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गुरु धानारज व्यसाय साथ, तन नगन रत्नत्रय निधिपाय |
ससार देह वैराव्य घार, निरयांद्रित शिवपद्य निहार ॥६॥ गुरा छत्तिस पति पाठ चीत, भवतारमन्तरन जानई । गुरको महिमा चरनी न जाप, गुरुनान जयौ मन-वनन- काय ॥७
कोक्ति प्रमान गति बिना श्रद्धा परं । 'जात' वान प्रजरभ्रमर-यव भोगये || श्रीजयम नियंति
देव-शास्त्र-गुरु- पूजा ( श्री युगलजी कृत )
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केवल रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है मन्तर । उस श्री जिनवाली में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन ॥ सद्दर्शन-बोध-रन-पथ पर, मिजो बचते मुनिना । उन देव परम श्रागम गुरु को शत-शत पद शत-शत वंदन ॥
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हो देवा गुरु नमः ।
पट् ।
* ही देवार-गुरुग ! यष्टि स्थापनम् । ॐ मी देवानम्ह पन गन गरिदियो भव भय वषट् ।
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प्रयाष्टक |
इन्द्रिय के भोग मधुर विप सम, लावण्यमयो' कचन फाया | यह सब कुछ जटको क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ॥ १ सुन्दर ।