके करान, यजो मुनिराज के चररणन | ३ | अक्षत पहुप त्यो धारणके रंजन, उड़त तामाहि मकरदन । मनोभव वारके हरनन, यजो मुनिराजके चरणन ||४||पुष्पं ले पक्वान्न बहुविधिके, भरो शुभयाल सुवरण । असातावेदनी क्षुररान, यजो मुनिराजके चरणन || १ | नैवेद्यं ॥ बगमगे दीप लेकरिके, रकाबी स्वरांमे घरिके । मोहविध्वंसके फरगन, यज्ञों मुनिराज के चरणन ||६| दीपं ॥ अगर मलयागिरी चदन, खेयकरि धूपके गंवन । होय कर्माष्टको जरमन, यजो मुनिराजके चरणन ||७|धूपं ॥ सिफल श्रादि फल ल्यायो, स्वर्ण को थाल भरवायो । होय शुभमुक्तिको मिलनन, यजो मुनिराजके चरणन || ८ | फलं जलादिक द्रव्य मिलवाये, विविध वादित्र बजवाये । अधिक उत्साहकरि तनमे, चढावो प्रधं चरणनमे || ६ | श्रध्ये || सोरठा-तारण तरण जिहाज, भवसमुद्र के माहिं जो । ऐसे श्रीऋषिराज, सुमरि सुमरि विनती करो ॥१॥ छन्द पद्धरि ।
जय जय जय श्रीमुनियुगल पाय, मैं प्ररणमो मन वच शोशनाय । ये सब असार संसार जानि, सव त्याग कियो श्रातमकल्याण || क्षेत्र वास्तु पर रत्न स्वर्ण, धन धान्य द्विपद श्ररु चतुकच । श्ररु कौप्य भांड दश वाह्य भेद, परिग्रह त्यागे नहीं रंच खेद | ३| मिथ्यात्व तज्या संसार मूल, मुनि हास्य अरति रति शोफशूल ।
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भय सप्त जुगुप्सा स्त्रीय वेद, पुनि पुरुष वेद अरु क्लीव वेद ।४। अरु क्रोध मान माया रु लोभ, ये अन्तरंग मे करत क्षोभ । इमि अन्य सबै चौबीस येह, तजि भये दिगम्बर नग्न जेह ।५। गुरणमूल धारि तजि रागदोष, तप द्वादश घरि तन करत शोष । तृण कंचन महल मसान मित्त, अरु शत्रुनिमे समभाव चित्त।। अरु मरिण पाषाण समान जास, पर-परणतिमे नहिं रच वास । यह जीव देह लखि भिन्न-भिन्न, जे निज स्वरूपमे भावकिन्न ।७ ग्रीषमऋतु पर्वत शिखर वास, वर्षा मे तरुतल है निवास । जे शीतकाल मे करत ध्यान, तटनी तट चोहट शुद्ध थान ।। हो करुणासागर गुण अगार, मुझ देहि अखय सुखको भडार। मै शरण गही मुझ तार-तार, मो निज स्वरूप द्यो बारबार ।। । घत्ता-यह मुनि गुरणमाला, परम रसाला,जो भविजन कंठ धरही
सबविघ्नविनाशाह, मंगलभातहि मुक्तिरमा वह नर वरही ॐ ह्री भूत-भविष्यत्-वर्तमानकालसम्बन्धि पचप्रकारऋषीश्वरायाध्यं । दोहा-सर्व मुनिन की पूज यह, कर भव्य चित लाय । ऋद्धिसिद्धि घर मे बस, विघ्न सबै नशि जाय ।।११।।
इत्याशीर्वाद । श्री वर्द्धमान जिन पूजा
मत्तगयन्द । श्रीमत वीर हरे भवपीर भरै सुखसीर अनाकुलताई। केहरि अडू अरीकरदंक नये हरि पति मौलि सुनाई। मै तुमको इत थापतु हौं, प्रभु भक्ति समेत हिये हरषाई । हे करुणाधनधारक देव । इहाँ अब तिष्ठह शीघ्रहि आई।
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१९६ ) हरिचन्दन अगर कपूर, चूर सुगन्ध करा । तुम पदतर खेवत भूरि, पाठो कर्म जरा ॥श्रीवीर०॥ ॐ ह्री श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप नि०। ऋतुफल कलवजित लाय, कञ्चन थार भरो। शिवफल हित हे जिनराय, तुम ढिग भेंट धरो॥श्रीवीर०॥ ॐ ह्री श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल नि० । जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरो। गुणगाऊँ भवदधि पार, पूजत पाप हरो |श्रीवीर०।। ॐ ह्री श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अन_पदप्राप्तये अयं नि० ।
पंचकल्याणक । मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्धमान जिनरायजी । मोहि । गरभ षाढ सित छट्ट लियो तिथि, त्रिशलाउर अघहरना ॥ सुर सुरपति तित सेवकरी नित, मैं पूजो भवतरना ॥मोहि.।। ॐ ह्रीआषाढशुक्लाषष्ठ्या गर्भावतरणमगलप्राप्ताय श्रीमहावीरायाध्यं० जनम चैत सित तेरसके दिन, कुण्डलपुर कनवरना। सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो मै पूजो भवहरना ।मोहि०।। ॐ ह्री चैत्रशुक्लात्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्ताय श्रीमहावीरायाऽध्यं । मंगसिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना। नृपकुमार घर पारण कीनो, मै पूजो तम चरना । मोहि०॥ ॐह्री मार्गशीर्षकृष्णादशम्या तपोमगलमडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्रायाध्य शुकल दशै वैशाख दिवस अरि, घाति चतुक क्षय करना। केवल लहि भवि भवसर तारे, जलो चरन सखभरना मोहि०॥
___ॐही वैशाखशुक्लादशम्या ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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| १९७ कार्तिक श्याम श्रमावस शिव तिय पावापुरते वरना । गएफरिणवृन्द जज तित बहुविधि मैं पूजों भव हरना । मौ०
*ली कानिककृष्णामावस्या मोक्षमगलम डिताय धीमहावीरजिनेन्द्रार अर्घ्य नियंपामीति स्माहा।
जयमाला (छन्द इरिगीता) गरणघर प्रसनिघर चक्रधर हरघर गदाधर परवदा । अरु चापधर विद्यासुधर, त्रिशूलधर सेवहि सदा ॥ दुस-हरन प्रानन्द-भरन, तारन तरन चरन रसाल है। मुकुमाल गुनमनिमाल उन्नत भाल की जयमाल है ॥१॥
एन्द पत्ता जय त्रिशलानन्दन हरिकृतवन्दन जगदानन्दन चन्दवरं। भवतापनिकन्दन तनमनफन्दन रहित सपन्दन नयनधरं ॥२॥
बन्द प्रोटक जय केवलभानु फला सदनं, भवि कोक विकासन फजवनं। जगजीत महारिपु मोह हां, रजज्ञान दृगांवर चूर करं ॥१॥ गर्भादिक मंगल मण्डित हो, दुख दारिद को नित खडित हो। जगमाहि तुम्हीं सत पडित हो,तुमही भव भावविहंडित हो।२ हरिवश सरोजनको रवि हो, वलवन्तमहन्त तुम्ही कवि हो। लहि केवल धर्म प्रकाश कियो,अवली सोई मारग राजति यो।३ पुनि श्राप तने गुनमाहि सही, सुरमग्न रहे जितने सबही। तिनको वनिता गुन गावत हैं, लय माननि सो मन भावत हैं पुनि नाचत रङ्ग उमङ्ग भरी, तव भक्ति विर्ष पग एम घरी। भवन झननं झननं झननं, सुरलेत तहा तनन तननं ॥५॥
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१९८ ]
घनन घनन घन घण्ट बजे, दम दम दम दृम मिरदङ्ग सजे । गगनागन-गर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ।।६।। धृगतां धृगता गति बाजत है, सुरताल रसाल जु छाजत है। सननं सनन सननं नभ मे, इकरूप अनेक जु धारि भ्रमै ।७। केइ नारि सुवीन बजावति हैं, तुमरो जस उज्ज्वल गावति हैं करताल विर्ष करताल धरै, सुरताल विशाल जु नाद करे ।। इन आदि अनेक उछाह भरी, सुर भक्ति करै प्रभुजी तुमरी। तुमही जगजीवन के पितु हो, तुमही विन कारनत हितु हो। तुमही सब विघ्न विनाशक हो, तुमही निज प्रानन्द भासन हो तुमही चित चितित दायक हो,जगमाहि तुमही सब लायकहो१० तुमरे पन मङ्गल मांहि सही, जिय उत्तम पुण्य लियो सबही। हमको तुमरी शरणागत है, तुमरे गुनमे मन पागत है ।११। प्रभु मो हिय पाप सदा बसिये, जबलों वसु कर्म नहीं नसिये तबलो तुम ध्यान हिये वरतो, तबलो श्रुचितन चित्तरतो १२ तबलों सत सङ्गति नित्त रहो, तबलो मम सयम चित्तगहो १३ । जबलो नहिं नाशकरौं अरिको शिवनारि वरो समताधरिको यह यो तबलो हमको जिनजी, हम जाचतु हैं इतनी सुनजी १४ (घत्ता)-श्रीवीर जिनेशा,नमतसुरेशा, नागनरेशा, भगति भरा। 'वृन्दावन' ध्यावे, विघन नशावे, वांछित पावै, शर्मवरा ।१५॥
ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय महायं निर्वपामीति स्वाहा । दोहा-श्रीसन्मति के जुगलपद, जो पूजे धरि प्रीत । "वृन्दावन" सो चतुर नर, लहै मुक्नि नवनीत ।।
इत्याशीर्वाद
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[ १६६ सुनिये जिनराज त्रिलोक धनी । तुममे जितने गुन हैं तितनी । कहि कौन सर्फ मुखसों सयहो । तिहि पूजतही गहि प्रघं यही ॥ ॐ हो श्रीवृषभादि योगन्तेभ्यो चतुविदा तिजिनेभ्यः पूर्णाध्यं निर्वपा०| कवित
यभ देवकी आदि प्रन्त, श्रीवद्ध मान जिनवर सुखकार । तिनके चरण कमलको पूजं, जो प्रारणी तुरगमाल उचार ॥ ताके पुत्रमित्र घन जोवन, सुख समाज गुन मिलं प्रपार । सुरपदभोग भोग चक्री ह्व, अनुक्रम लहे मोक्षपद सार |२|
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प्रत्याशीर्वाद
महा श्रघं प्रभुनो प्रष्ट द्रव्यजु ल्यायो भावसो ।
प्रभु थांका हवं हर्ष गुरण गाऊ महाराज ॥
यो मन हरस्यो प्रभु थांकी पूजाजी के कारणे ।
प्रभुजी थाकी तो पूजा भवि जीव जो करें ॥ ताका पशुभ कर्म कट जाय महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी इन्द्र घरन्द्रजी सब मिलि गाय |
प्रभु का गुरगा को पार न पायो महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी थे छो जी प्रनन्ताजी गुरुवान ।
थाने तो सुमरघा संकट परिहरे महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी ये छो जी साहिब तीनो लोक का ।
जिनराज में छू निपट प्रज्ञानी महाराज || यो मन० || प्रभुजी थाका तो रूप को निरखन कारणे ।
सुरपति रचिया छै नयन हजार महाराज || यो मन० ॥
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२०० ]
प्रभुजी नरक निगोद मे भव भव मै रुत्यो । जिनराज सहिया छँ दुःख अपार महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी अब तो शररणोजी थारो में लियो ।
किस विधि कर पार लगावो महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी म्हारो तो मनडो थामे घुल रह्यो । ज्यों चकरी विच रेशम डोरी महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी तीन लोक में हैं जिन विस्व ।
कृत्रिम प्रकृत्रिम चैत्यालय पूजस्था महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी जल चन्दन अक्षत पुष्प नैवेद्य ।
दीप धूप फल अर्घ चढ़ाऊ महाराज || जिन चैत्यालय महाराज, सब चैत्यालय जिनराज ॥ यो मन. ॥ प्रभुजी अष्ट द्रव्य जु ल्यायो बनाय ।
पूजा रचाऊ श्री भगवान की महाराज || यो मन० ॥ अरिहंता छियाला सिद्धट्टा सूर छत्तीसा । उवज्झाया परणवीसा साहूरण होति अडवीसा ॥ ( निम्नलिखित अर्घ्यं बोलते समय जलधार छोडते रहना चाहिये ) ॐ ह्री श्री अरहन्त सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय सर्वसाधु-पचपरमेष्ठिभ्यो नम दर्शन विशुद्धयादि - षोडशकारणेभ्यो नम, उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्मेभ्यो नम, सम्यग्दर्शन- सम्यक्ज्ञान - सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः, भूत-भविष्यत - वर्तमानकालचतुर्विंशति-तीर्थङ्करेभ्यो नम सिद्धक्षेत्रेभ्यो नम अतिशयक्षेत्रेभ्यो नम मद्य संवत्
wate
"
मा
मध्य जंगल की
पक्षे तिथौ समये पूजाया सकलकर्मक्षयार्थ अनर्घ्यपदप्राप्तये जलाद्यध्यं महार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । भाव पूजा वन्दनास्तवसमेतं कायोत्सर्गं करोम्यहम् |
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| २०१ वार मनोहर मंत्र जाप करना चाहिये ) मई महानुभाव उक्त महाप्रयां केम्यान पर पंचपरमेष्ठी यह निम्न प्रकार है। दोनों में कोई एक बोलना
( यहा का
जमा यो ही है।
अथ पंचपरमेष्ठि जयमाला प्राकृत
मातृ-गाइन्द-मुरधरियत्तत्तथा पचकल्याण- सुवलाबनी पता || दंसणं गारणकारण अरगतंचलं ते जिरगादितु म्ह वर मंगल ॥१॥ जेहि भारग्गियाहि यय, जम्मा मरणयात्तयं वयं । जेहि पत्त सिव सासयं ठारायं ते महा दितु सिद्धा वरं साराय || २ || पचहाचारपंचगमाया, चान्सगाह सुयजलहि श्रवगाया । मोक्खलच्छी महन्ति महं ते तथा सूरिणो दितु मोघल गया संगया ॥ ३ ॥ घोरतंसार - भीमादवो कारणणे, तिथखवियरान - खट्ट - पाच-पंचारणे । गट्ट मग्गारण- जीवाण पदेमया, बदिमो ते उवज्झाय म्हे सया ॥ ४ ॥ उग्गतवयरण करणेह भी गया । धम्मवर भारणसुक्येयक भारणगया । भिर तवमिरीचे समालिया, सानो ते महामोक्ल पद्मग्गया । ५॥ एए थोरण जो पत्रगुरु वदए गुरुयसंसारवेल्लि सी दिए । लहिए मो सिद्धसुक्खा इवर मारणं, कुराई कम्मिधरणं पुञ्जपज्जाल ।
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रिहा सिद्धइरिया, वाया साधुपञ्चपरमेट्ठी । एयर णमुपकारो, नवे भवे मम सुह दितु ॥ १ ॥
* ही ग्रतमिद्धाचापाध्यायसचं साधु-पचपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं महाघ्यं
t
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२०२ ]
( यहा नौ वार णमोकार का जाप करे ) इच्छामि भन्ते पंचगुरुभत्ति का प्रोग्गो को । तस्सा लोचे अटू महापाडिहेर सजुत्तारग अरहन्तारग । श्रट्ठगुण-सम्पगारग उड्ढलोम्मि पर्याट्टयारा सिद्धारण । श्रपवरणमा उ तजुत्तारण आइरियाण । श्रायारादिसुदरणारगोवदेसयारण उवज्झायाणं । तिरयण गुगपाल रणरयाणं सव्वसाहरा । णिच्चकाल घच्चेमि पूजेमि बदामि रामस्तामि । दुदख खम्रो कम्म खन बोहिलाओ सुगइगमरण समाहिमरण जिरणगुरणसंपत्ति होउ मज्झ । ( पुप्पाजल, इत्याशीर्वाद ) शांति पाठ भाषा
[ शांति पाठ बोलते समय पुण्प क्षेपण करते रहना चाहिये ] शातिनाथ मुख शशि उनहारी शील गुरणव्रत सयमधारी । लखन एकसौमाठ बिराजे, निरखत नयन कमलदल लाजै ॥ पंचम चक्रवति पदधारी, सोलम तीर्थङ्कर सुखकारी । इन्द्र नरेन्द्र पूज्य जिन नायक, नमो शातिहित शांतिविधायक दिव्य विटप पुहुपन की वरषा, दुन्दुभि श्रासन वारणी सरसा । छत्र चमर भामण्डल भारी, ये तृव प्रातिहार्य मनहारी ॥३॥ शांति जिनेश शाति सुखदाई, जगतपूज्य पूर्जी शिरनाई । परम शांति दोर्जे हम सबको, पढ़ें तिन्हे पुनि चार संघको १४॥ बसन्ततिलका - पूजै जिन्हे मुकुट हार किरीट लाके ।
इन्द्रादि देव श्ररु पूज्य पदाब्ज जाके ॥ सो शान्तिनाथ वरवंश जगत्प्रदीप | मेरे लिये कराह शांति सदा अनूप ॥ ५ ॥
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| २०३
इन्द्रवज्रा ।
संपूजको को प्रतिपालको को यतीनको श्रौ यतिनायको को । राजा प्रजा राष्ट्र सुदेशको ले कीजे सुखी हे जिन शांतिको दे ॥ नग्धरा-होवं सारी प्रजाको सुख बलयुत हो धर्मधारी नरेशा ।
होवे वर्षा सर्प तिलभर न रहे व्याधियों का प्रदेशा || होवं चोरी न जारी सुसमय वर्ते हो न दुष्काल भारी । सारे ही देश धारं जिनवर वृषको जो सदा सौख्यकारी ॥ दोहा -घातिकर्म जिन नाश करि, पायो केवलराज ।
शान्ति करो सब जगत में, वृषभादिक जिनराज ॥ मदाकाता - शास्त्रों का हो पठन सुखदा लाभ सत्सगती का । सद्वृत्तो का सुजस कहके, दोष ढाकू सभी का || बोलूं प्यारे वचन हितके, श्रापका रूप ध्याऊँ । तौलौं सेऊ चरण जिनके, मोक्ष जौलौं न पाऊँ ॥
प्राय तव पद मेरे हियमे, ममहिय तेरे पुनीत चरणो मे । तबलों लीन रहौं प्रभु, जबलों पाया न मुक्ति पद मैने ॥१०॥ अक्षर पद मात्रा से दूषित, जो कुछ कहा गया मुझसे । क्षमा करो प्रभु सो सब, करुणा करि पुनि छुड़ाहु भवदुख से || हे जगबन्धु जिनेश्वर, पाऊँ तव चरण शरण बलिहारी । मरण समाधि सुदुर्लभ, कर्मों का क्षय सुबोध सुखकारी ॥१२॥ ( परिपुष्पाजलि क्षेपण )
[ यहा पर नौ वार णमोकार मंत्र जपना चाहिये ] भजन नाथ ! तेरी को फल पायो, मेरे यो निश्चय अब प्रायो
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२०४ ] मेढक कमल पाखुडी मुख ले, वीर जिनेश्वर घायो । श्रेणिक गज के पगतल मुवो, तुरत स्वर्गपद पायो । नाप.।। मैनासुन्दरी शुभ मन सेती, सिद्धचक्र गुरण गायो। अपने पति को कोड गमायो, गंधोदक फन पायो ।नाथ.।। अष्टापदसे भरत नरेश्वर, मादिनाथ मन लायो। अष्टद्रव्यले पूज्या प्रभुजी, अवधिज्ञान दरशायो ।नाथ ।। अंजन से सब पापी तारे, मेरो मन हुलसायो। महिमा मोटी नाथ तुम्हारी, मुक्तिपुरी सुख पायो ।नाथः।। थकि थकि हारे सुर नर खगपति, प्रागम सीख जतायो । 'देवेन्द्रकोति' गुरुज्ञान 'मनोहर'. पूजा ज्ञान बतायो ।नाथ.॥ स्तुति-तुम तरणतारण भवनिवारण, भविकमन प्रानन्दनो।
श्रीनाभिनन्दन जगतवन्दन, आदिनाथ निरजनो ॥१॥ तुम आदिनाय अनादि सेऊ, सेय पदपूजा करूं। कैलाश गिरि पर ऋषभ जिनवर, पदकमल हिरदै घरू ।। तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्टकर्म महाबली । यह विरद सुनकर शरण आयो, कृपा कीज्यो नाथजी ॥३॥ तुम चन्द्रवदन सु चन्द्रलच्छन, चन्द्रपुरी परमेश्वरो। महासेननन्दन, जगतवन्दन चन्द्रनाथ जिनेश्वरो ॥४॥ तुम शान्ति पांचकल्यारण पूजो, शुद्ध मनवचकाय जू। दुर्भिक्ष चोरी पापनाशन, विघन जाय पलाय जू ॥ ५ ॥ तुम बालब्रह्म विवेकसागर, भव्य कमल विकासनो। श्री नेमिनाय पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनो॥६॥
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जिमी TM मे यादगे। चारिय रय गरि भये ना जाय nिarगी दरी ।। ७॥ रंदपं स्पं गुमान, कम alia यो। प्रायमेन न जमदन, RATAR नियो।। जिनपरी मापने सामान प्रा। श्री पाना tires पप, में नगी nिrar 116 11 तुम मंगता राता, aft Enा पगे। सिदामदन जगतपादन. मायोर निमेश्यो।। १० ।। घर तीन गो गुन्नर मो. मीमती अब धारिये । कम्जोरि मेयोनयन, वागमन नियारिये ।। ११ ।। भर होउ भय भय मामि मेरे, सदायमा रहीं। करमोटोपादान मनमोक्षरल जायन लाहौ ॥ १२ ॥ जो एर माही एक ना ए हि घनेकनो। इस प्रफ की नारी संया, मम गिन निरन्जनो ।। १३ ।।
॥ar म तुम चरण कमल गुण गाय, बचिघि भक्ति फरो मनलाय जनम जनम प्रभु पाळतोहि, यह सेवाफल पोजे मोहि ॥१४॥ कृपा तिहारी ऐमी होय, गामन मरन मिटायो मोय । बार बार में विनती पास, तुम सेये भवसागर तर ॥१५॥ नाम लेत सय दुग्प मिट जाय, तुम दर्शन देख्यो प्रभु प्राय । तुम हो प्रभु देवन के देव, में तो कह चरण तप सेव ॥१६॥ जिन पूजा त सब सुग्ण होय, जिन पूजा सम और न कोय ।
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२०६ ] जिन पूजा ते स्वर्ग विमान, अनुक्रन पावै निर्वाण ।।१७।। मै श्रायो पूजन के काज, मेरो जन्म सफल भयो आज । पूजा करके नवाऊ शीश, मुझ अपराध क्षमहु जगदीश ।१८। दोहा-सुख देना दुख मेटना, यहो तुम्हारी वान ।
मो गरीब की वीनती, सुन लीज्यो भगवान ।।१६॥ पूजन करते देव की, प्रादि मध्य अवसान । सुरगनके सुख भोग कर, पावं मोक्ष निदान ॥२०॥ जैसी महिमा तुम विर्ष, और धरै नहिं कोय । जो सूरज मे जोति है, नहिं तारागरण सोय ।।२१।। नाथ तिहारे नामत, अघ छिनमाहि पलाय । ज्यो दिनकर परकाशत, अन्धकार विनशाय ।।२२।। बहुत प्रशंसा क्या करू , मै प्रभु बहुत अजान ।
पूजाविधि जानू नहीं, शरण राखि भगवान ।।२३।। इस अपार संसार मे, शरण नाहि प्रभु कोय ।
यात तव पद भक्त को, भक्ति सहाई होय ।२४।इति। विसर्जन-बिन जाने वा जानके, रही टूट जो कोय ।
तद प्रसाद ते परमगुरु, सो सब पूरण होय ॥१॥ पूजनविधि जानो नहीं, नहिं जानो आह्वान । और विसर्जन हू नहीं, क्षमा करहु भगवान ।।२॥ मन्त्रहीन धनहीन हूं, क्रियाहीन देनदेव । क्षमा करहु राखहु मुझे, देहु चरणको सेव ॥३॥ ध्याये जो-जो देवगण, पूजे भक्ति प्रमाण ।
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[ २०७ ते सब मेरे मन बसो, चौबीसो भगवान ॥४॥
इत्याशीर्वाद आशिका लेना-श्री जिनवर की प्राशिका, लीजै शीश चढ़ाय ।
भव-भव के पातक कटे, दुःख दूर हो जाय ॥१॥
शांतिपाठ संस्कृत शांतिजिन शशि-निर्मल-वक्त्रं, शील-गुण-व्रत-सयम-पात्र । अष्टशताच्चित-लक्षण-गात्र,नौमि जिनोत्तसमम्बुज-नेत्रं ।। पञ्चमभीप्सित-चक्रधराणां पूजितमिंद्र-नरेन्द्र गणेश्च । शातिकर गण-शांतिमभीप्सुः षोडश-तीर्थकरं प्रणमामि ।२। दिव्य-तरुः सुर-पुष्प-सुवृष्टिदुन्दुभिरासन-योजन-घोषौ । प्रातपवारण-चामर-युग्मे यस्य विभाति च मंडसतेजः ॥३॥ त जगचित-शांति-जिनेन्द्र शांतिकर शिरसा प्रणमामि । सर्वगरणाय तु यच्छतु शान्ति मामरं पठते परमां च ॥४॥ येऽभ्यचिता मुकुट-कुण्डल-हार-रत्नैः,
शक्रादिभिः सुरगरणः स्तुत-पाद-पद्माः । ते मे जिनाः प्रवर-वंश-जगत्प्रदीपा
__ स्तीर्थङ्कराः सतत-शान्तिकरा भवन्तु ।५। संपूजकाना प्रतिपालकानां यतीन्द्र-सामान्य-तपोधनाना। देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राजः करोतु शाति भगवान जिनेन्द्रः । क्षेमं सर्व-प्रजाना प्रभवतु बलवान धार्मिको भूमिपालः, काले काले च सम्यग्वषंतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुभिक्ष चौर-मारी क्षरणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,
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२०८ ]
जैनेन्द्र धर्मचक्र प्रसरतु सततं सर्व-सौख्य-प्रदायि ॥७॥
प्रध्वस्त-घाति-कर्मारण. केवलज्ञान-भास्कराः।
कुर्वन्तु जगतः शान्ति वृषभाद्याः जिनेश्वराः ॥८॥ प्रथेष्ट प्रार्थना
प्रथम करण चरण द्रव्य नम शास्त्राभ्यासो जिनपति-नुतिः सतिः सर्वदाय्यः, सवृत्ताना गुरण-गण-कथा दोषवादे च मौन । सर्वस्यापि प्रिय-हित-वचो भावना चात्मतत्त्वे । सम्पद्यन्ता मम भव भवे यावदेतेऽपवर्गः ॥ ६ ॥ तव पादौ मम हृदये मम हृदय तव पद-द्वये लीन । तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावद्यावनिर्वाण-सप्राप्तिः ॥१०॥ अक्खर-पयत्थ-हीरण मत्ता-होरण च जं मए भरिणय ।
त खमउ गाणदेव य मज्झ वि दुक्ख-क्खय वितु ॥११॥ दुक्ख-खो कम्म-खम्रो समाहिमरण च बोहि-लाहो य । मम होउ जगत-बधव तव जिणवर चरण-सरणेण ॥१२॥ त्रिभुवन-गरो! जिनेश्वर । परमानन्दक-कारण ! कुरुष्व । मयि किकरेन करुणा यथा तथा जायते मुक्तिः ॥१३॥ निविण्णोहं नितरामहन ! बहुदु खया भवस्थित्या । अपुनर्भवाय भवहर ! कुरु करुणामत्र मयि दीने ।।१४॥ उद्धर मां पतितमतो विषमाद्-भवकूपतः कृपां कृत्वा । अर्हन्नलमुद्धरणे त्वमसीति पुनः पुनर्वच्मि ॥ १५ ॥ त्वं कारुणिकः स्वामी त्वमेव शरण जिनेश ! तेनाहं । मोह-रिपु-दलित-मान फूत्कररणं तव पुरः कुर्वे ॥१६॥
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। २०६ ग्रामपतेरपि करणा, परेण फेनाप्युपन ते पुसि। जगता प्रमोन कितव, जिन ! माय पाल फर्मभिः प्रहते।।१७ प्रपहर मम जन्म दयां कृत्वा चेत्येक-वचसि वक्तव्य । तेनातिदग्ध इति मे देव ! बभूव पलापित्य ॥ १८ ॥ तः जिनवर | चरणाज-युग कन्यामृत-गीतसं यावत् । गमार-ताप-तप्तः पारोमि धषि तावदेय सम्यो ।।१६। जगदेक गरस ! भगय नौमि श्रीपानन्वित-गुरपोय । कि बहना गुर परणाम जने शरणमापन्ने ।२०। पुष्पांजलि। मागिरंग मानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रीप्तं न कृतं मया।
तत्म पुगंमेवास्तु त्वत्प्रमादाग्जिनेश्वर ॥१॥ प्राहाननं नंब जानामि नंब जानामि पूजन । चिमनं न जानामि क्षमन्य परमेश्वर ! ॥२॥ मन्त्रहीन क्रियाहीन द्रव्यहीन तथंचन । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।।३।। समाप्त ।।
श्री त्रय जिनेन्द्र पजा श्री परप्रम-गान्तिनाग महावीर जिन पूजा) [ ग्य०५० भगवतस्वम्प जन 'भगवत', फगेहा )
यय यन्द श्री चन्द्र-प्रभ नमों, अष्टमे जो तीर्थर । नमो शानि जिननाथ, मदन चकोत्रय पद घर । वर्दमान जिनराय, चरण को शीश नवाऊँ। भक्ति हृदय में धारि, मष्ट विधि पून रचा।।
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[ २११
पूर्जी युग पद श्री जिनेन्द्र के मिटै क्षुधा दुख म्हारा । श्रष्टम | ॐ ह्री श्राचन्द्रप्रभशा तिनाथमहावीर जिनेन्द्रेभ्य क्षुधारोगविनाशनाथनैवेद्य । घृत कपूर का दीप जलाकर, प्रभु चरणो मे धारू ।
मोह प्रन्ध सो अनन्न काल का लगा उसे निरवा । श्रष्टम | ॐ ह्रीचन्द्रप्रभशान्तिनाथ महावीर जिनेन्द्रेभ्य मोहविकारविनाशनायदीपं । लय दशागी धूप अग्नि मे, खेऊ प्रभु पद भागे ।
घुम घटा बहु जोर उठे मिस, भ्रष्ट करम मम भागे । श्रष्टम | ॐ ह्री श्री चन्द्रप्रभशा तिनाथमहावीर जिनेन्द्र भ्य प्रष्टकर्म विनाशनाय घुप | रसना नेत्र लगे जो सुन्दर, गिरट इष्टफल भारी,
महामोक्ष फल प्राप्ति हेतु जिन, पद पूजों भरि थारी । श्रष्टम ॐ ह्री चन्द्रप्रभशा तिनाथमहावीर जिनेन्द्रभ्य महामोक्षफल प्राप्तये फल गीता छन्द
जलगध अक्षत पुष्प नेवज, दीप धूप सुफल मिला, करि अर्ध पद सुश्रनध्यं पावन को लगाया सिलसिला । चन्द्रप्रभ पद जजो पूजो शान्तिनाथ जिनेश जी । सन्मति चरण की करो पूजा, मिटं भव की क्लेश जी ॥ ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभशातिनाथमहावीर जिनेन्द्र भ्यऽनर्घ्य पदप्राप्तयेध्यं । पच कल्याणक घं (दुर्मिल छन्द -- राधेश्याम रामायण)
यदि चैत्र पंचमी सुखकारी, चन्द्रप्रभ गर्भ पधारे है । भावो यदि सप्तमि शांतिनाथ, माता सु उदर मे धारे है । शुक्ला प्राषाढ की तिथि षष्ठी, श्री वीर गर्भ मे आये है । यह गर्भ कल्याणक शुभदिन है मन वच तन अर्ध चढ़ाये है । ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभशातिनाथमहावीर जिनेन्द्र भ्य गर्भमंगल प्राप्तायाघ्यं ।
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२१२ । शुभ पौष वदी ग्यारस जन्मे, चन्द्रप्रभ चन्द्रनगर माही । है जेठ वदी चौदह शुभ दिन जिन शाति जन्म गजपुर ठाही। कुण्डलपुर मे श्री महावीर, सित चैत्र त्रयोदश दिन प्रगटे । पद पूजो अर्घ चढाय यहा, जिससे भवभव के अघ विघटे । *ही श्रीचन्द्रप्रभशातिनाथमहावीरजिनेन्द्र स्य जन्ममगनप्राप्तायाये । वदि पौष एकादशि तपधारा, श्री चन्द्रप्रभ वन मे जाके । चौदशि वदि जेठ की शातिनाथ तपधरा चक्रपद ठुकराके । महावीर लिया तप मगसिरकी, दशमी अधियारो दिन भाई । शुभ तप कल्याणक जिनवर के, मैं जजो चरण मगल दाई। ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभशातिनाथमहावीरजिनेन्द्र भ्य तपमगलप्राप्तायाऽयं । फागुन वदी सप्तमी को, चन्द्रप्रभ केवल बोध लहा, शुभ पौष शुक्ल दशमी दिनको, श्रीशातिनाथ घातिया दहा । वैशाख सुदी दशमी के दिन, महावीर हुए केवलज्ञानी, शुभ ज्ञान कल्याणक पद पूजों ले अर्घ जजू भव दुख हानी । ॐह्रीश्रीचन्द्रप्रभशान्तिनाथमहावीरजिनेन्द्र भ्य केवलज्ञानप्राप्तायाय । है सुदो सप्तमी फाल्गुरण की, चन्द्रप्रभ शिवपद प्राप्त किया, श्रीशांतिनाथजी जेठ बजी, चौदस वसु कर्म समाप्त किया। है कार्तिक मावस श्याम घटा, पावापुर से महावीर प्रभो, निर्धारण पधारे मै पूजू पाऊँ तुम सम ही नाथ विभो। ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभशातिनाथमहावीरजिनेन्द्र भ्य मोक्षमंगल प्राप्तायाध्य
जयमाला दोहा-शान्तिनाथ चन्द्र प्रभो, महावीर भगवान ।
भक्ति हृदय मे धारिके, सगुण करू गुणगान ।
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[ -१३
[ प
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जय मात लक्ष्मण के सपूत । चन्द्रप्रभ स्वामी गुरण प्रफूत । है चन्द्र चिह्न शोभा प्रवार। जय श्वेत वरण तन दिनार । जय भवतन भोग विराग वित्त। तप धरी जाय वन हो विरक्त । घातिया फरम चकचूर झाप पायो सुबोध केवल प्रताप | भवि जीवन को शिव पथ लगाय । सम्मेदावल पर गये श्राय । कहा ललित कूट सुन्दर सुधान। पार्यो वहां से शिव पद महान गुरु समतभद्र तुम ध्यान फोन । प्रगटो प्रतिमा शिव पक्षीण । जिनधर्म ध्वजा जग लहलहाय । मैं नमों चरण चतु श्रंगनाथ । || राजे बहार ॥
शान्तिनाथ पद पूजिये, शान्ति हेतु भवि लोय ॥१॥ नगर हस्तिनापुर महा ऐरा देवी मात ।
पिता नृपति विश्वसंन गृह, प्रगट भये शुभ गात | शान्तिनाथ कामदेव चत्री भये, छहों खण्ड का राज |
नव निधि चौदह रतन के, धारी श्री जिनराज || शान्तिनाथ || सब विभूति को त्याग के, वन जा फोनो ध्यान |
घाति घातिया ध्यान वल, पायो केवल-ज्ञान ||शान्तिनाथ ।। पुन गये सम्मेदगिरि, कुन्द प्रभु शुभ फूट 1
योग निरोध स्वध्यान बल, सब कर्मों से छूट || शातिनाथ ।। सिद्धि निरजन जगपति, ध्यान करें जो कोय ॥
मिटे असाता क्षणिक मे, बहु सुख साता होय || शातिनाथ || [ छन्द त्रोटक ]
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२१४ ] महावीर जिनरान नमस्ते । बिसला नन्दन वीर नमस्ते । बाल ब्रह्मचारी सु नमस्ते । कल्मष हारी धीर नमस्ते ।। वीर धीर अति वीर नमस्ते । सन्मति गुरए गम्भीर नमस्ते । मिथ्यामत परिहार नमस्ते । दया धर्म प्रचार नमस्ते ।। शिवमारग दर्शाय नमस्ते । भवि जीवन सुखदाय नमस्ते । भव भव भजनकार नमस्ते । सकट मोचन हार नमस्ते ।। अधम उधारन हार नमस्ते । सुख अनन्त दातार नमस्ते । गुरण अपार सुखकार नमस्ते । भगवन भवधि पार नमस्ते ।
घत्ता
जिनवर गुण गाथा, जग विख्याता, सुर गुरु कथनी न पार लहे 'भगवत्' बुद्धि थोरी शरण सु तोरी, भक्ति सुफल भवि पार चहे ॐ ह्री श्री चन्द्रप्रभ-शान्तिनाथ-महावीर-जिनेन्द्र भ्य महाध्य ।
( शार्दूल विक्रीडित छन्द ) जो पूजै जिनराज नित्य चित सो, बहु भक्ति उर धारिके । वह पावे सब रिद्धि सिद्धि निशदिन, आपत्ति सब टारिके । पावै पद सु नरेन्द्र इन्द्र सुखदा, पावें अतुल सम्पदा । अन्तिम होय अनन्त शिव सुख धनी, करिनाश भव प्रापदा।।
इत्याशीर्वाद । पुष्पाजलिं क्षिपेत् x श्री बाहुबली स्वामी की पूजा ' दाहा-फर्म अरिगरण जीति के, दर्शायो शिवपथ ।) से प्रथम सिद्धपथ जिन लियो, भोगभूमि के अन्त ।।।
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२१६ ]
नव ग्रहो को जापे ही क्लो श्री श्री सूर्यग्रह अरिष्ट निवारक श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय नमः शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ॥१॥ ७७.० जाप्य ।
ॐ ह्री को श्री क्ली चन्द्रारिष्ट निवारक श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय नम शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ।।२।। ११००० जाप्य ।
___ *पाही को श्री भीमारिष्ट निवारक पद्मप्रभजिनेन्द्राय नम शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ॥२॥ १०००० जाप्य ।
ॐ ह्री को प्रो श्री बुधग्रहारिष्ट निवारक श्री विमल अनन्त धर्म शान्ति कुन्यु पर नमि वर्दमान अष्ट जिनेन्द्रेभ्यो नम शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ॥४॥८००० जाप्य ।
ॐ क्रीं ह्री श्री क्ली ऐं गुरु परिष्ट निवारक श्री ऋषभ अजित सभव अभिनन्दन सुमति सुपाश्वं शीतल श्रेयास अष्ट जिनेन्द्र भ्यो नम शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ॥५॥१६००० जाप्य ।
ॐ ह्री श्री शुक्रग्रह अरिष्ट निवारक श्री पुष्पदन्त जिनेन्द्राय नमः शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ॥६॥ ११००० जाप्य ।
ॐ ह्री क्री श्री शनिग्रह अरिष्ट निवारक श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय नम शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ॥७॥ २३००० जाप्य ।
ॐ ह्री श्री क्ली ही राहु अरिष्ट निवारक श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ।।९।। १८००० जाप्य ।
ॐ ह्री श्री क्ली ऐ केतु अरिष्ट निवारक मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नम शान्ति कुरु कुरु स्वाहा ।।। ७... जाप्य ।
श्री प्रनन्न चतुर्दशी मन्त्र ही अं ह हमी अनन्त केवली भगवान अनन्तदान-लाभ-भोगोपभोगवीर्याभिवृद्धि कुरु कुरु स्वाहा ।
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२१ चौथी प्रारती बी उवज्झाया,
दर्शन करता पाप पलाया ॥ यह० ।। पाचवीं पारतो साधु तुम्हारी,
कुमति विनाशन शिव अधिकारी यह। छट्टी ग्यारह प्रतिमा धारी,
श्रावक बन्दी प्रानन्दकारी ।। यह० ।। सातवीं पारतो श्रीजिनवाणी,
"द्यानत" स्वर्ग मुक्ति सुखवानी ।।यह० ।
भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति तुम से लागी लगन, ले लो अपनी शरण । पारस प्यारा, मेटो मेटो जी, सकट हमारा टेर।। निशदिन तुमको जपू, पर से नेहा तजू । जीवन सारा, तेरे चरणो मे बीते हमारा ॥ अश्वसेन के राजदुलारे, वामा देवी के सुत प्रारण प्यारे । सबसे नेहातोड़ा, जगसे, मुह को मोड़ा, सयम धारा १मैंटो। इन्द्र और धरगोन्द्र भी आये, देवी पद्मावती मंगल गाये। पाशा पूरो सदा, दुख नही पावे कदा, सेवक थारा ।।मेटो.। जग के दुःख की तो परवाह नहीं है,स्वर्ग सुखकी भी चाह नहीं है मेटो जामन-मरण, होवे ऐसा यतन, पारस प्यारा ।।मेटो। लाखों वार तुम्हे शीश नवाऊ, जग के नाथ तुम्हें कैसे पाऊ ।। 'पंकज' याकुल भया, दर्शन दिन ये जिया, लागे खारा ।हामे.
