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। १४३ दोहा-केकी कण्ठ समान छवि, वपु उतंग नव हाथ । लक्षरण उरग निहार पग, वन्दो पारसनाथ ।।२।।
पद्धरि छन्द। रची नगरी छहमास अगार, बने चहुँ गोपुर शोभ अपार । सुकोटतनी रचना छवि देत, कगूरनपै लहफै बहुफेत ॥३॥ बनारसकी रचना जु अपार, करी वहभांति धनेश तयार । तहाँ विश्वसेन नरेन्द्र उदार, कर सुख वाम सु दे पटनार ॥४॥ तज्यो तुम मानत नाम विमान, भये तिनके घर नद मुभान । तवै सुरइन्द्र-नियोगन प्राय, गिरिद करी विधि न्हौन सुजाय ॥ पिताघर सोपि गये निज घाम, कुवेर कर वसु जाम सुकाम । वढे जिन दोज मयंक समान, रमै बहु वालक निर्जर प्रान ।६। भये जब अष्टम वर्ष कुमार, धरे अणुवत्त महा सुखफार । पिता जव प्रानकरी अरदास, करो तुम व्याह वरं मम पास ७। करी तव नाहि, रहे जगचन्द, किये तुम काम कषायजु मंद । चढ़े गजराज कुमारन संग, सु देखत गगतनी सु तरग ॥८॥ लख्यो इक रैक कर तप घोर, चहूंदिशि अग्नि जलै प्रतिजोर । कही जिननाथ अरे सुन भ्रात,कर बहुजीवनको मत घात ।।६।। भयो तव कोप कहे कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव । लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव ब्रह्मऋपीसुर प्राय ।। तवै सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निजकध मनोग। कियो बनमाहिं निवास जिनद, धरे व्रत चारित पानदकंद ॥