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१४४ ] गहे तहँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु प्रवास । दियो पयदान महासुखकार, भई पनवृष्टि तहाँ तिहिवार ।१२। गये तब काननमाहि दयाल, धरयो तुम योग सबहिं अघटाल । तब वह धूम सुकेत प्रयान, भयो कमठाचरको सुर प्रान ।१३। करै नभगौन लखे तुम बीर, जु पूरव वैर विचार गहीर । कियो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहुतीक्षण पवन झकोर ।। रह्यो दसहूं दिशिमे तम छाय, लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय । सुरुण्डनके बिन मुण्ड दिखाय, पड़े जल मूसलधार अथाय ।१५। तबै पदमावति कथ निंद, नये युग प्राय तहाँ जिनचंद । भग्यो तब रंकसु देखत हाल, लहोत्रयकेवलज्ञान विशाल ।१६॥ दियो उपदेश महा हितकार, सुभव्यन बोधि समेद पधार । सुवर्णभद्र जहँ कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसुरिद्ध ।१७। जजू तुम चरन दुहूँ करजोर, प्रभु लखिये अबही मम ओर । कहे 'बखतावर' रत्न बनाय, जिनेश हमे भवपार लगाय ।१८।
पत्ता जय पारस देव, सुरकृत सेवं, वन्दत चरण सुनागपती । करुणा के धारी, परउपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ॥१॥ ॐ ह्री श्रीपार्श्वनायजिनेन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामी ति स्वाहा। अडिल्ल-जो पूजे मनलाय भव्य पारस प्रभु नितही,
ताके दुख सब जायें, भीति व्यापै नहिं कितही। सुख सम्पति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे, अनुक्रमसो शिव लहै 'रतन' इमि कहै पुकारे ॥२०॥
इत्याशीर्वाद (पुष्पालि)