me समाप्त *m
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स्तोत्र पाठ संग्रह णमो अरिहताण, णमो सिद्धारण, रणमो पाइरियारणं ।
एमो उवझायारणं, गमो लोए सन्वसाहूरणम् । चत्तारि मंगलं- अरिहंता मंगलं, सिद्धा मगलं, साहूमंगल, केलिपण्णत्तो धम्मो मंगल ।। चत्तारि लोगुत्तमा-प्ररिहंता लोगुत्तमा,सिद्धा लोगुत्तमा,साहूलोगुत्तमा,केलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरण पन्चज्जामि-परिहते सरण पब्वज्जामि, सिद्ध सररणं पव्वज्जामि, साहसरणं पन्यज्जामि, केलिपण्णत्तं धम्म सरण पवज्जामि ॥
दर्शन पाठ संस्कृत दर्शन देवदेवस्य दर्शन पापनाशम् । दर्शन स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्षसाधनम् ॥ १॥ दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूना वन्दनेन च । न चिरं तिष्ठते पाप छिद्रहस्ते यथोदकम् ॥२॥ वीतरागमुख दृष्ट्वा पद्मरागसमप्रभम् । जन्मजन्मकृत पाप दर्शनेन विनश्यति ।। ३ ।। दर्शनं जिनसूर्यस्य ससारध्यान्त. नाशनम् । बोधन चितपद्मस्य समस्तार्थप्रकाशनम् ॥ ४ ॥
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दर्शनं जिनचन्द्रन्य सद्धर्मामृतवर्षणं । जन्मदाहविनाशाय वर्ष सुखदारिधे ॥५॥ जोशदितत्त्वप्रतिपादकाय सम्यक्त्वमुख्याष्टपुरणार्णवाय । प्रशांतल्पाय दिगम्बराय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ।। ६ ।। चिदानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने, परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्वात्मने नमः ।। ७ । अन्यथा गरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात् कारुण्यमावेन । रक्ष २ जिनेश्वर । न हि त्राता न हि त्राता न हि त्राता जगत्तये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥६॥ जिने भक्तिजिने भक्तिलिने भतिदिनदिने । समामेऽस्तु सदामेस्तु सदामेऽस्तु भवे भवे ।।१०।। जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा नवेचकर्त्यपि । स्याच्चेटोऽपिदरिद्रोऽपि जिनधर्मानुवासितः ॥११॥ जन्म जन्म कृतं पापं जन्मकोटिमुपाजितम् । जन्ममृत्यु जरातकं हन्यते जिनदर्शनात् ॥१२॥
विनती बुधजनजो कृत प्रनु पतित पावन मैं प्रपावन चरण प्रायो शरणजी । से विरद प्राप निहार स्वामी मेट जानन मरणजी ।। तुम ना पिछान्या प्रान मान्या देव विविध प्रकारजी । रा बुहितेती निज न जान्यो भ्रम गिन्यो हितकारजी ।। भद निकट वन में कर्म वैरी नान घन मेरो हरयो । लद इष्ट भूल्यो झण्ट होय प्रनिष्टगति धरतो फिरयो । घर घडी यो धन दिवस योही धन जनम मेरो भयो । माग मेरो उत्य प्रायो दरम प्रभु को लखलयो ।
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छवि वीतरागी नग्न मुद्रा, हष्टि नाशा पे धरै। वसु प्रातिहार्य अनन्त गुण युत कोटि रवि छवि को हरै ।। मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदय रवि प्रातम भयो। मो उर हरष ऐसो भयो मनु र चिन्तामणि लयो।। मै हाथ जोडि नवाय मस्तक बोनऊ तव चरणजी । सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन सुनहु तारन तरनजी ।। याचू नहीं सुरवास पुनि नर राज परिजन साथजी । 'बुध' याचहूँ तुम भक्ति भव भव दीजिये शिवनाथजी ।
दर्शन पाठ (पं० दौलतरामजी कृत) दोहा-सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन । सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज-रहस-विहीन ।।
पद्धरि छन्द जय वीतराग विज्ञान पूर, जय मोह-तिमिर को हरन सर । जय ज्ञान अनन्तानन्त धार, हग-सुख-बोरज-मण्डिस अपार । जय परम शान्ति मुद्रा समेत. भवि-जनको निज अनुभूति देता भवि-भागनवश जोगे वशाय,तुम ध्वनि है सुनि विभ्रम नशाय। तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक,प्रकटे विघटे प्रापद अनेका तुम जगभूषण दूषण-विमुक्त,सब महिमायुक्त विकल्प-मुक्त । अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप । शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन,स्वाभाविक परणतिमय अछीन प्रधादश दोष विमुक्त धीर, स्वचतुष्टय मय राजत गंभीर ।
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मुनि गराघरादि मेयन महास, नव वेचन-नाहितरमा घन्त। तुम शामन नेय प्रमेय नोव पिव गये जाहिजे. नदीव । भवमागर में दुर क्षार वानि, तानगोप्रोन मार हानि यह लधिनिज दुग्म गहरा काज,तुमही निमित्तकाररा इलाज जाने तात में मरा प्राय, उरी निज दुप जो विर लहाय । मैं भ्रन्यो प्रपनपो विमरि पाप, अपनाये विधि फर पुण्यपाप निजको पन्को पता पिचान, परमे प्रनिष्टता इट ठान IE पाकुलित भयो प्रजान पारि, ज्यो मृग मृग-तपणा जानिवानि. तन-परगति ने प्रापो चितार,क्वहू न अनुभवो स्व-पदसार तुम को जाने बिन जो कलेग,पाये मो तुम जानत जिनेश । पशु नारफ-नर-मुर-गति मार,भव घर२ मरयो अनन्तवार। प्रय काल-लब्धि बलते दयानु तुम दर्शन पाय भयो सुशाल । मन मात भयो मिहि नकलद्वन्द,चारयो स्वातमरत दुख निक्द तात प्रब ऐसी करहु नाय, विटुडे न कभी तुम चरण साथ । तुम गुरागरण को ना छेव देव, जगतारण को तुम विरद एव प्रातम के प्रहित विषय फपाय,इनमे मेरी परिणति न जाय । मैं रहूँ प्रापमे आप लोन, सो करो होउ जो निजाधीन ।। मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश । मुझ कारज के कारण प्राप, शिव करहु हरहु मम मोह ताप शशि शातिकरण तपहरण हेत,स्वयमेव तथा तुम कुशल देत पीवत पियूप ज्यो रोग जाय त्यो तुम अनुभव ते भव नशाय
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त्रिभुवन तिहुंकाल मझार कोय, नहिं तुमविन निजसुखदाय होय मो उर यह निश्चय भयो आज,दुख जलषि उबारन तुम जहाज दोहा-तुम गुरणगरण-मरिण गणपती, गणत न पाहि पार । 'दौल' स्वल्पमति किम कहै, नमू त्रियोग सम्हार ।।
___ विनती भूधरदासजी कृत अटो जगत गुरु एक, सुनियो अरज हमारी। तुम हो दीन दयालु, मैं दुखिया ससारी ॥ इस भव बनमे वादि, काल अनादि गमायो। भ्रमत चतुर्गति माहि, सुख नहीं दुख बहु पायो। फर्म महारिपु जोर, एक न कान कर जी। मन मानो दुख देय, काहूं सो नाहीं डरै जी ।। कवहूं इतर निगोद, कबहूँ नरक दिखावे । सूर नर पशु गति माहि, बहु विधि नाच नचावें । प्रभु इनको परसंग, भन भव माहिं कुरो जी । जो दुव देखे देव ! तुम से नाहि दुरोजी ।। एक जनम की बात, कहि न सकों सुन स्वामी । तुम अनन्त परजाय, जानत अन्तरजामी । मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे । कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे । ज्ञान महानिधि लूट, रडू निबल कर डारयो । इन ही तुम मुझ माहि, हे जिन ! अन्तर पारयो ।।
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(६) पाप पुण्य मिल दोय, पायनि बेडी डारी। तन कारागृह माहि, मोहि दियो दुख भारी। इनको नेक विगार, मैं क्छु नाहि कियो नी । विन फारण नग बन्धु ! बहुविधि बैर लियो नी ॥ अब आयो तुम पास, सुनके सुयश तिहारो। नीति निपुण महाराज, कोले न्याय हमारो।। दुष्टन देहु निकार साधन को रख लीने । बिनवै "भूधरदास", हे प्रभु टोल न कीजे ।।
आलोचना पाठ दोहा-दर्दी पांचों परमगुरु, चौबीसों जिनराज । करूं शुद्ध मालोचना, शुद्धिकरण के कान ||१||
सजी छन्द बौदह मात्रा सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी । तिनकी प्रब निवृत्ति काजा, तुम शरण लही जिनराजा ।। इक वे ते चउ इन्द्री वा, मनरहित सहित जे जीवा । निनकी नहि करया घारी, निरदई हघात विचारी ।। समरंभ समारंभ आरंभ, मनवचतन कोने प्रारंभ । कृत कारित मोदन करिके, क्रोधादि चतुष्टय घरिक ।४। शत आठ जु इमि भेदन, प्रघ कीने पर छेदनते । तिनकी कहुं कोली कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी 1५॥
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विपरीत एकांत विनयफे, संशय प्रज्ञान कुनय के । घश होय घोर अघ कीने, बचतै नहिं जात कहीने ॥६॥ कुगुरुनकी सेवा कोनी, केवल प्रदयाकरि भीनी। याविषि मिथ्यात्व भ्रमायो, पहुंगति मधि दोष उपायो । हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, परवनितासौं हग जोरी। प्रारम्भ परिग्रह भीनो, पनपाप जु या विधि कीनो ।। सपरस रसना माननको, हग कान विषय सेवनको । वसुकर्म किये मनमानी, कछु न्याय अन्याय न जानी है। फल पञ्च उदंबर खाये, मधु मास मध चितचाहे । नहिं अष्टमूलगुणधारी, विषयन सेये दुखकारी ।१०। दुइबीस प्रभख जिनगाये, सो भी निशदिन भुञ्जाये । कछु भेदाभेद न पायो, ज्यो त्यों करि उदर भरायो ।११॥ अनन्तानुजुबन्धी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो । संज्वलन चौकरी गुनिये, सब भेद जु षोडश मुनिये ॥१२॥ परिहास परति रति शोग, भय ग्लानि लिवेद संयोग । पन-बीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम ॥१३॥ निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई । फिर जाग विषयवन धायो, नानाविधि विषफल खायो १४॥ याहार निहार विहारा, इनमे नहिं जतन विचारा । बिन देखी धरी उठाई, बिन शोधी वस्तु जु खाई ॥१५॥ तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो । कुछ सुधि बुधि नाहि रही है, मित्यामति छाय गई है १६।
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मरयादा तुमडिंग लोनी, ताहू मे दोष जु कोनी । भिन भिन अब कसे कहिये, तुम ज्ञानविर्ष सब पइये ।१७। हा हा | मैं दुठ अपराधी, सजीवनराशि विराधी । थावरको जतन न कोनी, उर मे करुना नहि लोनी ॥१८॥ पृथिवी बहु खोद कराई महलादिक जागा चिनाई । पुनि विन गाल्यो जल ढोल्यो, पखाते पवन विलोल्यो ।१६। हा हा ! मैं अदयाचारी, बहुहरितपाय जु विदारी। तामधि जीवन के खदा, हम खाये धरि पानन्दा ।२०। हा हा ! परमाद वसाई, विन देखे अनि जलाई । तामधि जे जीव जु प्राये, ते हू परलोक सिघाये ।२१। बोध्यो अन रात पिसायो, ई वन विन सोधि जलायो। झाड़ ले जागा वुहारी, चिउटी प्रादिक जीव विदारी ।२२। जल छानि जिवानी कोनी, सोहू पुनि डारि जु दीनी । नहि जलथानक पहुंचाई, किरिया बिन पाप उपाई ।२३, जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि कुल बहु घात करायो । नदियन विच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये ।२४। अन्नादिक शोध कराई, ता मे जु जीव निसराई । तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया ।२५। पुनि द्रव्य कमावन काजे, बहु प्रारम्भ हिंसा साजे । किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी ।२६। इत्यादिक पाप अनन्ता, हम कीने श्री भगवन्ता । संतति चिरकाल उपाई, बानी ते कहिय न जाई ।२७।
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ताको जु उदय अब प्रायो, नानाविधि मोहि सतायो। फल भुञ्जत जिय दुख पावै, वचते कसे करि गावै ॥२८॥ तुम जानत केवलज्ञानी, दुख दूर करो शिवथानी । हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है ।२६। जो गावपति इक होने, सो भी दुखिया दुख खोवे । तुम तीन भवन के स्वामी, दुख मेटहु अन्तरजामी ।३०॥ द्रोपद को चीर बढायो, सीताप्रति कमल रचायो। अजन से किये प्रकामी दुख मेटहु अन्तरजामी ।३१। मेरे अवगुण चित न चितारो, प्रभु अपनो विरद निहारो । सब दोषरहित कर स्वामी, दुख मेटहुँ अन्तरजामी १३२॥ इन्द्रादिक पदवी न चाहूँ, विषयन मे नाहि लुभाऊ। रागादिक दोष हरीज, परमातम निज पद दीजै ।३३। दोहा-दोषरहित जिनदेवजी, निज पद दीज्यो मोय ।
सब जीवन के सुख बढे, प्रानन्द मङ्गल होय ॥३४॥ अनुभव मारिणक पारखी, जौहरी पाप जिनद ॥ ये ही वर मोहि दीजिये, चरण शरण आनन्द ।३५॥
भाषा सामायिक पाठ
अथ प्रथम प्रतिक्रमण कर्म काल अनन्त भ्रम्यो जग मे सहिया दुख भारी । जन्ममरण नित किये पाप को ह्व अधिकारी ।। कोटि भवातर माहि मिलन दुर्लभ सामायिक । धन्य प्राज मैं भयो योग मिलियो सुखदायक ।। हे सर्वज्ञ जिनेश, किये जे पाप जु मैं प्रब । ते सब मनवचकाय योग की गुप्ति बिना लभ ॥
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(१०) श्राप समीप हजूरमाहि मै खड़ो ३ सब । दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दुख देहि जव ।३। क्रोध मान मद लोभ मोह मायावशि प्रानी। दुःख सहित जे किये दया तिनको नहि पानी ।। बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय बि ति चउ पचेन्द्रिय । प्राप प्रसादहि मिट दोष जो लग्यो मोहि जिय ।३। प्रापस मे इक और घापि कर जे दुख दीने । पेलि दिये पग तलें दाबकरि प्राण हरीने । श्राप जगत के जीव जिते तिन सबके नायक । अरज करौं मैं सुनो दोष मेटो सुखदायक ।४। अंजन प्रादिक चोर महा घनघोर पापमय । तिनके जे अपराध भये ते क्षमा २ किय । मेरे जे अब दोष भये ते क्षमो दयानिधि। यह पडिकोरयो कियो प्रादि षटकर्म माहि विधि ।।
अथ द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे। तिनको जो अपराध भयो मेरे प्रघ ढेरे । सो सब भूतो होउ जगतपति के परसादे । जा प्रसादत मिले सर्व सुख दुख न लार्धे ।। मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि होल महाशठ । किये पाप अति घोर पापमति होय चित्त दुठ ।। निहूँ मै बार बार निज नियको गरहूँ। सब विध धर्म उपाय पाय फिर पापहि फरहूँ ॥७॥ दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावककुल भारी । सतसगति संयोग धर्म जिन श्रद्धाधारी ।। जिनवचनामृतधार समावर्ते जिनवानी । तोहू जीव संहारे पिक धिक धिक हम
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जानी ।।८।। इन्द्रियलम्पट होय खोय जिन ज्ञान जमा सब । अज्ञानी जिम कर तिस विधि हिंसक ह अब ।। गमनागमन करन्तो जीव विराधे भोले । ते सब दोष किये नि मन वच तन तोले ।। ६ ।। पालोचनविधि थकी दोष लागे जु घनेरे । ते सब दोष विनाश होउ तुमते जिन मेरे ।। बार बार इस भाति मोह मद दोष कुटिलता। ईर्षादिकतै भये निदिये जे भयभीता ॥१०॥
अथ तृतीय सामायिक कर्म
सब जीवनमे मेरे समता भाव जग्यो है । सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है ॥ आर्त रौद्र द्वय ध्यान छांडि करिहूँ सामायिक । संयम मो कब शुद्ध होय यह भाव बधायक ।।११।। पृथ्वी जल अरु अग्नि वायुचउ काय वन. स्पति । पंचहि थावरमांहि तथा अस जीव बसै जित ॥ बे इन्द्रिय तिय चउ पचेन्द्रियमांहि जीव सब । तिनतै क्षमा कराऊ मुझ पर क्षमा करो प्रब ॥१२॥ इस अवसर मे मेरे सब सम कचन अरु तृण । महल मसान समान-शत्रु अरु मित्र ही सम गण । जामन मरन समान जानि हम समता कोनी। सामायिकका काल जितै यह भाव नवीनी ॥१२॥ मेरो है इक प्रातम तामै ममतजु कीनौं । और सबै मम भिन्न जानि समतारस भीनौ । मात-पिता-सुत-बन्धु मित्रतिय प्रादि सबै यह
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( १२ ) मोतं न्यारे जानि जथारथल्प करगे गह ।१४। मैं अनादि जगजालमाहि फमि रूप न जाण्यो । एकेन्द्रिय दे प्रादि जन्तु को प्रारण हगण्यो । ते यद जीवममूह सुनो मेरी यह प्ररजी। नवनव को अपराध क्षमा कीज्यो करि मरजो ॥१५॥
अथ चतुर्थ स्तवन म न ऋषभ जिनदेव अजित जिन जोत कर्मको । संभव भव-दुरुहरग करण प्रभिनन्द शर्मको ।। नुमति नुमतिदातार तार भवसिंधु पार कर । पनप्रन पघाभ भानि भवभीति प्रोतिघर ।।१६।। श्रीसुपार्श्वकृत पाप नाश भव जास शुद्ध कर । श्रीचन्द्रप्रभ चन्द्रकांति सम देहकांति घर ।। पुष्पदन्त तमि दोषकोष भावि पोष रोषहर । शीतल जीतल करन हरन भवताप दोपहर ।। १७ ।। श्रेयरूप जिन श्रेय ध्येय नित तेय भन्यजन । वासुपूज्य शतपूज्य वासवादित भवभय हना विमल विमल-मति-देन अतगत हैं अनन्त जिन । धर्म शर्म शिवकरन शातिजिन शांतिविधायिन ।१८। कुन्यु कुन्थ मुखजीवपाल प्ररनाथ लालहर । मल्लि मल्लसम मोहमल्ल मारनप्रचारघर मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुरसंघहि नमि लिन । नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ मांहि ज्ञान धन ।१६। पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपलसम मोक्षरमापति । बर्द्धमान जिन नमूवम भवदुःख ककृत । याविध मैं जिनसंघरूप च उदीस सल्यघर । स्त नमूहूं बार बार बन्दी शिवसुखकर ।२०।
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( १३ )
अथ पञ्चम वन्दना कर्म
चन्टू मै जिनवर धोर महावीर सुसन्मति । वर्द्धमान प्रतिवोर बन्दि हौं मनवचतनकृत || त्रिशलातनुज महेश धीश विद्यापति बन्टू । बन्दु नितप्रति कनकरूपतनु पाप निकन्दू |२१| सिद्धारथ नृपनद द्वन्द्व दुखदोष मिटावन । दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन || कुण्डलपुर करि जन्म जगतजिय श्रानन्दकारन । वर्ष बहत्तर श्रायु पाय सबही दुख टारन | २२| सप्त हस्त तनु तुंरंग भग कृत जन्म मररण भय । बालब्रह्ममय ज्ञेय हेय प्रदेय ज्ञानमय || दे उपदेश उधारि तारि भवसिंधु जीवधन । श्राप बसे शिवमाहि ताहि बन्दों मनवचतन | २३ | जाके बन्दनथकी दोष दुख दूरहि जावे | जाके बन्दनथकी मुक्ति तिय सन्मुख श्रावे || जाके बन्दनथकी बन्ध होवे सुरगन के । ऐसे वीर जिनेश वदि हूँ पदयुग तिनके । २४ । सामायिक षट्कर्ममाहि बन्दन यह पञ्चम | बन्दे वीरजिनेन्द्र इन्द्रशतवंद्य वद्य मम ॥ जन्म मरण भय हरो करो अघ शात शातिमय । मैं अधकोश सुपोष दोषको दोष विनाशय ॥२५॥
अथ पष्ठम कायोत्सर्ग कर्म
कायोत्सर्ग विधान करूं श्रन्तिम सुखदाई । काय त्यजनमय होय काय सबका दुखदाई । पूरव दक्षिरण नमू दिशा पश्चिम उत्तर में । जिनगृह बन्दन करू हरू भव पापतिमिर
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( १४ । मै। २६ । शिरोनती मै करू नम मस्तक करि धरिक ।
आवर्तादिक क्रिया करूं मनवचमदहरिके ।। तीन लोक जिनभवनमाहि जिन हैं जु प्रकृत्रिम । कृत्रिम है द्वय अर्द्धद्वीपमाही बन्दों जिन । २७ । पाठ कोडि पर छप्पन लाख जु सहस सत्याणू । चारि शतक परि असी एक जिनमन्दिर जाणू ।। व्यतर ज्योतिषमांहि सख्य रहिते जिनमन्दिर । जिनगृह बन्दन करू हरहु मम पाप सङ्घकर । २८ । सामायिक सम नाहि और कोट वर मिटायक । सामायिक सम नाहि और कोउ मैत्रीदायक । श्रावक अणुव्रत आदि अन्त सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक । २६ । जे भवि प्रातम काज करण उद्यम के धारी। ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी ॥ राग दोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब । बुध 'महाचन्द्र' विलाय जाय तातै कोज्यो अब । ३०।।
इति सामायिक भाषा पाठ समाप्त
निर्वाण काण्ड (भाषा) दोहा-वीतराग बदौं सदा, भाव सहित सिर नाय । कहूँ काड निर्वारण की, भाषा सुगम बनाय । १ ।
चौपई ५ मात्रा अष्टापद प्रादीसुरस्वामि, वासुपूज्य चपापुरि नामि । नेमिनाथस्वामी गिरनार । बदौं भावभगति उरधार । २ ।
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( १५ ) चरम तीथंडर चरम शरीर, पावापुरि स्वामी महावीर ।। शिखरसमेद जिनेसुर बीस, भावसहित बन्दों निगदीस ।३ परवतराय रु इन्द्र मुनिद, सायरदत्त आदि गुणवृन्द ।। नगरतारवर मुनि अठकोडि, वदी भावसहित फरजोडि ।।४।। श्री गिरनार शिखर विरयात, कोडि बहत्तर पर सौ सात । शबुप्रय म्नकुमर भाय, अनिरुद्ध आदि नमतसु पाय ।। रामचंद्र के सुत हूँ वीर, लाडनरिन्द प्रादि गुणधीर । पाच कोडि मुनि मुक्ति-मभार, पावागिरि वन्दो निरधार ॥६॥ पांडव तीन द्रावडराजान, पाठकोडि मुनि मुकति पयान । श्रीशत्रुजय गिरि के शोष, भावसहित वर्वी निशदीश ॥७॥ जे वलभद्र मुकति मे गये, पाठकोडि मुनि औरह भये । श्री गजपंथशिखर सुविशाल, तिनके चरण नमतिहुकाल ॥८॥ रामहणुमुग्रीव सुडोल, गवयगवाल्य नील महानील । फोडि निन्यारणवे मुक्ति पयान, तुङ्गीगिरि वदों धरि ध्यान ।।६॥ नङ्ग अनङ्ग कुमार सुजान, पाचकोडि अरु अर्घ प्रमान । मुक्ति गये सोनागिर शीष, ते वदी त्रिभुवनपति ईश ॥१०॥ रावरण के सुत मादिकुमार, मुक्ति गये रेवातट सार । कोटि पञ्च अरु लाख पचास, ते बी घरि परम हुलास ॥११॥ रेवा नदी सिद्धवर फूट, पश्चिम दिशा देह जह छूट । हूँ चक्री दश कामकुमार, पाठकोडि वाँ भव पार ॥१२॥ बडवानी बडनगर सुचङ्ग, दक्षिण दिशि गिरिचूल उतङ्ग। इन्द्रजीत अरु कुम्भ जु कर्ण, ते बों भवसागर तणं ।।१३।।
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सुवरण भन यादि मुनिचार पाबागिरि वर शिखर मन्नार । चेलना नबोनीर के पान नुक्ति गये बदी नित ताम ॥१४॥ फलहोडी वडगाम अनप, पश्चिम दिशा बोगनिरि रूप , पुरस्त्तादि मुनीश्वर जहा, मुक्ति गरे बन्दी नित तहां १५॥ वान महावाल ननि होय, नागकुमार मिले य होय । थी अण्टापद नक्ति मभार, ते बन्दी नित मुरत नभार ।१६। अन्नपुर को दिश ईगान, तहाँ मेगिरि नाम प्रधान । माटे तीन लोडि मुनिगम, तिनले वरण नवितलाय ॥१४॥ वमन्यल वनके डिग होय, पश्चिम दिशा कुंयुगिरि सोय । कुल-भूषण दिशि-भूपरा नाम,तिनके चरणनिकरूं प्रणामा१८ जसपर राजा के नुत कहे, देश कनिग पाचनों लहे । कोटिशिला मुनि कोटि प्रमान, वन्दन करूं जोरगपान ॥१६॥ समवसरण श्रीपाच जनद, रेनिदोनिरि नयनानन्द । वरदत्तादि पञ्चपिराज, ते वन्द नित घरमजिहाज ।२०॥ मथुगपुर पवित्र उचान, जम्बू स्वामोजो निर्वाण । चरम केवलो पञ्चनकाल. ते बन्दों नित दीनदयाल ।२१। तीनलोक के तोरथ जहा, नित प्रति वन्दन को तहां । मनवचकाय सहित सिरनाय, बन्दनकरहि नदिकगुरगनाया२२ सम्बत् सतरहसों इकताल, आश्विन सुदि दशमी तुविशाल । - 'भैया'बन्दन करहिं त्रिकाल, जय निरिणकाण्ड गुणमाल १२३
।। इति ॥
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मेरी भावना जिसने राग द्वेष कामाविक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवो को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति-भाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसीमे लोन रहो । विषयो की प्राशा नहि जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं। निज-परके हित साधन मे जो, निशिदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ-त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं । ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुःख समूह को हरते हैं ।।२।। रहे सदा सत्सग उन्हीं का, ध्यान उन्ही का नित्य रहे। उनही जैसो चर्या मे यह. चित्त सवा अनुरक्त रहे ।। नहीं सताऊं किसी जीवको, झूठ कभी नही कहा करूं। पर धन वनिता पर न लुभाऊ', सतोषामृत पिया करूं ।। अहङ्कार का भाव न रक्खू , नहीं किसी पर क्रोध करू। देख दूसरो की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या-भाव धरू । रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य व्यवहार करू । बने जहा तक इस जीवन मे, पोरो का उपकार फरू ॥४॥ मंत्रीभाष जगत मे मेरा, सब जीवों से नित्य रहे। दीन-दुखी जीवो पर मेरे, उरसे करुणा स्रोत बहे ।। दुर्जन कर-कुमार्ग रती पर, क्षोभ नहीं मुझको प्रावे।
* महिलायें "वनिता" के स्थान पर "भा" पढ़ें।
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( १८
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साम्यभाव रखूं मैं उन पर ऐसी परिरगति हो जावे ||५|| गुणीजनो को देख हृदय से, मेरे प्रेम उमड़ आवे | घने जहां तक उनकी मेवा, फरके यह मन सुख पावे ॥ होऊ नहीं कृतघ्न कभी में, द्रोह न मेरे जर श्रावे । गुरण-ग्रहरण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ||६|| कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी नावे या जावे । मृत्यु श्रान ही या जावे ॥ या लालच देने श्रावे |
लाखो वर्षों तक जीऊ या, अथवा कोई कैसा हो भय,
तो भी न्याय-मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे ||७|| होकर सुख मे मग्न न फूले, दुःख में कभी न घबरावे । पर्वत नदी - श्मशान - भयानक, अटवी से नहि भय खावे || रहे अडोल-प्रकम्प निरन्तर, यह मन दृढतर वन जावे । इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग में, सहनशीलता दिखलावे ||६|| सुखी रहे सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे । वैरन्पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मङ्गल गावे । घर घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावे । ज्ञान-चरित उम्नत कर अपना, मनुज जन्मफल सब पावे || इति-भीति व्यापे नहि जगमे, वृष्टि समय पर हुआ करे । धर्म-निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे । रोग-सरी दुभिक्ष न फैले, प्रजा शाति से जिया करे । परम श्रहमा धर्म जगत में, फैल सर्व हित किया करे |१०| फैले प्रेम परस्पर जग मे, मोह दूर पर रहा करे ।
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( 18 )
अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहि, कोई मुख से कहा करे || चनकर सब 'युग-वीर' हृदय से देशोन्नति रत रहा करे । वस्तु स्वरूप विचार खुशी से, सब दुःख सङ्कट सहा करे । ११
समाधि मरण छोटा
( चाल जोगीरासा )
गौतम स्वामी बन्दी नामी मरण समाधि भला है । मै कब पाऊँ निशदिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला है । देव धर्म गुरु प्रीति महा दृढ सात व्यसन नहीं जाने । त्यागि बाईस प्रभक्ष संयमी बारह व्रत नित ठाने । १ । चक्की चूली उखरी बुहारी पानी श्रस ना विरोधे । बनिज करे पर द्रव्य हरे नहीं छहो करम इमि सोधे । पूजा शास्त्र गुरुन की सेया संयम तप चहुं दानी पर उपकारी अल्प प्रहारी सामायिक विधि ज्ञानी |२| जाप जपे तिहु योग घरे दृढ तन की ममता टारे । अन्त समय वैराग्य सम्हारे ध्यान समाधि विचारे । प्राग लगे अरु नाव जव डूबे धर्म विधन जब भावे । चार प्रकार बाहार त्यागि के मन्त्र सु मन मे ध्यावे |३| रोग प्रसाध्य जरा बहु देखे कारण और निहारे । बात बड़ी है जो बनि प्राषे भार भवन को डारे ।
जो न बने तो घर में रह करि सब सों होय निराला । मात पिता सुत त्रिय को सोंपे निज परिग्रह अहिकाला |४|
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( २० )
कुछ चैत्यालय कुछ श्रावक जन कुछ दुखिया धन देही। क्षमा क्षमा सबही सों कहिके मनकी शल्य हनेई । शत्रुन सो मिल मिल कर जोरे मै बहु करी है बुराई । तुमसे प्रीतम को दुख दीने ते सव बकसो भाई । ५ । धन धरती जो मुख सो मागे सो सब दे सन्तोषे । छहो काय के प्रानी ऊपर करुणा भाव विशेषे। रूच नीच घर बैठ जगह इक कुछ भोजन कुछ पय ले। दूधा धारी क्रम क्रम तज के छाछ प्रहार गहे ले । ६ । छाछ त्यागि के पानी राख्ने पानी तजि सथारा। भूमि माहि थिर प्रासन माडे साधर्मो ढिग प्यारा। जब तुम जानो यह न जप है तब जिनवारणी पढिये । यो कहि मौन लियो सन्यासी पञ्च परम पद लहिये ॥७॥ चार अराधन एन मे ध्यावे बारह भावना भावे । दस लक्षण मन धर्म बिचारे रत्नत्रय मन ल्यावे । तिस सोलह षट पन चारो दुइइक वरण विचारे । काया तेरी दुख की ढेरी ज्ञान मई तू सारे । । अजर अमर निज मुरगसो पूरे परमानन्द भावे. आनन्द कन्द चिदानन्द साहब तीन जगतपति ध्यावे । क्षुधा तृषादिक होइ परीषह सहे भाव सम राखे । प्रतीचार पाच सब त्यागे ज्ञान सुधारस चासे । ६ । हाड मांस सब सूख जाय जब घरम लीन तन त्यागे । अद्भुत पुण्य उपाय सुरग मे सेज उठे ज्यो जागे ।
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ते मावे शिव पट पावे विलसे सुक्ख अनन्तो। स' वह गति होय हमारी जैन धरम जयवन्तो । १० ।
॥ इति ममाधिमरण समाप्त ।।
बारह भावना
(भूधरदास प्रत) राजा राणा छत्रपति, हपियन के प्रसवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी चार ।। दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार । मरतो बिरिया जीद फो, कोई न राखनहार ।। दाम मिना निषन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहीं न सल संसार मे, सब जग देखो बान । ३ । प्राप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय । यू कबहू इस जीवका, साथी सगा न कोय । ४ । जहां देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय । घर सम्पत्ति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ।५। दिपे चाम चादर मढी, हाड पीजरा देह । भीतर या सम जगत मे, और नहीं घिनगेह ।६। सोरठा-मोह नींद के जोर, जगवासी घूमे सदा ।
कर्मचोर चहुँ भोर, सरबस लूटे सुध नहीं । ७ । सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमे ।
सब कुछ बने उपाय, कर्म चोर पावत रुके ।। घोहा-ज्ञान दीप तप तेल भर, घर सोधे भ्रम छोर ।
याविधि बिन निकसे नहीं, बैठे पूर्व चोर । । ।
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( २२ )
समिति पंच परकार | घार निलंग नार । १० लोक पुष मंठान | भरत है दिन ज्ञान । ११ । fear चित्ता रेन ।
सुख देन
१२
यांचे मुग्नर देय दिन दिन चितवे, धर्म न धनकन कवन राजमुद्र सर्व सुनकर ज्ञान । दुर्लभ है मंमार में, एक व्यास्य ज्ञान १३॥ प्रातकालीन स्तुति
बीनराग नवंन हितङ्कर, नविजन को अब पूरो छा ज्ञान-भानु का उदर करो मम मियानन का होय दिनाम । नीत्रों की हन करुणा पाले, कूठ वचन नहि कहें का पर धन कहूं न हहिं स्वामी ब्रह्मचर्य व्रत रहे नवा ॥ तृष्णा लोभ बढेन हमारा, तोष-मुधा नित पिया करें। श्री जिनधर्म हमारा प्यारा, उनकी मेवा किया करें ॥
पञ्चमहावन मञ्च
प्रवन मंत्री विजय,
चौदह राजू उन त तामें लीव अनादि में,
दूर नगावें बुरी रीतियाँ सुखद रोति का करें प्रचार 1 मैच मिलाप बढाएँ म नव धर्मोप्रति का करें विचार ॥ मुत्र ब्रुख में हम ममता घारें रहे अचल तिमि साल 1 न्याय मार्ग को देश न स् वृद्धि करें निज प्रातम बल । प्रष्ट कर्म जो कुछ देने हैं, तिनके क्षय का करें उपाय ! नाम प्रापका जपे निरन्तर रोग शोक नव ही डर जाय । प्रतिम शुद्ध हमारा होवे पाप मैन नहि चडे कदा | विद्या की हो उनि हम में धर्म ज्ञान हू बड़े ना |
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(२३) हाथ जोड़ कर शीश नमा, तुमको भविजन खड़े खड़े । वह सब पूरो प्ररश हमारी, चरण शरण मे पान पडे ।।
सायंकालीन स्तुति है सर्वज्ञ वीर जिनदेवा. चरण शरण हम पाते हैं । जान अनन्त गुणाकर तुमको, घरणन शीश नवाते हैं ॥१॥ कथन तुम्हारा सबको प्यारा, कहीं पिरोष नही पाता । अनुभव बोष प्राषिक जिनके है,उन पुरुषों के मन भाता ॥२॥ दर्शन ज्ञान चरित्र स्वरूपो, मारग तुमने दिखलाया । यही मार्ग हितकारी समफा, पूर्व ऋषीगणे ने गाया ॥३॥ रत्नत्रय को भूल न जावै, इसीलिए उपनयन करें । वह्मचर्य को दृढ़तम पाल, सप्तन्यसन का त्याग करै ।।४।। नीतिमार्ग पर निस्य चलें हम, योग्याहार विहार करे। पालें योग्याचार सदा हम, वर्णाचार विचार करै ॥५॥ धर्ममार्ग अए वैधमार्ग से, देशोद्धार विचार करें। पार्षवचन हम दृढ़तम पाले, सस्सिद्धान्त प्रचार करे ॥६॥ श्रीजिनधर्म बढ़े दिन दूनो, पच प्राप्तनुति नित्य करें। सत्संगति को पाकर स्वामिन, फर्म कलक समूल हरे ॥७॥ फलें भाव ये सभी हमारे, यही निवेदन करते है। 'लाल' बाल मिल भाल वीरके चरणो मे शिर परले है ॥८॥
__ भावना भजन भावना दिन रात मेरी सब सुखी संसार हो। सत्य सयम शील का व्यवहार घर घर बार हो ॥टेका।
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( २४ । धर्म का प्रचार हो पर देश का उद्धार हो । और यह उनडा हुमा भारत चमन गुलजार हो ॥१॥ रोशनी से जान का खंमार मे परकाश हो। घम को तलवार से हिंसा का सत्यानाश हो ॥२॥ गांति अरु प्रानन्द का हर एक घर में वास हो । वीर वारसी पर सभी संसार का विश्वास हो ॥३॥ रोम और भय शोक हो दूर सद परमात्मा । कर सके कल्याए 'ज्योति' सब जगत को प्रात्मा ।। ४ ।।
श्रीचौवीस तीर्थकरों के चिहत वृषभनाय का 'वृषभ जु नान । अजितनाथ के 'हाथो' माना संभवजिनके 'घोडा' कहा । अभिनन्दनपद 'बन्दर' लहा ॥१॥ सुमतिनाथ के 'चकवा' होय । पद्मप्रभ के 'कमल' जु जोय । जिनमुपास के 'सथिया' कहा । चन्द्रप्रभ पद 'चन्द्र' जु लहा।२ पुष्पदन्त पद 'मगर' पिछान । 'कल्पवृक्ष' शीतल पद मान । श्री श्रेयांस पद 'गेंडा' होय । वासुपूज्य के 'भैसा' जोय ॥३॥ विमलनाथ पद शुकर' मान । अनन्तनाथ के 'सेही जान । धर्मनाथ के 'वज्र' कहाय । शान्तिनाथ पद 'हिरन' लहाय ।४ कुन्युनाथ के पद 'अज' जीन । अरजिनके पदचिह्न जु'मीन'। मल्लिनाथ पद 'कलश' कहा । मुनिसुव्रत के 'कछुना' लहा। 'लालकमल' नमिजिनके होय । नेमिनाथ-पद 'शङ्खजु जोय। पार्श्वनाथ के 'सर्प' न कहा । वर्तमान पद 'सिंह' हि लहा ।६
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( १४ }
समाधिमरण भाषा
करो से इस जग में में धन्त मम में
भव भने तपार नया मैं भव भवन
नरम
जो भुजा राई | प्रभु मेरि जोहो । परमोद राई ** { II पायो ।
में मातदिन त पायो ॥
नाम लोनो ।
भव भव नृपदि भव भव से मना भव भव में मैं भयो नग, घाराम गुल नहि भव भव में सुरपदयो पाई सामु प्रति भोगे । पर इस पाये विधि योगे ||
॥२।
भव भव में गति
भ
पापो प्रति भागे। म भव मे मामको सग मिहिनकारी ॥ ३ ॥ भव भव में जिनजन बीनी, दान सुपात्रहि दोनो । भव भव में में ना में, देवो जिन नीनो एती वस्तु मिलो भव भव में मध्य महि पायो । नहि समाधित मरण कियो में, सात जग भरमायो ॥४॥ कान मनादि भयो जग भ्रमतं सदा कुमराह कोनों ( एकबार हु सम्यक्त में, निज ग्राम नहि चोह्नों"
जो निज पर को ज्ञान होय तो, भरा समय दुख कोई | बेह विनाशी में निज भामो, ज्योति स्वरूप मचाई ॥५॥
में निर्धन योनि
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( २६ )
विषय कषायन के वश होकर, देह प्रापनो जान्यो । कर मिथ्या सरवान हिये विच, श्रातम नाहि पिछान्यो । यो कलेश हियधार मरणकर, चारो गति भरमायो । सम्यग्दर्शन- ज्ञान चरन ये, हिरदं मे नहि लायो ||६|| अब या नरज करूं प्रभु सुनिये, मरण समय यह माँगो | रोगजनित पीडा मत होवे, प्ररु कषाय मत जागो ।।
ये मुझ मरण समय दुखदाता, इन हर साता कीजै । जो समाधियुत मरण होय मुक्त, श्ररु मिथ्यामद छोजै ||७|| यह तन सात कुपातमई है, देखत हो घिन श्रावं । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, भीतरु विष्टा पावै ।
अति दुर्गन्ध अपावन सो यह, मूरख प्रीति बढावे । देह विनाशी जिय श्रविनाशी, नित्यस्वरूप कहावै ॥ ८ ॥ यह तन जीर्ण कुटी सम श्रातम, याते प्रीति न कीजै । नूतन महल मिले जब भाई, तब यामे क्या छोजे । मृत्यु होन से हानि कौन है, याको भय मत लावो । समता से जो देह तजोगे, तो शुभतन तुम पावो ||६|| मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माही | जीरण तन से देत नयो यह, या सम काहू नाही ॥ या सेती इस मृत्यु समय पर, उत्सव प्रति ही कीर्ज । क्लेश भाव को त्याग सयाने, समता भाव धरीजै ॥१०॥ जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई | मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावे, स्वर्ग सम्पदा भाई ॥
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(a)
राममेष को पोष्ट गाने मन कान दुहाई ।
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e☆ aggz én âð, miaî ga må i मशहूर मेरो,
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मृत्युराज कद ग्राम यादव
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मृगपत तर मगाये, पट पर। रात दिना में म
१२॥
el aa it via a quì, ga zgî falu kð nýn मृत्युको शरानो पार्टी
जामे सम्यक् शन को मह, ग्राठी में पा देलो तर समोर मृतस्नो, नाहि सु या जगमा 1 मृत्यु समय मे ये ही परिजन, मदुवाई ॥१॥ यह सब मोह बदावनहारे, जिसकी दुर्गनिवाता | इनमे मम निवारो जिवरा, जो वाही व माता | मृत्युपत्र म पाय मयाने, गांगो इच्छा लेती । ममता परकर मृत्यु हो सो पायो सम्पति तेती ॥१५॥ चमाराधन सहित प्राण तन तो या पदवी पावो । हरि प्रतिहरिची तीवर, स्वर्गमुक्ति में जावो । मृत्युकन्पम सम नहि दाता, सोमो लोक मंकारे । ताकी पाय फलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ||१६||
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( २८ )
इस तन मे क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरण हो है । तेजकाति बल नित्य घटत है, या सम अथिर सु को है ।। पाचो इन्द्रो शिथिल भई प्रव, स्वास शुद्ध नहिं आवै । तापर भी ममता नहिं छोड, समता उर नहिं लाये ॥१७॥ मृत्युराज उपकारी जियको, तनी तोहि छुड़ावै । नातर या तन बन्दीगृह मे, परचो परयो विललावै ॥ पुद्गल के परमाणु मिलके, पिण्डरूपतन भासी । याही मूरत मै अमूरती, ज्ञानज्योति गुरगवासी ॥१८॥ रोगशोक प्रादिक जो वेदन, ते सब पुद्गल लारे । मै तो चेतन व्याषि बिना नित, है सो भाव हमारे ।। या तनसो इस क्षेत्र सम्बन्धी. कारन पान बन्यो है । खान पान दे याको पोष्यो, अब सम भाव ठन्यो है ॥१६॥ मिथ्यादर्शन प्रात्मज्ञान बिन, यह तन प्रपनो मान्यो । इन्द्रीभोग गिने सुख मैने, पापो नाहिं पिछान्यो । तन विनशनत नाश जानि,निज यह अयान दुखदाई ।। कुटुम्ब आदि को अपनी जान्यो,भूल अनादि छाई ॥२०॥ अब निज भेद जथारथ समझ्यो, मै हूँ ज्योतिस्वरूपी । उपजे विनशै सो यह पुद्गल, जान्यो याको रूपी ॥ । इष्ट अनिष्ट जेते सुख दुख हैं, सो सब पुद्गल लागें । मैं जब अपनी रूप विचारो, तब वे सब दुख भागें ॥२१॥ बिन समता तनऽनन्त धरे मै, तिनमें ये दुख पायो । शस्त्रघाततै अनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो ।
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( २६ )
बार अनन्तहि प्रति माह जर मूयो सुमति न लायो । सिंह व्याघ्र श्रग्निन्त बार मुझ नाना दुख दिखायो ||२२|| बिन समाधि में दुःख लहे में, अब उर समता आई । मृत्युराज को भय नहि मानो, देवं तन सुनवाई ॥ यातं जब लग मृत्यु न ग्रावे, तबलग जप तप कीजे । are बिन इस जग के माहों, कोई भी नहि सीजें ॥२३॥ स्वर्गसम्पदा तपसों पावे, तपसो कर्म नशावं । तपसो शिवकामिनिपत, यासो तप चित सार्व ॥ अब में जानो समता दिन, मुझ कोऊ नाहि सहाई । मात पिता सुत बान्ध तिरिया, ये सब है दुखदाई ॥ २४ ॥ मृत्यु समय में मोह करें ये, तातं प्रारत हो है । भारतते गति नीची पार्व. यों लख मोह तज्यो है ॥
प्रौर परिग्रह जेते जग में, तिनसों प्रोति न को । परभव मे ये सग न चाले, नाहक भारत कीजे ॥२५॥ जे जे 'वस्तु लखत हैं ते पर, तिनसौ नेह निवारो । परगति मे ये साथ न चालें, ऐसो भाव विचारो ॥ जो परभवमेंस चलं तुझ, तिनसे प्रीति सु कीजे । पञ्च पाप तन समता धारी, दान चार विधि कीर्ज ॥ २६ ॥ दश लक्षणमय धर्म घरो उर, अनुकम्पा उर लायो । terer नित्य चितवो, द्वादश भावना भावो ॥ चारों परबी प्रोषध कीजें, प्रसन रातको त्यागो । समता घर दुरभाव निवारो, सयमसो अनुरागी ॥। २७ ॥
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(३० ) अन्नममय में ये शुभ भावहि, होवे यानि नहाई। वर्ग मोलफल ताहि दिखाव, ऋद्धि देहि अधिकाई ।। बोटे भाव नकल जिय त्यागो, टम्मे नमता लाके । जामेती गति चार दूर कर, वमो मामपुर जाके ।। २८ ।। मन चिन्ता करके तुम चिनो, ची पाराधन भाई । ये ही तो मुम्ब को दाता, और हितू कोउ नाहीं ॥ प्रागे बहु मुनिराज भय है, तिन गहि थिरता भारी । बहु उपनगं महै शुभ भगवन, प्राराधन उरवारी ।।२६।। तिनमे क्छुइक नाम कहूँ मैं सुनो जिया चित लाके । भावमाहित अनुमोदे तामे, दुगति होय न जाके ॥ अरु समता निज उरमे पावं, पाद अधोरज जावे । यों निशदिन जो उन मुनिवरको, ध्यान हिये बिच लावे ।३०। घन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कने घोरज धारी । एक श्यालनी युगबच्चायुत पाव भत्यो दुखकारी ।। यह उपमर्ग मह्यो घर थिरता, प्राराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दुख है मृत्यु महोत्सव वारी ॥३१।। धन्य धन्य जु मुकौशल स्वामी, व्यानीने तन खायो । तो भी श्रीमुनि नेक डिगो नहि, आतमसो हित तायो । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, पाराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दु.ख है, मृत्यु महोत्सव बारी ॥३२॥ देखो गजमुनिके सिर ऊपर, विप्र प्रगनि बहु बारी । शीश नल जिमि लकड़ी तनको, तो भी नाहि चिगारी ॥
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यह उपसर्ग सह्यो घर थिरना, पाराधन चित धारी। तो तुमरे यि फोन दुःख है, मृत्यु महोत्सव बारी ॥३३॥ सनत्कुमार मुनिके तनमे, कुण्ट वेदना व्यापी । छिन्नभिन्न तन तासो हूवो, तव चित्यो गुण प्रापी ।। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, पाराधन चितधारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्यु महोत्मय बारी॥३४॥ श्रेणिकसुत गङ्गा मे डुब्यो, तब जिन नाम चितारयो । घर सलेखना परिग्रह छोड्यो, शुद्ध भाव उर धारयो । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता पाराधन चितधारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्यु महोत्सव नारी ॥३५॥ समन्तभद्र मुनिवर फे तनमे क्षुधावेदना पाई। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, माराधन चितधारी । ता दुख मे मुनि नेक न डिगियो, चित्यो निजगुरण भाई । तो तुमरे जिय फौन दुःख है, मृत्युमहोत्सव बारी ॥३६॥ ललितघटादिक तीस दोय मुनि, कौशाम्बीतट जानी । नन्दीमे पुनि वहफर टूबे, सो दुख उन नहिं मानी ।। यह उपसग सह्यो घर थिरता, पाराधन चितधारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्युमहोत्सव बारी,॥३७॥ धर्मकोष मुनि चम्पानगरी, वाह्य ध्यान धर ठाडो । एक मास को कर मर्यादा, तृषा दुःख सह गाढी ।। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, पाराधन चितधारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्युमहोत्सव बारी 1100
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यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, पाराधन चितधारी। तो तुमरे जिय फौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सय पारी ॥४४ । अभिनन्दन मुनि माटि पांच सौं, घानि पेलि शु मारे । तो भी धोमुनि समता धारी, पूरव फर्म विचारे । यह उपमर्ग सह्यो घर पिरता, पाराधन चितधारी ।। तो तुमरे जिय फोन दुय है? मृत्युमहोत्सव चारी ॥४॥ चाणक मुनि गोघर के माहीं, मन्द प्रगनि परजाल्यो। श्रीगुरु र समभाव पारके, प्रपनो स्प सम्हाल्यो। यह उपसर्ग सह्यो घर घिरता, पाराधन चितधारी। तो तुमरे जिय कोन दुःप है ? मृत्युमहोत्तम वारी ।।४६॥ सात शतक मुनिधर ने पायो, हमनापुर मे जानो। बलि बाहरणकृत घोर उपद्रय, सो मुनियर नहिं मानी।। यह उपसर्ग सह्मो पर पिरता, पाराधन चितधारी। तो तुमरे निय कौन दुःप है. मृत्युमहोत्सव पारी ।।४७॥ लोहमयी प्राभूपण गढके. ताते कर पहगये । पानो पांडव मुनिके तनमे तो भी नाहि चिगाये । यह उपसर्ग सह्यो घर घिरता, पाराधन चितधारी ।। तो तुमरे जिय फौन दुःख है, मृत्युमहोत्सव बारी ।।४।। और अनेक भये इस जगमे, समता रसके स्वादी। वे ही हमको हो सुखदाता, हरहैं टेव प्रमादी । सम्यक्-दर्शन ज्ञान चरन तप, ये प्राराधन चारो। ये ही मोफू सुख के दाता, इन्हे सदा उर धारो ॥४६॥
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( ३४ ) यो समाधि उरमाही लावो, अपनो हित जो चाहो । लज ममता अरु पाठो मदको, ज्योतिस्वरूपी ध्यावो। जो कोई नित करत पयानो, ग्रामान्तर के काजै । सो भी शकुन विचारै नोके, शुभ के कारण साजै ॥५०॥ मातादिक अरु सर्व कुटुम्ब सौ, नोको शकुन बनावे । हल्दी धनिया पुगी अक्षत, दूब दही फल लावै ॥ एक ग्राम के कारण एते, करै शुभाशुभ सारे । जब परगतिको करत पयानो, तउ नहिं सोच प्यारे ॥५१॥ सर्व कुटुम्ब जब रोवन लागे, तोही रुलावे सारे । ये अपशकुन करै सुन तोको, तू यो क्यो न विचारे । अब परगति की चालत बिरिया, धर्मध्यान उर प्रानो। चारो पाराधन प्राराधों, मोहतनो दुख हानो ॥५२॥ ह नि.शल्य तजो सब दुविधा, मातमराम सुध्यावो । जब परगति को करहु पयानो, परम तत्त्व उर लावो। मोह जालको काट पियारे, अपनो रूप विचारो।। मृत्यु मित्र उपकारी तेरी, यों उर निश्चय धारो । ५३॥ दोहा-मृत्युमहोत्सव पाठको, पढो सुनो बुधिवान ।
सरधा घर नित सुख लहो, सूरचन्द शिवथान । पञ्च उभय चव एक नभ, सनते तो सुखदयाय । पाश्विन श्यामा सप्तमी, कह्यो पाठ मनलाय ॥
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जिनको तुमरी धारणागत है, तिनों यमराज डराना है। यह सुजस तुम्हारे सांचेका, सब गायत पेद पुराना है। श्री. जिसने तुमसे पिलदई कहा, सिमसा तुमने दुख हाना है । अघ छोटा मोटा नाशि तुरत, सुम्प दिया तिन्हें मनमाना है। पावर सो शीतल नोर किया, प्रो घोर घटा रामाना है। भोजन पा जिसको पार नहीं मो किया पुचेर समाना है।श्री.६ चिन्तामणि पारस पल्पतम, सुमदायक ये परपाना है । तब दासग के मय दास यही, हमरे मनमे हराना है। तुम भक्तन को सुर इन्द्रपदी, फिर प्राप्ति पर पाना है । पया बात कहाँ पिस्तार घटे, ये पारी मुक्ति ठिकाना है ।श्री. गति बार धौरासी लाख विप, चिन्मूरत मेरा भटका है । हो दोन-गु करुणानिधान, अपनों न मिटा यह लटका है। अब जोग मिला लियसाधन फा, मब विधन सामने हटका है। प्रब विधन हमारे दूर करो, सुखदेड निराफुन घटका है ।यो. गजप्राहमित उद्धार लिया, ज्यों प्रजन तस्फर तारा है। ज्यों सागर गोहदरप किया, मैना का सट हारा है । ज्यो सूली ते सिंहासन और, बेडी को काट विडारा है। क्यों मेरा संकर दूर करो, प्रभु मोफू पारा तुम्हारा है ।श्री. ज्यो फाटफ टेकत पाय चुना, प्रो सांप सुमन कर द्वारा है। ज्यों खरगकुसुम का माल किया,बालक का जहर उतारा है। ज्यों सेठ विपत प्रकचूर पूर, घर लक्ष्मीमुग्य विस्तारा है। त्यों मेरा सङ्कट दूर करो, प्रभु मोक प्राश तुम्हारा है ।श्री.। यद्यपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है ।
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( ३८ १
चिन्मूरति पाप प्रनन्तगुनी, नित शुद्धदशा शिवाना है। भक्त भी हो, सुखदेत तिन्हें जु सुहाना है । यह शक्ति प्रनित्य तुम्हारी का, या पावे पार पाना है श्री दुख सउन श्री सुखमण्डनका, तुमरा प्रण परम प्रमाना है । वरदान दया यश घोरत का, तिहुँ लोक घुजा फहराना है । फमलाघरजी | कमलाकरजी, करिये कमला कमलाना है। अव मेरोविया प्रलोकि रमापति, रचन बार लगाना है । श्री. हो दोनानाथ मनाय हित उन दीन प्रनाथ पुकारी है उदयागत कर्म विपाक हलाहल, नोह पिया विस्तारी है । व्यो छाप और नदि जीवन की, ततकाल दिया निरवारी है त्यो 'वृन्दावन' यह करें प्रभु प्राज हमरी बारी है। श्री
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भक्तामर स्तोत्र
भक्तामर प्रणत- मौलिमणिप्रभारखामुद्योतक दलित- पारन्तमो-विज्ञान | तम्यप्रणस्य जिन पारयुग युगात-
दालम्बनं भव-वले पततां जनालाई ॥ रः संस्तुतः सकलवाड, मय-तत्व - दोघा-
भूत-बुद्धि-पटुभि. तुर-लोक-नापैः । स्तोत्रजंग स्त्रितय-चित्त-हरेदारे,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ||२||
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बुद्धया विनापि विबुधाचित-पाद-पीठ !
स्तोतुं समुद्यत-मतिविगत-त्रपोऽहं । बाल विहाय जल-सस्थितमिन्दु-बिम्ब----
___ मन्यः क इच्छति जनः सहसा गृहीतुम् ॥३॥ वक्तु गुणान् गुरण-ससुर ! शशांक-कान्तान्,
फरसे क्षमः सुरु-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया । कल्पांत-काल-पवलोद्धत-नक-चक्र,
को वा तरीतुमलमल्बुनिषि भुजाभ्यास ॥४॥ सोऽह तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश !
क स्तक विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रोत्यात्म-पोर्षमबिचार्य मृगी मृगेन्द्रस,
माभ्येति कि. निज-शिशोर परिपालनार्थम् ॥२॥ अल्प-श्रुत श्रुतवत परिहास-घाम,
स्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यस्कोपिला किल मषो मधुरं विरोति,
___ लच्चान-चारु-कलिका-निकरैफ-हेतुः ॥६॥ स्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सनिबद्ध',
पापं क्षणाक्षयमुपैति शरीरभाजाम् । पाक्रांत-लोकमलि-नीलमशेषमाशु,
सूर्या शु-भिन्नमिव शाबरमधकारम् ॥७॥ मत्त्वति नाथ तव संस्तवनं मयेद
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् ।।
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( ४० । तो हरिप्रति नता नलिनी दलेपु,
मुक्ता-फन्वृतिमुपैति ननद-विन्दु' । प्रास्तां तव स्तवनमन्त-समस्त-दोष,
स्वत्तकमाऽपि जगतां दुरितानि हंति । दूरे नहत्नकिरण कुत्ते प्रभव,
पन्नास्रेषु जल जानि दिकातभाजि । नात्यद्भुत भुवन-भूपण । भूननाय ।
भूतंगु रंगभुवि भग्तमभिष्टुवतः । तुल्य भवति भक्तो ननु तेन किं वा,
भूत्याधितं य इह नात्मसम् करोति ॥१॥ हवा भतनिमेष-विगेकनीयं,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चनः । पोत्या पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्यो ।
क्षार जल जन-निरसितु क इच्छेत् ॥११॥ पः शांत-राग-रुचिभि. परमाणुभिस्त्व,
निर्मापितत्रिभुवनक-ललानभूत । तावत एव बलु तेऽप्यरावः पृथिव्यां,
पत्ते समानरूपर न हि रूपमति ॥११॥ वक्त क्व ते तुरन्नोरंग-नेत्रहारि,
नि.मेष-निजित-जगनितयोपमान । बिम्वं कलंकमलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पांडुपलाश-कल्पं ॥१३॥
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( ४१ )
संपूर्ण मंडल- शशांक - कला-कलाप -
शुभ्रागुणास्त्रिभुवन तव लघयन्ति । ये संश्रितास्त्रजगदीश्वर ! नाथमेकं,
कस्तान्निवारयति सचरतो यथेष्टम् ||१४||
चित्रं किमन यदि ते त्रिदशांगनाभि
नत मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पांत काल - मरुता चलिताचलेन,
कि मंदराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ? ।। १५॥ निघू म तिर पर्वाजत-तैल-पूरः,
कृत्स्न जगत्त्रयमिद प्रकटीकरोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलाना,
दीपोsपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ मास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगति ।
नांभोधरोवर-निरुद्ध-महा-प्रभावः,
सूर्यातिशायि महिमासि मुनीन्द्र ! लोके ॥ १७॥ नित्योदय वलित-मोह-महांधकार,
गम्य न राहु-वदनस्य न वारिदानां । विभ्राजते तव मुखावजमनल्पकांति,
विद्योतयज्जगदपूर्व- शशांक - विम्बम् ॥१८॥
कि शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा ? युष्मन्मुखेंदु दलितेषु तमःसु नाथ ।
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निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके,
कार्य कियज्जलघरैल-भार-नम्रः ॥१६॥ ज्ञान यथा त्वयि विभाति कृतावकाश,
नैव तथा हरि-हरादिषु नायकेषु । तेजः स्फुरन्मरिणषु याति यथा महत्त्व.
नैव तु काच-शकले फिरणाकुलेऽपि ॥२०॥ मन्ये वरं हरि-हरादय एव वृष्टा,
हटेषु येषु हदय स्वयि तोषमेति । कि पीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः,
फश्चिम्मनो हरति नाथ | भवातरेऽपि ॥२१॥ रत्रीणां शतानि शतशो जनयति पुत्रान्,
नाम्या सुत त्वदुपम जननी प्रसूता । सर्या दिशो दधति भानि सहनश्मि,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदशुजालम् ।।२२।। त्वामामनप्ति मुनयः परम पुमास
मादित्य-परर्णममल तमसः पुरस्तात् । स्वामेय सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु ,
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र | पयाः ॥२३॥ स्वामव्यय विभुचित्यममरयमाघ ,
ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनगो तुम् । योगीश्वर विदित-योगमनेकमेक,
ज्ञान-स्वस्पममल प्रवदन्ति संतः ॥२४॥
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( २३ ) बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित - बुद्धि-बोधात्,
त्व शङ्करोऽसि भुवनत्रय- शङ्करत्वात् । धाताऽसि पोर ! शिव-मागं-विधेविधानाद,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ||२५|| तुभ्यं नमस्त्रिभुवना सिहराय नाथ |
तुभ्य नमः क्षिति-तलामल - भूषरणाय || तुभ्य नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिनभवोदधि - शोषरणाय । २६ ॥ को विस्मयोsa यदि नाम गुणैरशेष-
स्त्वं सनितो निरवकाशतया मुनीश ! दोष रुपात्तविविघालय - जाल-गर्वैः,
स्वनतिरेsपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ||२७|| उच्चैरशोक तरु- सश्रितमुन्मयूख
माभातिरूपममलं भवतो नितांतम् ।
स्पष्टोल्लसत्किररणमस्त-तमो-वितान,
बिम्बं रवेरिय पयोधर पार्श्ववति ॥२८॥ सिहासने मरिण मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपुः कनकावत्रातम् । बिम्बं वियद्विलसवलता-वितानं,
सुङ्गोदयात्रिशिरसीव सहस्र - रश्मेः ॥ २६॥
कुन्दावदात-चल-चामर-चारु - शोभं,
विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कान्तं ।
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( ४८ )
उद्यच्णांक शुचि-निर्भर-वारि-धार
Cel
मुच्चैतट मुगिरेरिव शातकौम्भम् ||३०||
छत्र-त्रय नव विभाति शशककात --
मुच्चैः स्थितं स्थगित- भानु-कर प्रताप मुक्ता फन प्रकर- जान विवृद्ध-शोभ, प्रत्यापत्त्रिजगत
परमेश्वरत्व 112811
भोर तार-य-पूरित-दिग्विभाग
स्त्रैलोक्य-लोक- शुभ-सगम-भूतिदक्षः । सद्धमराज जय घोषण-घोषकः सन्,
से दुन्दुभिध्वनति ते यास प्रवादी ||३२|| मदार- सुन्दर - नमेरु- मुपारिजात --
सतानकादि - कुमुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा | गंधोद - विदु- शुभ -मद- मरुत्प्रपाता,
दिव्यादिवः पतिते वचसा ततिर्वा ॥ ३३॥ शुम्भत्प्रभा- वलयभूरि-विभा विभोस्ते,
लोक-त्रयैतिमता द्युतिमाक्षिपति । प्रोद्यद्दिवाकर - निरतर - भूरि- सख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्या म् । ३४ ।। स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विभागंष्टः,
सद्धर्म-तत्व-कथनेक-पट स्त्रिलोक्या. ।
दिव्य-ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व
भाषा - स्वभाव - परिरणाम - गुणैः प्रयोज्यः || ३५॥
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| .. उन्निद्र-हेम-नव-पडन-पुज-फान्ती,
पर्युल्लसनग्य-मयूख-शिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यय जिनेन्म ! धत्तः,
पमानि तर विवुधाः परिपाल्पयन्ति ॥३६॥ इत्थं यया तव विभूतिभूजिनेन्द्र !
धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य । याराभा दिनकृन. प्रहतांधफारा,
ताक कुतो ग्रह गणस्य विकासिनोऽपि ॥३७॥ रच्योतन्मदाविल-विलोल-कपोल-मूल
मत्त भ्रमद्-भ्रमर नाद-विवृद्ध-फोपं । ऐरावतानमिभमुढतमापतन्तम्,
एप्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानां ।३८॥ भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्ज्यल-शोरिणतात
मुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमि-भागः । वद्ध-क्रमः क्रम-गत हरिणाधिपोऽपि,
नाकामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥३६॥ कल्पांत-काल-पवनोद्धत वह्नि-कल्प,
दावानल ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंग । विश्व जिघित्सुमिव सम्मुखमापतन्तं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जल शमयत्यशेष ॥४०॥ रक्तेक्षण समद-कोकिल-कठ-नील,
क्रोधोद्धतं फरिगतमुत्फणमापतन्तं ।
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( ४६ ) प्राकामति क्रम-युगेरण निरस्तशक
स्त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुसः ॥४१॥ वलगत्तु रग-गज-गनित-भीमनाद
माजो बल वलवतामपि भूपतीना । उद्यदिवाकर-मयूख-शिखापविद्ध ,
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ।।४२॥ कुन्तान-भिन्न-गज-शोरिणत-वारिवाह
__ वेगावतार तरणातुर-योध-भीमे । युद्धजय विजित-दुर्जय-जेय पक्षा
स्त्वत्पाद-पद्धज-वनायिरगो लभन्ते ॥४॥ अमोनिवौ क्षुभित-भीषणनक्र-चक्र
पाठीन-पीठभय-दोल्वरण-वाडवाग्नौ । रगत्तरग-शिखर-स्थित-यान-पात्रा
स्वास विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ।।४४।। उद्भूत-भीपरण-जलोदर-भार-भुग्ना,
शोच्या दशामुपगताश्च्युत-जीविताशाः । त्वत्पाद पङ्कज-रजोऽमृत-दिग्ध-देहा,
मा भवन्ति मकरध्वज-तुल्यरूपाः ।।४५।। पापाद-कठमरु-शृङ्खल-वेष्टिताना,
गाढं वृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जघाः । त्वन्नाम-मत्रमनिश मनुजा. स्मरन्त.,
सद्यः स्वय विगत-बन्ध-भया भवन्ति ।
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मतद्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि---
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्वं । तस्याशु नाशमुपयाति भय भियेव,
यस्तावकं स्तमिम मतिमानघीते ॥४७॥ स्तोयस तव जिनेन्द्र ! गुरनिवद्धा,
भक्त्या मया चिर-वरण विचित्र-पुष्पां । धत्ते जनो यह फंठ-गतामजसं,
त मानतुडमवशा समर्पति लक्ष्मीः ।।४।। इति श्रीमानतुजाचार्य विरचितमाविनायस्तोम (माकागर स्तोत्र)
मोक्ष-शास्त्र मोक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृता ।
ज्ञातार विश्वतत्त्वाना वन्दे तद्गुरपलव्धये ।। काल्यं द्रव्य-पटक नव-पद-सहित जीव-पटकाय-लेश्याः । पञ्चान्ये वास्तिफाया वत-समिति-गति-ज्ञान-चारित्र मेवा।। इत्येतन्मोक्षमूल त्रिभुवनमाहितः प्रोक्तमहद्भिरीशः । प्रत्येति पदधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धष्टिः ।१।
सिद्ध जयसिद्ध चउविहाराहणाफलं पत्ते ।
वन्दिता अरहन्ते बोच्छ पाराहणा कमसो ॥२॥ उज्झोवणमुज्झवरणं रिणवहणं साहूणं च पिच्छरणं । दंसरण-रसारण-चरितं तवारणमाराहरणा भरिया ॥३॥
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( ४८ ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रारिण मोक्षमार्गः॥१। तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवा-जीवासवबघ-सवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वं ।।४।। नामस्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यास ॥॥ प्रमारण-नयैरधिगम ॥६॥ निर्देशस्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थितिविधानत. ॥७॥ सत्सख्याक्षेत्र स्पर्शन-कालांतर भावाल्पबहुत्वैश्च ।। ८ ।। मतिश्र तावधिमन पर्यय-केवलानि ज्ञान ।।६।। तत्प्रमाणे ॥१०।। पाद्य परोक्ष ।।११।। प्रत्यक्षमन्यत् ॥१२॥ मतिः स्मृतिः सज्ञा चिताभिनिबोध इत्यनान्तर ।।१३।। तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं ॥ १४ ॥ अवग्रहहावायधारणाः ।१५। बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्र वारणासेतराणा ।१६। प्रथस्य ।।१७।। व्यञ्जनस्थावग्रहः ॥१८ ॥न चक्षुरनिन्द्रियाभ्या ॥१६॥ श्रुत मतिपूव द्वयनकेद्वादशभेद ।। २० ।। भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकारणा ।।२१॥ क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्प शेषाणा ॥२२॥ ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥२३॥ विशुद्धयतिपाताभ्या तद्विशेषः ।।२४।। विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन पर्यययोः ॥२५॥ मतिश्र तयो निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेष ।।२६।। रूपिष्ववधेः ॥२५० तदनन्त भागे मनःपर्ययस्य ॥२८॥ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवल । ॥२६॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्म्यः ॥३: मतिश्रु तावषयो विपर्यश्च ।।३१॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छ पलब्धेरुन्मत्तवत् ।। ३२ ।। नंगमसग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशा ? समभिरूढवभूता नयाः ॥३३॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे प्रथमोऽध्याय ॥२॥
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( ४
)
प्रौपशमिकक्षायिको भायो मिश्राव जीवस्य स्वतत्त्व. मौदयिकपारिणामिको च । १ । द्विनवाष्टादशैकविंशतिनिभेदा यथाक्रमं । २ । सम्यक्त्ववारिने । ३ । ज्ञानदर्शनवानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ।४।शानाज्ञानदर्शनसम्पयरचस्त्रिविपञ्चमेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंघमासयमाश्च ।५ गतिकवायलिमिय्यादर्शनाजानासंपतासिद्धलेश्याश्चतुश्मतुस्थ्येककैकपडभेदाः । ६ । जीवमध्याभव्यत्वानि च।। उपयोगो लक्षणं । ८ । सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः । ६ । संसारिणो मुक्ताश्च । १० । समनस्काऽमनस्काः १११ ससारिणस्त्रस-- स्थावराः । १२ । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्पावरा: ।१३। दोन्द्रियादयस्वसाः । १४ । पंचेन्द्रियाणि । १५ । द्विविधानि । १६ । निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं । १७ । लव्ध्युपयोगी भावेन्द्रियं ।१८। स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षुःधोत्राणि ॥१९॥ स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-शचास्तवः ॥२०॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य १२१॥ वनस्पत्यान्तानामेकम् ।२२। कृमिपोलिका श्रमर मनुष्यादीनामेकक वृद्धानि । २३ । सजिनः नस्काः ३४. विग्रह गती कम-योगः । २५ । अनुप्रेरिण। २६ । प्रविग्रहा जीवस्य ।२७ । विग्रहवती व संसा
प्राक् चतुर्व्यः । १८ । एकसमयाऽविग्रहा। २६ । -~ो त्रीवानाहारकः । ३० । समूच्र्छन-गर्भापपावा जन्म
। सचित्त.शीतसंवृताः सेतरा मिपाश्चकशस्तधोनयः ... । जरायुजारजपोताना गर्भः । ३३ । देवनारकाणा
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( ५० ) मुषपादः । ३४ । शेषाणा सम्मूर्च्छनं । ३५ । प्रौदारिकवैक्रियिकाहारक तेजस-कार्मरणानि शरीराणि । ३६ । पर परं सूक्ष्म । ३७ । प्रदेशतोऽसंख्येयगुण प्राक् तेजसात् ।२८। अनन्त-गुणे परे । ३९ । अप्रतीपाते । ४० । अनादि सबंधे च । ४१ । सर्वस्य । ४२ । तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्य । ४३ । निरुपभोगमन्त्यम् । ४४ । गर्भ सम्मूर्छनजमाद्यम् । ४५ । औपपादिक वैक्रियिकम् । ४६ । लब्धि प्रत्यय च । ४७ । तैजसमपि । ४८ । शुभं विशुद्धमव्याधाति चाहारक प्रमत्तसयतस्यैव । ४६ । नारक. समूच्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ न देवाः । ५१। शेषास्त्रिवेदाः १५२१ औपपादिक-चरमोत्तमदेहाऽसख्येय वर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५१॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्याय ॥२॥
रत्न-शर्कराबालुका.पडू-धूम-तमो.महातमः-प्रभा-भूमया धनांबुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः । १। तासु त्रिशत्स ञ्चविंशति पञ्चदश-दश-त्रि-पञ्चोनक-नरक-शतसहस्राणिपज चैव यथाक्रम।२। नारका नित्याऽशुभतर-लेश्यापरिणाम-देहवेदना-विक्रियाः।। परस्परोवोरित दुःखाः ।। संक्लिष्टाऽसुरो-दीरित दुःखाश्च प्राक चतुर्थ्याः ।। तेष्वेक त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिशत्सागरोपमा सत्याना परा स्थितिः । ६। जंबूद्वीप.लवरपोवादयः शुभनामानी द्वीपसमुद्राः १७॥ द्विद्धिविष्कभाः पूर्व.पूर्वपरिक्षेपिरणो वलया
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कृतयः ।। तन्मध्ये मेरु नाभिवृत्ती योजन-शतसहस्र. विष्कम्भो जम्बूदीपः । ९ । भरत हैमवत हरि-विदेह रम्यक. हैरण्यवतरावतवर्षाः क्षेत्राणि ।१०। तद्विभाजिनः पूपिरायता हिमवन्महाहिमवग्निषध नील रुक्मि-शिखरिणो वर्ष घरपर्वताः । ११ । हेमार्जुन तपनीय-वडूयं रजत हेममयाः । १२ । मरिणविचित्रपार्श उपरि मूले घ तुल्य विस्तारा: ।१३। पद्म महापद्म तिगिछ केशरि महापुण्डरीक पुण्डरीकाः हदास्तेषामुपरि । १४ । प्रथमो योजन सहलायामस्तदर्द विष्कम्भो हवः । १५ । दशयोननावगाहः । १६ । सम्मध्ये योजनं पुष्करम् । १७॥ तदिगुण-द्विगुणाः हवाः पुष्कराणि च । १८ । सनिवासिन्यो देव्यः भी हो.धति कीति-द्धिलक्ष्म्यः पल्पोपमस्थितयः ससामानिफ-परिषत्काः । १६ । गङ्गा सिंघुरोहिद्रोहितास्या-हरिद्धारकान्ता सीता-सीतोदा. नारी-नरकान्ता-सुवर्ण-रूप्यकूला रक्ता-रक्तोदाः सरितस्तमध्यगाः ।२०। द्वयोई योः पूर्वाः पूर्वगाः । २१ । शेषास्त्व परगा ।२२। चतुर्दश-नदीसहस्र-परिवृता गगा-सिन्ध्यादयो नघः ।२३। भरतः षड्विशति-पञ्चयोजनशत-विस्तारः षट् चैकोनविंशति भागा योजनस्य ।२४। तद्विगुण-द्विगुरगविस्तारा वर्षधर-वर्षा विदेहान्ताः । २५ । उत्तरा दक्षिणतुल्याः ।२६। भरतैरावतयोवृद्धि-हासो षट्समयाभ्यामुत्सपिण्यवसपिरणीभ्याम् । २७ । ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः १२८। एक-दि-नि-पल्पोपमस्थितयो हैमबतक हारिधर्षक.
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( ५२ )
दैव कुरवका । २६ । तथोत्तरा । ३० । विदेहेषु सत्येय - फाला' । ३१ । भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवति शतभाग । ३२ । द्विर्धातकीखण्डे । ३३ । पुष्करार्द्ध च |३४| प्रा मानुषोत्तरान्मनुप्या ।३५। श्रार्या म्लेच्छाश्च । ३७ । • नृस्थिती परावरे त्रिपत्योपमान्तर्मुहूर्ते । ३८ । तिर्यग्योनिजानां च ॥३६॥
तितत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे तृतीयोऽध्याय ॥३॥
देवाश्चतुरिकाया. |१| श्रादितस्त्रिषु पोतान्तलेश्या |२| दशाष्ट- पञ्च- द्वादशसवित्पा. कल्पोपपन्न - पर्यन्ता. । ३ । इन्द्र - सामानिक - त्रास्त्रिश - पारिषदात्मरक्ष लोकपालानोकप्रकीरका भियोग्य - किल्विषिकाश्चैकश. । ४ । त्रायस्त्रशलोकपालवर्ज्या व्यन्तरज्योतिष्का । ५ । पूर्वयोन्द्राः ॥६॥ काय प्रवीचारा. - प्रा. ऐशानात् । ७। शेषाः स्वर्श-रूपशब्द - मनःप्रवीचाराः । ५ । परेऽप्रवीचाराः भवनवासिनोऽसुर-नागविद्युत्सुपरर्माजि-वात- स्तनितो -सत्रद्वीप - दिवकुमारा. १०१ व्यन्तरा किन्नर- किपुरुष-महोरग गन्धर्व-यक्ष- राक्षस- भूत पिशाचाः । ११ । - ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रह-नक्षत्र - प्रकोरगंकतारकाइत्र । १२ । मेरु-अबक्षिरणा नित्य गतयो नृ-लोके । १३ । तत्कृतः काल विभाग. ||१४|| बहिरवस्थिताः | १५ | वैमानिकाः । १६ । कल्पो पपन्नाः कल्पातीताश्च । १७ । उपर्युपरि । १८ । सौषमे
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( ५३ }
शान सानत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर-लान्तव- कापिष्ठ-शुक्रमहाशुक्र - शतार - सहस्र । रेष्वनित- प्रारणतयोरारणाच्युतशे - नव संवेधकेषु विजय वैजयन्त जयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च । १६। स्थिति प्रभाव-सुख द्युति लेश्या विशुद्धीन्द्रियायधिविषयतोऽधिकाः | २० | गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो होना: | २१ | पोत-पद्म शुक्ल लेश्या द्वि-त्रि शेषेषु । २२ । प्रा ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः | २३ | ब्रह्म- लोकालया लोकान्तिकाः | २४| सारस्वतावित्य - वरुरण - गर्दतोय- तुषिताव्याबाधारिष्टाश्व | २५ | विजयादिषु द्वि-चरमाः । २६ । प्रौषपा बिक- मनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः । २७ । स्थितिरसुर-नाग सुपर्ण - द्वीप - शेषारणां सागरोपम- त्रिपल्योपमाधं- होममिताः |२८| सौधर्मेशानयोः सागरोपमेऽधिके । २६। सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त |३०| त्रि-सप्त-नवैकादश त्रयोदश-पचदशभिरधिकानि तु । ३१ । प्रारणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन ममसु #dehy विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च । ३२ । अपरा पल्यो पममधिकम् । ३३ । परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तराः । ३४ । नारकारणां च द्वितीयादिषु । ३५ । दश वर्ष सहस्राणि प्रथमा याम् । ३६ । भवनेषु च । ३७ । व्यन्तराणा च । ३८ । परापत्योपममधिकम् । ३६ । ज्योतिषकारणा च । ४० । सरष्ट भागोऽपरा ।४१। लोकान्तिकानामष्टो सागरोपमारिण सर्वेषाम् ॥४२॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे चतुर्थोऽध्याय ॥४॥
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। ५४ ) अजीव-काया धर्माधर्माकाश-पुद्गलाः। १ । प्रध्यारिण ।२। जीवाश्च ।३। नित्यावस्थितान्यरूपाणि । ४ । रूपिणः पुद्गलाः । ५। प्रा आकाशादेकद्रव्याणि ।६। निष्क्रियाणि च । ७ । अलख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवामाम् ।। प्राकाशस्याऽनन्ताः । । संख्येयासत्येयाश्च पुद्गलानाम् । १० । मारणोः। ११ । लोकाकाशेऽवगाहा । १२ । धर्माधर्मयोः कृरस्ने । १३ । एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् । १४ । प्रसस्येयभागादिषु जीवानाम् । १५ । प्रदेश-संहार विसन्यिा प्रदीपवत् । १६ । गति-स्थित्युपग्रहों धर्माधर्मयोल्पकारः । १७ । अाकाशस्यावगाहः । १८ । शरीरवाङ्मन:-प्रारणापानाः पुद्गलानाम् । १६ । सुखदुःख-जीवित मरणोपग्रहाश्च । २० । परस्परोपग्रहो जीवा नाम ।२१। वर्तना-परिणाम-झिया-परवापरत्वे च कालस्य । २२ । स्पर्श रस गन्ध वर्णवन्तः पुद्गलाः । २३ । शब्द-बध सौरम्य स्थौल्य सस्थान मेव-तमश्च्छायातपोद्योतवन्तश्च । २४ । प्रणवः स्कन्धाश्च १२५ । भेद-संघातेभ्यः उत्पदान्ते ।२६। भेदावणुः । २७ । भेद-सघाताभ्या चाक्षुषः । २८ । सद्-द्रव्य लक्षणम् । २६ । उत्पाव-व्यय ध्रौव्य' युक्त सत् । ३० । तद्धावाव्ययं नित्यम् । ३१ । प्रपितान. पितसिद्ध । ३२ । स्निग्ध लक्षत्वावन्धः ।३३। न जघन्य गुणानाम् । ३४ । गुरणसाम्ये सहशानाम् ।३५ । द्वयधिकादि गुरणानां तु ।३६। बन्धेऽषिको पारिणामिको च
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। ३७ । गुरावयबद् पम् । काल । सोनससमयः । . यापया निमुखा गुणाः । ४१ । सजाय परिणाम ! २
Traileममे मोगा मोम
काप-बार मनः रम पोग.।। समारः।२। शुभः पुण्यस्माशुभ. पापस्य ।। सकपापारपाययोः साम्राfaralyषयोfre-पास-विपापन. पतुः-पंस पंचविगति मम्मा: पूय मेगा: ।५ । लो. माव-
मात भावापिकरणोपं विवेम्परत दिगेपः ॥६॥ নিয়ে মাঞ্জীয়া। ৬। সম-
সামমে योग-कृत-कारितानुमत-पाय-विगेमिस्त्रnिginn: १८ । निमंतना-निक्षेप-योग-निस सिद्धि-ftमेरा: परम् सप्ररोग निव-मारमर्यान्सरावासा. नोपघाता मान-दर्शनावरणपोः १. दुस-गोक-सापापारन-वर-परिरमायाम-परोभय-मानायसर वेचाय । ११ । भूतबरमनुकम्पाराम-रागमयमावियोगः कति: सौमिति सदस्य । १२ । केबाल-धुत-संघ-पम-मेगापवारो नमोहरम । १३ । पापोरयातीवपरिणामश्वारियमोहस्य । १४ बारम्भ परिपहत्वं नारकस्यायुषः । १५ । माया तयंग्योनस्य । १६ । अल्पारम-परिहत्वं मानुपस्य । १७ । स्वभाव मावं .१ | निशीलअतत्वं च सर्वेषाम् । १६ । सरागसयम-सयमामयमायाम
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( ५६ )
निर्जरा बालतपासि देवस्य । २० । सम्यक्त्वं च । २१ योगवक्ता विसवादनं चाशुभस्य नास्तः | २२ | तद्विपरीतं शुभस्य | २३ | दर्शन विशुद्धिविनयसम्पन्नता-शील व्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग संवेगौ शक्तितस्त्याग-तपसी साधु-समाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्य - बहुश्रुत प्रवचन- भक्तिरावश्यका परिहारिणर्मार्गप्रभावना प्रवचन- वत्सलत्वमिति तीर्थ करस्य । २४ । परात्म- निदा प्रशसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नोचंगोंत्रस्य । २५ । तद्विपर्ययो नोचैर्वृत्यतुमेको चोत्तरस्य । २६ । विघ्नकररणमन्तरायस्य २७
॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे षष्ठोऽध्याय ॥६॥ हिसानृत- स्तेया ब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।१ । देश- सर्वतोऽणु - महती । २ । तत्स्थैर्यार्थ - भावना: पंच-पंच । ३ । वाङ् मनोगुप्तीर्यादान निक्षेपण - समित्यालोकित-पानभोजनानि पंच । ४ । कोष-लोभ- भीरत्व- हास्य - प्रत्याख्यातान्यनुवीचि - भाषणं च पंच शून्यागार - विमोचितावास-परोपरोधशकररण-भक्ष्यशुद्धि-सबमऽिविसवादा: पंच १६ स्त्रीरागकथाश्रवण-तन्मनोहरांगनिरीक्षण - पूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरस-स्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच । ७ । मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय-विषय-राग-द्वेष-वर्जनानि पंच ।५। हिंसादिविहामुत्रापायावद्यदर्शनम् । दुःखमेव वा । १० । मैत्री प्रमोद कारुण्य- माध्यस्थ्यानि च सत्त्व-गुरणाधिक- क्लिश्यमानाऽविनयेषु |११| जगत्काय-त्वभावौ वा सवेग-वैराग्या
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(५७ ) धम् । १२ । प्रमत्तयोगात्प्राण व्यपरोपणं हिंसा । १३ । प्रसदभिधानमन्तम् ।१४। प्रवत्तादानं स्तेयम् । १५ । मधुनमब्रह्म । १६ । मूर्खा परिग्रहः । १७ । निःशल्यो प्रती । १८ । अगार्यनगाराश्च । १६ । अणुक्तोऽगारी । २० । दिग्देशानयंदण्ड विरति-सामायिक प्रोषधोपवासोप. भोग-परिभोग-परिमारणातिथि-सविभाग-प्रत सम्पतरचा२१॥ मारणान्तिको सल्लेवना जोषिता । २२ । शा-कांक्षाविचिरसायट-प्रशंमा-संस्तवाः सम्पारण्टेरतीमागः ॥२३॥ वत-शोलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् । २४॥ बन्ध-बध छेदा. तिभारारोपणानपान-निशेधाः । २५ । मिष्योपदेश रहो. म्यारयान-कूटलेखक्रिया-यासापहार-साकारमन्त्र नेदाः ॥२६॥ स्नप्रयोग-तदादतावान-विरुद्धराज्यातिकम-हीमाधिकमानो. ग्मान-प्रतिरूपकव्यवहाराः । २७: परविबाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडा--कामतीवाभिनिवेशाः । २८ । क्षेत्रवास्तु-हिरण्यसुवर्ण-धनषाग्य-दासीदास-कुप्पा प्रमाणातिकमाः । २६ । अघिस्तियंगतिकम-क्षेत्रवृद्धि स्मृत्यरतराधानानि । ३० । प्रानयन-प्रेष्यप्रयोग-सम्ब-रूपानुपात-पुद्गलक्षेपाः । ३१ । कन्दर्प-कोत्कुष्य मोलासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ।३२ योग-दुःप्रणिधाना. नावर-स्मृत्यनुपस्थानानि ॥३३॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोस. गदान-संस्तरोपक्रमणानाबार-स्मृत्यनुपस्थानानि।३४ामचित्तसम्बन्ध सम्मिश्राभिषव-दुरपयाहाराः ॥३५॥ सचित्त-निक्षेपा
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( ५८ ) विधान-परव्यपवेश-मात्सर्य-कालातिकमा ३६। जीवित. मरणाशमा-मित्रानुगग-सुखानुवन्ध निदानानि । ३७ । अनु. प्रहार्थ स्वस्यातिसर्गों वानम् । ३८ । विधि-द्रव्य-दातृ-पात्र. विशेषात्तविशेषः । ३६ ।
इति तत्त्वार्याधिगमे मोक्षमा सप्तमोध्याय ॥७॥ मिथ्यावर्शनाविरति-प्रमाद-कपाय-योगा बन्धहेतवः ।। सकपायवाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः १२। प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशास्तद्विषयः । ३ । प्राद्योजान. दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीयायुर्नाम गोप्रान्तराया ।४ पत्र नव-द्वचण्टाविंशति-चतुर्विचत्वारिंशत्-द्वि-पञ्च-भवो यथा- , फमम् ।५। मति श्रुनावधि-मनःपर्यय केवलानाम् ।६। चक्षुर. चक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला. स्त्यानगृद्धयश्च ।७। सक्स धे।। दर्शन-चारित्र-मोहनीया. फषायाकपायवेवनीयाख्यास्त्रि-द्वि-नव-पोडशभेदाः सम्यक्त्व. मिथ्यात्व-तदुभयान्यकषायकषायौ हास्य-रत्यरतिशोक-भयजुगुप्सा-स्त्री पुन्नपु सफ-वेदाः अनन्तानुबन्ध्यप्रत्यारयान-प्रत्याख्यान-सज्वलन विकल्पाश्चैकशःक्रोष-मान-माया लोभाः ।। नारक-तैयंग्योम मानुषदेवानि १० गति नाति शरीराङ्गोपाङ्ग निर्माण-बन्धन सघात-सस्थान-सहनन-स्पर्श-रस-गन्धवर्णानुपू गुरुलघूपधात-परघातातपो-द्योतोच्छवासविहायोगतयःप्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्ति-स्थिराधेय-यशः कीति-सेतराणि तीर्थकरत्व च ॥ ११ ॥ उच्चनी
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( ५६ ]
वैश्च । १२ दान-लाभ-भोगोपभोग- वीर्याणाम् । १३ । श्रावित स्ति सृरणामन्तरायस्य च त्रिशरसागरोपम- कोटीयोदयः परा स्थितिः । १४ । सप्ततिमहनीयस्य । १५ । विंशतिमम - गोत्रयोः | १६ | प्रयस्त्रिशसागरोपमायायुषः | १७ | श्रपरा द्वादश-मुहूर्ता बेवनीयस्य । १८ । नाम गोयनोरष्टी ११६। शेषाणामन्तर्मुहूर्ता २० विपाकोऽनुभवः । २१ । स यथानाम | २२| ततश्व निर्जरा | २३ | नाम - प्रत्ययाः सर्वतो योग-विशेषात् सूक्ष्मंक क्षेत्रावगाह-स्थिताः सर्वात्म-प्रदे शेष्यनस्तानस्त- प्रदेशाः । २४ । स य शुभायुर्नाम गोत्रारिण पुण्यम् । २५। अतोऽन्यत्पापम् । २६ ।
इति नत्वार्थापगमे गोक्षनास्थेञ्टमोड याय ॥ ८ ॥ श्राव-निरोधः संवरः । १ । स गुप्ति समिति-धर्मानुप्रेक्षा- परीपहजय चारित्रः । २ । तपसा निर्जरा व । ३ । सम्यग्योग-निग्रहो गुप्तिः । ४ । ईर्याभाषैपरादाननिक्षेपोसर्गाः समितयः || उत्तम क्षमा-माववार्जव - शौच-सत्यसयम-तपस्त्यागादिभ्य ब्रह्मचर्यारिण धर्मः । ६ । प्रतिस्वाश र संसारकत्वान्यत्वा शुरुयासव संवर निर्जरा-लोक बोधि दुर्लभ - धर्मस्वास्था-तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा: ७ मार्गाच्यवननिर्जरा परिषोदव्याः परोवहाः । क्षुत्पिपासा-शीतोष्णवंशमशक नाग्न्यारति स्त्री. चर्या. निषद्या शय्याक्रोश-वध-याचना लाभ- रोग-तृरणस्पर्शमल - सहकार पुरस्कार-प्रशाऽज्ञानादर्शनानि || सूक्ष्मसाम्पराय-छद्मस्थ वीतरागयोश्चतुवंश | १० |
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। ६० ) एकादश जिने । ११ । बादरसाम्पराये सर्वे ॥१२॥ ज्ञानाव. रणे प्रज्ञ ज्ञाने ।१३। दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ।१४। चारित्र-मोहे नाग्न्यारति-स्त्री-निपद्याक्रोश-याचना-सत्कारपुरस्काराः । १५ । वेदनीये शेषाः । १६ । एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नकोनविंशतेः ।१७। सामायिक-छेदोपस्थापनापरिहारिविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यातमिति चारित्रम् ।१८ अनशनावमौवर्य-वृत्तिपरि सख्यान-रसपरित्याग-विविक्तशय्यासन-कायक्लेशा बाह्य तपः ।१६। प्रायश्चित-विनय-वैयावृत्यस्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तर । २० । नव-चतुर्दश-पंच-द्विभेद यथाक्रमं प्राध्यानात् । २१ । आलोचन-प्रतिक्रमणतदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग तपश्च्छेद-परिहारोपस्थापनाः।२२।ज्ञानदर्शन चारित्रोपचाराः ।२३। प्राचार्योपाध्याय-तपस्थि-शैक्षग्लान-गण-कुल-सङ्घ-साधु-मनोज्ञानाम् ।२४। वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय-धर्मोपदेशः ।२५। बाह्याभ्यन्तरोपध्योः । २६ । उत्तमसहननस्यैकाग्रचिन्ता-निरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥ प्रातरौद्र-धर्म्य-शुक्लानि । २८ । परे मोक्ष-हेतू । २६ । पार्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वाहारः । ३० । विपरीत मनोजस्य । ३१ । वेदनायाश्च । ३२ । निदान च ।३३। तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसयतानाम् ॥३४॥ हिंसानत-स्तेय-विषयसरक्षणेभ्यो रौद्रमविरत-देशविरतयोः । ३५ । आज्ञापाय-विपाक-सस्थान-विचयाय षम्यम् । ३६ । शुक्ले चाये पूर्वविवः । ३७ । परे केवलिनः । ३८ । पृथ
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। ६१ ) त्वकत्ववितर्क-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति---व्युपरतक्रियानिवर्तीति । ३६ । श्येकयोगकाययोगानाम् । ४०। एकाश्रये सवितर्क-वीचारे पूर्वे । ४१ । प्रवीचार द्वितीयम् । ४२ । वितर्कः श्रुतम् । ४३ । वीचारोऽर्थव्यजन-योग-संक्रान्तिः । ४४। सम्यग्दृष्टि-पावक-विरतानन्तवियोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपक-क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसख्येयगुण-निर्जराः । ४५ । पुलाक-वकुश-कुशील-निर्ग्रन्थस्नातकाः निर्ग्रन्थाः ।४६। सयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थ-सिङ्गलेश्योपपाव-स्थान-विकल्पतः साध्याः । ४७ ।
इति तत्त्वार्याधिगमे मोद शास्त्रे नवमोऽध्याय ।। मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च-केवलम् ॥१॥ बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्म-विप्रमोक्षो मोक्षः।२। प्रौपशमिकादि-भव्यत्वानां च । ३ । अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्यः । ४ । तननन्तरमध्वं गच्छत्यालोकान्तात् । ५। पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेवात्तथागतिपरिसामाच्च । ६ । प्राविद्धकुलालचक्रवद्-व्यपगतलेपालाबूवदेरण्डबोजवदग्निशिखावच्च । ७ । धर्मास्तिकायाभावात् ।। क्षेत्र-काल-गति-लिङ्ग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधित-- ज्ञानावगाहनान्तर-संख्याल्पबहुत्वतः साध्याः । । ।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्यायः ॥१०॥ । कोटिशतं द्वादश चैव कोट्यो लक्षाण्यशीतिस्त्र्यधिकानि चैव ।
पञ्चाशदष्टौ च सहस्रसंख्यामेतश्रुतं पञ्चपदं नमामि ॥१॥ पिरहत-भासियत्थं गरगहरदेवेहि गथिय सम्ध। .
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( ६२ ) पणमामि-भत्ति-जुत्तो, सुदणाणमहोवय सिरसा ॥२॥ अक्षर-मात्र-पद-स्वर-होनं व्यञ्जन-संघि.विविजत-रेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्य को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र । दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषित मुनिपुङ्गवैः । ४॥ तत्त्वार्थसूत्रकरिं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् । बन्दे गरणीन्द्र-संजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥ ५॥ जं सक्का त कोरड, ज पुण सक्का तहेब तहहरणं । सद्दहमारगो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ॥ ६ ॥ तवयररणं वयधरण, सञ्जमसररण च जीवदयाकरणम् । अते समाहिमरण, चउविह दुक्ख रिणवारेई ।। ७ ।। इति तत्त्वार्थस्त्रापरनाम तत्त्वार्धाधिगममोनशास्त्रम् समाप्नम् ।
भक्तामर स्तोत्र भाषा
(स्व०प० हेमराजजी कृत) दोहा-आदि पुरुष आदीश जिन, आदि सुविधिकरतार । घरमधुरन्धर परमगुरु, नमो प्रादि अवतार ॥१॥
चौपई १५ मात्रा सुर-नत-मुकुट रतन छवि करे, अंतरपापतिमिर सव हरें । जिन पद बन्दों मनवचकाय,भवजल पतित उघरन सहाय।११ श्रुतपारग इन्द्रादिकदेव, जाकी युति कोनो कर सेव । शब्दमनोहर प्ररथ विशाल,तिस प्रभु की वरनो गुणमाल ।। बिबुध-वद्यपद मैं मतिहीन, हो निलज्ज युति-मनसा कीन । जल-प्रतिविम्ब वुद्ध को गहै, शशिमण्डल नालक ही चहै ।३।
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गुणसमुद्र तुम गुरण प्रविकार, कहत न सुरगुरु पावं पार । प्रलयपवन उद्धत जलजन्तु, जलघि तिरं को भुज-बलवन्तु।४। सो मैं शक्तिहीन युति करू । भक्तिभाववश कछु नहिं उरू। ज्यो मृगि निजसत पालन हेत, मृगपति सन्मुल जाय प्रचेता। मै राठ सुधी हंसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलाव राम । ज्यो पिक अम्बकली परभाव, मधुऋतु मधुर करे भाराव।६। तुम जम जपत जन छिनमाहिं, जनम जनम के पाप नशाहिं। ज्यों रवि उगै फट ततकाल, अलियत् नील निशा-तम-जाला। तव प्रभावत कहूँ विचार, होसो यह थुति जन-मन-हार । ज्यों जल कमलपत्र पे पर, मुक्ताफल की दुति विस्तर की तुम गुण महिमा हत्त-दुख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष । पापविनाशक है तुम नाम, कमलविकासी ज्यो रविधाम II नहि अचम्भ जो होहिं तुरन्त, तुमसे तुम गुण धरनत सन्त । जो अधीन को प्राप समान,फरे न सो निन्दित धनवान ।१०। इकटक जन तुमको अविलोय, और विर्ष रति करे न सोय । को करि क्षीर-जलधि-जलपान, क्षारनीर पीवै मतिमाना११॥ प्रभु तुम वीतराग गुरगलीन, जिन परमाणु देह तुम कीन । हैं तितने हो ते परमानु, यात तुम सम रूप न पानु ।१२। कहं तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मनहार। कहाँ चन्द्र-मण्डल सकलंक, दिन मे ढाकपत्र सम रक ।१३॥ पूरणचन्द्र-ज्योति छविवंत, तुम गुरण तीन जगत लघत । एक नाथ त्रिभुवन प्राधार, तिन विचरत को करे निबार १४
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महत तोहि जानके न होय वश्य काल के,
न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके १२३, अनन्त नित्य चित्त के अगम्य रम्य आदि हो,
असख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो पनादि हो। महेश कामकेतु योग-ईश योग-ज्ञान हो,
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध सत-मान हो ।२४। तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानते,
__ तुही जिनेश शडुरो जगत्त्रये विधानत । तुही विधात है सही सुमोखपथ धारते,
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारत ॥२५॥ नमो करूं जिनेश तोहि आपदा-निधार हो,
नमो करूं सुभरि भूमिलोक के सिंगार हो। नमो करूं भवाब्धि-नीर-राशि-शोख हेतु हो,
नमो करूं महेश तोहि मोक्ष-पथ देतु हो ।२६।
चोपाई १५ माया तुमजिन पूरन गुणगण भरे, दोष गवं करि तुम परिहरे ।
और देवगण प्राश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर श्राय १२७॥ तरु अशोकतर किरन उदार. तुम तन शोभित है प्रविकार । मेघ निकट ज्यो तेज फुरंत,दिनकर दिपज्यो तिमिर निहता२ सिंहासन मरिणकिरण विचित्र, तापर कंचनवरन पवित्र । तुम तनु शोभित किरण विथार, ज्यो उदयाचल रवि तमहार कुन्द-पुहुप-सित-चमर दुरत, कनक-वरण तुम तन शोभत ।
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ज्यों सुमेरुतट निर्मल काति,झरना झर नीर उमगाति ।३०॥ ऊचे रहें सूरि-दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपै अगोप ।। तीन लोक की प्रभुता कहै, मोती झालरसो छवि लहैं ॥३१॥ दु दुभि शब्द गहर गम्भीर, चहु विशि होय तुम्हारे घोर । त्रिभुवनजन शिवसगम कर, मानों जय जय रव उच्चर ।३२॥ मन्द पवन गधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्ट । देव करें विकसित दल सार,मानो द्विजपति पवतार ।३३। तुमतन भामन्डल जिनचन्द, सन दुतिवत करत है मन्द । कोटि शख रवितेज छिपाय,शशि निर्मल निशि कर अछाय ।३४ स्वर्ग मोक्ष मारग सफेत, परम धरम उपदेशन हेत । दिव्य वचन तम खिरै अगाध,सबभाषा-गभित हितसाध ।३५॥ वोहा-विकसित सुवरन कमल दुति. नख-दुति मिलि चमकाहि
तुमपद पदवी जहँ धरो,तह सुर कमल रचाहिं ।।३६।। जैसी महिमा तुम विष, और धरै नहिं कोय । सूरज ले जो ज्योति है, नहि तारागरण होय ॥२७॥
पट्पद मद अलिप्त कपोल-मूल, अलि कुल झकारे, तिन सुन शब्द प्रचड, क्रोष उद्धत अति धारै। कालवरन विकराल, कालवत् सन्मुख प्राव,
ऐरावत सो प्रबल, सकल जन भय उपजावै ।। देखि गयन्द न भय करै, तुम पद महिला लीन । विपतिरहित सम्पति सहित, वरते भक्त नदीन ॥३॥
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( 40 )
प्रति मदमत्त - गयन्द, कुम्भथल नयन विदार, मोती रक्त समेत डारि भूतत सिगारे । aist दाढ विशाल, बदन मे रसना लोलं, भीम - भयानक रूप देखि, जन घरहर टोलं । ऐसे मृगपति पगतले, जो नर ग्रायो होय | शरण गये तुम चररण की, बाधा करें न सोय ||३६|| प्रलय पवन कर उठी, प्राग जो तास पटतर, वर्षे फुलिंग शिखा-उतङ्ग पर जलं निरन्तर । जगत समस्त निगल्ल, भस्म करदेगी मानों,
तडतडाट दव- श्रनल, जोर बहुँदिशा उठानो । सो इक दिन में उपशमे, नाम नीर तुम लेत | होय सरोवर परिणमे विकसित कमल समेत ॥ ४० ॥ कोकिलकण्ठ समान श्यामतन फोष जलता । रक्तनयन फुंकार, मार विष-करण उगलता ॥ फरण को ऊँचो करें, वेग ही सनमुख पाया ।
तव जन होय निशङ्क, देख फरगपति को प्राया | जो चांप निज पगतलं, व्यापं विष न लगार । नागदमन तुम नाम की, है जिनके प्राधार ॥४१॥ जिस रण माहि भयानक, रव कर रहे तुरङ्गम, धन सम गज गरजाहि, मत्त मानों गिरि-नङ्गम । प्रति कोलाहल माहि, बात जहँ नाहि सुनीजे, राजन को परचऊ, देख वल घोरज छोजे ।
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(६८)
नाथ तिहारे नाम ते, सो छिन माहि पलाय । ज्यो दिनकर परकाशते अन्धकार विनशाय ॥४२॥
मारे जहाँ गयन्द, कुम्भ हथियार विदारे, उमगे रुधिर-प्रवाह, वेग जलसम विस्तारे, होय तिरन असमर्थ, महाजोघा बलपूरे ।
तिस रन मे जिन तोर, भक्त जे हैं नर सूरे । दुर्जय परिकुल जोत के, जय पावै निकलङ्क। तुम पदपङ्कज मन बस, ते नर सदा निशबू ॥४३॥
नक चक्र मगरादि, मच्छकरि भय उपजावे, नामे बड़वा अग्नि, वाहत नीर जलावै । पार न पावै जास, थाह नहिं लहिए जाकी,
गरजे अति गम्भीर, लहर की गिनती न ताकी। सुखसो तिरे समुद्र को, जे तुम गुरण सुमहि । लोल कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहि ॥४४॥
महा जलोदर रोग, भार पीडित नर ने हैं, वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहे हैं । सोचत रहैं उदास, नाहि जीवन की आशा,
अति घिनावनी देह, घरै दुर्गन्धि निवासा । तुम पद-पडूज धूल को, जो लार्वे निज अङ्ग । ते नीरोग शरीर लहि, छिच मे होहि अनङ्ग ॥४५॥
पांव कंठत जकर बांध सांकल प्रति भारी, गाढी वेडी पैर माहिं जिन जाघ विदारी।
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भूख प्यास चिन्ता शरीर, दुख जे बिललाने,
शरण नाहि जिन कोय, भूप के बन्दीखाने । तुम सुमरत स्वयमेवही, बन्धन सम खुल जाहिं । छिन मे ते सम्पति लहैं, चिन्ता भय विनशाहिं ॥४६॥
महामत्त गजराज, और मृगराज दवानल, फरणपति रण-परचंड, नीरनिधि रोग महावल । बन्धन ये भए पाठ, डरपकर मानों नाश ।
तुम सुमरत छिनमाहि, अभय थानक परकाश ।। इस अपार ससार मे शरण नाहिं प्रभु कोय । याते तुम पद भक्त को, भक्ति सहाई होय ॥४७॥
यह गुणमाल विशाल, नाय तुम गुणन संवारी, विविध वर्गमय पुहुप, गून्य में भक्ति विद्यारी । जे नर पहिरै फठ भावना मन मै भाव,
मानतुङ्ग से मिजाधीन, शिव लक्ष्मी पावं । भाषा भक्तामर कियो, 'हेमराज' हितहेत । जे नर पढे सुमाव सौं, ते पाव शिव-खेत ॥४८॥ इति ।।
संकट हरण स्तुति हो दोन बन्धु श्रीपति, करणानिधानजी ।
अब मेरी विथा क्यो न हरो, वार क्या लगी । मालिक हो तो जहान के जिनराज झापही । ऐषो हुनर हमारा तुमसे छिपा नहीं । बेजान में गुनाह जो मुझसे बना सही । कंकरी के चोर को कटार मारिये नहीं हो दीन.।१।
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। ७. ) दुख दर्द दिल का मापसे जिसने कहा सही । मुश्किल कहर बहर से लई है भुजा गही ।। सब वेद प्रौ पुराण मे प्रमाण है यही । पानंदकंद श्री जिनेन्द्रदेव है तुही ।वीन.२॥
हाथी पं चढ़ी जाती थी सुलोचना सती । गगा मे ग्राह ने गही गजराज की गति । उक्त वक्त मे पुकार किया था तुम्हें सती । भय टार के उबार लिया हो कृपापती हो बोन..३।
पावक प्रचण्ड कुण्ड में उमण्ड जन रहा । सीता से शपथ लेने को तब रामने कहा । तुम ध्यान घर जानकी पग धारती तहाँ । तत्काल ही सर स्वच्छ हुआ कमल लहलहा दोन ।४
जब द्रौपदी का चीर दुःशासन ने था गहा । सवही सभाके लोग कहते थे ह हा ह हा । उस वक्त भोर पोरमे तुमने करी सहा । पडदा ढका सती का सुयश जगत में रहा हो तो..! ___सम्यक्त्व शुद्धशीलवति चंदना सती। जिसके नजीक लगती थी जाहिर रती रती । बेडी में पड़ी थीं तुम्हें जब ध्यावती हुती । तब दोर घोर ने हरी दुख द्वन्द्व को गति हो।६।
श्रीपाल को सागर विषै जब सेठ गिराया। उसकी रमा से रमने को आया था नेहया। उस वक्त सकट में सतीने तुमको जो ध्याया, दुख द्वन्द्व फद मेटके यानन्द बढाया ।हो दी.७।
हरिषेण की माता को जब सोत सताया। रथ जैन का तेरा तले पीछे में बताया। उस वक्त अनशन मे सती तमको जो ध्याया। चक्रोश हो सुत उसकेने रथ जैन चलाया।होदी. जब अजना सती को हमा गर्भ उजाला । तब सासुने कलक
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(७१)
लगा घर से निगाला । बन वर्ग के उपसर्ग में सती तुमको चितारा । प्रभु भक्तियुत जानकै भय देव निधारा होदो.।
सोमा से कहा जो तू सती शील विशाला । तो कुंभ में से काठ भला नाग हो काला । उस पक्त तुम्हें ध्याय के सती हाथ जो डाला । तत्काल ही वह नाग हा फूल की माला हो.१०
जय कुष्टरोग था हुआ श्रीपाल राज को । मैनासती तब पापको पूजा इलाजको। तरकाल टी सुन्दर किया बोपालराज फो। यह गज भोग भोगि गया मुक्तिराज को हो धोन.॥११॥
जब सेठ सुदर्शन को मृपा दोष लगाया। रानी के कहे भूप ने शूली पे चढाया। उस वक्त तुम्ह सेठ ने निज ज्यान में ध्याया। शली उतार उसको सिंहासन पे बिठाया हो..१२॥
जब सेठ सुधन्नाजी को दापो में गिराया। ऊपर से दुष्ट था उसे वह मारने पाया । उस वक्त तुम्हें सेठ ने दिल अपने में पाया । काल ही जजाल से तब उसको बचाया हो.१३ इक सेठ के घर मे किया दारिद्र ने डेरा । भोजन का ठिकाना भी न पा सांझ रावेरा । उस बक्त तुम्हें सेठ ने जब प्यान मे घेरा । पर उसके मे तव कर दिया लक्ष्मी का बसेरा हो.१४ बलि बाद में सुनिराज सो जब पार न पाया। तब रात को ललवार ले शठ मारने पाया। मुनिराज ने निज ध्यान मे मन लीन लगाया । उस वक्त हो परतक्ष तहां देव बचाया हो.१५
जब राम ने हनुमंत को गढ लक पठाया। सीता की खबर लेने को खिलफोर सिधाया । मग बीच दो मुनिराज की
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( ७२ । लख आग मे काया। झट वारि मसलधार से उपसर्ग बुझाया । हो दोन० ॥१६॥ जिननाथ ही को माथ नहाता था उदारा। घेरे मे पडा था वह कुभकरण विचारा। उस वक्त तम्हे प्रेम से सकट मे उबारा । रघुवीर ने सब पीर तहां तुरत निवारा। हो. ॥१७॥
रणपाल कुवर के पड़ी थी पाव में बेरी , उस वक्त तुम्हें ध्यान में आया था सबेरी । तत्कात ही सुकुमार की सब झड पडी बेरी । तुम राजकु वर की सभी दुख द्वन्द्व निवेरी हो.१०
जब सेठ के नन्दन को डसा नाग जु कारा। उस वक्त तुम्हे पोर मे धर धीर पुकारा । तत्काल ही उस बालका विषभूरि उतारा । वह जाग उठा सो के मानो सेज सकारा हो १६॥
मुनि मानतुंग को दई जब भूप ने पोरा । ताले में किया बंद भारी लोह जंजीरा । मुनीश ने मादीश की थुति की है गंभीरा । चक्रेश्वरी तब पान के झट दूर की पीरा हो।२०। शिवकोटि ने हठ था किया सामतभन्न सों। शिवपिंड को बंदन करो शकों अभद्र सो । उस वक्त स्वयंभू रचा गुरु भाव भद्र सो। जिन चन्द्र को प्रतिमा तहा प्रगटी सुभद्रसों हो.२१
सूवेने तुम्हे प्रानके फल ग्राम चढाया । मैढक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया । उन दोनों को अभिराम स्वर्गधाम बसाया। हम आपसे दातार को लख आज ही पाया हो।२२
कपि स्वान सिंह नवल अज बैल विचारे । तिर्यञ्च जिन्हे रंच न था बोष चितारे । इत्यादि को सुरधाम दे शिवधाम मे
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( ७३ )
: धारे। हम आपसे दातार को प्रभु प्राज निहारे । हो. ॥२३॥ तुमही अनन्त जन्तु का भय भीर निवारा । वेदो. पुराण में गुरु गणधर ने उचारा । हम आपकी शरणागति मे आके पुकारा। तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष इच्छिताकारा हो. ॥२४॥
प्रभु भक्त व्यक्त भक्तियुक्त मुक्ति के दानी । श्रानदकंद वृन्द को हो मुक्ति के दानी मोहि दोन जान दीनवन्धु पातकं भानी । सांसर विषम क्षार तार ग्रन्तरजामी हो. ॥२५ ॥ करुणानिधान बान को ग्रव क्यो न निहारो । दानी अनन्त दान के वाता हो संभारो । वृपचद नव वृन्द का उपसर्ग मिवाशे । संसार विषमक्षार से प्रभु पार उतारो। हो दोन बन्धु श्रीपति करुणानिधानजी । श्रव मेरी विया क्यो ना हरो बार क्या लगी ॥२६॥
श्रथ श्रठाई राता
वरत प्रठाई जे कर ते पावें भद पार, प्राणी टिका जम्बूद्वीप सुहावरो, लख जोजन विस्तार, प्राणी । १ । भरत क्षेत्र दक्षिण दिशा, पोदनपुर तिहु सार, प्राणी विद्यापति विद्याधरो, सोमराणी राय, प्राणी वरत०।२। चारणमुनि तह पारणे, श्राये राजा गेह, प्राणी सोमाराणी श्राहार दे, पुण्य बढो प्रति नेह, प्राणी चरत. 1३1 तिसी समय नभ देवता, चले जात विमान, प्रारणो जं जं शब्द भयो धनो, मुनिवर पूछो ज्ञान, प्राणी वरत. ४॥
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मुनिवर बोले सुन राणी, नन्दीश्वर को जात,प्राणी जै नर करहि स्वभाव सो, ते पावे शिवकात, प्रारणी वरता५ यह वचन राणो सुनो, मन मे भयो प्रानन्द, प्राणी नदोश्वर पूजा करें, ध्यावें आदि जिनेन्द्र, प्राणी वरत।।६।। कार्तिक फागुन साढ मे, पालें मन वच देह, प्राणी पसु दिवस पूजा कर. तीन भवातर लेय, प्राणो ।वरत.॥७॥ विद्यापति सुनि चालियो,रच्यो विमान अनूप, प्राणी राणी बरजे राय को, तू तो मानुष भूप, प्राणी विरत।८।। मानुषोत्र लवत नहीं मानुष जेतो जात प्रारणो जिनवारणी निश्चय सही, तीन भवन विख्यात, प्रारणो वर.६ ।
सो विद्यापति ना रहो, चलो नन्दोश्वर द्वीप, प्राणी मानुषोत्रगिरिसो मिलो, जाय न मान महीप, शारगी पर।१०। मानुषोत्र की भेटते, परयो धरणि सिर भार,प्राणी विद्यापति भव चूरियो, देव भयो सुरसार, प्राणी वरत।११॥ दीप नन्दीश्वर छिनक मे, पूजा घसु विषि ठान, प्राणी करी सु मन वचकाय से, मालादई करमान, भारणी वर१२। प्रानन्द सो फिर घर प्रायो, नन्दीश्वर कर जात, प्राणी विद्यापति का रूप कर, पूछो राणी बाल, प्रारणी बरत.१३, राणी बोली सुरण राजा, यह तो कबहूँ न होय, प्राणी जिनवारणी मिथ्या नही, निश्चय मनमे सोय, प्राणी वर.।१४। नन्दीश्वर की जयमाला, राय दिखाई धान, प्राणी अबतू साचो मोहि जाणो, पूजन करी बहुमान, प्राणी व.।१५
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राणी फिर तासो फहै, यह भय पर नाहि, प्राणी पश्चिमसूर्य उदयहए. जिनवाणी सुचि ताहि, प्रारणी वर. १६ । राणी सों नृप फिर वोल्यो. वायन भवन जिनात, प्राणी तेरह तेरह में बन्दे, पूजन करो तत्काल, प्राणो वरत | १७| जयमाला तहां मो मिली प्रायो हूँ तुझ पास, प्राणो श्रव तू मिया मत माने, पूजा भई अवश्य प्राणी वर. । १८ । पूरव दक्षिण में वन्दे, पश्चिम उत्तर जान, प्राणी
मैं मिथ्या नही नाम, मोहि जिनवर की प्राण प्राणी १९ । सुनि राजा से तब कहो, जिन चारण शुभ सार, प्राणी हाई दीप न लाई, मानुष जन विस्तार, प्राणा वरत |२०१ विद्यापति से सुर भयो, रूप घरो शुभ सोय, प्राणी रागो को तुति करो, निश्चय समकित तोय, प्राणी वर. २१ देव कहें अब सुन राणी, मानुपोत्र मिलो जाय, प्राणी तिहतं चय मे मुर भयो, पूत्र नन्दीश्वर श्राय, प्राणी वर. २२ एक भवातर मो रहो, जिन शासन प्रमाण, प्रारणी मिथ्याती माने नहीं, श्रावक निश्चय प्रात, प्रारणी वर. | २३ | सुरचय तहा हथिनापुरी, राज कियो भरपूर, प्राणी परिग्रह तज संयम लियो, करम महागिर चूर, प्रारंगीवर. २४ केवल ज्ञान उपाय कर, मोक्ष गयो मुनिराय, प्राणी शाश्वत सुख विलसं सवा, जन्म-मरण मिटाय, प्रारणीवर २५ अव राणी को सुनो कथा, सयम तीनो सार, प्राणी तप कर चयके सुर भयो, बिलसे सुख अपार, प्रारणी व २३
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( ७६ । गजपुरी नगरी अवतरो, राजकरो बहु भाय, प्राणी सोलह क रण भाइयो, धार मुनो अधिकाय, प्रारणी वरत.।२७ मुनि सङ्घाटक प्राइयो, माली मार जनाय, प्रारणी राजा बन्दो भाव मों, पुण्य बडो अधिकाय, प्राणी वर.॥२८॥ राजा मन वैरागियो, सयम सीनो मार, प्राणी पाठ सहन्न नृप सायने,यह समार अमार, प्राणी दर.।२६। फेवलज्ञान उपार्ज के, दोय महत्र निर्वाण,प्राणी दोय सहन-मुख म्वर्ग के,भोगे भोग मुयान, प्राणी वर ॥३०॥ चार सहस्त्र भू-लोक मे हण्डे बहु ससार,प्राणी काल पाय शिवपुर गये, उत्तम धर्म विचार, प्राणी वर.॥३१॥ परत पठाई जे करें, तीन जन्म परमाण, प्राणी लोकालोक जु जारणही, सिद्धारथ कुल कारण, प्राणी वर.३२ भव समुद्र के तरण को, बाग्न नौका जाल, प्रारणी जो जिय करें म्वभाव सो,जिनवर सांच वखान, प्राणी वर..३३ मन घच काया जे पढे,ते पाये भवपार, प्राणी विनयकीति मुखों भणे, जनम सफल संसार,प्राणी घरत माई जे पहै, ते पावै भयपार, प्राणी वरत.१३४६
पद्मावती स्तोत्र जिन शामनी हंसासनी पद्मासनी माता । भुज चारते फल चार दे पद्मावती माता ।टेका
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: जब पार्श्वनाथजी ने शुक्ल ध्यान प्ररम्भा ।
कमठेश ने उपसर्ग तब किया था अचम्भा ।। निननाय सहित प्राय के सहाय किया है । निननाथ को निज माय पंचढाय लिया है जिन०११॥ फल बोन सुमन लीन तेरे शीश विराज । जिनराज तहा ध्यान धरें प्राप विराजे ।। फानन्द ने फनी की करी जिनन्द पे छाया। उपसर्ग वर्ग मेट के प्रानन्द वढाया जिन.।१ जिनपावं को हुआ तभी केवल सुज्ञान है । समवादिसरन की वनो रचना महान है ॥ प्रभू ने दिया धर्मार्थ फाम मोक्ष दान है। तब इन्द्र प्रादि ने किया पूजा विधान है । जिन० ॥३॥ जबसे किया तुम पार्श्व के उपसर्ग का विनाश । तबसे हुआ यश श्रापका लोक में प्रकाश ।। इन्द्रादि ने भी आपके गुरण मे किया हुलास । किस वास्ते कि इन्द्र खास पार्श्व का है दास ।। जिन.।४।। धर्मानुराग रङ्ग से उमङ्ग भरी हो। सध्या समान लाल रङ्ग प्रग घरी हो ॥ जिन सन्त शीलवन्त पं तुरन्त खड़ी हो। मनभावनी दरसावनी प्रानन्द बडी हो । जिन. ॥५॥ जिन धर्म की प्रभावना का भाष किया है। तिन साधने भी आपकी सहाय लिया है ।।
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( ७८ ) नब पापने उम गत को बनाय दिया है। जिनधम २. निगान को फहराय दिया है । जिन० ॥६॥ या बौद ने नाग का किया कुम्भ मे यापन । अकलद्धजी से करते है बाद बेष्ठापन ।। तव प्रापने महाय रिया घाय मान घन । नाग का हग पान हुमा बोध उत्यापन ।। जिन० ॥७॥ इत्यादि जहा धर्म का विवाद पड़ा है। तहा मापने परवादियो का मान हाग है ।। तुममे यह स्याद्वाद का निशान सरा है। म वाम्त हम पापमे अनुगग घरा है । जिन० 111 तुम मन्द ब्रह्मरप मन्त्र मूति घरया । चिन्तामणी समान कामना की भरैया ।। जप जाप जोग जैन की मब मिद्धि करया । परबाद के पुग्योग की तत्काल हरया ।। जिन० ॥६॥ लग्वि पावं तेरे पास गत्रु बाम ते भाज । अकुश निहार टुष्ट जुष्ट दपं को त्याजे ।। दुख म्प खर्च गर्व को वह वत्र हरे है। फर फज मे इफ कजसो सुरव पुञ्ज भरे है ।जिन०।१०। चरणारविन्द मे है नूपुरादि प्राभग्न । फटि मे है सार मेसला प्रमोद को करन । उर मे है सुमन माल, सुमन भान की माला । पट रङ्ग अग मग सो सोहे विशाला ।। जिन० ॥११॥
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( ७६ ) करकज चार भूषन सो भूरि भरा है। भवि वृन्द को आनन्द कन्द पूरि करा है । जुग भान कान कुण्डल सो जोति घरा है। शिर शीस फूल २ सो प्रतुल घरा है ।जिन० ॥१२॥ मुख चन्द को अमद देख चन्द भी थम्भा । छवि हेर हार हो रहा रम्भा को अचम्भा ॥
ग तीन सहित लाल तिलक भाल धरे है। विकसित मुखारविन्द सो प्रानन्द भरे है जिन०॥१३॥ जो आपको त्रिकाल लाल चाह सो घ्यावे । विकराल भूमिपाल उसे भाल झुकावे ॥ जो प्रीत सो प्रतीति सपरीत्ति बढावे । सो ऋद्धि सिद्धि बृद्धि नवोनिधि को पावै ।जिन० ॥१४॥ जो दीप दान के विधान से तुम्हे जपे । सो पाप के निधान तेज पुज्ज से दिपै । जो भेद मन्त्र वेद मे निवेद किया है। सो बाघ के उपाय सिद्ध साध लिया है ।। जिन० ॥१५॥ धन धान्य का अर्थो है सो धन धान्य को पावै। सतान का अर्थी है सो सतान खिलाये।। निजराज का अर्थी है सो फिर राज लहावै । पद भ्रष्ट सुपद पायक मनमोव वढावै ॥ जिव० ।।१६।। ग्रह क्रूर व्यन्तराल व्याल जाल पूतना । तुम नाम के सुन हांक सौ भागे है भूतना ।।
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। ८० ) कफ वात पित्त रक्त रोग शोक शाकिनी । तुम नाम ते उरी मही परात डाकिनी जिन ॥१८॥ भयभीत को हरनी है हो मात भवानी । उपसर्ग दुर्ग द्रावतो दुर्गावती रानी। तुम सा तमत्त कष्ट काटनी दानी ।। सुखतार की करनी, हू शकरीश महारानी । जिन. ॥१८॥ इस वतने जिन भक्त को दुख व्यक्त सतावै । प्रय मात तु देखिके क्या ना आवै । तब दिनले तो करती रही जिन भक्त पै छाश। किस वास्ते उस बातको ऐ मात भुलाया। जिन. ।। १६ ।। हो मात मेरे सर्वही अपराध छिमा कर । होता नहीं क्या बाल से कुवाल यहां पर । कुपुत्र तो होते हैं जगत माहि सरासर । माता न त तिनसो कभी नह जल्म भर । जिन. ॥२०॥ अब मात मेरी बात को सब भान सवारो। सन कामना को लिख करो विघ्न विधारो। मति देर करो मेरी भोर नेक निहारो । करकज की छाया करो दुख दर्द निवारो जिन.॥२१॥ ब्रह्माण्डनो बलमनी सुखमण्डनो स्याता । दुख टारिके परिवार सहित दे मुझे ताता ।। तज के विलम्ब अम्बनी अवलम्ब जिये । वृष चन्द नन्द वृन्दको मानन्द कीजिये ।। जिन० ॥२२॥
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( ८१ )
जिम धर्म से डिगने का कहीं मा पडे कारन । तो लीजिये उबार मुझे भक्त उपारन ॥ निजकर्म के संजोग से जिस जोन में जावो । तहा रोजिए सम्यक्त्व जो शिवधाम को पायो ॥ जिन शासनी हंसासनी पद्मावती माता । भुज चारतें फल चारु दे पद्मावती माता ॥२३॥
श्री महावीर चालीसा
( शमशाबाद निवासी स्व० पूरनमल कृत )
बोहा- सिद्ध समूह, नमों सदा, घर सुमरु परिहन्त निर माकुल, निर्वाच्छ हो, भए लोक से प्रन्त ॥ विघ्न हरण मंगल करन, वर्धमान महावीर | तुम चितत गिता मिट, हो प्रभु चर्म शरीर ॥ चौपाई
जय महावीर दया के सागर, जय श्रीसम्मति ज्ञान उजागर । शांत छबि पूरत प्रति प्यारी, वेष दिगम्बर के तुम धारी ॥ कोटि भानु से प्रति छबि छाजे, देखत तिमिर पाप सब भाजे। महाबली परि कर्म बिवारे, नोषा मोह सुभट से मारे ।। काम क्रोध तजि छोडो माया, क्षरप मे मान कषाय भगाया । रामो नहीं नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित उपदेशी ।। प्रभु तुम नाम जगत मे सांचा, सुमिरत भागत भूत पिशाचा । राक्षस यक्ष डाकिनी भागे, तुम चितत भय कोई न लागे !
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( ८२ )
महा शूल को जो तन घारे, होवे रोग प्रसाध्य निवारे । व्याल फराल होय फरणधारी, विषको उगले क्रोध कर भारी । महाकाल सम करें उसन्ता, निविष कसे प्राप भगवन्ता । महामत्त गज मद को भारं, भगं तुरत जब तोहि पुकारं ॥ फार डाट सिंहादिक श्राव, ताको हे प्रभु तुही भगावं । होकर प्रवल अग्नि जो जारै, तुम प्रताप शीतलता धारे ॥ शस्त्रधार प्रति युद्ध लडंता, तुम दृष्टि हो विजय तुरन्ता । पवन प्रचंड चलै झकझोरा, प्रभु तुम हरो होय भय चोरा । झारखड गिरि श्रटवी माहों, तुम बिन शररण तहा कोउ नाहीं । वज्रपात करि घन गरजा, मूसलधार होय तडका || हे प्रथाह प्रवाह सुनोरा, पडते भवर मिटावे पीरा । होय पुत्र दरिद्र सन्ताना, सुमिरत होय कुवेर समाना । बदीगृह मे वधी जंजीरा, कठ सुई प्रनि मे सकल शरीरा ॥ राज दण्ड करि शूल घरावे, ताहि सिंहासन तुही बिठावं । न्यायाधीश राज दरबारी, विजय करे हो कृपा तुम्हारी || जहर हलाहल दुष्ट पिलन्ता, प्रमृत सम प्रभु करो तुरन्ता । चढे जहर जीवादि उसन्ता, निर्विष क्षरण मे श्राप करन्ता ॥ एक सहस वसु तुमरे नामा, जन्म लियो कुण्डलपुर धामा । सिद्धारथ नृप सुत कहलाए, त्रिशला मात उदर प्रगटाये ॥ तुम जनमत भयो लोक प्रशोका, अनहद शब्द भयो तिहुं लोका इन्द्र ने नेत्र सहस करि देखा, गिरि सुमेर कियो प्रभिषेखा ।। कामादिक तृसना संसारी, तज तुम भए बाल ब्रह्मचारी ।
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( ८३ )
अथिर जान जग अनित विसारी,बालपने प्रभु दीक्षा धारी ॥ शात भाव पर कर्म विनाशे, तुरतहि केवलज्ञान प्रकाशे। जर चेतन त्रय जग के सारे, हस्त रेखवत् तु है निहारे । लोक प्रलोक द्रव्य षट् जाना, द्वादशांग का रहस्य बखाना । पशु यज्ञ का मिटा कलेशा, दया धर्म देकर उपदेशा।। बहुमत और कुवादी दण्डी, रहने न दियो एक पाखण्डी। पञ्चम कान विष जिनराई, चान्दनपुर प्रभुता प्रगटाई ।। क्षण मे तोपनि बाढि हटाई, भक्तन के तुम सदा सहाई । मूरख नर नहिं अक्षर ज्ञाता,सुमिरत पण्डित होय विख्याता॥ पूरनमल रचकर चालीसा, हे प्रभु तोहि नवावत शीशा । दोहा-करे पाठ चालीस दिन, नित चालीसहि बार। .
खेव धूप सुगन्ध पढि, श्री महावीर प्रगार ॥ जन्म दरिद्री होय जो, होय कुवेर समान । नाम वंश जगमे चले, जिनके नहिं संतान ॥
श्री पद्मप्रभ चालीसा दोहा-शीश नवा अरिहन्त को, सिद्धन करू प्रणाम ।
उपाध्याय प्राचार्य का, ले सुखकारी नाम । सर्व साधु पोर सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार । पद्मपुरी के 'पद्म' को, मन मन्दिर में धार ।
चौपाई जय श्री पमप्रभ गुणधारो, भविजन के तुम हो हितकारी।
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' ४ , उन गरे त रहाम्रो, छळ तोयंडा नहलायो। नीन का रिटं टग लोगो ,व रात भर में पहबाने। देश दिगम्बर पान हा, तुम = ग गे हारे । मुनि नुन्हारी मिलनी सुन्दर दृष्टि गुरद उनी नान पर! घोच मान मदन भगाया, राग हेप का न पाया। दीतगा तुम कहलाने हो, न ग के मन हो भने हो। होगान्त्री नगरी महलाए. राजा राजो बननाए । सुन्दर नार नगेना उन्के, हिमरे घर में यामी उन्ने। न्निनी नम्दो उमर रहाई, तीन लाट पूरच गई ।। ।।
दिन हायो दंश निरस्नर पाया बंगग्य उमडार । तिक नदी त्रयोदा नारी, तुमने मुनि पद दोना भरो॥ मारे राजपाट को तन, बनी मनोहर इन में पहुंचे। तप कर वेदग्नान उपाया, बैत मुदो पंदरन म्हनारा ।। इक्नोदन गराधर बतलाए, मुल्य बन्न चामर कहनाए । लाखों मुनि अतिका लालों, श्रावक और धारिका लाखों ।। प्रनररात तिच बताए, देगे देव गिनत नहीं पाए । फिर सम्मेद शिखर पर नाके, शिवरमरणो को ली परणाके। पंचम काल महा दुख दाई, जब तुमने महिमा दिखलाई।। जयपुर राज्य ग्राम दारा है, स्टेशन शिवदासपुरा है। - मूला नाम जाट का लड़का, घर को नींव तोदने लाना ।। खोरत खोदत मूति दिखाई, उसने जनता को बतलाई । चिह्न कमल लख लोग नुगाई, पद्मप्रन की मृति बताई ।।
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मन में प्रति हषित होते हैं, अपने दिल का मल धोते हैं। सुमने यह अतिशय दिखलाया, भूत प्रेत को दूर भगाया । भूत प्रेत दुख देते जिसको, चरणों में लाते हैं उसको। जब गंपोषक छींटा मारे, भूत प्रेत तब पाप बकारे ।। अपने से जब नाम तुम्हारा, भूत प्रेत सब करे किनारा । ऐसी महिमा बतलाते हैं, अन्धे भी प्रांखें पाते हैं । प्रतिमा श्वेतवर्ण कहलाये, देखत ही हृदय को भाये । ध्यान तुम्हारा जो धरता है. इस भव से वह नर तरता है ।। अन्धा बेले गूंगा गाये, लंगड़ा पर्वत पर चढ़ जाये। बहरा सुन सुन कर खुश होवे,जिस पर कृपा तुम्हारी होवे। मैं हूँ स्वामी दास तुम्हारा, मेरी नैया करवो पारा । चालोसे को 'चन्द्र' बनावे, पद्मप्रभ को शीश नवावे ।। सोरठा-नित चालीसहि बार, पाठ करे चालीस दिन ।
खेय सुगन्ध प्रपार, पद्मपुरी में प्राय के ॥ होप कुवेर समान, जन्म दरिद्री होय जो । बिनके नहि सन्तान, बाम वंश जग में चले ॥
।। इसि पचप्रम चालीसा ।।
यो चन्द्र प्रभ चालीसा वीतराग सर्वज्ञ जिन, जिनवाणी को ध्याय । लिखने का साहस करू, चालीसा सिर नाय ॥१॥
बेहरे के श्री चन्द्र को, पूजौं मन बच काय । ' ऋद्धि सिद्धि मंगल करें, विघ्न दूर हो जाय ॥२॥
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( ८६ ) चौपई-जय धीचन्द्र दया के सागर,देहरेवाले ज्ञान उजागर । शाति छवि मूरति अति प्यारी, वेष दिगम्बर धारा भारी॥ नाता पर है दृष्टि तुम्हारी, मोहिनी मूरति कितनी प्यारी । देवो के तुम देव कहावो, कष्ट भक्त के दूर हटायो। समन्तभद्र मुनिवर ने घ्यावा, पिंडी फटी दरश तक पाया । तुम जग मे सर्वज्ञ कहावो, अष्टम तीर्थडर कहलायो। महासेन के राजदुलारे, मात लक्ष्मणा के हो प्यारे ॥ चन्द्रपुरी नगरी पनि नामी, जन्म लिया चन्दा प्रनु स्वामी । पोष वदो ग्यारस को जन्में, नरनारी हरषे तब मन मे ।। काम क्रोध तृष्णा दुखकारी,त्याग सुखद मुनि दीक्षा धारी। फाल्गुन वदी सप्तमी भाई, केवलज्ञान हुआ सुखदाई। फिर सम्मेद शिखर पर नाके, मोक्ष गये प्रभु आप वहां से । लोन मोह और छोडी माया, तुमने मान कषाय नताया ।। रागी नहीं, नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित उपदेशी । पंचम काल महा दुख दाई, धर्म कर्म भूले सब भाई ।। प्रलवर प्रान्त नगर तिजारा, होय जहां पर दर्शन प्यारा । उत्तर दिशि मे 'देहरा' माहीं,वहां पाकर प्रभुता प्रकटाई।। सावन सुदि दशमी शुभ नामी,मान पधारे त्रिभुवन स्वामी । चिह्न चन्द्र का लख नर नारी,चन्द्र प्रभ की मूरति मानी।। मूर्ति आपकी प्रति उजियाली, लगता होरा भी है नाली । अतिशय चन्द्रप्रभ का भारी, सुनकर पाते यात्री भारी ॥ फाल्गुन सुदी सप्तमी प्यारी, जुडता है मेला यहां भारी।
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(८७) कहलाने को तो शशिधर हो,तेज पुंज रवि से बढकर हो । • नाम तुम्हारा जग में सांचा, ध्यावत भागत भूत पिशाचा । राक्षस भूत प्रेत सब भागें,तुम सुमरत भय कोई ना लागे। कोति तुम्हारी है प्रति भारी,गुण गाते नित नर और नारी। जिस पर होती कृपा तुम्हारी, संकट झट कटता है भारी ।। जो भी जैसी प्राश लगाता. पूरी उसे तुरत कर पाता। दुखिया पर पर जो पाते हैं. सकट सब खो कर जाते हैं । खुला सभी को प्रभू द्वार है, चमत्कार को नमस्कार है। अन्धा भी यदि ध्यान लगाते, उसके नेत्र शीघ्र खुल जावे ।। पहरे भी सुनने लग जावे, गहले का पागलपन जावे । प्रक्षण ज्योति का घृत जो लगावे,संकट उसका सब कट जावे परणों की रज प्रति सुखकारी,दुख दरिन सब नासन हारी। चालीसा मो मन से ध्यावे, पुत्र पौत्र सब सम्पत्ति पावे ।। पार करो दुखियों की नैया, स्यामी तुम बिन नहीं खिषया । प्रभु में तुमसे कछु नहीं चाहूं, दर्श तिहारा निशदिन पाऊँ । दोहा-कर्स वन्दना आपको, श्रीचन्द्रप्रभ जिनराज ।
अगल मे मंगल कियो,रखो 'सुरेश' की लाज ।।इति।।
पहिच्छत्र पार्श्वनाथ चालीसा शीश नवा प्ररिहन्त को, सिद्धन करूं प्रणाम । उपाध्याय प्राचार्य का, ले सुखकारी नाम ।। सर्वसाधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार ।
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{
== }
को मन मन्दिर में ध
प्रहित्र र पागमनाय लगत हिकारी हो स्वामी तुम के धारी। सुर नर असुर करें तुम सेवा, तुम हो सब देवन के बेडा || तुम से करम रात्रु भी हारा हुन को जान निष्टारा। अश्वमेव हे राज कुमाों के बारे || बागी हो के राव कहाए सारी परा उडाए । इक दिन बित्रों को लेकर को वन में पहुँचे | हाथी पर बारी इक जंगल में ईसा । एक पत्री देख वहां पर उससे बोले जब सुना कर ॥ तपनी ! पाप कमाए. इस लक्कड़ में जीव उन्नए । अनु मे उभी कुद्दा निकले नाग नापनी कारे मरने को ये fिree विचारे । रह के दिन में आया. उभो नत्र तवार सुबाया || मर कर दो ताल मिधाए, पहनावती इन्द्र म्हारे तरसी भर कर देव न्हाया, नाम कम प्रत्यों में पाया ॥ एक समय श्री पारस स्वामी, गव छोड़ कर वनको तप करके ऋद्र करम उपाए, इक दिन कन् वहीं पर फौरन ही प्रनु को पहिचाना, बदला लेने को हिलाता ॥ बहुत अधिक वारि बरसाई, बादल पर ने बिल्जि पिराई । बहुत अधिक पत्थर बरसाए स्वामी उन को नहीं हिलाये ॥ पद्मावतो घरणेन्द्र भोये, प्रभु की सेवा में वित पनावती ने फल फैलाया, उस पर स्वानी को बंगरा ॥
उठाया. लक्कड़ को चोर
॥
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(६०)
सामायिक पाठ (भाषा)
( श्री स्व० रामचन्द्र उपाध्याय कृत ) नित देव ! मेरी प्रात्मा धारण करे इस नेम को,
मैत्री करे सब प्राणियों से, गुणिजनों से प्रेम को। उन पर दया करती रहे, जो दुःख-ग्राह-ग्रहीत है,
उनसे उदासीसी रहे जो धर्म के विपरीत हैं ॥१॥ करके कृपा कुछ शक्ति ऐसी दीजिये मुझमे प्रभो,
तलवारको ज्यों म्यान से करते विलग हैं हे विभो। गतदोष प्रात्मा शक्तिशाली है मिली मम अङ्ग से,
उसको विलग उस भांति करने के लिए ऋजु ढङ्गसे।२। है नाथ ! मेरे चित्तमे समता सदा भरपूर हो,
सम्पूण भमताकी कुमति मेरे हृदय से दूर हो। बनमें भवन मे, दुख मे सुखमे नहीं कुछ भेद हो,
अरि-मित्रमे मिलने-बिछुडने मे न हर्ष न खेव हो ।३। अतिशय घनी तम-राशिको दीपक हटाते हैं यथा,
दोनो कमल-पद प्रापके अज्ञान-तम हरते तथा । प्रतिबिम्बसम स्थिररूप वे मेरे हृदय में लीन हो,
मुनिनाथ ! कीलित तुल्य वे उर पर सदा प्रासीन हों।४ यदि एक-इन्द्रिय पावि देही घूमते फिरते मही,
___जिनदेव ! मेरी भूलसे पीड़ित हुए होवे कहीं। टुकडे हुए हो, मल गये हो, चोट खाये हो कभी,
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तो नाथ ! वे दुष्टाचरण मेरे बने झूठे सभी ॥५॥ सन्मुक्ति के सन्मार्ग से प्रतिकूल पथ मैने लिया,
पचेन्द्रियों चारों कषायों मे स्वमन मैने दिया। इस हेतु शुद्ध चरित्रका जो लोप मुझसे हो गया,
दुष्कर्म वह मिथ्यात्व को हो प्राप्त प्रभु ! करिये दया ।६। चारों कषायोंसे, वचन, मन, कायसे जो पाप है
मुझसे हुआ हे नाथ ! वह कारण हुआ भव-ताप है । अब मारता हूँ मैं उसे आलोचना निन्दादि से, । ज्यों सकल विषको वैद्यवर है मारता मन्त्रादि से ॥७॥ जिनदेव ! शुद्ध चरित्रका मुझमें अतिक्रम जो हुमा।
अज्ञान और प्रमाद से व्रतका व्यतिक्रम जो हुआ। अतिचार और अनाचरण जो जो हुए मुझसे प्रभो,
, सबकी मलिनता मेटने को प्रतिक्रम करता विभो ।। मनको विमलता नष्ट होने को, अतिक्रम है कहा,
औ शीलचर्या के विलद्धन को व्यतिक्रम है कहा। है नाथ ! विषयो मे लिपटने को कहा अतिचार है,
मासक्त प्रतिशय विषयमे रहना महाऽनाचार है ॥६॥ यदि अर्थ, मात्रा, वाक्यमे पदमे पड़ी त्रुटि हो कहीं,
तो भूलसे ही वह हुई मैंने उसे जाना नहीं । जिनदेववाणी ! तो क्षमा उसको तुरत कर दीजिये,
मेरे हृदयमे देवि ! केवलज्ञान को भर दीजिये ॥१०॥ हे देवि ! तेरी वन्दना मैं कर रहा हूँ इसलिए,
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। १२ ) चिन्तामणिप्रभ है सभी वरदान देने के लिये । परिणाम शुद्धि, ममाघि मुझमे योधिका मनार हो,
हो प्राप्ति चास्माकी तथा शिवसोएको भवपार हो ।११ मुनिनायकों के वृन्द जिसको स्मरण करते हैं सदा,
जिनका सभी नर अमरपति भी स्तवन करते हैं सदा । सच्छास्त्र वेद-पुराण जिमको मयंदा हैं गा रहे,
यह देवका भी देव बस मेरे हृदय मे पा रहे ।१२। जोअन्तरहित सुबोध-दर्शन और सौग्यस्वरप है,
जो सब विकागे मे रहित, जिससे प्रग्नग भयकूप है। मिलता बिना न समाघि जो, परमात्म जिसका नाम है,
देवेग यह उर पा से मेरा ना हराम है ॥१३॥ जो काट देता है जगन दुनिमित जालफो,
जो देख लेता है जगत की भीतरी भी मालफो। योगी जिमे हैं देव मरते, अन्तरारमा जो स्वयम्,
देश यह मेरे हवय पुरका निवामी हो म्वया ॥१॥ फंगल्य मन्मागं फो विपला रहा है जो हमे,
जो जनमके या मरण पता न दुस-गोह में। प्रगगेर हो तोरपदी दूर है मुफ्त में,
देवेग वह पाकर लगे मेरे हर मागे ॥१४॥ अपना निया गित तयारी-निमागि ,
गगादि रोप-पर भी एफ मो गमगा गि। नो मागमय, नित्य, मष्ट्रियों में शीन है,
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। ६३ ) - जिनदेव देवेश्वर वही मेरे हृदय में लीन है ॥१६॥ संसारको सब वस्तुप्रोमे ज्ञान जिसका व्याप्त है,
___जो कर्म-बन्धन-हीन, बुद्ध, विशुद्ध सिद्धि प्राप्त है । जो ध्यान करने से मिटा देता सकल कुविकारको,
देवेश वह शोभित करे मेरे हृदय-प्रागार को ॥१७॥ सम-सद्ध जैसे सूर्य किरणों को न छू सकता कही,
उस भांति कर्म-कलडू दोषाकर जिसे छूता नहीं। नो है निरंजन वस्त्वपेक्षा, नित्य भी है एक है,
उस प्राप्त प्रभुको शरणमे हूं प्राप्त, जो कि अनेक है ।१८। वह दिवसनायक लोकका जिसमे कभी रहता नहीं,
त्रैलोक्य-भासक ज्ञान रवि पर है वहां रहता सही। जो देव स्वात्मामे सदा स्थिर-रूपता को प्राप्त है, ___मैं हूँ उसीकी शरणमे, जो देववर है, प्राप्त है ।१९। अवलोकने पर शानमें जिसके सकल ससार ही,
है स्पष्ट दिखता एकसे हैं दूसरा मिलकर नहीं। जो शुद्ध, शिव है, शान्त भी है, नित्यता को प्राप्त है,
उसकी शरण को प्राप्त है, जो देववर है. प्राप्त है ।२० वृक्षावली जैसे अनलकी लपटसे रहती नहीं,
____त्यों शोक मन्मथ, मानको रहने दिया जिसने नहीं। भय, मोह, नींद, विषाव, चिन्ता भी न जिसको व्याप्त है, - उसको शरणमें हूं गिरा, जो देववर है, प्राप्त है ।२१॥ विधिवत शुभासन घासका या भूमिका बनता नहीं ।
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तो रोंगटोका छिद्रगरण कैसे नहीं खो जायगा ॥२७॥ संसाररूपी गहन मे है जीव बहु दुख भोगता,
वह बाहरी सब वस्तुप्रो के साथ कर संयोगता । यदि मुक्ति की है चाह तो फिर जीवगण ! सुन लीजिये, ___मनसे, वचनसे, कायसे उसको पलग कर दीजिये।२८। देही! विकल्पित जालको तू दूर कर दे शीघ्र ही,
संसार-वनमें डोलनेका मुख्य कारण है यही। तू सर्वदा सबसे अलग निज प्रात्मा को देखना,
परमातमा के तत्त्वमे तू लीन निजको लेखना ।२६। पहले समय में प्रातमा ने कर्म हैं जैसे किये,
वेसे शुभाशुभ फल यहां पर सांप्रतिक उसने लिये। यदि दूसरे के कर्मका फल जीवको हो जाय तो,
हे जीवगण! फिर सफलता निज कर्मको खो जाय तो।३० अपने उपाजित कर्म-फलको जीव पाते हैं सभी,
उसके सिवा कोई किसीको कुछ नहीं देता कभी। ऐसा समझना चाहिए एकाग्र मन होकर सदा,
'दाता अमर है भोगका' इस बुद्धिको खोकर सदा ।३१॥ सबसे अलग परमात्मा है, अमितगति से वन्ध है,
हे जीवगरण ! वह सर्वदा सब भांति ही अनवद्य है। मनसे उसी परमात्माको 'ध्यान में जो लायगा,
वह श्रेष्ठ लक्ष्मीके निकेतन मुक्ति पद को पायगा ।३२॥ पढ़कर इन द्वात्रिंश पद्यको, लखता जो परमात्मवन्धको । वह अनन्यमय हो जाता है,मोक्ष-निकेतन को पाता है ॥३३॥
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निर्वाण काण्ड (गाथा) प्रहावयम्मि उपहो चबाए बामुपुलनिएगाहो । उन्नते ऐमिनिलो पावाए रिपबुशे महावीरो ॥१॥ बोसं तु जिरणवरिश अपरामुरबंदिश बुस्लेिला । मम्मे गिरिनिहरे रिणवाणगया रानो तेति ।।२।। वरत्तो य बरंगो नायरदत्तो य तारवर रायरे । प्रायोडीनो रिणबाणगया रामो तेति II
मिनामि परजणो मंचमारो तर अरिणरहो। वाहत्तरिकोडोली उन्नन्ते सत्तसया सिद्धा ॥४॥ राममुवा बेणि जणा लाडनाय पंचकोडीनो। पावागिरवरसिहरे गिन्चारणगया रामो तेचि ॥शा पंडुनुमा तिप्लि नगा विडरिदाण प्रकोरीयो । सत्तजयगिरि तिहरे गिनायगया णमो तेति ॥३॥ मते ने बलनहा जाबरारदारा अट्टकोडीनो । गलपंये गिरितिहरे रिणवारणगया रामो तेसि । रामहपू मुगीनो गवयगबाक्लो य पीलमहणीलो । पवररावीकोडीमो तुङ्गीगिरिणिचुरे बन्दे ॥ गंगाएंगकुमारा कोडोपंचमुरिणबरा सहिया ! सुबरणागिरिवर सिहर गिन्चारणगरा णमो नि ।।६ बहनुहायस्य नुवा कोडीपंचदमुनिबरा सहिया । रेवाच्यतो पिन्वारागरा एमो तेति ॥१०॥
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( ९७ ) रेवाणइए तीरे पच्छिमभायम्मि सिद्धवरकूडे । दो चक्की दह कप्पे पाहुट्टयकोडिरिणबुदे बंदे ॥११॥ बडवारणीवररगयरे दक्खिरणभायम्मि चूलगिरिसिहरे । इदजीदकुम्भयरणो रिणवारणगया गमी तेसि ।।१२।। पावागिरिवरसिहरे सुवण्णभद्दाइमुरिणवरा चउरो। चलणाईतडग्गे रिणवारणगया णमो तेसि ॥१३॥ फलहोडीवरगामे पच्छिमभायम्मि दोणगिरिसिहरे । गुरुदत्ताइमुरिणदा रिणवारणगया णमो तेसि ॥१४॥ रणायकुमारमुरिणदो बालमहावालि चेव अज्झेया। अट्ठावयगिरिसिहरे रिणवारणगया णमो तेसि ॥१५॥ अच्चलपुरवरणयरे ईसाणे भाए मेढगिरिसिहरे । प्राहुट्टयकोडिनो रिणवारणगया णमो तेसि ॥१६॥ वंसत्थलवरणयरे पच्छिमभायम्मि कुन्थुगिरिसिहरे । कुलदेसभूसरणमुरणी रिणवाणगया णमो तेसि ।।१७।। जसरहरायस्स सुश्रा पचसयाई फलिंग-देसम्मि । कोडिसिला कोडिमुरणी रिणवारणगया णमो तेसि ॥१८॥ पासस्स समवसरणे सहिया वरदत्तमुरिणवरा पंच । रिस्सिदे गिरिसिहरे रिणवारणगया णमो तेसि ॥१६॥
(अतिशयक्षेत्र काण्टम् ) पास तह अहिरणदरण रणायद्दहि मगला उरे वदे । अस्सारम्भे पट्टरिण मुरिणसुचनो तहेव वंदामि ॥१॥ बाहुबलि तह वंदमि पोयरणपुरहत्थिनापुरे वदे ।
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(६८)
शांति कुयुव अरिहो वारणारसिए सुपासपासं च ॥२॥ महराए अहिछित्ते वीर पास तहेव वंदामि । जवुमुरिणदो वदे रिगन्वुइपत्तो वि जंबुबरणमहणे ॥३॥ पंचकल्याणठाणईजाणवि सजायमझलोयम्मि । मणवयकायसुद्धी सव्व सिरसा रणमस्सामि ॥ ४ ।। अग्गलदेव वन्दमि वरणयरे रिगवडकुण्डली वन्दे । पासं सिवपुरि वदमि होलागिरिसखदेवम्मि ॥ ५ ॥ गोमटदेवं वंदमि पचसय घणुहदेहउच्चन्तं । देवा कुरणन्ति बुट्टी केसरिकुसुमारग तस्स उवरिस्मि ।। ६ ॥ रिणवारठाण जारिग वि अइसयठारणागि अइसए सहिया । सजादमिच्चलोए सव्वे सिरसा रणमस्सामि ॥ ७ ॥ जो जरण पढई तियाल रिणव्वुइकडपि भावसुद्धीए । भुजदि परसुरसुक्ख पच्छा सो लहइ रिणवारण ॥८॥
महावीराष्टक स्तोत्रं
(शिखरिणी) यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्विदचितः,
समं भाति ध्रौव्य-व्यय-जनि-लसतोऽन्तरहिताः । जगत्साक्षी मार्ग-प्रकटन परो भानुरिव यो,
महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ॥१॥ अताम्र यच्चक्षुः कमलयुगलं स्पंदरहितं,
जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि ।
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( ६६ )
स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिथिमला ॥ महावीर . ।।२।। नमन्नाकेंद्राली मुकुटमणिभानालजटिलं,
सत्वादाभोजद्वयमिह यदीयं तनुभृतां । भवज्ज्वालाशांत्यं प्रभवति जलं वा स्मृतमपि || महावीर. |३|
यदर्चाभावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह, क्षणादासीत्स्वर्गी गुरणगरणसमृद्धः सुखनिधिः ।
लभन्ते सद्भक्ताः शिवसुखसमाज किमु तदा ||महावीर . ॥४॥ कनत्स्वरर्णा भासोऽप्यपगत-तनुर्ज्ञान - निवहो, विचित्रात्माप्येको नृपति-वर सिद्धार्थ तनयः । श्रजन्मापि श्रीमान् विगत भव रागोद्भुत गतिः ॥ महावीर . । ५ । यदीया वाग्गगा विविध-नय- कल्लोल-विमला, वृहज्ज्ञानांभोभिर्जगति जनता या स्नपयति । इदानीमप्येषा बुधजन मरालः परिचिता ॥ महावीर ॥ ६ ॥ अनिर्वारोद्र कस्त्रिभुवनजयी काम-सुभटः,
कुमारावस्थायामपि निज-बलाद्येन विजितः ।
स्फुरन्नित्यानव- प्रशम-पद-राज्याय स जिनः ॥ महावीर ॥७॥ महामोहातंक प्रशमन पराकस्मिक भिषक,
निरापेक्षो बघुवदित-महिमा मगलकरः ।
शरण्यः साधूनां भव-भयभृतामुत्तमगुणो ॥ महावीर ।। ८ ।। महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या भागेन्दुना कृतं ।
यः पठेच्छृणुयाच्चापि स याति परमां गतिम् ।
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(१००) ' महावीराप्टक स्तोत्र (भाषा) चेतन अचेतन तत्त्व जेते. हे प्रनन्त जहान मे । उत्पाद व्यय ध्रुवमय मुकुरवत, लसत जाके जान मे । लो जगतदरणी जगत मे सन्मार्ग-दर्शक रवि मनो। ते वीर स्वामीजी हमारे, नयन-पथगामी वनो ॥१॥ टिमिकार विन युग कमल लोचन, लालिमा ते रहित हैं। बाए पन्तर की क्षमानो, भविजनों से कहत हैं। प्रति परम पावन शान्तिमुद्रा, जासु तन उज्ज्वल घनो। ते वीर स्वामोजी हनारे नयन-पथगामी बनो ॥२॥ निहिं स्वर्गवाती विपुल तुरपति नन्न तन वह नमत हैं । तिन मुकुटमणि के प्रभामडल पद्य-पद मे ललत हैं। जिन मात्र सुमरन रूप जलते, हने भव प्रातप घनो। ते वीर स्वामीजी हमारे नयन-पपगामी बनो ॥३॥ मन मुदित मंडूक ने प्रभु पूनवे मनसा करी। तत्छन लही तुर सम्पदा, बहुऋद्धि गुणनिघि सो भरी ॥ जिहिं भक्ति तो सद्भक्तजन लहँ, मुक्तिपुर को सुख घनो। ते वीर स्वामीजी हमारे, नयन-पथगामी बनो ।।४।। कंचन तपतक्त ज्ञाननिधि हैं, तदपि ज्ञान वजित रहे । जो हैं अनेक तथापि इक, सिद्धार्थ सुत भव रहित है। जो वीतरागी गति रहित हैं तदपि अद्भत गतिपदो। ते वीर स्वामीजी हमारे, नयन-पथगामी बनो ॥५॥ जिनकी वचनमय अमल सुरसरि, विविध नय लहरै घरै।
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(१०) जो पूर्ण ज्ञान स्वरूप जल से, न्हवन भपिजन को करें । तामं जो लगि धने पंडित, हस हो तोहत मनो। ते पोर स्वामीजी हमारे नयन-पयगामो बनो ।।६।। जाने जगत पी जन्तु जनता, पारी स्वयश तमाम है। है येग जापो प्रमिट ऐसो, विकाट प्रतिभट फाम है। ताको स्वदल से प्रौढयय में शान्ति शासन हित हनो। ते घोर स्वामीजी हमारे नयन-पथगामी चनो ॥७॥ नयमोप्त भव में साधुनन को मरण उत्तम गुण भरे। निःस्वार्थ के ही जगत बांधव, विदित या मगल करें ।। मोह स्पो रोग हनिषे, बंधवर अद्भ.त मनो। ते वीर स्वामीजी हमारे नयन-पथगामी बनो । मोहा-महावीर प्राटक रच्यो, 'भागवन्द' रचि गान ।
पढ़े सुन जो भाव नों, ते पा निरयान ।।
वारह भावना ( मंगतराय हत) दोहा-बन्दू श्री प्ररहन्त पद, धोतराग विज्ञान । __ वर बारह भावना, जगजीयन हित जान ।।
(यिनपद छन्द) कहा गये चक्री जिन जीता, भरतखण्ड सारा । फहां गये वह रामर लछमन जिन रावन मारा ।। कहां कृष्ण रुक्मिणि सतभामा, अरु संपत्ति सगरी। कहां गये वह रङ्गमहल पर, सुवरन की नगरी ॥२॥
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( १०२ )
वही रहे वह लोभी कौरव, जून मरे रन मे । गये राज तल पाडव वनको, प्रगति लगी तनमें ॥ मोह नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को ।
हो दयाल उपदेश करें, गुरु बारह भावन को ॥ २ ॥ अधिर भावना
सूरज चांद छिपे निकले ऋतु फिर फिर कर आ । प्यारी बायु ऐसी बोते, पता नहीं पावें ।
पर्वत - पतित नदी सरिता जल, बहकर नह हटता । स्वास चलत यो घटै काठ ज्यो, आरेसों कटता ॥४॥ श्रोतवृन्द ज्यों गलं धूपमे, वा अजुलि पानी । छिन छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ॥ इन्द्रजाल श्राकाश नगर सब, जगतम्पत्ति सारी । अथिर रूप संसार विचारों, सब नर अरु नारी ॥५॥
अशरण भावना
कालसिंहने मृगचेतन को घेरा भव वन मे । नहीं बचावनहारा कोई, यो समभो मन मे । मन्त्र यन्त्र सेना धन सम्पत्ति, राज पाट छूटे | वश नहि चलता काल लुटेरा, काया नगरी लूटे | चकरतन हलधर सा भाई, काम नहीं आया । एक तीरके लगत कृष्णकी, विनश गई काया ॥ देव धर्म गुरु शरण जगतमे, और नहीं कोई भ्रम से फिर भटकता चेतन, यू हि उमर खोई ॥ ७ ॥
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नमार भावना अनममरन मग जरा रोगमे, सदा दुपी रहता। द्रव्य क्षेत्र पर मालभायभव, परिवर्तन सहता ।। ऐदन मेदन नरफ परागति, यप बन्धन सहना । रागउदयसे पुप सुरगतिमे, कहाँ सुपी रहना ॥ भोगि पुण्यफल हो पइन्द्री, क्या इसमे लाली । कुतवाली दिन चार पही फिर, दुरपा घर जाली ।। मानुपजन्म अनेक विपतिमय, काही ग सुख देगा । पचमति तुम मिल, शुभाशुभका मेटा लेखा
पर भागना जन्म मरे प्रपोला चेतन, पुक्षय का भोगी ।
और शिमीका पपा फदिन यह, देह जुदा होगी। कमला चलतम पंड जाप, मरघट सफ परिवारा। अपने अपने मुग्यको रो, पिता पुन दारा ॥१०॥ ज्यों मेले मे पंयोजन मिलि, नेह फिर घरते । ज्यों सरयर रेन बसेरा, पंछी प्रा करते ॥ कोस फोई दो फोस फोई, फिर एक पफ हारे। जाय अकेला हंस संगमे, कोई न पर मार ॥११॥
भिम भावना मोहम्टप मृगतृष्णा जगमें, मिथ्या जल चमकं । मृग चेतन नित श्रम में उड उठ, वोर्ड थफ पफ ।। बल नहिं पापं प्राण गमाये, भटक भटफ मरता । वस्तु पराई मान अपनी, भेव नहीं करता ।।१२।।
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( १०४ ॥
तू चेतन अरु देह अचेतन, यह, जड़ तू ज्ञानी । मिले अनादि यतनते बिछुडै ज्यो पय पर पानी ॥ रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना । जोलौं पुरुष थके न तौलों, उद्यमसों चरना ॥१३॥
अशुचि भावना तू नित पोखे यह सूखे, ज्यों घोवे त्यो मैली। निशदिन करे उपाय देहका, रोगदशा फैली ।। मात-पिता-रज-धीरज मिलकर, बनी देह तेरी। मांस हाड नस लहू राधकी, प्रकट व्याधि घेरी ॥१४॥ काना पोंडा पड़ा हाथ यह, चूस तो रोके । फलै अनन्त जु धर्म ध्यानकी, भूमिविषै बोवें। केसर चन्दन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी। देह परसते होय अपावन, निशदिन मल जारी ॥१५
प्रास्रव भावना ज्यों सर-जल पावत मोरी त्यों, प्रास्रव कर्मन को। दवित जीव देश गहै जब पुद्गल भरमन को।। भापति प्रास्रवभाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को। पाप पुण्य को दोनों करता, कारण बन्धन को ।।१६।। पन मिथ्यात योग पन्द्रह, द्वादश अविरत जानो। पञ्चरु बीस कषाय मिले, सब सत्तावन मानो। मोहभाव की ममता टार, पर परगल खोते। करे मोख का यतन निरालय, ज्ञान जनी होते ॥१७॥
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यो मोरी में राट लगाएं तर म जाता । स्या पासवको रौनयर, पयो नमन माता ॥ पस्वमहाबत RRR मार, पवन पाय मनो। बाविषम परि an, बाराम को ॥१८॥ यह समाप मापन IRRAT, भारोमोते । सुपन दशा में जाना पग, ri हे मोसे । भान गुमागुन सि, शुभ मापन मयर पार्य । रगत यह नाय पो मनपा पार जाये ॥१॥
गामा ज्यों मरवर जालमा वसा, तपन प२ भारी। संबर रोएं, निराहं मोपन हारी ।। उदय भोग सपिपास रामप, पप गाय प्राम डाली। दुजोरै प्रविश पाये, वासविर्ष मासी ॥२॥ पहली मकरोय नहीं, पुम मर फाम तेरा । दूनी परंशु उधम फर मिट जगतफेरा ।। सबर महित करो तप प्रानी, मिल मुक्ति गरगी। इन दुलहिन को यही महनी, जानं सब जानी ॥२१॥
लोग नायना सोक प्रलोक प्रकाश माहित पिर, निराधार मानो। पूरपरप कर कटी भये पद, द्रव्यनमो मानो। इसका कोई न करता हरता, अमिट अनावो है।
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( १०६ )
जीवरु पुद्गल नाचे यामै, कर्म उपाधी है ॥ २२ ॥ पाप पुन्यसों जीव जगतमे नित सुख दुख भरता । अपनी करनी श्राप भरे शिर-प्रौरन के धरता ।। मोहकर्म को नाश मेटकर सब जग की प्राशा । निज पदमे थिर होय लोकके, शीश करो ब्रासा ॥ २३ ॥ बोधिदुर्लभ भावना
दुर्लभ है निगोद से थावर, श्ररु त्रसगति प्रानी । नरकाया को सुरपति तरसं, सो दुर्लभ प्रानी ॥ उत्तम देश सुसङ्गति दुर्लभ, श्रावककुल पाना । दुर्लभ सम्यक दुर्लभ सयम, पञ्चम गुणठाना ||२४|| दुर्लभ रत्नत्रय प्राराधन, दीक्षा का धरना । दुर्लभ मुनिवर को व्रत पालन, शुद्धभाव करना ॥ दुर्लभ ते दुर्लभ है चेतन, बोधि ज्ञान पावे । पाकर केवलज्ञान नहीं, फिर इस भव में आवै ।। २५ ।। धर्म भावना हो सुछन्द जग पाप करें, सिर करता के लावै । कोई छिनक कोई करता से, जगमे भटकावै ।। २६ ।। वीतराग सर्वज्ञ दोष बिन, श्रीजिन की बानी । सप्त तत्त्वका वर्णन जामै, सबको सुखवानी ॥ इनका चितवन बार बार कर श्रद्धा उर धरना । 'मंगत' इसी जतनतै इकदिन, भवसागर तरना ॥२७॥ ॥ इति ॥
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( tes )
मेरी द्रव्य पूजा
१० जु
कृमिकुल पलित नोर है जिसमे मच्छ
हैं नरते श्री वहीं जनमते प्रभो मलादिक भी करते ||
་
मेटफ फिरते ।
दूध निकालें लोग सुदाफर, बच्चे को पीते पीते ।
है उच्छिष्ट नीतिलब्ध यो योग तुम्हारे नहिं बोले ||१||
प्रिया
दही धूनादिक भी वैसे है कारण उनका दूध यथा । फूलों को भ्रमरादिक तू घे, ये भी है उच्छिष्ट तथा ॥ दीपक तो पन फापानल, जलते जिनपर फोट सदा । त्रिभुवन सूयं प्रापको प्रथवा दीप दिखाना नहीं भला ॥२॥ फल मिष्टान्न अनेक यहां पर उनमें ऐसा एक नहीं । ने को. ग्राफर प्रभुवर छुपा नहीं || यो पवित्र पदार्थ प्ररचिकर, तू पवित्र सब गुरण घेरा । किस वि क्या हि चढाऊ, चित्त डोलता है मेरा ॥३॥ प्रौ श्राता है ध्यान तुम्हारे, क्षुधा तृपा का लेग नहीं । नाना रस युत ग्रन पान का, ग्रतः प्रयोजन रहा नहीं । नहि वादा न विनोद भाव नहि, राग श्रंशका पता कहीं । इमसे व्यर्थ चढाना होगा, श्रीषघ सम जव रोग नहीं । यदि तुम कहो रत्न वस्त्रादिक, भूपरण क्यों न चढाते हो । ग्रन्थ सदा पाचन हैं पर्पण करते वर्षों सकुचाते हो || तो तुमने निःसार समझ जब खुशी खुशी उनको त्यागा । हो वैराग्य-लीनमति स्वामिन् ! इच्छा का तोड़ा तागा ॥५॥
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( १०८ )
तब क्या तुम्हे चढाऊँ वे ही, करूं प्रार्थना ग्रहण करो । होगी यह तो प्रकट पज्ञता, तव स्वरूप को सोच करो || मुझे धृष्टता दीखे अपनी और श्रश्रद्धा बहुत बडी । हेय तथा सत्यक्त वस्तु यदि, तुम्हे चढाऊँ घडी घडी || ६ || इससे युगल हस्त मस्तक पर रखकर नस्त्रीभूत हुआ । भक्ति सहित मै प्ररणम् तुमको बार-बार गुणलीन हुश्रा || सस्तुति शक्ति समान करू श्री सावधान हो नित तेरी । काय वचन की यह परिणित ही, अहो द्रव्य पूजा मेरी ॥७॥ भाव भरी इस पूजा से ही, होगा श्राराधन तेरा ।
होगा तब सामीप्य प्राप्य श्रौ, तभी मिटेगा जग फेरा ॥ तुझमे मुझमे भेद रहेगा, नही स्वरूप से तब कोई । ज्ञानानन्द कला प्रकटेगी, थी श्रनादि से जो खोई ||६|| वैराग्य भावना
दोहा - बीज राख फल भोगले, ज्यो किसान जग माहि । त्यो ची सुख मे मगन, धर्म विमारे नाहि ॥ योगीरासा वा नरेन्द्र छन्द
इस विधि राज्य करे नर नायक भोगे पुण्य विशाला । सुख सागर मे मग्न निरन्तर जात न जानो काला ॥ एक दिवस शुभकर्म योग से क्षेमङ्कर मुनि वन्दे । देखे श्रीगुरु के पद पङ्कज लोचन श्रलि श्रामन्दे ॥ १॥ तीन प्रदक्षिणा दे शिरतायो कर पूजा स्तुति कीनी ।
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( १०६ ) साधु समीप विनय कर बैठो चरणो दृष्टि दीनी। गुरु उपदेशो धर्म शिरोमरिण सुन राजा वैरागी ।। राज्य रमा वनितादिक जो रस सो सब नीरस लागी ॥२॥ मुनि सूरज कथनी किरणावलि लगत भर्म बुद्धि भागी। भव तन भोग स्वरूप विचारो मरम धर्म अनुरागी ।। या ससार महा वन भीतर, भर्म छोर न पावै । जनम मरन जरा दोवावे जीव महादुख पावे ॥३॥ कबहुँ कि जाय नर्क पद भुजे छेदन भेदन भारी । कबहुं कि पशु पर्याय घरे तहां बघ बन्धन भयकारी ।। सुरगति मे पर सम्पति देखे राग उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपतिमय सब सुखी नहिं कोई ।।४॥ कोई इष्ट वियोगी विलखे कोई अनिष्ट संयोगी । कोई दोन दरिद्री दीखे कोई तन का रोगी । किस ही घर कलिहारी नारी, के बैरी सम भाई। किस ही के दुख बाहर दोखे किस ही उर दुचिताई ।।५।। कोई पुत्र बिना नित भूरे होय मरै तब रोवै । खोटो सगति से दुख उपजे क्यों प्रारणी सुख सोवे ।। पुण्य उदय जिनके तिनको भी नाहिं सदा सुख साता। यह जग बास यथारथ दीखे सवही है दुख पाता ॥६॥ जो संसार विष सुख हो तो तीर्थर क्यो त्यागे । काहे को शिव साधन करते संयम से अनुरागे॥ देह अपावन प्रथिर घिनावन इसमे सार न कोई ।
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सागर के जल से शुचि कोर्जे तो भी शुद्ध न होई ॥७॥ सप्त कुधातु भरी मल मूत्र से चर्म लपेटी सोहै । अन्तर देखत या सम जग मे और अपावन को है ॥ नव मल द्वार श्रवै निशि वासर नाम लिये घिन नावे | व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहाँ कौन सुधी सुख पावे ॥८॥ पोषत तो दुख दोष करे प्रति सोषत सुख उपजावे । दुर्जन देह स्वभाव बराबर मूरख प्रीति बढावे ॥ राचन योग्य स्वरूप न याको विरचन योग्य सही है । यह तन पाय महातप कीजं इसमे सार यही है ॥ ॥ भोग बुरे भव भोग बढावै बैरी हैं जग जी के । वे रस होय विपाक समय प्रति सेवत लागेँ नीके | वज्र अग्नि विषसे विषधर से है अधिक दुखदाई । धर्म रत्न को चोर प्रबल अति दुर्गति पथ सहाई ॥ १० ॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी भोग भले कर जाने । ज्यो कोई जन खाय धतूरा सो सब कंचन माने ॥ ज्योज्यो भोग संयोग मनोहर मनवांछित जन पावे । तृष्णा डाकिनी त्यो त्यो भके जहर लोभ विष लावे ॥। ११॥ मै चक्री पद पाय निरन्तर भोगे भोग घनेरे ।
तो भी तनिक भये ना पूरण भोग मनोरथ मेरे ॥
राज समाज सहा अघ कारण बैर बढावन हारा । वेश्या सम लक्ष्मी प्रति चंचल इसका कौन पत्यारा ॥ १२ ॥ मोह सदा रिपु वैर विचारे जग जीव सङ्कट टारे ।
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( १११ ) कारागार बनिता बेडी परजन है रखवारे । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप ये जिय को हितकारी । ये ही सार प्रसार और सब यह चक्री चित धारी ॥१३॥ छोडे चौवहरत्न नवोनिधि और छोडे सग साथी । कोडि अठारह घोड़े छोडे चौरासी लख हाथी । इत्यादिक सम्पति बहु तेरी जीर्ण तृणवत् त्यागी । नीति विचार नियोगी सुत को राज्य दियो बडभागी ॥१४॥ होइ निःशल्य अनेक नपति सग भूषण वसन उतारे । श्री गुरु चरण घरी जिन मुद्रा पंच महाव्रत धारे । धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम धन्य यह धैर्य धारी । ऐसी सम्पति छोड बसे वन तिन पद घोक हमारी ॥१५॥ दोहा-परिग्रह पोट उतार सब, दीनो चारित्र पंथ । निज स्वभाव मे थिर भये,बज्रनाभि निग्रंथ ॥इति।।
गुरु स्तुति (१) बन्दो दिगम्बर गुरुचरन, तरन तारन जान । जे भरम भारी रोगको, है राजवैद्य महान ।। जिनके अनुग्रह बिन कभी, नहीं कट कर्म जंजीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ॥१॥ यह तन अपायन अशुचि है, संसार सफल असार । ये भोग विष पकवान से, इस भाति सोचविचार ।। तप विरचि बीमुनि बन बसे, सब त्यागि परिग्रह भीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरो हरो पातक पीर ॥
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( ११२ । जे काच कंचन सम गिन, अरि मित्र एक सरूप । निन्दा बडाई सारिखी, वन खंड शहर अनूप ।। सुख दुःख जीवन मरन मे, नहिं खुशी नहि दिलगीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हो पातक पीर ॥३॥ जे बाह्य परवत वन बस, गिरि गुहा महल मनोग । सिल सेज समता सहचरी, शशिकरण दीपकजोग । मृग मित्र भोजन तप मई, विज्ञाव निरमल नीर । ते साधु मेरे मन बसौ, मेरी हरो पातक पीर ॥४॥ सूखै सरोवर जल भरे, सूखै तरङ्गनि-तोय । वाट बटोही ना चले, जहँ घाम गरमी होय ॥ तिस काल मुनिवर तप तप, गिरि शिखर ठाडे धीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ।।५।। घनघोर गरजे घनघटा, जल परै पावसकाल । नहुँ ओर चमक बीजुरी, प्रति चले शीतल व्याल (र) तरहेट तिष्ठ तब जती, एकात अचल शरीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ॥६।। जब शीतमास तुषारसौ, दाहैं सकल बनराय । जब जमै पानी पोखरा, थरहरै सबकी काय ।। तब नगन निवस चौहटै, अथवा नदी के तीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ॥७॥ कर जोर 'भूधर' बीनवै, कब मिले वे मुनिराज । यह पास मनकी कब फले, मेरे सरे सगरे काज ।।
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संसार विषम विदेश में, जे विना कारण वीर । ते सानु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ।।
गुरु स्तुति (२) दोहा [राग-भरथरी] ते गुरु मेरे मन बसो जे भव-जलधि-जिहाज । - पाप तिर पर तारहीं, ऐसे श्री ऋषिरान । ते ॥१॥ मोह महारिपु जीतिके, छाड्यो सब घरवार । होय दिगम्बर बन बसे, प्रातम शुद्ध विचार । ते. ॥२॥ रोग उरग-विल वपु गिण्यो, भोग भुजङ्ग समान । कदलीतरु संसार है, त्याग्यो यह सब जान । ले० ॥३॥ रत्नत्रय निधि उर धरै, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल । मारयो काम पिशाच को, स्वामी परम दयाल वि०॥४॥ पंच महावत प्रादर, पांचो समिति-समेत । तीन गुपति पाल सदा, अजर-अमर पद हेत । ते० ॥५॥ धर्म धरै दसलक्षणी, भावै भावना सार । सहै परीषह बीस हूँ, चारित-रतन भण्डार । ते० ॥६॥ जेठ तपै रवि प्राकरी,सूखे सरवर नीर । शैल-शिखर मुनि तप तप, दाझै नगन शरीर । ते० ॥७॥ पावस रेन डरावनी, बरसे जलघर धार । । तरुतल निवस साहसी, बाजे झंझाव्यार । ते ॥६॥ शीत पडे कपि-मर गले, वाहे सब बनराय । ताल तरंगनि के तट, ठाडे ध्यान लगाय । ते. ॥९
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(१८) दहि विवि दुबर नप तप, तीनो लालमन्सार । लागे नहज मल्पमे, तनी नमत निबार तेि 1201 पूरव भोग न दिनदै प्रागम बांटा नाहि । च९ गति के दुबत्तों डर, मुन्त लगी शिव माहि दि.1 1११॥ रङ्ग महन्न मे पोहने, कोमल मेज बिठाय । ते पच्छिम निशि नृमि में, मोदै नंबरि काय ते ॥१२॥ गन चटि चलते गग्बी , नेना मजि चतुरङ्ग। निरवि निरन्त्रि पर दे घरै, पानं करणा अन ति ।। वे गुरु चरण जहां घरे. जगमे तीरय नेह । सो रन मम मस्तक चढो, 'नूघर' मागे येह ति०।।१४
श्री शांतिनाय स्तोत्र भये माप जिन देव जगत मे मुत्र विस्तारे।
तारे भव्य अनेक तिन्हों के नंकट टारे ।। टारे पाठों कम मोस मुख तिन को भारी ।
भारी विरद निहार लही में शरण तिहारी। चरणन को सिर नाय हूं, दुख दरिद्र संताप हर। हर सकल कर्म छिन एक मे, शांति लिनेश्वर गाति कर ।। दोहा-सारङ्ग लक्षरण चरण मे, उन्नत धनु चालीस । हाटक वर्ण शरीर दुति,नमूशांति जग ईश ।।
॥ठन्न जगप्रयात ॥ मनु पापने सर्वके फंद तोडे, गिना कछु मैं तिन्हो नाम गोड़े। पढ्यो अधिवीच श्रीपाल राई, लपो नाम तेरो भएये सहाई ।।
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( ११५ ) घरो रायने सेठको शूलिकाप, जपी आपके नामको सार जायें । भये थे सहाई तबै देव आये, करी फूल वर्षासु विष्टर बिठाये ।। जब लाखके धाम सब ही प्रजारो, भयो पांडवों पै महाकष्ट भारी। तब नाम तेरे तनी टेर कीनी, करी थी विदुर ने वही राह दीनी।। हरी द्रौपदी धातुकोखंड मांही, तुम्ही हो सहाई भला और नाहि॥ लियो नामतेरो भलो शील पालो, बचाई तहाँत सबै दुःख टालो।। जबै जानकी रामने जो निकारी, धरे गर्भको भार उद्यान डारी। रटो नाम तेरो सबै सौख्यदाई, करी दूर पोडासु छिन ना लगाई। विसन सात सेव कर तस्कराई, सुअंजनको तारयो घडी ना लगाई सहे अजना चन्दना दुःख जेते, गये भाग सारे जरा नाम लेते। घडे बीचमे सासने नाग डारो, भलो नाम तेरोजु सोमा संभारो। गई काढने को भई फूलमाला, भई है विख्यातं सबै दुःख टाला।। इन्हे मादि देके कहालौ बखानो,सुनो विरदभारी ति:लोक जानी अजी नाथ मेरी जरा ओर हेरो, बड़ीनाव तेरी रती बोझ मेरो॥ गहो हाथ स्वामी करो वेग पारा,कहूँ क्या अब प्रापनी मै पुकारा सबै ज्ञानके बीच भासी तुम्हारे, करो देर नाही अहो शातिप्यारे।।
पत्ता श्रीशांति तुम्हारी, कीरति भारी, सुन नर नारी गुणमाला । 'बख्तावर' ध्यावे, 'रतन सुगावे, मम दुख दारिद सब टाला'।।
श्री वीर स्तवन श्रीमत् महावीर विभो मुनीन्यो, देवाधिदेवेश्वर शानसिन्धो । स्वामिन तुम्हारे पदपद्म का हो, प्रेमी सदाही यह चित्त मेरा।
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( ११६ ) स्वामिन् किसीका न बुरा विचारू,सन्मार्गपै मै चलते न हारू। तत्त्वार्थ श्रद्धान सदैव धारू, दो शक्ति हो उत्तम शील मेरा।। सदा भलाई सबको करूं मै,सामर्थ्य पा जीव दया घरूं मै। ससार के क्लेश सभी हरू मै, हो ज्ञान चारित्र विशुद्ध मेरा॥ स्वामिन् तुम्हारी यह शांत मुद्रा,किसके लगाती हियमे ना क्षुद्रा कहे उसे क्या यह बुद्धि क्षुद्रा,स्वोकारिये नाथ प्रणाम मेरा ।। प्रभो तुम्ही हो निकटोपकारी,प्रभो तुम्ही हो भवदुःखहारी। प्रभो तुम्हींहो शुचिपंथचारी, हो नाथ साष्टांग प्रणाम मेरा ॥ जो भव्य पूजा करते तुम्हारी,होती उन्हीं की गति उच्चधारी। प्रसिद्ध है 'दादुरफूल' वारी, सम्पूर्ण निश्चय नाथ मेरा॥ मेरी प्रभो दशन शुद्धि होवे, सद्भावना पूर्ण समृद्धि होवे । पांचो व्रतो की शुभ सिद्धि होवे,सबुद्धि पै हो अधिकार मेरा। पाया नही गौतम विज्ञ जोलौं,खिरीन वाणी तव दिव्य तौलौं। पीयूष से पात्र भरा सतौलौं, मै पात्र होऊ अभिलाष मेरा। प्रभो तुम्हे ही दिन रात ध्याऊ, सदा तुम्हारे गुरणगान गाऊ। प्रभावना खूब करू कराऊ, कल्याण होवे सब भाँति मेरा । श्री वीर के मारग पे चले जो,धी वीर पूजा मन से करे जो। सद्भव्य वीर स्तव को पढे जो, वे लब्धियाँ पा सुख पूर्ण होते।
ऋषि-मण्डल-स्तोत्र प्राद्यन्ताक्षरसलक्ष्यमक्षरं व्याप्य यस्थितम् । अग्निज्वालासमं नाद विन्दुरेखासमन्वितम् ॥१॥
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११७ )
अग्निज्वालासमाकान्तं मनोमलविशोधनं । दैदीप्यमानं हृत्पद्म तत्पद नौमि निर्मलं । युग्मं । ॐ नमोऽहंग्यः ईशेभ्यः ॐ सिद्ध भ्यो नमो नमः । ॐ नम. सर्वसूरिभ्यः उपाध्यायेभ्यः ॐ नमः ।। ॐ नमः सर्वसाधुभ्यः तत्त्वदृष्टिभ्य ॐ नमः। ॐ नमः शुद्धबोधेभ्यश्चारित्रेभ्यो नमो नमः ।। श्रेयसेस्तु प्रियस्त्वेतदहंदाधष्टक शुभं । स्थानेष्यष्टसु सन्यस्त पृथाबीजसमन्वितम् ।। प्राधं पद शिरो रक्षेत् परं रक्षतु मस्तकं । तृतीयं रक्षेन्ने हेतुर्य रक्षेच्च नासिकाम् ॥६॥ पंचमं तु मुख रक्षेद षष्ठं रक्षतु घटिकां । सप्तमं रक्षेन्नाभ्यन्त पादातं चाष्टम पुनः ७ायुग्मी पूर्व प्रणवतः सातः सरेफो द्वित्रिपचषान् । सप्ताण्टदशसूर्याङ्कान धितो विदुस्वरान् पृथक् ।। पूज्यनामाक्षरावस्तु पचदर्शनबोधकं । चारित्रेभ्यो नमो मध्ये ह्रीं सांतसमलंकृतम् ।। जम्बूवृक्षषरो टोपः क्षीरोदधि-समावृतः। अहंदाखष्टकरष्टकाष्ठाषिष्टरलंकृतः ॥१०॥ तन्मध्ये संगतो मेरुः कूटलक्षरलकृतः । उच्चरुच्चस्तरस्तारतारामण्डलमण्डितः ॥११॥ तस्योपरि सकारात बीजमध्यास्य सर्वगं । नमामि बिम्बमाहत्यं ललाटस्थं निरजनं ।१२।विशेषक।
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( ११८ )
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प्रक्षय निर्मल शातं बहुलं जन्यो निरीहं निन्हकारं नार नान्तर धनम् ॥१३॥ श्रनुद्भुतं शुभं स्फीत मात्रिं राजन मतं । तामनं विरन बुद्ध तेजनं गर्वममम् | १४ | नाकारं च निराकार सरन दिरम पर । परापर परातीत पर परंपरापर |१५| सक्लं निकल तुष्ट निर्ऋत भ्रातिर्वाजित । निरंजनं निराकांक्ष निर्लेप वीतनय ॥१६॥ ब्रह्माणमीश्वरं बुद्ध शुद्ध सिद्धमभगुर । ज्योतित्पं महादेवं लोकालोक-प्रकाशकं ॥१७॥ कुलकं । ग्रहंदास्य नवन्तः नरेको विदुमति | तूयंस्वरसनायुक्तो बहुध्यानादिमालित |१ = | एकवर्ण द्विवर्ण च त्रिव सूर्यवर्णकं । पंचवर्ण महावर्ण तपर च परापर |१६| युग्मं । प्रस्मिन् वीजे स्थिताः सर्वे ऋषभाद्या. जिनोत्तमाः । वर्णेनिजनिजयुक्ता ध्यातव्यास्तत्र सगताः | २० | नादश्चद्रसमाकारो विदुनीलनमप्रभः । कलारुरणसमाक्रान्तः स्वर्णाभः सर्वतोमुखः ।२१। शिर संलोन ईकारो विनोलो वर्णतः स्मृतः । वर्णानुसारिसलीन तीर्थंकृन्मंडलं नमः ॥२२॥ युग्मं । चन्द्रप्रभपुष्पदन्तो नादस्थितिसमाश्रितो । विन्दुमध्यगतौ नेमिसुव्रतो जिनसत्तमौ ॥२३॥
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(ITE }
पद्मप्रभवासुपूज्यो कलापदमधित्रितौ ।
शिरस्थितिसंलीनौ सुपार्श्वपादों जिनोत्तमौ ।२४ शेषास्तीयंङ्कराः सर्वे रहःस्थाने नियोजिताः । मायाबीजाक्षरं प्राप्तश्चतुविशतिरहंतां । २५९ गतराम मोहाः सर्वपापविजिताः ।
सर्वदा सर्वलोकेषु ते भवन्तु जिनोत्तमाः । २६ । कलत्पर्क देवदेवस्य च तस्य चक्रस्य वा विभा । तयाच्छादितसर्वा मां मा हिंसतु पत्रगाः ॥ २७ देवदेवस्य यच्च तस्य चक्रस्य यर विभा । तयाच्छादितसर्वागं मां मा हिसतु नागिनी । २st देवदेवस्य यच्च तस्य चकस्य या विभा । तयाच्छादितसगं मा मा हिंसतु गोनसा |२६| देवदेवस्य मा हिसतु वृश्चिकाः 1३०1#
देवदेवस्व
देवदेवस्य '
"मा हिसतु काकिनी । ३१ । " मा हिसतु ढाकिनी ॥ ३२ ॥ "मा हिंसतु साकिनी ॥ ३३६
देवदेवस्य
देवदेवस्व
मा हिलतु राकिनी |३४|
देवदेवस्थ
"मा हिसतु लाकिनी |३५|
देवदेवरय"
"मा हिंस्तु शाकिनी । ३६ ।
..
* नोट- २६ वें श्लोक के बाद ३१ वें में भी २६ वें श्लोक की भाति पाठ पढते हुए अन्त मे 'गोनसा ' के स्थान पर वृश्चिका तथा ३१ व ३२ इत्यादि में क्रमश काकिनी, डाकिनी श्रादि घोलना चाहिये
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(१२० ) देवदेवस्य "मा हिंसतु हाकिनी ॥३७॥ देवदेवत्य'मा हिलतु राक्षसाः ।। देवदेवन्य'मा हिसतु व्यन्तराः ।३६१ देवदेवस्य'मा हिंसत नेकसाः।४। देवदेवत्य'मा हिलतु ते ग्रहा' ।४१॥ देवदेवस्य'मा हिंसतु तस्कराः ।४२। देवदेवत्य'मा हिसतु वह्नयः ।४३॥ देवदेवस्य""मा हिंसतु ,पिसः ।४४। देवदेवस्य'मा हिंसतु दंष्ट्रियः ।४५। देवदेवत्य'मा हिंसतु रेलपाः ।४। देवदेवत्य'मा हिसतु पक्षिणः ।४। देवदेवस्य'मा हिमतु मुद्गलाः ।४। देवदेवस्य'मा हिंसतु भका. ।४६। देवदेवस्य"मा हिसतु तोयदाः ॥५०॥ देवदेवस्य "मा हिसतु सिंहकाः।५११ देवदेवस्य'मा हिंसतु शूकराः ।५२। देवदेवस्य'मा हिंसतु चित्रकाः ।।३। देवदेवस्य'मा हिंसतु हस्तिनः ।५४। देवदेवत्य"मा हिंसतु भूमिपा.१५५। देवदेवस्य"मा हिंसतु शत्रवः ॥५६॥ देवदेवस्य'मा हिंसतु ग्रामिणः ।५७। देवदेवस्य "मा हिसतु दुर्जनाः ।।
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। १२१ ) देवदेवस्य"मा हिसतु व्याधय' ५६ श्रीगौतमस्य या मुद्रा तस्या या भुवि लब्धयः । ताभिरम्यधिकं ज्योतिरहः सर्वनिधीश्वरः ।६०। पातालवासिनो देवा देवा भूपोठवासिनः । स्वः स्वर्गवासिनी देवाः सर्वं रक्षतु मामित' ।। येऽवधिलब्धया ये तु परमावधिलाधयः । ते सर्वे मुनयो दिव्या मां संरक्षन्तु सर्वतः ।६२॥ ॐ भी ह्रींश्च तिलक्ष्मीः गौरी चण्डी सरस्वती । जया वा विजया फ्लिन्नाऽजिता नित्या मदतवा ६३ कामागा कामवारणा च सानन्दा नन्दमालिनी। माया मायाविनी रोद्री कला काली फलिप्रिया ।६४। एताः सर्वा महादेव्यो वर्तते या जगत्त्रये ।। मम सर्वाः प्रयच्छन्तु कान्ति लक्ष्मी ति मति । ७५ । दुर्जना भूतवेतालाः पिशाचा मुद्गलास्तथा । ते सर्वे उपशाम्यन्तु देववेवप्रभावतः ।६६। दिव्यो गोप्यः सुदुष्प्राप्यः श्री ऋषिमण्डलस्तयः । भाषितस्तीर्थनायेन जगत्त्रारणकृतोऽनघ ।६७। रणे राजकुले वह्नौ जले दुर्गे गजे हरौ। श्मसाने विपिने घोरे स्मृतौ रक्षति मान ६८ राज्यभ्रष्टा निजां राज्य पदभ्रष्टा निज पद । लक्ष्मीभ्रष्टा निज लक्ष्मी प्राप्नुवन्ति न संशयः । ६६ । भार्यार्थी लभते भाया पुत्रार्थी लभते सुतं ।
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( १२३ ) कल्याण मन्दिर स्तोत्र भाषा दोहा-परमज्योति परमात्मा, परमज्ञान परवीन ।
वन्दी परमानन्दमय, घट घट अन्तरलोन । १ । चौपई-निर्भय करन परम परधान,भवसमुद्र-जलतारण यान। शिव-मन्दिर अघहरण प्रनिन्द, बंदहु पासचरण अरविन्द ।। कमठमानभंजन वरवीर, गरिमासागर गुरण-गम्भीर । सुरगुर पार लहैं नहि जासु में अजान जंपो 'जसु तासु ।३। प्रभुस्वरूप अति अगम प्रथाह, पयों हमसे इह होय निवाह । ज्यो दिन अघ उलूको पोत',कहि न सके रविकिरन उदोत ।४ मोहहीन जान मनमाहि, तोह न तुम गुण वरण जाहिं । प्रलयपयोधि कर जल पीन',प्रगटहि रतन गिन तिहिं कीन ।५ तुम असंख्य निम्मंलगुणखानि,र्ग मतिहीन कहो निजबानि । ज्यों वालक निज वांह पसार, सागर परिमित कहै विचार ।६ जो जोगीन्द्र करहिं तप खेव, तऊ न जानहिं तुम गुरण भेद । भक्तिभाव मुझ मन अभिलाख,ज्यो पंछी बोलहिं निज भाख७ तुम जस महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन-प्राधार । प्रावै पवन पद्मसर' होय, ग्रोषम तपत निवार सोय ।। तुम प्रावत भविजन घटमाहि.फर्मनिबन्ध शिथिल हो जाहि। ज्यो चंदनतरु बोलहि मोर, डरपि भुजङ्ग लगे चहुं पोर ।।। तुम निरखत जन दीनदयाल, सङ्कटते छूटहिं तत्काल । ज्यो पशु घेर लेहि निशिचोर, ते तज भागहि देखत भोर ।१० १ कहता ।२ बच्चा । ३ वमन । ४ कमल सरोवर से छूती हुई।
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( १९४) तू भविजन तारक स्मि होइ, ते चित पार तिरहिं ले तोहि । यह ऐसे तरि जान स्वभाव,तिहिं मसक ज्यो गमिन बाउ।११ जिह सब देव किये वश वाम, ते जिनमे जीत्यो सो काम । ज्यो नत करें अग्निकुनहानि, बडवानल पोवं नो पानि ।१२। तुम अनन्त गरवागरा लिये,क्योरि भक्ति धरूं निज हिये। व लघुरूप तिरहिं संघार,यह प्रभु महिमा अगम अपार •१३॥ कोष निवार कियो मनशांत म सुभट जीते विहि नांत । यह परतर देखह संसार नीलवृक्ष ज्यो वह तुषार 1१४॥ मुनिजन हिये कमल निज टोहि, सिद्धल्पसम ध्याहिं तोहि । कमल-करिणका दिन नहि और,लमलबीज उपजनकी ठौरा१५ जब तब ज्यान वर मुनिकोय, तव विवेह परमातम होय । जैसे धातु-शिला तन त्याग,कनर-स्वरूप धरै जब आग ।१६। जाके मत तुम करहु निवास, विनशि जाय क्यो विग्रह तास । ज्यो महन्त बिच आवै कोय, विग्रह-मूल निवारं सोय ।१७ करहिं विवुध ले प्रातम ध्यान, तुम प्रभावत होय निदान । जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विष-विकार की हान ११८ तुम भगवन्त विमल गुगलोन, समल रूप मानहिं मतिहीन । ज्यो पोलिया रोग हग गहै, वर्ण विवर्ण शंखसौ कहै ।१६ दोहा-निकट रहत उपदेश सुनि, तरखर भयो अशोक ।
ज्यो रवि ऊगत जीव सब, प्रक्ट होत भुविलोक १२० सुमनवृष्टि जो सुर करहि, हे बोठमुख' तोहि । त्यों तुम सेवत सुमनजन, बंध अधोमुख होहिं ।२१ १. डण्ठत का मुख नीचे की ओर
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। १२५ ) उपजी तुम हिय उदधित, धारणी सुधा समान । जिहि पीवत भविजन लहहि. अजर अमर पदथान १२॥ कहहिं सार तिलोक को, ये सुरचामर दोय । भावसहित जो नित नमे,तसु गति ऊरय होय ॥२३॥ सिंहासन गिरि मेरु सम, प्रभुधुनि गरजत घोर । श्याम सुतनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ।२४। छवि-हत होत प्रशोकदल, तुम भामण्डल देख । वीतराग के निकट रह. रहत न राग विशेष २५, सीख कहै तिहुंलोकको, यह सुरदुन्दुभिनाद । शिवपप सारथिवाह जिन, भजहु तजह परमाद ।२६। तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागरण छविदेत । त्रिवियरूप धरि मनह शशि, सेवत नखत समेत ।२७।
पद्धरी-छन्द प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम,परताप-पुंज जिम शुद्ध हेम । अति धवल सुजस रूपा समान,तिनके गढ तीन विराजमान । सेवहिं सुरेन्द्र कर नमतिभाल,तिन शीशमुकुट तज देहि माल । तुमचरण लगत लहलहे प्रीति,नहि रमहि और जन सुमनरीति। प्रभु भोग-विमुख तन कर्मदाह,जन पार करत भवजल निवाह। ज्यो माटीकलश सुपक्क होय, ले भार अधोमुख तिरहि तोय।। तुम महारान निधन निराश, तज विभव २ सब जग विकास। अक्षर स्वभावसे लिखे न कोय, महिमा अनन्त भगवन्त सोय। कर कोप कमठ निज वैर देख, तिन करी धूल वर्षा विशेष ।
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( १२६ )
प्रभु तुम छाया नहि भई हीन, सो भयो पापि लपट मली। गरजत घोर घन अधकार, चमकत बिज्जु जल मुसलधार । वरषत कमठ घर ध्यान रुद्र, दुस्तर करन्त निजभवसमुद्र ।३३
वस्तु छन्द मेघसाली मेघमाली प्राप बल फोरि । भेजे तुरत पिशाचगरण, नाथ पास उपसर्ग कारण । अग्निजाल झलकन्त मुख, धुनि फरत जिमि मत्तवारण कालरूप विकराल तन, मुडमाल तिह कण्ठ । है निशङ्क वह रङ्क निज, फरै कर्म दृढ कण्ठ ।।
चौपई जे तुम चरणकमल तिहुकाल, सेवहि तज माया जंजाल । भाव भगति मन हरष अपार, धन्य धन्य जग तिन अवतार। भवसागर मे फिरत अनान, मै तुम सुजस सुन्यो नहिं कान । जो प्रभु नाम मन्त्र मन घरै, तासौं विपति भुजङ्गम डरै ।३६ मनवांछित फल जिनपद माहिं, मै पूरव भव पूजे नाहि । माया मगन फिरयो अज्ञान, करहिं रडूजन मुझ अपमान । मोहतिमिर छायो हग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहि तोहि । तौ दुर्जन मुझ सगति गहै, मरमछेद के कुवचन कहै ।३८। सुन्यो कान जस पूजे पाय, नैनन देख्यो रूप अघाय । भक्तिहेतु न भयो चित चाव, दुखदायक किरिया विन भाव । महाराज शरणागत पाल, पतित उधारन दोनदयाल । सुमिरण करहुँ नाय निज शीश,मुझ दुख दूर करहु जगदीश।
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( १२७ )
कर्मनिकन्दन महिमासार, अशरण शरण सुजश विस्तार | नह से प्रभु तुमरे पाय,तो मुझ जन्म प्रकारथ जाय ।४१। सुरगरण वन्दित दयानिधान, जगतारण जगपति जग जान | दुखसागर ते मोहि निकास, निर्भय थान देहु सुखराशि |४२ ।
तुम चरण कमल गुन गाय, बहुविधि भक्ति करो मनलाय जन्म जन्म प्रभु पावहु तोहि, यह सेवाफल दोजे मोहि |४३| दोघकान्त बेमरी छन्द पट्पद
मैं
इहि विधि श्री भगवन्त, सुजस जे भविजन भाषह । ते निज पुन्य-भण्डार सचि चिर पाप प्रणाशहि । रोम रोम हुलसति श्रङ्ग प्रभु गुण मन ध्यावहं । स्वर्ग - सम्पदा भुंज बेग, पचमगति पावहं ।
यह कल्यारण मन्दिर कियो, कुमुदचन्द्र की बुद्धि ।
भाषा कहत 'बनारसी', कारण समकित शुद्धि । ४४ । इति । एकीभाव स्तोत्र
दोहा - वादिराज मुनिराज के चरण कमल चितलाय । भाषा एकीभाव की, करूं स्वपर सुखदाय || ( रोला छन्द ) जो श्रति एकीभाव भयो मानो श्रनिवारी, सो मुझ कर्म-प्रबन्ध करत भव-भव दुखभारी । ताहि तिहारी भक्ति, जगत-रवि जो निरवार, सो अब और कलेश कौन, सो नाहि बिदारं ॥१॥
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( १२८ ) तुम जिन ज्योतिम्बम्प दुरित अन्थियार निवारी, सो गागेश गुरु कहै, तत्त्व-विद्याधन घारी । मेरे चित-घर माहि, वमो तेजोमय यावत, पापतिमिर अवकाश, तहा मो क्यो फरि पावत ।२ प्रानन्द प्रामू बदन घोय तुमसो नित मान, गदगद सुरसो सुयश मन्त्र पढि पूजा ठाने । ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवामी, भाज थानक छोड देहमियो के वामी ।३। दिन्ति प्रावनहार भये भवि-भाग उदय-बल, पहले ही सुर प्राय कनकमय कोन महीतल । मन-गृह ध्यान-दुवार श्राय, निवसो जगनामी, जो सुवर्ण तन करो, कौन यह अचरज स्वामी ।४। प्रभु सब जग के बिना हेतु, वाधव उपकारी, निरावर्ण सर्वज्ञ शक्ति, जिनराज तिहारी। भक्ति-रचित मम चित्त-सेज नित वास करोगे, मेरे दुख सताप देख, किमि घोर घरोगे ।५। भववन मे चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न माई, तुम थुति-कथा पियूष-वापिका भागन पाई । शशि तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम, करत न्हौन ता माहिं क्यो न भवताप बुझे मम ।६। श्री विहार परिवाह होत शुचि रूप सकल जग, कमल कनक प्राभास सुरभि श्रीवास धरत पग ।
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( १२६ ) मेरो मन सर्वाग परस प्रभुको सुख पावै, । अब सो कौन कल्याण जो न दिन दिन ढिग आवै ।। भव तज सुखपद बसे काम-मद-सुभट संहारे, - जो तुमको निरखंत सदा प्रियदास तिहारे। । - ' तुम बचनामृत-पान भक्ति-अंजुलिसो पीवै, । - तिन्हे भयानक क्रूर रोग-रिपु कैसे छोये । ८ । मानथंभ पाषारण प्रान पाषाण पटतर, ऐसे और अनेक रत्न दीखै जग-अन्तर । देखत दृष्टिप्रमाण मान मद तुरत मिटावे, जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्यों कर पाये । ६ प्रभुतन पर्वत परस पवन उरमे निवत है, तासों ततछिन सकल रोगरज बाहिर हहै। जाके ध्यानाहूत बसो उर-अंबुन माहीं, ' कौन जयत उपकार करल समरथ सो नाहीं । १० । जन्म-जन्म के दुःख सहे सब ते तुम जानो। । - याद किये मुझ हिये लग प्रायुध से मानो। . तुम क्याल जगपाल स्वामि मैं शरण गही है, . । जो कुछ करनो होय करो परमान बही है। ११ । मरण समय तुम नाम मंत्र जीवकतै पायो, . पापाचारी स्वान प्रारण तज अमर कहायो। जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरन्तर । इन्द्र-सम्पदा सहै कौन, संशय इस अन्तर । १२॥
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( १r ने नर निमल जान मान शुचि चारित साध, प्रनर्याप सुर को सार भक्ति-रची नांह हाये। सो शिव-वांचा पुरप मोसपद केम उघार, मोह-मुहर दिढकरो मोक्षमन्दिर के द्वार । १३ । शिवपुर केरो पय पापतमसो प्रति यायो, दुख-सरप बहु फूप-सासों विपट बतायो । स्वामी सुन सो तहा कौन जन मारग लागे, प्रभु-प्रवचन मरिणदीप जो न ह प्रामे प्राग । १४ ॥ कर्म-पटल माहि दयो यातमनिधि भारी, देखत प्रति सुख होप विमुखजन नाहि उघारी । तुम सेवक तत्काल ताहि निश्चय कर धार, स्तुति-कुदाल सो खोद बन्द-भू कठिन विदाई । १५॥ म्याहाद-गिरि उपज मोक्ष- सागर लो घाई, तुम चरणाम्बुज परस भक्ति-गङ्गा सुखवाई । मो चित निर्मल पयो न्हौन रुचि पूरव ताने, प्र वह हो न मलीन कौन जिन संशय याम । १६ । तुम शिवसुरुमय प्रकट करत प्रभु चितवन तेरो, में भगवान समान, भाव यों वरते मेरो। यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावं, तुम प्रसाट सफला जीव वाछित फल पावै । १७० यचन-जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्याप, भग तरंगिनि विकथ-वाव-मल मलिन उथा।
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मन-सुमेरु सों मथै, ताहि जे सम्यग्ज्ञानी, परमामृत सो तृपत होहि ते चिर लो प्राणी । १८ । जो कुदेव छविहीन, वसन भूषण पभिलाख, बैरी सो भयभीत होप सो प्रायुध राखे । तुम सुन्दर सर्वग, शत्रु समरथ नहिं कोई, भूषण बसन गदादि ग्रहण काहे को होई । १९ । सुरपति सेवा कर कहा प्रभु प्रभुता तेरी, सो शलाधना लहैं मिट जगसों जग-फेरी। तुम भव-जलघि जहाज तोहि शिव-पंत उचरिये, तुही जगत-जन-पाल नाथ थुति की युति करिये ॥२०॥ बचन जाल जडरूप, पाप चिन्मूरति झाई, ताते श्रुति पालाप नाहिं पहुंचे तुम ताई। तो भी निष्फल नाहि भक्ति रस भीने वायक, सन्तन को सुरतरु समान वांछित वर-दायक । २१ । कोप कभी नहि करो प्रीति कबहूँ नहिं धारो, अति उदास नेचाह, चित जिनराज तिहारो। तदपि मान जग बहै, और तुम निकट न लहिये, यह प्रभुता जग-तिलक, कहां तुम बिन सरधये । २२ । सुर-तिय गावै सुपश सर्षगति ज्ञान स्वरूपी, मो तुमको थिर होहि, नमै भषि मानन्दरूपी। लाहि क्षेमपुर चलन बाट, बांकी नहिं हो है, श्रुत के सुमरण माहिं खो न कबहूँ नर मोहै । २३ ।
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(१३३ ) सहा जाता नाही, अकल घबराई भ्रमण में। करू क्या माँ मोरी बलत वश नाहीं मिटन का करू।।२॥ सुनो माता मोरी अरज करता हूं दरद में। दुखी जानो मोको डरप कर पाया शरण में। कृपा ऐसी कोजे, दरद मिट आये मरण का करू।। ३ ॥ पिलाये जो मोकू, सुवुद्धिकर प्याला अमृत का । मिटाचे जो मेरा, सरव दुख सारे फिरन का ।। । पडू पांवां तेरे हरो दुख सारा फिकर का करूं ।। ४ ॥ (सवैया)-मिथ्यातम नासवे को, ज्ञान के प्रकाशवे को।
प्रापा परकासबे को, भानुसी बखानी है ।। छहों द्रव्म जानवे को, बसु विधि भानने को। स्व-पर पिछानबे को, परम प्रमानी है। अनुभो बतायवे को, जीव के जतायचे को । काहू न सतावे को, भव्य उर मानी है। जहां तहां तारचे को, पार के उतारवे को।
सुख विस्तारवे को, ऐसी जिन वारणी है ।। योहा-जिनवाणी की स्तुति करे, अल्प बुद्धि परमान । वितवश पन्नालाल' विनती करे, वे माता मोहि ज्ञान ॥६॥
हे जिनवाणी भारती, तोहि नदिन रैन । जो तेरा सरपा गहे, सुख पावै दिन रैन ॥७॥ जा बानी के ज्ञान तै सूझ लोकालोक । सो वाणी मस्तक चढो, सदा देत हो धोक ।।
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((EY)
भजन सिद्धचक्र
श्री सिद्धचक्र का पाठ करो दिन श्रात्र कामे प्रात फन पायो मैना गरी विका मैरिड नारी घो, कोढी- पति लखि हुलियारी थी । नहि पडे चैन दिन रैन व्यक्ति प्रकुनानी 1 फल 1 लो पति का मिठाची, तो उभयनो मुख पाऊंगी।
हि प्रजागन - स्तनबद् निष्फल जिन्दगानी । फल ० १२ । इक दिवस गई जिन मन्दिर में दर्शन करि अति हर्षी उरमें। फिर लन्ते साधु नित्य दिगम्बर ज्ञानी | फल० १३ चैत्री मुनि को कर नमस्कार, निल निन्दा करती बार बार भरि जयन कहि मुनियों, दुखद कहानी | फल० १ ४ । वो मुनि पुत्री व घरो, घी सिद्धचक का पाठ करो । नहि रहे कुष्ट को तन में नाम विज्ञानी 1 फल० ५ मुनि मात्र वचन हर्षो मैना, नहि होय मूर्ति के बना । करिके श्रद्धा श्री सिद्ध तब पर्व प्रकार्ड प्राया है, उनचथुन पाठ कराया है । सबके सन छिडका यन्त्र-वन का पानी । फन० 1 ७ १ गोदक छिडक्त वपुदिन में, नहि रहा कुष्ट किचित् तनमें । भई सात तक को काया स्वयं समानी | फन० 1 st भवभोग चोति योगेश भये श्रीपाल कर्म हति मोक्ष गये । जे नव मैना पावें शिव रजघानो 1 फल है।
की ठानी | फल
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( १३५) जो पाठ करे मन वच तन से, वे छुट जाय भवबन्धन से। 'मसान' मत करो विकल्प,कहा जिनवानी । फल । ।
मंगलाष्टकम् श्रीमन्ननसुरा-सुरेन्द्र-मुकुट-प्रधोतरस्न-प्रभाभास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः । ये सर्षे जिनसिद्धसूयनुगतास्ते पाठकाः साधवः । स्तुस्या योगिजनश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु से मङ्गलम् ।। नामेयादिजिनाः प्रशस्तवदना, ख्याताश्चतुर्विशतिः । श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो, ये चकिरणो द्वादश । ये विष्णुप्रतिविष्णु-लाङ्गलषरा सप्तोत्तरा विशतिः । काल्पे प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषाः, कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ।२। ये पञ्चोपषिऋद्धयः, श्रुततपो-वृद्धिगता पञ्च ये। ये चाष्टाङ्गमहानिमित्तकुशलाश्चाष्टौ विधाश्चारिणः । पञ्चमानपरास्त्रयेपि विपुला, ये बुद्धि-ऋद्धीश्वराः । सप्तते सकलाचिता मुनिबराः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् । ३ । ज्योतिव्यंन्तर-भावनामर-गृहे, मेरो कुलाद्री स्थिताः । जम्बूशाल्मलिचैत्यशाखिषु तथा, वक्षार-रूप्याद्रिषु । इक्ष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे, द्वीपे च नन्दीश्वरे । शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहा: कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ।। कैलाशो वृषभस्य निर्वृत्ति-मही, नीरस्य पावापुरी। चम्पा या वसुपूज्यसज्जिनपतेः सम्मेदशैलोऽहताम् ।
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( 508
मेलामपि चोयन्तमिस नेवाः निर्वाचन प्रतिदिन हुई ते म् म हारमनामयमायते । मन्यद्येत रमायनं विषमपि प्रोति विष दुिः ॥ देश गन्ति व प्रकि
afta नमोऽपि वर्षति त हुन्नन्न् १६॥ यो गर्भावरील नगवां, जन्माभिषेकोल यो जातः परिनिष्कमेरा विभवो, या ज्ञानभान् । चः कैवल्यपुरप्रवेशमहिना, मन्पादितः स्वगिभिः । कापानि तानि पञ्च नततं कुर्वन्तु ते नलन् 197 प्रात्यंधमादवि मनाना ! मैं मंगापुरापः प्ररान्त वात्मनिष्ठः मुरन्या । नाम: मोन्यत्वयोगादिरिति च विदुस्तेननः माता ॥ विश्वात्मा विश्ववः वितरतु भवतां मंगलं श्रोतेः et इत्यं श्री विनाष्टकमिदं नौभाग्य-सम्पत्करं । कल्पेषु महोत्मदेषु मुश्यितीर्थङ्कगणां मुखाः ॥ चे ग्वन्ति पठन्ति तेच सुजः, धर्मार्थकामान्विताः । = मोर्लन्त एव नानवहिता, निर्वाणलक्ष्मीरपि ॥ ॥
॥ इति मंगलाप्टनम् ॥
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। १३७ )
स्वयंभूस्तोत्र भाषा
॥चौपाई॥ राजविर्ष जुगलनि सुख कियो,राजत्याग भुवि शिवपद लियो। स्वय बोध स्वयम्भू भगवान, बन्दी प्रादिनाथ गुणखान ॥१॥ इन्द्र क्षीरसागर-जल-लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय । मदन विनाशक सुख करतार,बन्दौ अजित अजितपदकार ।२। शुक्ल ध्यानकरि करमविनाशि, घाति प्रघाति सकल दुखराशि लह्यो मुकतिपद सुख अविकार, बन्दौं संभव भवदुख टार ।। माता पश्चिम रयनमझार, सुपने सोलह देखे सार । भूप पूछि फल सुनि हरषाय, बन्दौं अभिनन्दन मनलाय ।४। सर्व कुवादवादो सरवार, जीते स्याद्वाद धुनिसार । जैन धरम परकाशक स्वामि,सुमतिदेवपद करप्रणामि ।। गर्भ अगाऊ धनपति प्राय, करी नगर शोभा अधिकाय । बरसे रतन पंचदश मास, नौं पद्मप्रभ सुखको रास । ६ । इन्द फनिन्द नरिन्द त्रिकाल,बानी सुनि सुनि होहिं खुस्याल । द्वादश सभा ज्ञानदातार, नौं सुपारसनाथ निहार । ७ । सुगुन छियालिस हैं तुम माहि, दोष अठारह कोऊ नाहि । मोह महातमनाशक वीप, नौं चन्द्रप्रभ राख समीप ।८। द्वादश विध तप करम विनाश, तेरह भेद चरित परकाश । निज पनिच्छभवि इच्छकवान,बन्दी पहुपदन्त मन मान ।। भविसुखदाय सुरगतै प्राय, दशविध धरम कह्यौ जिनराय । माप समान सनि सुख व्ह,बन्यौं शीतल धरम सनेह ।१०।
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ममता सुधा कोपविष नाग, द्वादशाङ्ग बानी परकाश। वाग्नक-यानन्द-दातार, नमो श्रियांन जिनेश्वर मार ॥११॥ रतनत्रय चिर मुकुट विशाल, सोनं कण्ठ मुगन मनिमाल । मुक्तिनार-भरता भगवान वासुपूज्य बन्दों पर ध्यान ११२ परम ममाधि-स्वल्प जिनेश, जानी ध्यानी हित उपदेश । फर्मनागि शिवमुख विलमन्त,वन्दी विमलनाथ भगवन्त ।१३। प्रन्तर बाहिर परिग्रह डारि, परम दिगम्बरव्रत को घारि । सर्व जीवहित-राह दिखाय,नमों प्रनन्त वचन मन लाय ।१४। मात तत्त्व पचासतिकाय, अयं नदों छ. द्रव्य बहुभाय । लोक प्रलोक नरल परकाश, वन्दो घनाय प्रविनाश ।१५: पंचम चक्रवति निधि भोग कामदेव द्वादशम मनोग । गान्तिकरन मोलम निनराय,शान्तिनाय वन्दो हरपाय ॥१६॥ बहु युगि कर हरष नहि होय, निन्दे दोष गहें नहिं कोय । गोलवान परब्रह्मस्वरूप, बन्दी कुन्युनाय शिवभूप ॥१७॥ द्वादशगण पूर्व सुखदाय, युति वन्दना कर अधिकाय । नाको निन युति कबहुं न होय,बन्दों पर जिनवर-पद दोया १८ परभव रत्नत्रय-प्रनुराग, इह नव वाह-समय वैराग । बालब्रह्म पूरव व्रत धार, बन्दी मल्लिनाय जिनसार ॥१६॥ विन उपदेश स्वयं वैराग, युति लोकान्त कर पगलाग । नमः सिद्ध कहि सब व्रत लेहि.बन्दों मुनिसुव्रत व्रत देहिा२०॥ धावक विद्यावन्त विहार, भगतिभावसों दियो आहार । बरसी रतनराशि तत्काल, बन्दी नमिप्रभ दीनदयाल ।२१॥
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( १३६ ) सब जीवन को बन्दी छोर, राग-द्वेष बन्धन तोर । रजमति तजि शिवतियों मिले,नेमिनाथ बन्दी सुख-निले २२ दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि प्रायो फनिधार । गये कमठ शठ मुखकर श्याम,नमो मेरुसम पारस-स्वामि।२३। भवसागरते जीव अपार, धरमपोत मे घरे निहार । डूबत काढे दया विचार, वर्धमान बन्दों बहुबार । २४ । वोहा-चौबीसों पद कमलजुग, बन्दों मनवचकाय । 'धानत' पढे सुनै सदा, सौ प्रभु क्यों न सहाय ॥
वैराग्य भजन संत साधु बनके विचरू, वह घडी कब प्रायगी। शान्ति तब मन मे मेरे, वैराग्य की छा जायगी । टेर। मोह ममता त्याग दूं मै, सव कुटुम्ब परिवार से । छोड़ दूं झूठी लगन, धन धाम अरु घरबार से ॥ मोह तज दू महलो-मन्दिर, और चमन गुलजार से । बन मे जा डेरा कलं, मुंह मोड इस ससार से ॥१॥ इस जगत मे जो पदारथ, पा रहे मुझको नजर । थिर नहीं है एक इनमें, हैं ये सब के सब प्रथिर ।। जिन्दगी का क्या भरोसा, यह रही हरदम गुजर । दम है जब तक दम मे वम है, दममे वम से बे-खबर ॥२॥ कौनसी वह चीज है, जिस पर लगाऊ दिल यहां। पाच जीवन बन रहा, जो कल भला वह फिर कहां ॥
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( १४० )
माल भी धनकी हकीकत, है जमाने पर प्रया । क्या भरोमा लक्ष्मी का, पद यहा और कल वहा ॥३॥ बाप मा अरु बहन भाई, बेटा बेटो नार क्या । सब सगे अपनी गरज के, यार क्या परिवार दया। बात मतलब से करे सब, जगत क्या ससार क्या । बिन गरज पूछे न कोई, बात क्या तकरार क्या ।।४ ।। था अकेला हूँ अकेला, पर अकेला ही रहूँ। जो पड़े दुख मै सहे, अरु जो पडे तो मैं हूँ । कौन है अपना सहायक कौन का शरणा गहूँ ।। फिर भला फिसको जगत मे, अपना हमराही कहूं ॥५॥ ज्ञानरूपी जल से अग्नि-क्रोध को शीतल करूं । मान माया लोभ राग रु, द्वेष प्रादिक परिहरू ॥ वश मे विषयो को करू , अरु सब कषायो को हरू । शुद्ध चित प्रानन्द मे में, ध्यान प्रातम का रूं ॥६॥ जगके सब जोवो से अपना, प्रेम हो पर प्यार हो । अरु मेरी इस देह से, सतार का उपकार हो । ज्ञान का प्रचार हो अरु देश का उद्धार हो। प्रेम और पावन्द का व्यवहार घर घर द्वार हो ॥७॥ काल सर पर कालका, खञ्जर लिए तैयार है। कौन बच सकता है इसते, इसका गहरा वार है । हाय जब हर हर कदम पर, इस तरह से हार है। फिर न क्यो वह राह पकडू, सुख का जो भण्डार है ॥
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( १४१) प्रेम का मन्दिर बनाकर, ज्ञानदेव कूदू विठा। और प्रानन्द शान्ति के घडियाल घण्टे टू बना ।। अरु पुजारी बनके हूँ मैं, सबको प्रातम रस चखा । यह करूं उपदेश जग मे, कर भला होगा भला ॥६॥ प्राय कब वह शुभ घडी, जब वन विचरता में फिरूं । शान्ति से तव शान्ति गङ्गा का मै निर्मल जल पीळ ॥ 'ज्योति' से गुणगान की, प्रज्ञान सब जगका दहूं । होय सब जग का भला यह, बात मैं हरदम चहूँ । १०॥
___ श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्रम् स्वयम्भुवे नमस्तुग्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि । स्वात्मन्येव तथोद्भूतवृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये ॥१॥ नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्ने नमोस्तु ते । विदाम्वर नमस्तुभ्य नमस्ते वदतावर ॥२॥ कर्मशत्रुहन देवमामनन्ति मनीषिणः। त्वामानमत्सुरेन्मौलि-भा-मालास्यचितक्रमम् ॥३॥ ध्यान-दुर्घण-निभिन्न-धन-घाति-महातरुः । अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीरनन्तजित ।।४।। त्रैलोक्यः निर्जयावाप्त-दुर्दप्पमतिदुर्जयं । मृत्युराजं विजित्यासीज्जन्म-मृत्युञ्जयो भवान् ॥ ४॥ विधूताशेष-संसार-बन्धनो-भव्य-बांधवः । त्रिपुरारिस्त्वमेवासि जन्म-मृत्यु-जरांतकृत ॥६॥
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( १४३ /
नमस्तेऽनन्त - वीर्याय नमोऽनन्त-सुखात्मने । नमस्तेऽनन्त-लोकाय लोकालोकावलोकिने ।। १८ ।। नमस्तेऽनन्त - दानाय नमस्तेऽनन्त-लब्धये । नमस्तेऽनन्त- भोगाय नमस्तेऽनन्तोषभोगिने नमः परम - योगाय नमस्तुभ्यमयोनये । नमः परम-पूताय नमस्ते परमर्षये ॥ २० ॥ नमः परम-विद्याय नमः पर-मत- च्छिदे ।
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नमः परम-तत्त्वाय नमस्ते परमात्मने ॥ २१ ॥ नमः परमरूपाय नमः परमतेजसे । नमः परममार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने ।। २२ ।। परमर्द्धिजुषे धाम्ने परमज्योतिषे नमः । नमः पारेतमः प्राप्तधाम्ने परतरात्मने ॥ २३ ॥ नमः क्षीरणकलङ्काय क्षीरणबन्ध नमोऽस्तुते | नमस्ते क्षीरणमोहाय क्षीरणदोषाय ते नमः ॥ २४ ॥ नमः सुगतये तुम्यं शोभनां गतिमीयुषे । नमस्तेऽतींद्रिय-ज्ञान- सुखायानिन्द्रियात्मने ॥ २५ ॥ कायबन्धन निर्मोक्षादकायाय नमोऽस्तु ते । नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनामषियोगिने ॥ २६ ॥ श्रवेदाय नमस्तुभ्यमकपायाय ते नमः । नमः परमयोगीन्द्र - वन्दितांघ्रि-द्वयाय ते ॥ २७ ॥ नमः परमविज्ञान नमः परमसंशयः ।
नमः परमरहष्ट-परमार्थाय ते नमः ॥ २८ ॥
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( १४५ )
विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वििजनेश्वरः । विश्वदृक् विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वरः ॥५॥ जिनो विष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पतिः । अनन्तजिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरबन्धनः ।।६।। युगादिपुरुषो ब्रह्मा पञ्चब्रह्ममयः शिवः । परः परतरः सूक्ष्मः परमेष्ठी सनातनः । ७॥ स्वय-ज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिजः । मोहारिविजयी जेता धर्मचको दयाध्वजः । प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वरचितः । ब्रह्मविद् बह्मतत्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वरः ॥६॥ शुद्धो वुद्धः प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः । सिद्धः सिद्धान्तविद् ध्येयः सिद्धसाध्यो जगद्धितः ।।१०॥ सहिष्णुरच्युतोऽनन्तः प्रभविष्णुर्भवोद्भवः । प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णुर्षीश्वरोऽव्ययः ।। ११ ।। विभावसुरसम्भूप्णुः स्वयम्भूष्णुः पुरातनः । परमात्मा परज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वरः ॥१२॥
॥ इति श्रीमदादिशतम् ।। दिव्यभाषापतिदिव्यः पूतवाक्पूतशासन । पूतात्मा परमज्योतिधर्माध्यक्षो दमीश्वरः ॥१॥ श्रीपतिभंगवान हमरजा विरजाः शुचिः । तीर्थकृत्केवलीशानः पूजाहः स्नातकोऽमल ॥२॥ अनन्तदीप्तिानात्मा स्वयंवुद्धः प्रजापतिः ।
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( १४६ )
मुक्तः शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वरः ॥३॥ निरञ्जनो जगज्ज्योतिर्निरुक्तोक्तिनिरामयः । अचल स्थितिरक्षोभ्यः : कूटस्थ. स्थाणुरक्षयः ॥४॥ श्ररणीमरणीनंता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् । शास्ता धर्मतियों धर्मात्मा घर्मतीर्थकृत् ॥५॥ वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुवृषायुधः । वृषो वृषपतिर्भर्त्ता वृषभाङ्कोवृषोद्भवः ||६|| हिरण्यनाभिभूतात्मा भूतभृद्भूतभावनः । प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तकः ॥७॥ हिरण्यगर्भः श्रीगर्भ प्रसूत विभवोद्भव. । स्वयंप्रभु. प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभुः ||६|| सर्वादि. सर्व हक् सार्वः सर्वज्ञ. सर्वदर्शनः । सर्वात्मा सर्वलोकेशः सर्ववित्सर्वलोकजित् सुगति सुश्रुतः सुश्रुक् सुवाक् तरिबहुश्रुतः । विश्रुतः विश्वतः पादो विश्वशीर्षः शुचिश्रवाः ॥१०॥ सहस्रशीर्षः क्षेत्रज्ञ. सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूतभव्यभवद्भर्ता विश्वविद्यामहेश्वरः ।।११।। ॥ इति दिव्यादिशतम् ॥
॥
स्थविष्ठः स्थविरो ज्येष्ठः पृष्ठः प्रेष्ठो वरिष्ठषीः । स्पेष्ठो गरिष्ठो बहिष्ठ श्रेष्ठोऽरिष्ठो गरिष्ठगीः ॥ १ ॥ विश्वद्विश्वसृट् विश्वेट् विश्वभुग्विश्वनायकः । विश्वाशीविश्वरूपात्मा विश्वनिद्विजतान्तकः ॥२॥
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(१४७) विभवो विभयो वीरो विशोको विरुजो जरन् । विरागो विरतोऽसङ्गो विविक्तो वोतमत्सरः ॥३॥ विनेयजनताबन्धुविलीनाशेषकल्मषः । वियोगो योगविद्विद्वान्विधाता सुविधिः सुधीः ॥४॥ शान्तिभाक्पृथिवीमतिः शान्तिभाक् सलिलात्मकः । वायुमूर्तिस्संगात्मा बह्निमूर्तिरधर्मधक् ॥५॥ सुयज्वा यजमानामा सुत्वा सुत्रामपूजितः । ऋत्विग्यज्ञपतिर्याज्यो यज्ञांगममृत हविः ॥६॥ व्योममूतिरमूर्तात्मा निलेपो निर्मलोऽचलः । सोममूर्तिः सुसौम्यात्मा सूर्यमूतिर्महाप्रभः ॥ ७॥ मत्रविन्मन्त्रकृन्मन्त्री मन्त्रमूर्तिरनन्तगः । स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वान्तः कृतान्तान्तः कृतान्तकृत ।।।। कृती कृतार्थः सत्कृत्यः कृतकृत्यःकृतकतुः । नित्यो मृत्युञ्जयोऽमृत्युरमृतात्माऽमृतोद्भव' ।। ब्रह्मनिष्ठः परंया ब्रह्मात्मा ब्रह्मसभवः । महाब्रह्मपतिम्रो महाब्रह्मपदेश्वरः ॥१०॥ सुप्रसन्नः प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्मदमप्रभुः । प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराणपुरुषोत्तमः ॥११॥
॥ इति स्वविष्ठादिदातम् ।। महाशोकध्वजोऽशोकः कः स्रष्टा पाविष्टरः । पद्मशः पद्मसम्भूतिः पमनाभिरनुत्तरः ॥१॥ पायोनिजंगधोनिरित्यः स्तुत्यः स्तुतीश्वरः।
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। १४८ ।
स्तवनाही हृणकेशो जितजेयः कृतक्रियः ॥२॥ गणाधिपो गरगज्येष्ठो गन्य पुण्यो गरणाप्रणीः । गुणाकरो गुणाम्भोविपनो गुरगनायकः ॥३॥ गुणादरो गुणोच्छेदो निर्गुणः पुण्यगोगुणः । शरण्यः पुण्यवावपूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ।।४।। अगण्यः पुण्यधोगुंग्य. पुन्यकृत्पुण्यशासनः । धर्मारामो गुरणग्रामः पुण्यापुण्यनिरोधकः ॥५॥ पापाप्तो विपापात्मा विपाप्मा वोतफल्मषः । निर्द्वन्द्वो निर्मदः शान्तो निर्मोहो निरूपद्रवः ।।६।। निनिमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लवः । निष्कलङ्को निरस्तैना निर्धू ताङ्गो निराश्रवः ॥७॥ विशालो विपुलज्योतिरतुलोऽन्त्यिवैभवः । सुसवृतः सुगुप्तात्मा सुभृत् सुनयतत्त्ववित् ।।८।। एकविद्यो महाविद्यो मुनिः परिवृढः पतिः। धीशो विद्यानिधिः साक्षी विनेता विहतान्तकः ॥६॥ पिता पितामहः पाता पवित्रः पावनी गतिः । त्राता भिषग्घरो वाँ वरदः परमः पुमान् ॥१०॥ कविः पुराणपुरुषो वर्षीयान्वृषभः पुरुः । प्रतिष्ठाप्रसवो हेतुर्भुवनकपितामहः ॥११॥
॥ इति महाशोकध्वजा दिशतम् ।। श्रीवृक्षलक्षणः श्लक्ष्णो लक्षण्यः शुभलक्षरणः । निरक्षः पुण्डरीकाक्ष पुष्कलः पुष्करेक्षणः ॥१॥
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(१४६ । सिद्धिदः सिद्धसकल्पः सिद्धारमा सिद्धिसाधनः । बुद्धवोध्यो महाबोधिर्वर्धमानो महद्धिकः ।२। वेदाङ्गो वेदवि धो जातरूपो विदाम्बरः । वेदवेद्यः स्वसवेद्यो विवेदो वदताम्बरः ।। अनादिनिधनोऽव्यक्तो व्यक्तवाक् व्यक्तशासन. । युगादिकृयुगापारो युगादिर्जगदादिजः ।४। प्रतीन्द्रोऽतीन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽतीन्द्रियार्थहक् । प्रनिन्द्रियोऽहमिन्द्रार्यो महेन्द्रमहितो महान् ।५। उद्भवः कारण कर्ता पारगो भवतारकः । प्रगाझो गहन गुह्य परार्यः परमेश्वरः ।। अनन्तद्धिरमेयाद्धिरचिन्त्यद्धिः समग्रधीः । प्राययः प्राग्रहरोऽभ्यग्रयः प्रत्यग्रोऽप्रचोऽनिमोऽग्रजः महातपाः महातेजा महोदर्को महोदयः । महायशा महाषामा महासत्वो महाभूतिः । महाधर्यो महावीर्यो महासम्पन्महाबलः । महाशक्तिर्महाज्योतिर्महाभूतिर्महाद्युतिः ।। महामतिर्महानीतिमहाक्षातिमहोदयः । महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकविः ॥१०॥ महामहा महाकोतिर्महाकांतिमहावपुः । महादानी महाज्ञानी महायोगी महागुरगः ॥११॥ महामहपतिः प्राप्तमहाकल्याणपञ्चकः । महाप्रभुमहाप्रातिहार्याधीशो महेश्वरः ।१२।
॥ इति श्री वृक्षादिगतम् ॥
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( १५० ॥
महामुनिमहामौनी महाध्यानी महावमः । महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामखः ।।१।। महाव्रतपतिर्मह्यो महाकातिधरोऽधिपः । महामैत्री मयाऽमेयो महोपायो महोमयः ॥२॥ महाकारुणिको मता महामन्त्रो महामतिः । महानावो महाघोषो महेज्यो महसांपतिः ॥३॥ महाध्वरधरो धुर्यो महौदार्यो महिष्ठवाक् । महात्मा महसांधाम महषिर्महितोदयः ॥४॥ महाक्लेशांकुशः शूरो महाभूतपतिगुरुः । महापराक्रमोऽनन्तो महाक्रोधरिपुर्वशीः ॥५॥ महाभवाब्धिसतारिमहामोहाद्रिसूदनः । महागुणाकरः क्षातो महायोगीश्वरः शमी ॥६॥ महाध्यानपतियाता महाधर्मा महाव्रतः । महाकारिहाऽऽत्मज्ञो महादेवो महेशिता ॥७॥ मर्वक्लेशापहः साधुः सर्वदोषहरो हरः। असंख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकरः ।। सर्वयोगीश्वरोऽचिन्त्यः श्रुतात्मा विष्टरश्रवाः । दातात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वगः ॥६॥ प्रधानामात्मा प्रकृतिः परमः परमोदयः । प्रक्षोरणबन्ध कामारिः क्षेमकृत्क्षेमशासनः ॥१०॥ प्रणवः प्रणयः प्राणः प्रारदः प्रणतेश्वरः। प्रमाणं प्रणिधिदक्षो दक्षिणोध्वर्युरध्वर ॥११॥
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मानन्दो नन्दनो नन्दो वन्योऽनिन्धोऽभिनन्दनः । कामहा कामदः काम्यः कामधेनुररिस्जयः ॥१२॥
॥ इति महामुन्यादिरातम् .। प्रसंस्कृतः-सुसस्कारः प्राकृतो वकृतांतकृत् । प्रतकृत्कांतिगुः कांतश्चिन्तामगिरभीष्टदः ॥ १ ॥ अजितो जितकामारिरमितोऽमितशासनः । जितक्रोधी जितामित्रो जितक्लेशो जितातकः ॥२॥ जिनेन्द्रः परमानन्दो मुनीन्द्रो दुन्दुभिस्वनः । महेन्द्रवन्धो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दनः ॥३॥ नायो नाभिजोऽजातः सुव्रतो मनुरुत्तमः । अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वानधिकोऽधिगुरुः सुधीः ॥४॥ सुमेषा विक्रमी स्वामी दुराषों निरुत्सुकः। विशिष्टः शिष्टभुक् शिष्यः प्रत्ययः कामनोऽनघः ॥५॥ क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षम्यः क्षेमधर्मपतिः क्षमी। अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तरः ॥३॥ सुकृती धातुरिज्याही सुनयश्चतुराननः । श्रीनिवासश्चतुर्वस्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुखः ॥७॥ सत्यात्मा सत्यविज्ञानः सत्यवाक्सत्यशासनः । सत्याशीः सत्यसंधानः सत्यः सत्यपरायणः ।।८।। स्येयान स्थवीयान् नेदीयान दवीयान् दूरदर्शनः । अरपोरगीयाननणुगुरुरायो गरीयसाम् ।।६।। सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशियः ।
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( १५३ ) अध्यात्मगम्यो गम्यात्मा योगविद्योगिवन्दितः । सर्वत्रगः सवाभावी त्रिकालयिपयायंरक् ॥१०॥ शङ्करः शंषदो दान्ता वमीक्षान्तिपरायण. । अधिपः परमानन्दः परात्मनः परात्परः ॥११॥ निजगहल्लभोऽप्रयस्त्रिजगन्मगलोवयः। त्रिजगत्पत्तिपूज्याघ्रिस्खलोकान-शियामणिः ॥१२॥
महापादितम् ।। विकालदर्शी लोकेशो लोकधाता वृदयतः । सर्वलोकातिगः पूज्य मर्वलोकंसारथि. ॥१॥ पुराणः पुरुषः पूर्वः यतपूर्वाङ्गविन्तरः । प्रादिदेवः पुगणाध' पुरदेवोऽधिदेवता ॥२॥ युगमुखो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशकः । कल्याणवर्णः कल्याणः फल्यः फल्यारणलक्षणः ।। ३ ।। कल्याणप्रकृतिःप्तल्वासात्मा शिफल्मपः । विफलः कलातीतः फलिलघ्नः कलाधरः ॥४॥ देवदेवो जगन्नाथो जगद्वन्धुर्जगद्विभुः । जगद्धितषी लोफज्ञः सर्वगो जगदग्रगः ।।५।। घराचर-गुरुगोप्यो गूढात्मा गूढगोचरः । अधोनातः प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभः ॥६॥ प्रादित्यवर्णो भर्माभः सुप्रभः कनफप्रभः । सुवर्णवर्णो रुक्माभः सूर्यकोटिसमप्रभः ।।७।। तपनीयनिभस्तुङ्गो वालाभोऽनलप्रभः ।
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। १५५ ) मूलकर्ताऽखिलज्योतिर्मलानो मूलकारणम् । प्राप्तो वागीश्वर: श्रेयाजमायसीतिनिरक्तवा ।।६।। प्रवक्ता वचसामोशो मानिद्विश्व भाववित् । सुतनुत्तनुनिमुक्तः सुगतो हतदुर्नयः ।।७।। श्रीशः घोधितपादाजो वीतभोरभयङ्करः । उत्सन्नदोषो निविघ्नो निश्चलो लोकवत्सलः ॥८॥ लोकोत्तरी लोकपतिलोकचक्षुरपारधीः । घोरघोर्बुद्धसन्मार्ग शुदः सन्तपूतवाक् ।।९।। प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिनियमितेन्द्रियः । भदन्तो भद्रकृद्भद्रः कल्पवृक्षो वरप्रदः ॥१०॥ समुन्मूलितकार कर्मकाष्ठाशुशुक्षणिः । कर्मण्यः मंठः प्राशुहयादेविचक्षणः ॥११॥ अनन्तशक्तिरछेद्यस्त्रिपुरारिस्त्रिलोचनः । त्रिनेवस्यम्बकस्यक्षः केवलज्ञानवीक्षणः ॥१२॥ समन्तभद्रः शान्तारिधर्माचार्यो दयानिधिः । सूक्ष्मदर्शी जितानङ्गः कृपालुधर्मदेशकः ।।१३।। शुभंयुः सुखसाद्भूतः पुण्यराशिरनामयः । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥१४॥ ॥ इति दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम् इत्यष्टाधिकमहस्रनामावली समाप्त ।। धाम्नां पते तवामूनि नामान्यागमकोविदः । समुच्चितान्यनुध्यावन्पुमान्पूतस्मृतिर्भवेत् ॥१॥ गोचरोऽपि गिरामासा त्वमवाग्गोचरो मतः ।
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( १५६ ) स्तोता तथाप्यमदिग्ध त्वत्तोऽभीष्टफलं भजेत् ।। २ ।। स्वमतोऽमि जगद्नन्नुम्त्वमतोऽमि जगद्भिषक् । त्वमतोऽमि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धितः ॥ ३ ॥ त्वमेक जगता ज्योतिस्त्व द्विस्पोपयोगभाक् । त्वं किमुत्यग स्वोत्थानन्तचतुष्टयः ॥ ४ ॥ त्व पञ्चब्रह्मतत्त्वारमा पञ्चकल्याणनायकः । पभेदभावतत्त्वज्ञस्त्वमप्तनयसग्रहः ।। ५ ।। दिव्याष्टगुण मूतिस्त्व नवकेवललकिः । दशावतर निर्धा मा पाहि परमेश्वर ।। ६ ॥ युष्मनामावली - दूध विलसत्स्तोत्रमालया । भवन्त परिवस्याम' प्रमोदानुगृहारण नः ।। ६ । इद तो 1 मनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिकः । य. सपाट पठत्येन स स्यात्कल्पारण - भाजनम् ॥ ८ ॥ तत सदेद पुण्यार्थी पुमान् पठति पुण्यधीः । पोरुहूतीं श्रिय प्राप्तुं परमामभिलाषकः ॥ ६ ॥ स्तुत्वेति मघवा देव चरावर जगद्गुरुम् । तस्तीर्थविहारस्य व्यधात्प्रस्तावनामिमाम् ॥१०॥ स्तुति पुण्यगुरगोत्कीर्तिः स्तोता भव्य प्रसन्नधीः । निष्ठितार्थो भवास्तुत्यः फल नैश्रेयस सुखम् ॥ ११ ॥ यः स्तुत्यो जगता त्रयस्य न पुनः स्तोता स्वय कस्यचित् । ध्येयो योगिजनस्य यश्च नितरा ध्याता स्वय कस्यचित् | १२ | यो नेतृ न् नयते नमस्कृतिमल नन्तव्यपक्षेक्षरणः ।
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। १५७ ) स श्रीमान् जगतां प्रयस्य च गुरदयः पुरः पावनः ॥ १३ ॥ त देव त्रिदशाधिपाचितपद घातिक्षयानन्तरप्रोत्पानन्तचतुष्टयं जिनमिनं भव्याजिनीनामिनम् ।। १४ ।। मानस्तम्भपिलोफनानतगन्मान्यं निलोफीपति । प्राप्ताचिन्त्यवाहविभूतिमन नपत्या प्रयन्दामहे ।। १५ ।। ॥इति भगवनिमनापागं पिादिगणानर्गत जिनमत्मनाम्।।
प्रय पखवाडा वानी एक नमो सवा, एक दरव प्राकाश ।
एक धर्म अधर्म दरय, पडवा शुद्ध प्रकाश ॥ दोन दुनन्द सिद्ध संसार, समारी प्रम थावर धार । स्व-पर बया दोनों मन घरो,राग द्वेष तजि समता परो ।। तीज निपान दान नित भनी, तीन फाल मामायक सजो। व्यय उत्पाद नौध्य पद साप,मन-वच-तन थिर होप समाध।। चोय चार विधि दान विचार, चारों धारापन संभार । मंत्री प्रादि भावना धार. चार बन्धसो भिन्न निहार ।। पाच पञ्च लधि लहि जीव, भज परमेष्ठी पञ्च सदीय । पाच भेद स्वाध्याय खान, पाची पंतारे पहचान ॥ था छ लेश्या के पुरनाम, पूजा प्रादि करो परफाम । पुइलग मे जानो पद भेद, छहो फाल लखि सुख वेद ।। सात सात नरक से डरो, सात खेत धन जलसो भरो। सात नय समझी गुणवन्त, सात तत्व सरधाकरि सन्त ।। मा माठ दरस के अंग, ज्ञान पाठ विध सही अभंग ।
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(13) पाठ नेद पृजा जिनगय, प्राठ योग कीजे मन नार ।। नौमो शील वाडि नब पाल, प्रायश्चित नी नेट मंभाल । नौ क्षायिक गुण मनमे गन्न नी कपारी नजि प्रमिलान्त्र ।। दशमी का पुगन्न पर जाय, शबन्चो हर चेनन राय । जनमत दश अनिय जिनगज,गविधि परिग्रहो क्या काजा ग्यारम ग्यारह भाव नमाज, मत्र प्रहमिन्द्र ग्यारह गज । ग्यारह जोग मुरलोक मझार, ग्यान्ह अंग पढे मुनिमार ।। वारम बारह विधि उपयोग, बारह प्रकृति दोष की गेग । वारह चमति लग्वि लेह वायव्रत को तन देह ।। तेरमि तेन्ह प्रावक थान, तेरह नेद मनुन पहचान । तेरह गग प्रकृति मब निन्द, तेरह भाब प्रयोग निनन्द ।। चौदम चौदह पूरब जान, चौदह वाहिन अग बखान । चौदह अन्तर परिग्रह डार, चौदह जीव समास विचार ।। मावम यम पन्दरह परमार, करम भूमि पन्द्रह अनाद । पञ्च गरीर पन्द्रह रूप, पन्द्रह प्रकृति हरे मुनि भूप ।। सोलह पाय राह घटाय, मोलह कला मम भावन भाय । पूरनमासी मोले व्यान, सोने स्वर्ग कहे भगवान ।। सब चर्चा की चर्चा एक, प्रातम पर पुद्गल पर टेक । लाख कोटि ग्रन्यन को सार, भेद ज्ञान अरु दया विचार ।। दोहा-गुण बिलास मब तिथि कही, है परमारय रूप ।
पढे गुने जो मन घरे, उपन्ने ज्ञान अनूप ।। इति ।।
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( १५६)
विषापहार भाषा दोहा-नमो नाभिनन्दन वली, तत्य प्रकाशनहार । तुर्यकालको यादि में, भये प्रथम अवतार ॥
ताच्य या रोना द॥ निज प्रातम में लीन ज्ञान करि व्यापत सारे । जानत सब व्यापार संग नहिं कछु तिहारै ।। बहुत काल के हो पुनि जरा न देह तिहारी। ऐसे पुरुष पुगन फरह रक्षा जु हमारी ॥ १ ॥ परकरिक ज अचिन्त्य भार जगको प्रति भारो। सो एकाको भयो वृषभ कोनो निसतारो॥ करि न सके जोगीन्द्र स्तवन मै फरिही ताफो। भानु प्रकाश न फर दीप तम हर गुफा को ।।२।। स्तवन करन को गवं तज्यो शो वह ज्ञानी। में नहिं तर्जी कदापि स्वल्प, ज्ञानी शुभध्यानी ॥ अधिक प्रर्थको कहें यथाविधि वैठि झरोक । जालान्तर घरि अक्ष भीमघरको जु विलोक ॥ सकल जगत को देखत पर सबके तुम ज्ञायक । तुमको देखत नाहि नाहिं जानत सुखदायक ॥ हो किसाक तुम नाथ और फितनाक बखाने । ताते युति नहि धनं अशक्ती भये सयाने ॥४॥ बालकवत निज दोष यकी इहलोक दुखी प्रति । रोग-रहित तुम कियो कृपा करि देव भुवनपति ।
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( १६० )
हित-प्रनहित को समझ माहि ह मन्दमतो हम ॥ सब प्रारिपन के हेत नाथ तुम बालवैद सम ।। ५ ।। दाता हरता नाहिं भानु सवको बहकावत । प्राज काल के छलकरि नितप्रति दिवस गुमावत ।। हे अच्युत जो भक्त नमै तुम चरन-फमल को । छिनक एकमे श्राप देत मनवाछित फल को ।।६।। तुमसो सन्मुख रहै भक्तिसों सो सुख पावे । जो सुभावते विमुख प्रापत दुर्खाह बढावै ।। सदा नाथ प्रवदात एक ति रूप गुसाई । इन दोनो के हेत स्वच्छ दपरणवत झाई ॥७॥ है अगाध जलनिधि समुद-जल है जितना ही। मेरू तु ग सुभाव शिखरो उच्च भन्यो हो । वसुधा पर सुरलोक एहु इस भाति सई है । तेरो प्रभुता देव भुवनिकू लंघि गई है ॥८॥ है अनवस्था धर्म परम सो तत्त्व तुम्हारे । कहो न आवागमन प्रभू मत माहिं तिहारे ।। दृष्ट पदारथ छाडि प्राप इच्छति अदृष्टको । विरुष वृत्ति तव नाथ समजस होय सृष्टको ॥६॥ कामदेव को किया भस्म जग-त्राता थे ही। लोनी भस्म लपेटि नाम सभू निज देही ।। सूतो होय अचेत विष्णु वनिता फरि हारयो। तुमको काम न कहै पाप घट सदा उजारयो ॥१०॥
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पापवान वा पुण्यवान सो देव बताये। तिनके प्रोगुन कह नाहि तू गुरणी कहावं ।। निज सुभावते अम्बु-राशि निज महिमा पार्य । स्तोक सरोबर कहे कहा उपमा बढि जावं ॥११॥ कर्मन को पिति जन्तु अनेक कर दुखकारी । सो पिति बहु परकार कर जीवन को स्वारी । भव-समुद्र के माहि देव दोनो के साखी । नाशिक नाब समान माप वाणी में भाषी ॥१२॥ सुबको तो दुख कहे गुणनफ दोष विचार । धर्म करनके हेत पाप हिरदै विच पार ।। तेल निकासन काजलिको पलं पानी। तेरे मतसों बाह्य इसे जे जीव प्रजानी ।।१३॥ विष मोचे ततकाल रोगकों हर ततच्छन । मणि प्रौषध रसारण मंत्र जो होप सुलच्छन ।। ये सब तेरे नाम सुपुदी यो मन परिहैं । भ्रमत अपरजन वृथा नहीं तुम सुमिरन करिहैं ॥१४॥ किचित् भी चित माहि माप फछु करो न स्वामी । जे राख चित माहि मापको शुभ-परिणामी ।। हस्तामलवत लखें जगत की परिणति जेती। तेरे चितकै बाह्य तोउ जीव सुख सेती ॥१५॥ तीन लोक तिरकाल माहि तुम जानत सारी। सामी इनकी संख्या थी तिसनीहि निहारी।
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} १६२ ।
को लोकादिक हुते अनन्ते हि मेरा । तेऽपि भलकते पानि नाका घोर न तेरा ॥ १६२ है प्रगम्य तव रूप कर्द सुरपति प्रभु सेवा ।
ना कछु तुम उपकार हेत देवन के देवा " भक्ति तिहारी नाथ इन्द्र के तोषित नको ? ज्यो रवि सन्मुख छत्र करं छाया निज नको ॥१७॥ वीतरान्ता कहा कहा उज्देन सुखाकर । तो इच्छा प्रतिकूल वचन किम होय जिनेसर प्रतिकूली भी वचन जनतकू प्यारे ऋति हो । हम कुछ जानी नाहि तिहारी तत्यासति हो ॥ १६ ॥ उच्च प्रकृति तुम नाथ किचित् न घर | तो प्रापति तु की नाहि सो घने सुरमते " उच्च प्रकृति जल दिना भूमिधर मी प्रकासँ जलघि नीर भरो नदी का एक निकासे ॥१६७ तीन लोन के जीव करो जिनवर की सेवा । नियम थक कर दण्ड घरचो देवन से देवा ॥ प्रतिहार्य तौ बने इन्द्र के वने न तेरे ।
तेरे नै तिहारे निमित्त परेरे ॥२०॥ तेरे सेवक नाहि इसे से पुरुष होन घन । धनवानो को और लखत के नाहि वक्त पत जैसे तमति किये लखत परकास- थितीकू । तैसे सूत नाहिं तम-यिती मन्दमतीकू ॥२१॥
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निज वृध स्वामोसास प्रगट लोचन टमकारा । तिनकों वेदन नाहि लोकजन मूढ विचारा ॥ सकल ज्ञेय ज्ञायक जु अमरति ज्ञान सुलच्छन । सो किमि जान्यो जाय देव तव रूप विवच्छन ॥२१॥ नाभिराय के पुत्र पिता प्रभु भरत-तन है। कुल-प्रकाशिक नाथ तिहारो स्तवन भने हैं । ते लघु घी असमान गुननको नाहिं भी हैं। सुवरन पायो हापि जानि पाषान तजे हैं ॥२३॥ सुरासुरनको जीति मोहने ढोल बजाया। तीन लोक मे किये सकल वशि यो गरभाया ।। तुम अनन्त बलवन्त नाहि ढिग प्रावन पाया। करि विरोध तुम यकी मूलते नारा कराया ।। २४ ।। एक मुक्तिका मार्ग देव तुमने परकास्या। गहन चतुरगति मार्ग अन्य देवना भास्या ।। 'हम सब देखनहार' इसी विधि भाव सुमिरिके। भुज न विलोको नाथ कदाचित् गर्भ जु परिकै ॥२५॥ केतु विपक्षी प्रर्कतनो फुनि अग्नितनो जल । अम्बुनिधी अरि प्रलय कालको पवन महावल ॥ जगत माहि जे भोग वियोग विपक्षी हैं निति । तेरो उदयो है विपक्षते रहित जगतपति ॥२६॥ जाने बिन हू नवत प्रापको जो फल पावै । नमत अन्यको देव जानि सो हाथ न पाये।
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( १६४ }
हरी मणी काच, काचकू मरगी रटत है । ताकी बुधि मे भूल, मूल्य मरिणको न घटत है ॥२७॥ ने विवहारी जीव वचन मे कुशल सयाने ।
ते कषाय करि दग्ध नरनको देव बखाने || ज्यौ दीपक बुझि जाय ताहि कह 'नन्दि' भयो है । भग्न घडेको कलस कहें ये मंगलि गयो है ॥२८॥ स्यादवाद समुक्त अर्थको प्रगट बखानत । हितकारी तुम वचन श्रवणकरि को नहिं जानत दोषरहित ये देव शिरोमणि वक्ता जगगुरु । नो ज्वरसेती मुक्त भयो सो कहत गरल सुर ॥२६॥ बिन बांछा ये वचन आपके खिरं कदाचित् । है नियोग ये कोपि जगतको करत सहज हित ॥ करै न बांछा इसी चन्द्रमा पूरो जल-निधि । सीत-रश्मिक पाय उदधि जल बढे स्वयसिधि ॥३०॥ तेरे गुरण गम्भीर परम पावन जग माई | बहु प्रकार प्रभु हैं अनन्त कछु पार न पाई ॥ तिन गुरणान को प्रन्त एक याही विधि दीसं । ते गुरण तुझ ही माहिँ और नाहि जगीसं ॥३१॥ केवल युति हो नाहि भक्ति पूर्वक हम ध्यावत । सुमरन प्रणमन तथा भजनकर तुम गुरुप गावत ॥ चितवन पूजन ध्यान नमस्करि नित प्राराधे । को उपायकार देव सिद्धि-फलको हम साधै ॥३२॥
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( १६५ १
सोकी नगगविरेय मित ज्ञानप्रकाशो | परमज्योति परमात्मशक्ति धनी भागो || पुण्य-पापतं रहित पुन्य के कारण स्वामी | मर्मो नम अगवन् समन्य नाम कामी ||३३|| रस-सपा पर गन्य रूपमतिहारे । इनके वियय विचित्र भेद सब काननहारे ॥ सब जोवन प्रतिपास प्रत्यकरि है प्रगम्य न । सुमरन गोवर नाहि क जिन तेरो सुमिरन ॥३४॥ तुम प्रताप जिनदेव चितके गोवक नाहीं । निःकिचन भी प्रभू पनेश्वर जानत सर्दि || भये विश्व में पार ष्टिमों पार न पा । जिमपति एम निहारि सन्तजन शरनं ग्रावे ॥१३५॥ नमो नमो नम बगरगुरु शिक्षादायक | निज गुणसेती भई उम्मति महिमा लायक || पाहन-खण्ड पहार पाई ज्यों होत और गिर । त्यों कुल पर्वत माहि मनातन दोघं भूमिपर ||३६|| स्वयं प्रकाशो देव रंन-दिन नहि बाधित । दिवस रात्रि भी तं प्रापको प्रभा प्रकाशित || लाघव गौरव नाहि एकसो एव तिहारो | काल-कलाते रहित प्रभु नमन हमारो ॥३७॥ इह विधि बहु परकार देव सब भक्ति करो हम | आनू वर न कदापि हीन है राग-रहित तुम ॥
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( १६६ )
छाया बैठत सहज वृक्ष के नीचे ' है । फिर छाया को जाचत थामे प्रापति क्वै है ||३८|| जो कुछ इच्छा होय देनकी तौ उपकारी । द्यो बुधि ऐसी करू प्रीति सों भक्ति तिहारी ॥ करो कृपा जिनदेव हमारे परि तोषित | सनमुख अपनी जाति कौन पण्डित नहि पोषित " यथा कथंचित मक्ति र विनयी जन केई । तिनकू श्री जिनदेव मनोवांछित फल देई । फुनि विशेष जो नमत सन्तजन तुमको घ्यावे । सो सुख जस 'धन-जय' प्रापति ह्वे शिवपद पावै ॥४०॥१ बावक माणिकचन्द सुबुद्धी प्रथ बताया ।
सो कवि 'शांतिदास' सुगम करि छन्द बनाया ॥ फिरिफिरिक ऋषि रूपचन्द ने करी प्रेरणा । भाषास्तोत्र विषापहार को पढो भविजना ॥ ४१ ॥
॥ इति विपापहार स्तोत्र ( हिन्दी ) समाप्त ॥ तत्वार्थ सूत्र भाषा
( श्री लाला छोटेलालजी कृत )
छप्पय - तीनकाल षट्द्रथ्य पदारथ नव सरधानों जीवकाय घट जान लेश्या घट ही मानो ॥ अस्तिकाय हैं पांच और व्रत समिति सुगत है ज्ञान और चारित्र इसे श्रुत मोक्ष कहत हैं ॥
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(१६७) तीन भुवनमें महत पुनि, प्ररहन्त ईश्वर जानियो । ये प्रशस्त पुनि मान्य हैं पुरष्टि पहिचालियो ॥१॥
छन्द विजया मोक्ष को राह बतावत जे अरु, कर्म पहाड करें चकचरा । विश्व सुतत्त्वके ज्ञायक हैं ताहि लब्धिके हेत नमो परपूरा ।। १. सम्यक्दशन झानदरिन कहे एही मारग मोक्षके सूरा। २. सत्त्वके पर्व करो सरपान सु सम्यग्दरशन नाम जहूराास ३. होत स्वभाव निसर्गज सम्यक गुरुउपदेश सु अधिगम ताई ४. जीव मजीव र मानव बंष सु संवर निर्जर मोक्ष जताई। जेई हैं तत्व सुतत्व भले इनको सस्था श्रुत सात कहाई ।। ५. नामस्थापन द्रव्य सुभाक्त तत्व सु संभवता सु लहाई।। ६. नय परिमारण के भेद सुजानन औरहु कारण जान सुजानो ७.निरदेश स्वामित साधन जान अधार र इस्थिति भेद विधानो ८.सत संख्या छिति परसन काल रु अन्तर भाव प्रल्प बहु मानो ६.मति श्रुति अवषिज्ञान मनपरजय केवलज्ञान सुपांच बखानोट १०.एही प्रमाण कहे श्रुतमे ११.पहिले दो शान परोक्ष बताए । १२.शेष प्रतक्ष सु तीन रहे १३.मतिज्ञानके नाम सु पांच जताए
सुमरन संज्ञा विचार लखो भिनिबोध सुचिन्नन भेद कहो है। १४.ता मतिज्ञानको कारण मान सु इन्द्री मन सबसंग लहो है।
॥छन्द मदरावरन ।। १५.प्रथम देखना फिर विचारना बहुरि परखना चितधरना । १६.बहु बहुविषि छिपा अरु अनिसृत अरु अनुक्त निश्चल बरना
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षट इनके प्रतिपक्षी लेकर यों बारह चितमें धरना । अवग्रहादि चारो से गुरणकर फिर मनइन्द्री से गुरणना ॥६॥
सवैय्या १७.इह विध अर्थ प्रवग्रहके भेद भये सब दोस अठासी बखानो। १८.मन अरु चक्षुको छोड़ गुनो अड़तालिस भेद सुव्यजन जानो १९ यो सब तीनसँछत्तिस भेद भये मतिज्ञानके चिसमे प्रानो। २०.पूर्व कहो श्रुतज्ञान सु ताके भेद अनेक हु बारह मानो ७॥ २१.नारकि देवकों होत भवोरक्षय उपशम कर्मर कारण जानो।
शेषन के षट भांति सुज्ञात कहो सुअवधिवल ज्ञान बखानो। २३ ऋजुमति और विपुल मनपर्यय भेद कहे दो बेद कहानो॥ २४ अप्रतिपाति विशुद्ध के कारण इन दोनो मे विशेषता जानो दोहा-२५, विशुद्ध क्षेत्र स्वामी विषय, चारो कारण लेख ।
मनपर्जय अरु अवधि के जानो भेद विशेष ॥६॥ २६. मति श्रुति जानत नेम है द्रव्यन विर्षे सु जान ।
थोडी पर्जायें लखै, द्रव्यन को पहिचान ॥१०॥ २७. रूपी पुद्गल जान पर पुदगल रूपी जीव ।
थोडी पर्जायों सहित जाने अवधि सदोष ।। ११ ॥
सूक्ष्म रूपी वस्तु जो अवधि लखाई देत । २८. तासु अनन्ते भागको मनपर्जय लखि लेत ।। १२॥ २६. सर्व द्रव्य पर्जायको केवल विषय विख्यात । ३०. मतिज्ञान से चार लों जुगपत जीव लहात ॥१३॥ ३१. मतिश्रुतिज्ञान र अवधि के तीन विपर्जय ज्ञान ।
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( १६६ ) कुमति कुश्रुति कुअवधि लखि क्रम-क्रम ही पहिचान ।१४ ३२. सत असत्य निर्णय बिना इच्छाकर उनमत्त ।
प्रहरण करे जो ज्ञान को सोई विषय अनित्त ॥१५॥ ३३. सात भेद नयके कहे नैगम संग्रह जान ।
तीजी नय व्यवहार है द्रव्याथिक त्रय मान ॥१६॥ चोयी नय ऋजुसूत्र है शब्द पांचमी वीर । समभिरुढ एवंभूत नय छटी सातमी धीर ॥१७॥ पर्जय अथिक चार नय पिछिली कही सु जान । प्रथम तीन नय जो कही सो द्रव्याधिक जान ॥१८॥ ज्ञान रु दर्शन तत्त्व नय लक्षरण भेद प्रमारण । इन सबको बरणन कियो पहिलो प्रध्या जान ॥१६॥
। इति प्रथमोध्याय ॥
छन्द विजया १. उपशम क्षायिक मिश्र सुभावसु जीवको भाव स्वरूप बखानो। उदयिक अरु परिनामिक जानसु नीचे लिखे प्रति मेदसु जानो। २. बो विधि उपशम क्षायिक नौ विध मिश्र अठारह भेद बताए। उदयिक भाव लखो इकबोस परिनामिक त्रय भेद सु गाए ॥१॥ ३. उपशम सम्पकचारित दो अरु ४ दर्शन ज्ञान रु दान बखानो। लाभ भोग उपभोग लखौ इम वीर्यको योग करों नौ जानो। ५. ज्ञानसु चार प्रज्ञानहु तीनरु दर्शन तीन रु लब्धिके पांचौं । संयमासंयम चारित सम्यक् तीन मिलाय अठारह हु सांचौ ॥२ ६. चारि कषाय कही गति चारि रु लिंगसु तीन सयोग करो है।
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( १७० । लेश्या छ परकार लिये अज्ञान असजित चित्त धरो है । मिथ्यादर्शन और प्रसिद्ध भये इकबीस स्वभाव गिनो है । ७. जीवसु भव्य प्रभव्य लखौ परिनामिक तीन प्रकार भनो है।७ ८.ता परिणामिक लक्षण जान कहो उपयोग सु दोय प्रकारा ज्ञानुपयोग है पाठ प्रकार रु दर्शन भेदमु चार निहारा ।। १०.जीवनि भेदसु दोय लखौ ससारी सिद्ध कहौ निरधारा । ११.मनकर सहित रहित२२त्रस थावरयो दो भेदसु सूत्र मझारा४ १३.पृथ्वी जल अरु तेज सुजानो वायु वनस्पति थावर सारा । १४. पुनि दो इन्द्री प्रादि लखौ त्रस संज्ञक रूपसु वेद निहारा । द्रव्य अरु भाव मिलाय गिनो १५पचइन्द्रोके भेदसु१६दोयबखानो १७इन्द्रीकार निर्वृत्त गिनो उपकर्णको चिह्न प्रघट्य लखानो।५। १८जिनफर देखन जानन होय सु इन्द्री भावको भाव जतानो। १९नाक र नेत्र सु कान कहे अरु जीभ स्पर्श सु इन्द्रो जानो।
२० गंभ रु वर्ण सु शब्द कहे रस जान स्पर्शन पाच विषय हैं। २१मनकि समर्थसो शब्द सुजानत२२थावर पांच डकैद्री निचय है दोहा-२३, कृमि पिपीलिका भ्रमर अरु मनुष प्रादि जे जीव।
एक एक इन्द्री अधिक धारत ज्ञान सदीय ।।७।। २४. संज्ञो जीव सु जानिये मन कर सहित सु जान । ' २५. विग्रह गतिके भेदको वर्णन करौ बखान ॥ ८ ॥
गतितै गत्यांतर गमन कर्मयोग ते जान । २६. विग्रह विन सूधो गमन जीव अणू पहिचान II
सूधो गमन स्वभाव है, टेढो गमन विभाग ।
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( १७१ ) कर्मयोगते होत सो, २७ विधिविन सरल स्वभाव ।१०। २८. संसारी जीवन कहो, विग्रह गति निरधार ।
चार समय पहिले गिनो,२६ एक अविन निहार ।११।' ३०. समय एक दो तीन लो, रहै जीव बिन हार ।
नाम पनाहारक कहो, भाषी सूत्र मझार ॥१२॥ ३१. सन्मूर्छन गर्भज कहे, उपपावक हू जान ।
ऐसे जन्म स्थान लख, तीनो भेद प्रमान ॥ १३ ॥ ३२. चौरासीलख योनि यो, सचित शीत अरु उन । ___ सवृत सेतर मिश्र जे, गुनी परस्पर प्रश्न ॥ १४ ।। ३३. जर अंडज पोतज कहे, गर्भ जन्म के थान । ३४. देव नारकी दोय उपपादक जन्म बखान ॥ १५ ॥ ३५. शेष जीव संज्ञा कही, सो सन्मर्छन जान ।
पांच भेद वपु जानियो, ताको करों बखान ॥ १६ ॥ ३६. प्रौवारिक वैक्रियक पुनि, प्राहारक हू जान ।
कारमान तेजस सहित, पांच शरीर बखान ।। १७ ॥ ३७. पर परके सूक्षम लखौ, अनुक्रम उक्त बखान । ३८. गुण असंख्य परदेश हैं. तेजस पहिले जान ॥ १८ ॥
॥छन्द विजया ३६. अतके दोय अनन्त गुरणे नहीं४.घात किसी परकार सुजानो ४१. जीव सबध अनादि कहो४२सव जीवन माहि लखो अनमानो ४३. एक समय इक जीवके चार शरीर सु होतसु सूत्र बखानो । ४४. भोगके योग कहो नहिं अतिम सूत्रमे या विधि रूप दिखानो।
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(५२) ४५. जन्माईन पर्नज जीवनको शारिक माहि गरीर ताशेर ४६.नतिने शारी नुनीजनप्रोटरपारके क्रियिकशेयकहाणे ४.संजन भी तिनही दुनिझ४६ प्राहार शुभ निर्मल भागे।
काहका शतो बार नहीं पुरण्यान हो दुनिराजनगायो॥२॥ ५८. नारको और सन्यूईन जीव मुजानो नपुंनक देव कहे । ५१. वन के यह वेद नहीं ५२. दामी ला जीव निवेद कहे ।। ५३. उपनिक नंगरीरो ही ग्रह उत्तन हन्तवारी को !
प्रसंस्थातववालिनको कहि नहि बोर घायु छिन् उनको२१ मेहा-तत्वारए पह सूत्र है, मारग मोन प्रकाग । रह प्रभार पूरण नगे, दूजो प्रध्या तात् ।। २२ ।।
॥ इति हितोणेगा ॥ बोहा-१. रत गरकरा बानुका, पंक धूम तम जान ।
तरा महातन सप्तनी, प्रभा नर्क कुखसान ॥१॥ घन प्रम्बू भाकाग कर, दात दिले लिपटान । सप्त गर्न पृषिदो तनी, नीचे नीचे दान ॥ २ ॥
बन्द नाराबरन २. जिन नकों में रिले कहे हैं तिनको संख्या सुनो सुजान । प्रयम के में तीन लाख दिल बजे लात पचीस बलान ।। तीजे पंह लाख पिनो बिल दश लस चौथे में परमान । ग्वत्र पांच तीन लाख है छठे पांच घट लाल नुमान । दोहा-नरक सातवें पांच है, सब चौरागे लाख ।
या विध सात चक के, संख्या बिलको नाप ॥१॥
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( १७३ ) सोरठा-३. लेश्या अरु परिणाम, देह वेदना विक्रिया।
महा अशुभ दुखधाम, घर नारको नित क्रिया ॥५॥ ४. देत परस्पर दुक्ख, पावै घोर जु वेदना । ५. प्रसुर कुमारन कृत्य,जानो तीजे नर्फलो ।। ६ ।।
छन्य विजया ६. नारकि मायु प्रमान सनो इक सागर प्रथम दूसरे तीना। तीजे सात समद दश चौथे पांचवें सत्रह सागर दोना ।। बाइम तैतीस सागर जान छटवें अरु सातवे नर्क सुधाना । ७. जम्बू प्रादिक द्वीप गिनो लवनोदधि आदि समुद्र वखाना७ ८. द्वीपते दूने समुद्र कहे पर प्रागेके द्वीप समुद्र ते दूने । याही भांति भिडे हैं परस्पर प्राकृति गोल सु सुन्दर चीने ।। ६. सब तिनके मध्यसु जम्बूद्वीप सुमेरुसु नाभिसु सूत्र बतायो। योजन लाख चौडाई कही या भांति धीगुरुने दरशायो ॥८॥ दोहा-१०. भरत हेमवत हरि तथा, चौथा क्षेत्र विदेह । रम्पक ऐरावत हिरन, सात क्षेत्र लख एह ॥६॥
छन्द विजया ११हिमवन महाहिमवान निषध्या नीलसु रुक्मि शिखिरनी जानो पूरब पच्छिम लम्ने कहे पुनि क्षेत्र विभागको कारण मानो। १२. सुनरन रूपो तायो सुवरन मनो वैडूर्य सु रङ्ग फहो है । रूपो सोनो सु रंग लखो क्रम जान कुसाचल वर्ण लहो है ।१० बोहा-१३. बने किनारे रत्व के, ऊपर नीचे तुल्य ।
छहो कुलाचल जानियो,करियो भाव निशल्य ॥११॥
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( १७४ ) तिन ऊपर छह कुण्ड है १४ पद्मद्रह महापद्म । निगच्छ केसरी महापुड, पु डरीक सुख सन ।१२। छह पर्वत के छह दहा, या विध तिनके नाम । अब आगे विस्तार विधि, कहाँ सकल सुखधाम ।१३।
चौपई १५. लबो योजन एक हजार, चौडाई तसु अर्द्ध निहार । १६ दश योजन गहराई जान, पहिले द्रहको जान प्रमान। १४ दोहा-१७. तामधि योजन एकको, राजत कमल सु एक । १८. द्रहते द्रह दूनो लखौ, त्यो ही कमल विशेष ।१५।
छन्द विजया १६. नगासिनी छहो कुलाचल की षट् देवीके नाम सुनो सु सही श्री ही अरु धति कीति कही बुधि देवी लक्ष्मी जान सही।। पल्यकी आयु है सबकी अरु तुल्य समा सुखसाज लही। २०.ग. सिंधु सु रोहित रोहिता हरित नदी हरिकात कही१६ सीता अरु सीतोदा नदी नारी अरु नरकांत सही । सुवरणकला रूपकुला अरु रक्ता रक्तोदा सब ही ॥ नदिय चतुर्दश को परवाह भयो तिन कुण्डनते भुवि मे । २१.वो दो नवि पूरव को गई अरु २२ दो दो शेष अपूरव मे।१७ २३, गग कुटुम्ब सहस्र चतुर्दश सिन्धु चतुर्दशतै दूनो । २४. पच शतक छबीस कला षट् योजन भरतसु क्षेत्र कहानो। इक योजन की उनईस कला तामे छ लेख सु ऊपर है। २२. आगे क्षेत्र सु पर्वतको विस्तार सुदूनो भूपर है ॥१८॥
चौपई
क्षेत्र दुगुन पर्वत को मान, पर्वत दूनो क्षेत्र बखान । यों विधेह पर्यन्त सुहान, २६ उत्तर दक्षिण तुल्य सुजान।१९।
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२७. भरत पौर ऐरावतमाहि घटती बढती काल कहाहिं । उतसर्पिरिण अवसर्पिरिण काल, तिनके छं छं भेद निराल | २०| २८. शेष भूमि राजति है और, तिनमे नहीं कालकी दौर । सदाकाल इककाल सुहान, तीन पत्यली श्रायु प्रमान ॥२१॥ २६ हिमवतमे इक पल्य सुजान, दो हरिवर्षक क्षेत्र बखान । भूमि देवकुरु तीन सु कही, ३० यही भांति उत्तरकुल लही२२ ३१, विदेहक्षेत्र संख्यात सु काल. कोटि पूर्व उतकृष्टसु हाल । ३२. जम्बूद्वीप क्षेत्र अनुराग, ताके इकसौ नव्वं भाग ||२३|| भरतक्षेत्र चौडाई जान, ३३ दूनी घातकी खण्ड बखान । ३४. श्रागे पुष्करद्वीप सु जान, रचना धातकी खंड प्रमान२४ मानुषोत्र पर्वतके उरे, ३५ नहि मानुष पर्वत के परे । ३६. दो प्रकार के मानुष कहे, धारज और मलेच्छ स् लहे २५ ३७. भरतक्षेत्र ऐरावत मान, और विदेह कर्मभुम्र जान । देवकुरु उत्तरकुरु थान, भोग भूमि तहें कही सुखदान |२६| श्रायु पल्य त्रय ३८ नर उतकृष्टि, प्रन्त मुहूरत जघनसु दृष्टि । उत्तम भोगभूमि मनुजान, ३६ श्ररु तिर्यंच श्रायु इह मान ॥२७ दोहा - तत्त्वार्थ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल ।
तृतीय अध्याय पूरण भयो, मिथ्यातम को शूल ॥ २८ ॥ ॥ इति तृतीयोध्याय || रोडा छन्द
१. देव सु चतुरनकाय २. तीन मे पीतलौं लेश्या । ३. दश परकार निहार भवनवासी सु त्रिदशया ||
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( १७६ । व्यन्तर पाठ प्रकार ज्योतिषो पच कहे हैं । द्वादश भेद निहार स्वर्गवासी सु लहे हैं ॥ १ ॥
॥छन्द कुमुमलता ॥ ४ इन्द्र समानिक त्रास्त्रिशत देव पारषद हैं सु सभोके । प्रातमरक्ष लोकपाल पट् सप्त मेद सु जान अनीके ।। परकोनक अभियोग किलिविषक जान त्रदश हैं । यह देवन की जाति देव प्रति मान सु दश हैं ।।२।। व्यन्तर ज्योतिष माहि त्रात्रिशत नहिं देवा । लोकपाल भी नाहिं जान यह निश्च भेवा ॥ वासी भवन सु देव और व्यन्तर के माहीं। दो दो इन्द्र निहार रीति यह सूत्र कहा ही ।। ३ ।। ७ भोग कायकर जान स्वर्ग सौधम ईशाना । ८ स्पर्श रूप शब्द चित्तसो सुरगन थाना ॥ ९. स्वर्ग ऊपरे देव रहित इस्त्री सयोगा । १०. वासी भवन सु देव जान दश भेद मनोगा ॥४॥ दोहा-असुर नाक विद्युत तथा, सुपर्न अग्नि रु वात ।
तनित उदधि अरु द्वीप दिग,दशकुमार विख्यात ॥५॥ ११ व्यन्तर किन्नर किम्पुरुष, महाउरग गन्धर्व ।
यक्ष पौर राक्षस कहे, भूत पिशाच सु पर्व ॥६॥ १२. ज्योतिष सूरज चन्द्रमा, ग्रह नक्षत्र प्रकीर्ण । १३. मेरु प्रदक्षण देत है, मनुज लोक नित कीर्ण ॥७॥ १४. इनहीं ज्योतिष देवकर, होत कालकी ज्ञान । १५. द्वीप पढाई बाहरे, इस्थिर ज्योतिष जान ।।८।।
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( १७७ )
|| सर्वया तथा विजया || १६. वासी विमानसु देव कहे अरु १७स्वर्गनसे सुरवासी कहाये स्वर्ग परे प्रहमिंद्र कहे श्ररु १८ ऊपर ऊपर थान लहाये ॥ १६. सौधर्म ईशान सु स्वर्ग कहे अरु सनतकुमार महेद्र सुगाए ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव स्वर्ग कपिष्ट सु शुक्र नवो गिनलाए । ६ । महाशुक्र सतार सु ग्यारम है सहस्रार सु प्रानत जानो । प्रारणत प्रारण अच्युत मान सौधर्मते सोलह स्वर्ग बखानी ॥ तिन ऊपर नव नव ग्रीवक हैं अरु तिनपर नव नव अनुदिशि है तिच ऊपर पंच पचोत्तर हैं तिननाम सुने मन मोदत है ।१० प्रथम विजय वैजयत सु दूजो तीजो जयत सु नाम बतायो । पुनि चौथो अपराजित पचम सर्वारथसिद्ध नाम लहायो ॥ २०. वैभव सुक्ख समाज थिती लेश्या प्ररु तेज विशुद्धपनो है ज्ञान प्रविधि पहिचान विषय इन माहि सु ऊपर अधिक भनो है दोहा - २१. गति शरीर परिग्रह तथा, और जान अभिमान । इनमे हीन निहारिये, ऊपर ऊपर जान ॥ १२ ॥
२२. लेश्या पीत सु जानियो दोय जुगलके माहि ।
तीन जुगलमे पद्म है शेष शुक्ल शक नाहि ||१३||
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२३. नव ग्रीवक पहिले कहे, स्वर्ग समूह सु थान ।
२४. ब्रह्मस्वर्ग लौकात सुर प्राठ प्रकार बखान ॥। १४ । । २५. सारस्वत श्रावित्य हैं, बह्री प्रारुण श्रेष्ठ । गर्दतोय श्ररु तुषित हैं, अव्याबाध अरिष्ट ॥ १५ ॥ सवैया
२६. विजय आदि चारों विमानके दो भवधर के मोक्ष पधारें ।
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( १७८ )
पचम जान विमान वसै ते तदभव मुक्तिको पथ निहार ॥ २७ नारकी देव कहें उपपादिक और मनुष्य सु छोडि बताये। शेष सु जीव तिर्यच लखो इह भांति सु सूत्र मे भेद जताये । १६ चोपई
२८ असुरकुमार आयुवल जान, सागर एक कही परमान । तीन पल्य लख नाग कुमार, ढाई पत्य सुपररणको सार ॥१७॥ द्वीपकुमार पल्य दो जान, डेढ पल्य शेषन परिमान । यह विध उत्तम श्रायु समान, भवनवासि देवनकी जान | १८ | २६ कछू अधिक दो सागर सार सऊधर्म ईशान मकार । ३० सनतकुमार महेन्द्र विस्यात, सागर सातसु जानो भ्रात १६ ३१ जुगल तीसरे दशकी जान, चौथे जुगल सु चौदह मान । जुगल पाचवें सोलह लेउ, छटे अठारह सागर देउ | २०| जुगल सातवें वीस निहार, बाइस जुगल आठ मे धार । ३२ नवग्रीवक इकतीस बखान, नवें नवोत्तर बत्तिस मान२१ पंच पचोत्तर तेतिस आयु. ३२ जघन्य पत्य किचित् अधिकायु ३४ प्रथम श्रायु उतकृष्टि कहान, सो जघन्य गले मे जान२२ ३५ यही भाति नरकनके माहि, श्रायु मे जानो शक नाहि । नरक दूसरे ते पहिचान, ऊपरको परिमान सुजान ॥ २३ ॥ ३६ प्रथम नरक को जघन प्रमान, वर्ष हजार दशकको जान यही ३७भवन ३८व्यन्तरके माहि, ३६ व्यन्तर प्रायु उतकृष्टी प य किचित् श्रधिक पल्य परिमान, ४०ज्योतिष याही भांति सुजान ४१ पल्य आठवें भाग निहार, जघन्य आयुबल ज्योतिषधार । ४२ सागर प्राठ लोकातिक देव, प्रायु कही सबकी इह भव
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( १७६ )
दोहा - तस्वारथ यह सूत्र है, मोक्ष शास्त्र को मूल । अध्याय तुर्य पूरण भयो, मिथ्यामत की शूल ॥२६॥ ॥ इति चतुर्थोऽध्याय ॥ छन्द विजया
१ काय प्रजीवके धर्म प्रधर्म प्रकाश रु पुद्गल भेद बखानो । २जीवसु ३द्रव्य मिलाय दिये पंचास्तिसु कायको भेद जतानो । ४ नित्यसु सास्वत जान इन्हे श्ररु मान रूपी५पुद्गल रूपी । ६ धर्म प्रधर्म प्रकाश ये तीनो७हित क्रिया इक क्षेत्र निरूपी १। चोपई
८ धर्म धर्म असंख्य प्रदेश, यही जीव के जान प्रदेश । अनन्त प्रदेश प्रकाश स्वतन्त्र १० पुद्गल सख्य असंख्य प्रनन्त ११ फेरि भाग जाको नहि होय, नाम प्रदेश बतायो सोय । १२ लोक प्रकाश विषै है वास, द्रव्यनको जानो सुखराश । ३ । १३ धर्म धर्म द्रव्य परदेस, व्यापत लोकालोक भनेश । १४ लोकालोक प्रदेश मांय, पुद्गल द्रव्य प्रदेश बसाय |४| १५ तासु असंख्य भाग मे जान, जीवन को अवगाह प्रमान । १६ जियप्रदेश संकुच विस्तार, दीपक तुल्य जान निरधार १५ १७ पुद्गल जीव चाल सहकार, धर्मद्रव्य जानो उपकार । तिनको इस्थित करें सु जान, द्रव्य श्रधर्म स्वभाव बखान | ६ |
१८ गुरणप्रकाश श्रवगाहन वीर, १६पुद्गल जोग सुनो नमधीर मन वच स्वास उस्वास शरीर, २० सुखदुख जीवनमरन श्रधीर७ २१ जिय उपकार परस्पर जीव, २२काल सु लक्षरण जान सदीव वर्तमान परिनमन सु जान, क्रिया परत्व श्रपरत्व बखान 15
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। १८
चौपई ५ इन्द्री पांच कषाय जु चार, प्रव्रत भेद सो पांच निहार । किया भेद पच्चीस बखान, जे सब माधव भेद सुजान ॥३॥ ६ तीन मद भावको मान, भाव विशेष जान उनमान । ७ आश्रय जीव अजीव निसार, या विध सूत्र कहो निरधार४ ८ जोवघात कृतकरन अभ्यास, और होय प्रारम्भ सु तास । मन वच काय योग अनुसरे, पर उपदेश पाप जो करे ।। परहिंसा अनमोद करन्त, चार कषाय विशेष धरन्त । तीन तीन अरु तीन बखान, चार अन्त मिलि हिंसामान ।६। ६ दोय भेद निर्वर्तना जान, चार भेद निक्षेप सु मान । दो सयोग रु तीन निसर्ग, ये सब भेद सु प्राश्रव वर्ग ॥७॥
सवैय्या तेईसा १० दर्शनशान के धारकको भर दर्शन ज्ञान बडाई न भावे । जानत हैं गुण नीकी तरह अरु पूछते गुण नाहि बतावै ॥ मांगे न पोथी देय कभी विद्वान पुरुषसो फेर सु राखे । गुणवानको निर्गुण मूढ कहै सो दर्शन ज्ञान अवर्ण वढावै ।। ११ दुख अरु शोक पुकार कर अरु माथा धुने अरु प्रांसू डार ताप कर परकारन होय सो जान असाता पाश्रव पारे । १२ जीवनमाहि दयाल व्रती अरु वत्तिनि दान देय सो भावं प्रशुभ निषेधके हेतको उद्यम रक्षा करन छकाय सुहावै ।। इन्द्रो निरोध सराग सु संयम चितन क्रोध कर नहिं लोभा। इह विध साताको बन्ध लखौ यह पाषव बन्धकी जावसु शोभा
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( १८२ ) १३ केवलज्ञानी ग्रह शास्त्र सु मंगति धर्मम देवकी निंद कर है दर्शन मोहनीकर्म को प्राश्रव होते मदा नर नाहि डरे हैं ।१०। १४ कपायोदय परिनाम तीव्रतं चारितमोहनी कर्म बन्चे है। १५ बहु प्रारम्भ परिग्रह कारन नर्कके प्राश्रव फद फसे है ।। १६ माया स्वभाव तियंचगती अरु १७अल्प परिग्रह मानुप जानो अल्पारम्भ २१८ कोमलभाव यह सब प्राश्रव मानुष मानी।११। १९वत शीलरहित्यपनोंम लखौ गति सबको पाशव होयम् वीरा २०सराग मुनि अरु पाश्रवके व्रत जान अकाम सु निर्जरघोरा । नप अज्ञान रु २१ सम्यक हूँ लख देवगती को प्रात्रव नोरा । २२ योगनको कुटिलाई कुवादसु नाम अशुभको प्रास्रव तोरा१२ दोहा-२३ जहं जोगन को सरलता, शास्त्र कहे ते जान । प्राधव है शुभ नाम को, या विघ सूत्र बखान ।१३।
चौपई २४ सम्यकदर्शन निरमल जान, तीन रतन जुत पुरुष बखान ताकी विनय कर वह भाति,शील विरत पाल चित शाति।१४ ज्ञानी योग निरन्तर साघ, भव भयभीत रहे निरबाध । शक्ति समान दान तप सार, साधुपुरुष को विधन निवारा १५ सेवा श्री सुश्रूषा करे, सोई वयावत अनुसरै। अरहन्त श्राचारज मनलाय, बहुश्रुत प्रवचन भक्ति कराया१६ छ श्रावश्यक किरिया कर. हर्ण प्रभावन मे जो घरै । करि सिद्धांत विष जो प्रीति, यह षोडभावन को रीति ॥१७ जो नर ध्यावे मन वच काय, तीर्थङ्करपद श्राश्रव थाय ।
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( १८३)
२५ परगुण ढोकै निदा कर, अपनो प्रौगुन चित नही धरै अपनी थुति प्राप ही करें, नीचगोत्र आषव अनुसरै।। २६निज निंदा पर प्रस्तुति जान,अपने गुण प्राछादान मान पर प्रोगुण प्रगटावे नाहि, पुनि उत्तमगुण प्रगट कराहि । अचगोत्र को प्राषव नान, ऐसो सूत्रमाहि व्याख्यान ।२०। सोरठा-२७ धर्म कार्य के माहि, विधन कर सके नहीं।
प्राश्रय प्रशुभ लहाह, अन्तराय दुखदाय को ।२१॥ दोहा-तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल । छटाध्याय पूरण भयो मिथ्यामत को शूल ।२२।
॥ इति पष्ठोध्याय ।।
चौपई १ हिंसा अनिरत चोरी जान, अब्रह्म और परिग्रह मान । इन पांचोसे रहित जु होय, पंच विरत तसुनाम सु जोय ।। २ देशत्याग सो अणुव्रत जान, त्याग महावत सरव निधान । ३ इन वतनकी इस्थिति कार, भावन पांच पाच निरधारा२ ४ मन अरु वचन गुप्ति सुखकार, देख चले अरु घर निहार । खान पान विधि निरख करेय, वत्त अहिंसा पंच गिनेय ।३। ५ क्रोष लोभ भय हास्य विहाय, पुनि विचार बोल सुखवाय हित मितकारी वचन सुहाय, सत्य भावना पंच गिनाय ।। ६ सूनोगृह अरु ऊजर ठाम, वास तहां को जान निकाम । साधर्मी सो धर्म मझार, कर विवाद कदापि न जार । रोक टोक नहीं कर सुजान, परोपरोधाकरण सु मान ।।
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( १६४ )
६ ॥
शिक्षा र शुद्ध मनार भारत पंच व बिहार । ७ स्त्रीरागकण गरिन् पूर्वभोग चिन्ता न जान, दुष्ट प्रहार करें सुखमान संस्कार तब त्याच विचार, बह्म भावना
॥
बिहार
को वर्गे भले पर बुरे, दिपर पांच पंच इन्द्री खरे । तितमे राग भाव तजिदेह, पंच भावना परिग्रह एह ॥ ॥ तोरण- १. हिताविक सब पाप करें नाश इस जगत लें । परभव में संहार, वह निगोद रु तरक ने १० होय वंश दुक्ख इन हितादिक पाते जो चाहौ सुख, त्यानी मत व कायकर ११०१ चौपाई ११ तब जीवन के मंत्री भाव, गुण के लखि प्रानन्द पाद दोन दुखीपर नरुलाधार, धर्म विमुख मध्यस्थ बिहार ॥११॥ १२ लख संसार शरीर स्वभाव, वितन होय विरक्त स्वभाव १३ वरा परमाद योग तं होय, जीवघात तो हिंसा लोट | १२|
सच्या
सत्य भनेतो झूठ कहो, १५ दिनदोरो दान तो चोटी खातो १३ मैथुन जान का सही, १७ ममताको प्रसार परिग्रह नावो १८ मिया माया निदान वर्जित, सोई व्रती निरशल्य कहानी दो प्रकार रती, १९६र रहित व्रती घर सहित भातो २० प्रनुव्रतधारक डावक है, २१ दिनदेश प्रभात को त्यागी प्रोषण और मार्थिक धारक, भोगें भोग प्रमाण रानी ||
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( १८५ )
चार प्रकारसु दानको दायक इह विध सातौ शीलसु पागी । २२ मरणके अंत सल्लेखन धारत, होय यतीसम सो वडभागी १४ चौपाई २३ जिनवानी मे शका करें, इह पर भव सुखवांछा घर । रोगी मुनिको देखि गिलान, मिध्यावृष्टोगुण सनमान | १५ | वचनद्वार ताकी युति करें, प्रतीचार पन समिति धरै । २४ व्रतशीलनमे क्रम क्रम जान, पांव पांच जे फहे बखान।१६। २५ नीवनि वाघे ताडे सोय, फाम नाक छेदे जो कोय । मान अधिक भार जु घरे, प्रन्नपान अवरोधन करें | १७| २६ मिथ्या को उपदेश सु जान, गूढबात परको व्याख्यान । झूठो लेख तनो विवहरं, परको मूसधरोहर हरं । १८ । मन्य परायो प्रगट जोय, श्रतीचार पन सतके सोय । चोरीको २७उपदेश सु देय, वस्तु घुराई मोल सु लेय ॥१६॥ राजविरोध सु काज कराय. घाटि देय श्ररु वाढि लहाय । वस्तु खरी मे खोटी डार, व्रत प्रचार्य पाच प्रतिचार | २०| २८ पर विवाह काररण उपवेश, श्रौर कुशीलीस्त्री वेष | परस्त्री ब्याही जो होय, तथा और अन-व्याही सोय |२१| तिनको मुख प्ररु श्रङ्ग निहार, तथा प्रनङ्गक्रोडा निरधार । तीव्र काम निज वनिता भोग, ब्रह्मचर्य प्रतिचार प्रयोग | २२| २६ खेत और घर रूपो जान, सोनो पशु अरु श्रन्न बखान । दासी वासरु कपडा प्रावि, इनके बहुत प्रमारण सु बाद |२३| प्रतीचार अपरिग्रह पांच, इह विघ सूत्र कहो हे सांच ।
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( १८६ )
३० दिशि प्ररु विदिशि उल्लंघन जान, ऊं चोनोचो क्षेत्रबखान क्षेत्र प्रमाण भूल जाय, मन मानो तसु लेय वढाय । प्रतीचार दिगव्रत के प्राहि, ऐसो कह्यो सूत्र के माहि । ५। ३१ परमित क्षेत्र बाहरी बस्त, लेना देना सब श्रप्रशस्त । तसु वासी सग शब्द करेय, अपनी देहु दिखाई देय । 1 पुद्गल क्षेप सु चेत कराय, प्रतीचार देशव्रत प्राय ।
३२ हास्य करै श्ररु क्रीडा काम, यह बात वहु कहै निकाम ७ मतलब अधिक जु काज कराय, भोग उपभोग लोभ श्रधिकाय प्रतीचार अनरथदंड जान, ऊपर तिनको करो बखान । 1 ३३ योगकुटिल सामायिक माहि, श्रादर उत्सम चितमे नाहि । मूलपाठ कछुकी कछू पढे, खबर नही मन सशय बढे |२६| प्रतीचार सामायिक जान, या विध सूत्र कह्यो व्याख्यान । ३४ निज नैननसो देखे बिना, कोमल वस्तु बुहारिन किना । ३० । कोई वस्तु उठावें नाहि, पूजावस्त्र न आसन घराहि । पोसा भूल बिन उतसाहि, ये प्रोषध श्रतीचार लहाय |३१| ३५ सचितवस्तु श्राहारसु देय, सचित मिलाय जुदा न करेय वस्तु सचित्त मिलो आहार, श्रौर पुष्ट रस जानो सार | ३३ दुखकर पर्च सुभुजे नाहि, भोगुपभोग अतिचार कहाहि । सचितमाहि धारी जो वस्तु, प्रौर सचित ढांकी श्रप्रशस्त । ३३ परहस्ते मुनिभोजन देय, दाता के गुरण मन न धरेय । घरके काममाहिं फँस जाय, मुनिभोजन बेरा बिसराय ॥ ३४ ॥ प्रतिथिविभाग जान प्रतिचार, याही विध लख सूत्र मभार । ३७जीवन मरण सु बांच्छाधार, मित्रानुराग सुपूर्व विचार३६
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( १८७ )
पूरव भोगन प्रीति कराहि, श्रागे फी वांच्छा उरमाहि । प्रतीचार सल्लेखन जोय, दृढता पूर्वक जानो सोय १३ | पद्धरी छन्द ३८उपकार निमित्तसु दान देय, तसु नाम दानसो जान लेय । ३६सरधान भक्ति प्ररु पात्र लेख, ता दान तनो जानी विशेष दोहा - तत्त्वारय यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र का मूल ।
श्रध्याय सप्तमो पूर्ण भयो, मिथ्यामति को शून ॥ ४० ॥ ॥ इति सप्तमोध्याय ॥
छन्द विजया तथा सर्वय्या
१ मिथ्यात पंच अरु बारह श्रविरत पद्रह प्रमाद कषाय पचीसा योगके पन्द्रह भेद लखो यह पांच हैं बन्धके भेद मुनीशा ॥ २ सहित कषाय सु जीव गहे क्रमरूपी पुद्गल योग सुरीशा । ताहीको नाम सु बन्ध कहो त्रैलोक्यपती श्रद्भुत जगदीशा । । चौपाई ३ सो बन्धन है चार प्रकार, प्रकृतिबन्ध इस्थिति निरवार । अनुभाग प्ररु तुर्य प्रदेश. या विघ सूत्रमाहि लख वेश । । ४पहिले विधिको है जो भेद, ज्ञानावर्णी पांच विभेद । दर्शन आवरण नव नान, वेदनि दोय प्रकार बखान ।। अट्ठाईस मोहनी वीर, श्रायु चार परकार सु धीर । नाम कर्मके हैं ब्यालीस, गोत्र दोय भाषे जगदीश |४| अन्तराय के पांच निहार । इह विध कर्म प्राठ परकार । दोहा -५ पन नव दो आठबीस चउ, ब्यालिस वो पर पांच । प्राठ भेद के भेद जे, सत्तानव है सांच | m
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( १८९)
चौपई ६ मति श्रुति अवधि मनपर्यय जान,फेवल ज्ञानावणी मान । ७ चक्षु चक्षु अवधि लखि लेउ,केवल दर्शन प्रवरन देउ ।। भेद पाचमो निद्रा जान, निद्रानिद्रा छठो बखान । प्रचलाभेद सातमो धीर, प्रलाप्रचला अष्टम वीर । ७। स्त्यानगृह सो नवमो जान, दर्श अवर्णी भेद बखान । ८ साता और असाता दोय, यही वेदनी भेदसु होय ।। ६ दर्शमोहनी तीन प्रकार, चारित्रमोहनी दो निरधार ।
पद्धरिछन्द अकषायवेदनी नौ प्रकार, अरु सोलह भेद कषाय धार । सम्यकप्रकृती मिथ्यात जान, अरु मिष मिथ्यात कषाय माना रति प्रति हास्य अरु शोक चीन, भय जान जुगुप्ता वेद तीन जा उदय नहिं सम्यक्त होय, चउ अनन्तानुवन्धीव जोय ।१०। जा उदय नहिं व्रत देश धार, सो अप्रत्याल्यानी असार । जाउदयें महाव्रत नाहि होय,लख ताहि प्रत्याख्यानीस जोय११ इह यथास्यात चारित्र भाव, सज्वलन उदयें इनको प्रभाव इक एक भेद सौ चार चार, कुह मान लोभ माया निहार।१२ १० लख आयुकर्म के चार भेद, नारक तिर्यच मनुष्य देव । ११जाउदय भवांतर जीव जाय, सो जानो गतिको भेदभाय१३ जा उदयें इक इन्द्रियादि पांच, सो ग्रहै जीव सो जान सांच लख पांच शरीर प्रौदारकादि,निरमारण रचे जो चक्षु प्रादि१४ बन्धन पुद्गलको मेल जान, संघात सु दृढती संधि मान ।
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( १८६ )
सस्थान कहो सम चतुस्थान, संहनन सूत्र मे छै बखान | १५ | सपरस के भेद सु प्राठ वीर, रस पांच प्रकारसु लखौ धीर । दो गन्ध वररणके पांच भेद, पूर्वीय अगुरलघु अपसु खेद | १६ | परघात लखौ-तप श्ररु प्रकाश + उस्वास गमन जानो प्रकाश उपभोग देत लख इक शरीर, जानो सु प्रत्येक शरीर वीर१७ जस सुभग सु सुस्वरशुभ स्वरूप, सूक्षम पर्याप्त सुथिर अनूप । श्रादेय स्वयश कीरति निहार, लख इतर सहितदश प्रकृतिसार तीथंङ्कर गोत्र करो विचार, यह नामकर्म ब्यालीस सार । १२ ऊचो अरु नीचो गोत्र दोय, अब अन्तरायको भेद जोय१९ १३ मुनिदान लाभ भोगोपभोग, वीर्यान्तराय पद पाच जोग । १४ ज्ञानावरण सो तीन जान, श्ररु अन्तरायको जोग मान । २० थिति कोडाकोडी तीस लेउ, सेनी पर्चेन्द्रिय परयाप्त भेउ । १५ सत्तर कोडाफोडी निहार, तिथि मोहनिकर्म हियेसु धार । २१ सोरठा-१६कोडा कोडी बीस, नाम गोत्र इस्थिति कही । १७प्रायुकर्म तेतीस, थिति उत्कृष्टी जानियो ॥ २२ ॥ सवैय्या १८ जघन्य थिति है बारह मुहरत, वेदनिकर्म कही श्रुतमाहीं । १६ नाम रु गौत्रको पाठ मुहूरत, २०शेषकी प्रन्तर्मुहूर्त कहाई २१कर्मउदय सविपाक कहो, सोई अनुभव नामको भाव बनायो २२यथानाम विधि अनुभवसोई, सोई फल श्रुतमे इमि गायो२३ २३ जाकर्म उदयको भोग भयो, इक देश ता कर्मको नाश कहायो श्रातप + उद्योत ।
* अपघात
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( १६० ) २४ सब कर्मप्रकृति को कारण है,सब काल सवर्गी योग बतायो मन वचन काय के योग विशेष ते, सूक्षम कर्म प्रदेश घनेरे । प्रात्मप्रदेश प्रकाश विष, हुयइस्थिति जान सु नेम यहे रे ।२४। सब प्रातम के परदेश विषै, है नन्त अनन्त प्रदेश सुकर्मा । २५ शुभ प्रायु नाम सु गोत्र कहो, अरु पुण्यसु साता वेद सुकर्मा इतने छोड सु पाप कहे, इस सूत्र की रीति लखौ भ्रम हर्ता । अध्याय सु अष्टम पूर्ण भयो,तत्त्वारथ सूत्र सु मोक्ष का कर्ता २५
॥ इति अष्टमोध्याय ॥
छन्द अशोक पुष्पमंजरी॥ १ प्रालय को निषेध सोई सवर बतायो गुरु,
गपति समिति धर्म अनुप्रेक्षा जानिये । बाइस परीषह सहित शुभचारित्र जान,
द्वादश प्रकार जैन तप यो बखानिये ।। ऐसे निर्जरा और सवर सु जान योग,
योग को निरोध सोई गुप्ति भी प्रमागिये । सुमति के भेद आगे कहत हो सो तौ सुघर,
प्रागम के अनुसार सब रीति मानिये ॥१॥
चौपई पृथिवी निरखि गमन जो करै, ईर्ष्या समिति चित्त सो घर। हित मितकारी वचन रसाल, बोले भाषा समिति विशाल ।२। निरख परख आहार जु लेय, समिति एषणा हृदय धरेय । घरै उठावै भूमि निहार, निक्षेपनि प्रादानि विचार ॥३॥ ममता फाय तजे निरधार, ऐसे समिति पांच बिध सार ।
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( १६१ )
६ कर्कश त्याग वचन बध बन्ध, उत्तम क्षमा सु है गुणवय ४ कोमलता मार्दव को नाम, जान सरलता श्रार्जव धाम । सत्य वचन जग मे विख्यात, शौच त्याग परवस्तु कहाल |५| संयम रक्षा है षटकाय, इन्द्री पांच निरोध कराय । अनशनादि तप बारह सार, चार दान घनत्याग निहार |६| प्राकिंचन निरपरिग्रह वीर, ब्रह्मचर्यं मैथुन तनि घोर । यह विधि दशविध धर्म निहार, कही सूत्रमे सव निरधार |७| ७ छिनभर सो प्रनित बखान, श्रशरण कोड शरण नहि जान भ्रमण चतुर्गति है ससार, सुख दुख भोगत एक निहार ८ जीव अन्य अन्यत्व विचार, वपु प्रशौच पुनि हे निम्सार । श्रागम कर्म सु प्रासव जान, कर्म रुके पर संवर मान ॥६॥ एकदेश फरमनि क्षय होय, निरजर नाम कहावे सोय । लोकविचार सु लोकाकार, दुर्लभ ज्ञान जान मन धार ॥१० तीनरतन दशधर्म स्वभाव, द्वादशानुप्रेक्षा मन लाव | ८ मोक्षमार्गंत च्युत नहि होय । निर्जर कर्म करे दृढ सोय ११ वाईस परीषह इह विध जान, 8 क्षुधा तृषा प्रद शीत बखान उष्ण और मच्छर उपसर्ग, नगन अरति ग्रह इस्त्री वर्ग १२ गमनासन शय्या परधान, वच कठोर वध बन्धन जान । जाच प्रलाभ रोग सु निहार, तृरण कंटक इस्पर्श विचार | १३ | वह मैलो मन मलिन शरीर, श्रादर और प्रनादर वीर । बहु तप कियो ज्ञान नहि भयो, ऐसे ही दर्शन नहि थयो ।१४ इनको विकलप मन नहि लहैं, सो बाईस परीषह सहे ।
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( १६९)
१०. सूक्षम साम्पराय छदमस्थ, द्वादश गुनथाने मुनिवेद । छदमस्थ वीतराग को भेद, श्रुतमे ऐसो भाषो धीर ।।१६।। ११.जिनसज्ञा तेरमगुनथान, इनके ग्यारह नाहिं निदान । १२ छटे सातवें अव्ये मान, और नवममे सरव सु जान ।१७ १३. ज्ञानावर्णी कर्म सुभाय, प्रज्ञा अरु प्रज्ञान कहाय । १४. अन्तराय अरु दर्शनमोह, होय प्रलाभ प्रदर्शन दोह।१८।
छन्द विजया १५चारित्रमोह उदयतै लखौ,नगनत्व अरति अरु स्त्री निषध्या याचना करकस वचन कहो,परशंसा प्रस्तुति सात सु हृद्या । १६. वेदनि कर्म उदयते गिनो, सब ग्यारह शेष परीष बताई। १७एकसमय इक जीव विषैइक,प्रादि उनीश परीषह जताई१६ १८.सामायिक व्रत त्रिकाल सुनो,उत्कृष्टि घडीछह २ सु कहाई सब जीवविष सम भाव करें,तजि प्रारति रौद्र सु भाव लहाई। गुणमूल अट्ठाइस माहिं लगौ,कोउ दोषसु ताहि उथापहि ज्ञानी छेदोपस्थापन बाम कहो,लख सूत्र विचारसु या विध ठानी२० हिसादिक त्यागमे निर्मलता परिहार विशुद्धि नाम कहायो । सूक्षम साम्पराय कहु ताको भेद सु सूक्षम लोभ लहायो । यथाख्यात चारित्र सुनो सो प्रातम सोई सु निरमल थायो । या विध पाच प्रकार लखौ शुभ चारित नामसु सूत्रमे गायो२१ १६.उपवासी अल्प अहारी है इक दो घर गिन पाहार लहावं। अनशन अवमौदर्य कहो अरु व्रतपरिसख्या नाम कहावै । छौडै रस परित्यागी है घर सूनो गुफा निरजन वनवासा ।
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( १६३ )
सु लहै ।
कायकलेश शरीर को कष्ट दिये इह षट तप बाहर परकाशा२२ अब अन्तरग के भेद सुनो षट तिनसो वसुविध कर्म डरो है । २० दोष निवारन चित्तकी शुद्धता प्रायश्चित तसु नाम घरो है गुणगौरव आदरभाव करे सो विनयवृत्त सोई विनय भरी है रोगसहित मुनि तिनकी सेवा वैय्याव्रत तसु नाम परो है | २३ | स्वाध्यायकर ज्ञान बढावत श्रातम हित चितमाह घरो है । तजि संकल्प शरीर है मेरो यह ध्युत्सगं सु नाम परो है । तत्त्व को चितन ध्यान कहो षट भेद सु तप अन्तरंग कहो है । २१ भेद नवौ चतु दश पन दो तप ध्यानसु पहिले पहल ठयो है२४ चोपई २२ निष्कपटी गुरु श्रागे हैं, श्रालोचन तसु नाम सामायिकमे दुष्कृत होय, करै शुद्ध प्रतिक्रमरण सु जोय ॥२५॥ प्रलोचन प्रतिक्रमण सु दोय, तनुभय नाम कहावे या विचार सु होय, ताको नाम विवेक सुजोय |२६| मनवचकाय त्याग व्युत्सर्ग, बारह विध तप जान उपवासादि कररण है छेद, संघत्याग परिहार सु इस्थापन दृढता है धर्म, नौ विभ कहो प्रायश्चित मर्म । २३ दर्श ज्ञान चारित्र श्राचार, इनको विनय शुद्ध मनधार२५ २४ व्रत श्राचर्न करं श्राचार, पढे पढावे पाठक सार । उपवासादि सुतप है जान, शैक्ष शास्त्र अभ्यास करान |२६| रोगाविक पीडित सु गिलान, मुनिसमूह सोई गरण मान । शिष्यसमूह दीक्षित श्राचार, सोई कुल को अर्थ निहार ॥३०॥
सोय ।
निसर्ग । भेद |२७|
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( १९५) ३६ तत्वविचार श्रुत अनुसार, प्राज्ञाविचय विचयमनधार । फरमन नाश विचार करेय, अपायविचय सो नाम कहेय ४२। कर्मउदय को जान विचार, नाम विपाकविचय मनधार । तीनहि लोक विचार निहार, सो संस्थानविचय मनधार ४३ या विष धर्मध्यान पद चार, सूत्रमाहि तिन मर्म निहार । ३७ शुक्लध्यान के पाये दोय, धर्मध्यान के पहिले जोय ।४४। होय सफलश्रुतकेलि जान, ३८ पिछिले केवलज्ञानी मान । ३६ पृथक्त्ववितर्क सु पहलो जान,दूजो एक वितर्फ बखाना४५ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती जान, तीजो भेद शुकल को मान । व्युपरतक्रियानिवृति भेव, चौथो शुक्लध्यान लख लेव ।४६। ४० तीनयोगवारेके जान, प्रथम शुक्ल को प्रापति मान । एकयोगवारे के नेम, द्वितीय शुकल प्रापति है तेम ।४७। काययोगवारे के होय, तीजा क्रिय प्रतिपात सु जोय । चौथा शुकल अयोगी जान, यह परिपाटी सूत्र प्रमान ।४। ४१ सवीतर्क वितर्क विचार,सकल सु श्रुतज्ञानी मुनिधार । पहिले यह दो शुकल निहार, ४२ अवीचार दूजे निरधारा४६। ४३ नाम वितर्क सुश्रुत पहिचान,या विध सूत्र कर व्याख्यान ४४ अर्थविचार पदारथ जान, व्यजन वचन शब्द सो मान५. मनवचकाययोग चित्त धरै, इकपदत दूजो अनुसर। कर शब्दतै शब्द विचार, और योगत योग निहार । म्ही संक्रमन जानो वीर, टीका सूत्र लखौ मन धीर ।५१॥
छन्द विजया ४५ मिथ्यादृष्टीत सम्यक्ती लख तात सु देशवतीक कही है।
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( १९७) उत्तम श्रुति दश पूरव कही, केवलज्ञान विराधन सही। सब तीर्थङ्कर बारे माहि, पांचों मुनि निम्रन्थ कहाय । जान भालिगी व्यवहार, पांचो को सौ है प्राचार ।। लेश्या श्री उपपाद स्थान, इनतै मुनि सब पृथक् बखान ।। दोहा-तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल । पवम अध्याय पूरण भयो, मिथ्यामति को शूल ।।
॥ इति नवमोध्याय ॥
सर्वच्या १ लख मोहनि कर्मको नाश भयो,अरु ज्ञान दर्श पावर्षी जानो अन्तगय इन चारकै क्षयतै केवलज्ञान सु होत बखानो। २ बषके हेतु मिथ्यादि कहे, तिनकोसु प्रभाव भलीविधि मानो। निर्जरकम समस्त खिरे, सो मोक्षको मूल सो मोक्ष कहानो।।
पद्धरी-छन्द ३ उपर्शामक प्रादि भव्यत्व अत जे चार भाव क्षय मोहत ४ अर अन्य भाव क्षय सबै होय,केवल सम्यक्त रु ज्ञान जोयर केवलदर्शन सिद्धत्व जान, इन भेदन मोक्ष लखौ सुजान । यह जीव करमक्षय के अनंत, ऊचे को ५ जाय सु लोक अंता३ ६जिय उद्धं गमनको निमित्त जान, पूरब प्रयोग सो चित्तठान फिर कर्मयोगतै रहिन मान, अरु कर्मबन्ध के क्षय बखान ।४। प्रघ अर्ध्व गमन को भाव जोय, जे निमित्त सूत्र भाषो है सोय लखकर ७ कुम्हारको चरीति, पूरब प्रयोग जानो सुमीत । कर लेप तोमरीपै सु सार, जल माहिं होय ताको निखार । तब लेपरहित ऊपर तिराय, त्यो ही संगति गत फर्म भाय॥
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( १६८ )
बन्धन टूटत ऐरंडबोज, ऊपर उछलत महिमा लखोज । लख प्रगनिशिखा ऊपर विहार, यो कर्मवघ को क्षय निहार।७ ८ धर्मास्तिकायको लख सुभाय, श्राकाश लोक अागे न जाय ६ व्यवहार रूप प्रारज सुक्षेत्र,अरु काल चतुर्थम लख पवित्र मानुषगति लिंग पुलिंग जान, तीर्थङ्कर गणधर सुगुरण खान अरु यथाख्यात चारित्र धार, निजशक्ति जान प्रति शुधनिहार परके उपदेश सु बुद्धि होय, जे लहै मोक्ष सशय न कोय । मतिज्ञान आदि इस्थिति निहार,फिर केवलज्ञान लहै सुसार१० शत पांच घनुष उत्कृष्टि देह, अरु जघन हाथ त्रय अर्द्ध तेह उत्कृष्टि समय छैमास जान, अरु जघन समय सो एक मान लख जघन समय इक सिद्ध होय,उत्कृष्टि समय शत प्रप्टजोय अल्पत्व बहुत्व सु भेद जान, इम साधन सिद्ध समूह मान।१२। दोहा-तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल । दशाध्याय पूरण भयो, मिथ्यामति को शूल ॥१३॥
॥ इति दशमोध्याय ॥ दोहा-स्वर पद अक्षर मात्रिका, जानो नहीं विराम ।
व्यंजन संधि रु रेफको, नहिं पहिचानो नाम ॥१॥ क्षमौ साधु मो अघमको, धारो क्षमा महान । शास्त्र समुद्र गम्भीर को, किनि अवगाही जान ॥२॥
चौपई तत्त्वारथ इस अध्याय माहि, भाषो मुनिपुंगव शकसु नाहिं। जो नर भव धारि यह पढे, तासु उपाय सु फल लहि बढे ।३
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( १६९ ) घोहा-तत्त्वारथ इस सूत्र के, कर्ता उमा मुनीश ।
गृद्धपिच्छ लक्षित सु लख, बन्दी स्वामिन ईश ॥४॥ अध्या पहिले चारलौं, पहिलो जीव बखान । पंचम अध्याये विष, पुद्गल तत्त्व बखान ॥५॥ प्राधव छट्ट सातमें, अष्टम बन्ध निदान । नवमे सवर निर्जरा, दशमें मोक्ष महान ॥६॥ धर्णन सातों तत्त्व को, दश अध्याये माहि । यथाशक्ति अवधारियो, कियो सुनो शक नाहिं ॥७॥ धारनकी जो शक्ति नहि, सरधा करियो जान । सरधावान सु जीवड़ा, अजर अमर हू मान । तपकरना व्रतधारना, संयम शरण निहार । जीवदया व्रतपालना, अन्त समाधि सु सार ।।६।। छोटेलाल या विध कहैं, मनवचतन निरधार । चारोंगति दुख मेटिक, कर कर्म गति छार ॥१०॥
कविनाम ठाम वर्णन दोहा-जिला अलीगढ़ जानियो, मेडू ग्राम सु ठाम ।
मोतीलाल सु पूत हौं, छोटेलाल सु नाम ॥१॥ जैसवार कुल जान मम, श्रेणी बीसा जान । वंश इक्ष्वाक महानमे, लयो जन्म भुवि पान ॥२॥ काशी नगर सुपायक, शैली संगति पाय ।। सबको हित सुविचारक, भाषा सूत्र कराय ॥३॥ उदयराज भाई लखौ, शिखरचन्द गुणघाम । तिनप्रसाद भाषा करी, भाषासूत्र सु नाम ॥४॥
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( २०० ) छन्द भेद जानो नहीं, और गरमागरण सोय । केवल भक्ति सु धर्मकी, बसी सु हृदये मोय ।।५।। ता प्रभाव या सूत्रकी छन्द प्रतिज्ञा सिद्धि । भाई भविजन शोधियो, होवै जगत प्रसिद्धि ॥६॥ मगल श्री अरहत हैं, सिद्ध साधु वृप सार । तिननुति मनवचकायके, मेटौ विधन विकार ।।७।। छन्दवद्ध श्रीसूत्र के, किये शुद्ध अनुसार । मूल ग्रन्थको देखकर, श्रीजिन हृदये धार का कुवारमास की अष्टमी, पहिलो पक्ष निहार । अडसह अन सहल दो, सम्वतरीति विचार 18 जैसी पुस्तक मो मिली, तैसी छापी सोय । शुद्ध अशुद्ध जु होय कहुं,दोष न दो मोय ॥१०॥ ॥ इति श्रीभापा तत्त्वार्थमूत्र छन्दवद्ध सम्पूर्णम् ।।
बड़ी अठाई प्राण' दिवायो न पापणी महियो करो न विचार । सिद्धचक्र व्रत भारावस्था, मन घर हो स्वामी निर्मल भाव
यो वत नित मारावस्या ॥१॥ राय घरा दो ढीकरी रूपार वणी सम्प।। एक राय हम वोलिया, बच्चा कहो न थाका कार्डी विचार
यो व्रत नित पारावस्या ।२॥ मैना हम बतलाया, मुन बाबुल का वोल ।। १ सौगन्ध, २ सखियो, ३ छोकरी-पुत्री, ४ रूप में बहुत सुन्दरी थी ५ पिता के वचन ।
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(२०१)
बाबाजी ऐसा न भाखियो, अब होसीजी म्हारो भाग्य विचार,
कर्म विचार, यो व्रत नित पाराघस्या ।। ३ ।। पहुपाल राजा मन मे डिगमग्या, सुन पुत्री का बोल । कुष्ट सहित वर हेरियो, अव यो वर मैना जोग,
पुत्री जोग ।। यो व्रत० ॥४॥ लगन लिखाई जोशिया, सुगन सरोवर भांति । घरमाला बेगो रची, अब हरख्याजी कोढी भरतार,
यो व्रत नित पाराधस्यां ॥५॥ ऐम वहन दोइ उणमणी, जल मे दिवलो जोय।। वाषाजी कूड उपाईयो, तून दोन्ही प्रो बाई कोढी भरतार, ,
यो व्रत नित आराघस्यां ।। ६ ।। सात सहल्या मिल खेलती, भोली खेलणहार । सात सहेल्या मिल यो कहैं, तून दीन्ही भई दूरा दूर,
To
॥
७
॥
श्रीपाल राजा पायो परणवा, सातसै कोढीजी साथ । मांडलडो विलख्यो हुयो, विलख्याजी नगरी का लोग,
सब परिवार ।। यो व्रत ॥ ॥ पहुपाल राजा हरषिया, वर प्रायोजी मैना जोग । मैना मन हर्षी हुई, अव होसोजी म्हारो भाग्य विचार,
होसीजी कर्म विचार ॥ यो व्रत ॥६॥ श्रीपाल राजा परणयो, अब कौंरी हो बाबुल दीनी छै दान। .
१-मांडा के लीग (कन्यापक्ष के) २-पुत्री
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( २०२) - माग्दि यदि सम्पदा, अब दोन्ही बावानी पुन्य परणाय,
दो बडदान ।। या अन ॥ १० ॥ टोल थपामा बाजना, गत पमागे हाय।। नर यापन नई गोरडी, बतलाई हा कानी भरतार
या अन निन पागधग्या ॥ ११ ॥ गुण गुन्दरि म्हाग यीनती, विकमनी म्हारी देह । हम गायर तुम गार हो, अब हम तुम होय गनी दूगदुर
दा पदेन । यो व्रत ॥ १२॥ ई गुन्दर पी देह को, को काजी विचार | तुम मायर हम गोरडी, अब हम तुम हो म्यामी भोग विलाम,
नया-नया भांग ।। यो अन ॥ १३ ॥ जब मन हट कर राग्गियो तब हरगयो वीपाल । पादिनाय हृदय घरची प्रब टाकाजी गनगम का पवि ।
॥ यो अन निन० ॥ १८ ।। सायों की छ: तालटी, गरमा को छभात । गुरू निटा पापणा, गुम बैठ्याजी निर्मल माव, गजम भाव,
। यो व्रत० ॥ १५॥ बोल धमाका बाजता, जिन चैत्यालय जाय । प्रदक्षिणा दे गुरु पूछिया म्हाने हो स्थामी देना उपदंग ।।
॥ यो व्रत० ॥ १६ ॥ परत बडी चे कोमली, कीजो भावानुमार । फर्म फटे काया फमे, भार मामीजी श्राका रोग विरोग ।।
॥१७॥
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( २०३ । चरण धोय गन्धोदक लियो, लीनो मस्तक चढाय । मिनखा से देवता हुना अव सुवरणवर्णी होगई काय ।।
॥ यो व्रत०॥१०॥ बलिहारी गुरु प्रापको जहाँ दियो उपदेश । कोढी मे राजा हुए अव कपनवर्णी हो गई देह ।। यो व्रत० ॥१६॥ मैना सास पगा पडी, सासु म्हानं द्योजी असीस । खाज्यो पीज्यो विलमज्यो, थारा साहिब को राखो अविचल राज,
सदा ही सुहाग ॥ यो व्रत० ॥२०॥ मना बाप बुलाईया, पपणा करमा जोग । ये दोन्ही कोडी घरा, अब देखोजी म्हारो भाग्य विचार
करम विचार ।। यो व्रत ॥२१॥ पहपाल राजा श्राइयो, मस्नक मेल्यो हाथ । में तो कूढ कुमाईया अब हूज्योजी सदा ही सुहाग
अविचल राज । यो प्रत० ॥२२॥ सियाला मे तो मी पडं, उन्हाले मे लू वाय । चीमासे जल बादली, हरियाली हो स्वामी पावन देह ।।
। यो व्रत० ।। २३ ।। सोनां थारो मदडो, घड्यो निगोट्या भाव, श्रीपालजी के कारणे, मैनावत रानी जावा न देय।
॥यो व्रत ।। २४ ।। कूप चन्यो राय वीनव, रूढी लीनो हाथ । सारी रिद्ध सिद्ध छारिके, ले गया स्वामी संजम पार ।
॥ यो व्रत० ॥ २५॥
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( २०४ )
मेना पूरी हुई थारी प्राश जो नन्दीश्वर ढोकियो । सारी गोठया को अविचल राज, जो नन्दीश्वर ढोकियो ||
|| यो व्रत० ॥ २६ ॥ गावा वाल्या ही सुखपाय, जो या हिल मिल गाइये । सुनवा वाल्या थे ही सुखपाय, जासे ध्यान लगाइये || यो व्रत ||२७||
लाडू की विनती
पच परमगुरु बन्दस्या,सुमरो शारद माय, जिनेश्वर लाडूगायस्यांजी ।।१।। गुण गाऊ जी श्रावक तथा क्रिपा त्रेपनसार, जिनेश्वर लाडू ॥ २॥ जयपुर नगर सुहावनो बसे जहां महाजन लोग, जिनेश्वर लाडू० ॥ ३ ॥ प्राठ मूलगुण गेहुडा ' जी समकित छाज पिछाट जिनेश्वर लाडू ॥४॥ सात विसन रज दूर करि, सुवरण थाल विणाय जिनेश्वर लाडू || ५|| फोर' खाले' भेयस्यो, प्रासुक पाणीजी घोय ॥ जिने ॥६॥ बासकी छवली छापस्या, तप तावडिया सुखाय ॥ जिने ॥७॥ दो प्रकार को घटुल्यो, करुणा पीसणहार ॥ जिने ||६|| घारह व्रत कर छानस्या, त्रेपन क्रियाजी पाल ॥ जिने ॥६॥ रतन कचोले समेटस्या, वाईस परीषह छान ॥ जिने० ॥ मन्दीश्वरी चुल्हो करयो प्रातम करो कढाहि ॥ जिने० ॥ बुद्धि विवेक चाटू करो, करुणा सेकनहार ॥ जिने० ॥ ईन्धन चार कषाय को, ज्ञान अगनि परजाल || जिने० ॥ परशन ज्ञान कर काठडो, करुणा मेलनहार ॥ जिने० ॥ धीरत घालो गाय को, ज्यो भोजन पर खाड ॥ जिने० ।।
१० ॥
११ ॥
१२ ॥
१३ ॥
१४ ॥
१५ ।।
१ गेहूं, २. छाजले से पिछाट कर, ३ नवीन ४. मटकी मा मिट्टी का बरतन ५ छोटी चक्की ६. सेकने की कढाई,
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। २०५ ) इह विधि लाडू मेलस्या,घाल गिरि मिरच गूद। जिने०॥ १६ ॥ कोको' मोरा देवी मायने, लाडू की वाधनहार || जने० ॥ १७ ॥ तप सयम अजली करी, वाईम परीपह कर बांध जिने०॥८॥ सात जुलाडू निरमला, मुवरण थाल मिलाय ॥ जिने० ॥ १६ ॥ पूजाजी कीजो भाव सो, पाठ दरव नित ल्याय ।। जिने० ॥२०॥ उज्ज्वल वस्त्र पहिनल्यो, निरमल अग पखाल | जिने० ॥ २१ ॥ सुवरण झारी जल भरी, द्यो चरणो जलधार || जिने ॥ २२ ॥ केसर धमल्यो भाव से, जिनजी के चरण चढाय जिने०॥ २३ ॥ प्रप्टद्रव्य ल्याप्रो ऊजला, जिनजी की पूजा रचाय जिने.।।५४ ।। प्राम जलेबी नारगी, फल नारेल चढाय ॥ जिने० ॥ २५ ॥ रत्न जडित की भारती, मुक्ताफल की वाति ॥ जिने० ॥ २६ ॥ व्यामाजी हेलो पाडियो, मन्दिर प्रानो जजमान जिने० ॥ २७ ॥ मरद जावेना देहरा, वाजत प्रावला तूर ।। जिने । २८ ।। मरदाजी पचरग पागडी, राण्या नोरग घाट || जिने० ॥ २६ ॥ पुत्र मलाजी जादूतणा, सेया छ गढ गिरनार ॥ जिने० ॥ ३० ॥ दीवाजी' देली कामण्या, कर सोलह शृङ्गार || जिने० ॥ ३१॥ हाथाजी मेहदी राचणी, मिर केसर की खोल ॥ जिने ॥ ३२।। फोयाजी काजल घुल रह्यो, विंदली भाल गुलाल ॥ जिने०॥३३॥ माहिजी चतरया देहरा, वाहर सुरगीजी साल जिने० ।। ३४ ॥ थंभाजी थभा पूतल्या, चौसठ घूघर माल | जिने० ॥ ३५॥ प्रादिनाथजी पाटे विराजिया, हीरा कीसी ज्योति ॥जिने०॥३६॥ सामाजी वैठ्या सायवा, पाड्याजी करेला बखान जिने ॥३७॥ १ बुलावा, २ वत्ती, ३ एक प्रकार का बाजा । ४ दीपका । ५ नेत्रो मे ६ मन्दिर में थम्भो पर कपड़े की खोलिया ।
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( २०६ ) लाडूजी द्यो पण्डितजी ने जाय चोटनहार || जिने० ॥ ३८ ॥ पहलो लाडू कैलाश गिरि चन्यो,स्वामी प्रादिनाथजीके दरवारजिने । दुजो लाडूजी सम्मेद शिखरजी चन्यो स्वामी वीमतीर्थकर दरवाराजिने अगरगू'लाडू चम्पापुर चन्यो,स्वामी नेमिनाथजी के दरबार जिने०॥ पाचवो लाडू पावापुरी चन्यो,स्वामी महावीरजी के दरवार जिने। छठो लाडू विदेहा चव्यो,स्वामी वीस तीर्थकर दरवार |जिने०॥ सातवो लाडू सोनागिरि चन्यो, चन्दाप्रभुजी के दरवार ॥ जिने । भोर उगन्ता यो कह्यो लाडू द्यो नी चढाय जिने०॥ तेरस चौदस मावस्या, सै: दीवालो को रात ॥जिने ॥ दोय घडीजी तडको रह्यो स्वामी वर्षमान गया निर्वाण जिने०॥ पौ४ को जो तारो ऊगियो, उगन्ते परभान जिने०॥ पान भलाजी पनवाडका, फूल भला अजमेर जिने०॥ सगली गोठ्या को अविचल राज, सगला पचाको प्रविचल राज होय । जिने ॥ चार दान द्यो भाव सो, सुपात्र कुपात्र ने जान ॥ जिने । लाडू चढाके घर गया, घर घर बूरा भात ॥ जिने ॥ पण्डिता ने निर्मल धोवती, गरा न औषध दान ।। जिने ॥ जो यो लाडू गायसी, ताकै पढत सुनत सुख होय ॥जिने०॥ म्हैं गायोछ म्हाका भाव सो, म्हाके घर आनन्द उछाह जिने।
१ तीसरा । २ यहा जयपुर मे ऐसा भी पाठ बोलते हैं -
सातवो लाडू जयपुर चढ्यो, सवाई जयपुर के मन्दिरा माहिं ।जिने।
इसी प्रकार हरेक स्थान पर मूलनायक प्रतिमा का नाम बोलते हैं। ३ ठीक । ४ प्रात काल का । ५-६ सव ।
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( २०७) बारह मासा राजुलजी का
राग मरहठी (झडी) में लूगी श्री श्ररहन्त, सिद्ध भगवन्त, साधु सिद्धान्त, चार का शरना, निर्नेन नेम विन हमे जगत क्या करना ।टेर।।
प्रापाठ मास (झडी सखि पाया श्रापाढ घनघोर, मोर चहु मोर, मचा रहे शौर, इन्हें समझानो। मेरे प्रोतम की तुम पवन परीक्षा लामो । हैं कहा वसे भरतार, कहा गिरनार, महायत घार, बसे किस वन मे, क्यो वाघ मोड दिया तोड क्या सोची मन मे ।। झवटे-जा जा रे परैया जा रे, प्रीतम को दे समझारे। रही नौभव सङ्ग तुम्हारे, क्यो छोड दई मझधारे ॥
(झडी) क्यो विना दोप भये रोप नही सन्तोप,यही अफसोस बात नहिं बूझी। दिये जादो छप्पन कोड छोड क्या सूझी। मोहि राखो शरण मझार, मेरे भर्तार,करो उद्धार, क्यो दे गये झरना । निर्नेन नेम विन हमे जगत क्या करना ।
श्रावण मास (झडी) सखि श्रावण सवर करे, समन्दर भरे,दिगम्बर घरे, सखी क्या करिये । मेरे जी मे ऐसी पावे महावत धरिये। सब तजू साज शृङ्गार तजू ससार क्यो भव मझार में जो भरमाऊँ । क्यो पराधीन तिरिया का जन्म फिर पाऊं।। झवटें-सब सुनलो राज दुलारी दुख पड गया हम पर भारी।
तुम तज दो प्रीति हमारी, करलो सयम की तय्यारी ।।
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(२०)
(भदी) प्रव प्रा गया पावन काल, गे मत टाल भरे मब ताल महाजल वगे। बिन पग्मे श्री भगवन मेग जी तम्से । मैंने तज दई तोड मलोत, पलट गई पोन, मेग है गोन, मुझे जग तग्ना। निर्नेम नेम विन मुझे जगत क्या करना।
भादो माम (भटी) मग्वि भादो भरे तालाब, मेरे चित गाव, कन्गी उछाह मे मोलह कारण । कर दश लक्षण के व्रत से पाप निवारण । कर रोट तोज उपवास पञ्चमी प्रकाम, अप्टमी वाम निगन्य मनाऊ, तपकर सुगन्ध दशमी का कर्म जलाऊं ॥ झवटे-मग्वि दुद्वर रम की धारा, तजि चार प्रकार पाहार । फर उन उग्र तर सारा, ज्या होय मेरा निस्तारा ॥
(झडी) मैं रत्नमय व्रत घरू, चतुर्दशी कर, जगत से तिरु , करु पखवाडा । मैं मबसे क्षिमाऊ दोप तजू सव राडा। मै साता तत्त्व विचार, कि गाऊ मल्हार, तजा ससार, तें फिर क्या करना । निर्नेम नेम विन हमे जगत क्या करना।
पासोज मास (झडो) सखि प्रागया मास कुवार, लो भूषण तार, मुझे गिरनार की दे दो आज्ञा, मेरे प्राणिपात्र आहार की है प्रतिज्ञा। लो तार ये चूडामणि, रतन की कणी, सुनो सब जणी खोल दो वैनी, मुझको अवश्य परभात ही दीक्षा लेनी॥ झर्व-मेरे हेतु कमण्डल लामो, इक पौछी नई मगावो ।
मेरा मत ना जी भरमावो, मत सूते कर्म जगावो ।
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( २०६)
(झडी) है जग मे असाता कर्म, बडा बेशर्म, मोह के मर्म से धर्म न सूझे। इनके वश अपना हित कल्याण न बूझे। जहाँ मृग तृष्णा को घूर, वहां पानी दूर, भटकना भूर, वहाँ जल भरना। निर्नेम नेम विन हमे जगत मे क्या करना।
कार्तिक मास (झडी) सखि कार्तिक काल अनन्त, श्री अरहन्त की सन्त महन्त ने प्राज्ञा पाली। घर योग यत्न भव भोग की तृष्णा टाली। सजे चौदह गुण प्रस्थान, स्वपर पहचान, तजे मक्कान महल दीवाली। लगा उन्हे मिष्ट जिन धर्म अमावस काली ॥ झर्व-उन केवल ज्ञान उपाया, जग का अन्धेर मिटाया।
जिसमे सब विश्व समाया, तन धन सब अथिर बताया । (झडी) है अथिर जगत सम्बन्ध, अरी मति मन्द जगत का अन्ध है धुन्ध पसारा । मेरे प्रीतम ने सत जान के जगत बिसारा । में उनके चरण की चेरी, तू प्राज्ञा दे मा मेरी, है मुझे एक दिन मरना। निर्नेम नेम विन हमे जगत मे क्या करना ।
अगहन मास (झडी) सखि अगहन ऐसी घडी, उदय मे पडी, मैं रह गई खडी, दरस नहिं पाये । मैं सुकृत के दिन विरथा यो ही गवाये । नहिं मिले हमारे पिया, म जप तप किया, न सयम लिया, अटक रही जग मे। पडी काल अनादि से पाप की बेडी पग मे ।। झर्व-मत भरियो माग हमारी, मेरे शील को लागे गारी ।
मत डारो अजन प्यारी, में योगन तुम संसारी॥ (झडी) हुए कन्त हमारे जती, मैं उनकी सती, पलट गई रति, तो
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( २११ )
वीर, हरी सब पीर, वधाई घोर, पकर लिये चरना । निम नेम बिन हमे जगत क्या करना ॥
फागुन मास (झडी )
मखि ग्राया फाग वडभाग, तो होरी त्याग, अठाई लाग के मेनासुन्दर । हरा श्रीपाल का कुण्ट कठोर उदम्बर । दिया घवन सेठ ने डार, उदधि को घार तो हो गये पार, वे उस ही पल मे । श्ररु जा परणी गुणमाल न डबे जल मे ।
भर्वर्ट - मिली रैन मजूपा प्यागे, निज ध्वजा शील की धारी । परी सेठ पे मार करारी, गया नर्क में पापाचारी ॥ ( झडी) तुम लखो द्रोपदी सती, दोप नहि रती, कहे दुर्मती पद्म के दन्छन । हुप्रा घात की खण्ड जरूर शोल इस सण्डन । उन फूटे घडे मार । दिया जल डाल तो वे श्राधार थमा जन भरना । निर्लेम नेम विन हमे जगत मे क्या करना ॥ चैत्र मास (डी)
सम्वी चंत्र मे चिन्ता करे न कारज मरे शील मे टरे कर्म की रेखा | मैंने शील से भील को होता जगत गुरु देखा । सखि झील में सुलसा तिरी मुतारा फिरी खलामी करी श्री रघुनन्दन । प्ररु मिली शील परताप पवन से श्रञ्जन ||
भवरें-गवण ने कुमत उपाई, फिर गया विभीषण भाई । छिन मे जालक गमाई, कुछ भी नहि पार वमाई ॥
(डी) मीता सती ग्रग्नि मे पड़ी तो उम ही घडी वह शीतल पडी चढी जल धारा । सिल गये कमल भये गगन मे जय जयकारा । पद पूजे इन्द्र, धर्मेन्द्र, भई शीतेन्द्र, श्री जैनेन्द्र ने ऐसा बरना । निर्नेम नेम बिन हमे जगत मे क्या करना ।
वैशाख मास (झडी)
सखी श्राई वैशाखी मेख, लई 'देख, ये ऊरध रेख पढी मेरे कर मे । मेरा हुआ जन्म यूं ही उग्रसेन के घर मे । नहि लिखा करम मे भोग, पडा है जोग, कगे मत शोक, जाऊ गिरनारी । है मात पिता अरु भ्रा से क्षमा हमारी ॥
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२१२ । 'झर्व-मैं पुण्य प्रताप तुम्हारे घर भोगे भोग अपारे ।
जो विधि के अह हमारे, नहिं टरे किमी के टारे । (झडी) मरी सखी सहेली बीर, न हो दिलगीर, धगे चित वीर, में क्षमा कराऊं। में कूल को तुम्हारे फवह न दाग लगाऊ । वह ले प्राज्ञा उठ खडी थी मगल घडी, जा बन मे पडी, मुगुरु के चरना। निर्नेम नेम बिन हमे जगत मे क्या करना ।
जेठ माम (झडी) मजी पडे जेठ की धूप, गडे सव भप, वह कन्या स्प, मती वह भागन । कर सिद्धन को प्रणाम किया जग त्यागन । अजि त्यागे सव ससार चुडिया तार कमण्डल घार, के लई पिछौटी । अरु पहरक माडी श्वेत उपाडी चोटी। झवटे-उन महा उग्र तप कीना, फिर अच्युत्येन्द्र पद लोना ।
है धन्य उन्ही का जीना, नही विपयन मे चित दीना ॥ (झडी) प्रजी त्रियावेद मिट गया, पाप कट गया, वढा पुरुपारथ । फरे धर्म अरथ फल भोग रुचे परमारथ । वो स्वर्ग सम्पदा भुक्ति, जायगी मुक्ति, जैन की उक्ति मे निश्चय घरना । निर्नेम नेम विन हमे जगत मे क्या करना ।। जो पढे इसे नर नारि, वढे परिवार सर्व मसार मे महिमा पावें । सुन सतियन शील कथान विघ्न मिट जावे । नहि रहे सुहागिन दुखी होग सब सुखी, मिटे वेरुखी पावे वे पादर। वे होय जगत मे महा सतिया की चादर । झर्वटें-मै मानप कुल मे पाया, अरु जाति यती कहलाया। है कर्म उदय की माया, विन सयम जन्म गवाया ।
झडी-ग्राम, सवत्, कवि, वश, नामहै दिल्ली नगर सुवास, वतन है खास, फाल्गन मास, अठाई आठ । हो उनके नित कल्याण छपा कर वाटे। अजी विक्रम अब्द उनीस पै धर पैतीम, श्री जगदीश का ले लो शरणा। कहै दास नैनसुख दोष पै दृष्टि न धरना। मै ल गी श्री अरहन्त सिद्ध भगवन्त साघु सिद्धान्त चार का सरना, निर्नेम नेम बिन हमे जगत मे क्या करना ।।
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