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दोहा-जे प्रधान फल फलविर्ष. पञ्चकरण रस लीन ।
जातो पूर्जी पर पद देव शास्त्र गुर तीन । ८।।
ही देवमात्यो मन्नार निव स्वाहा !! जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत पुष्प वर दोपर धरूं । वर उप निर्मल फन विविध. बह जन्म दे पातर हरू । इह भांति अर्थ नहाय नित भवि करत शिवपति न चरिहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्जन्य नित पूजा र । दोहा-वनुविधि अर्ध नंगेर ने. पति ज्वाह मन कीन ।
जातो पूजो परमपद, देव शास्त्र गुर तीन ॥६॥ हे देशाला त्यो चनदान नि स्वाहा ।।
देव शास्त्र गुर रतन शुभ, तीन रतन करतार । मित्र भिन्न रहुँ पारतो अल्प सुगुण विस्तार ॥१॥
जरि बन्द। मनको ३० प्रति नाशि, जोते अष्टादश दोषराशि । जे परमगुण है अनंत धीर. रत के छयाल्सि गुण गंभीर शुभ सम्वतरण शोभा अपार, शत इन्द्र मत कर शोतवार । देवाविव परिहंत देव, बन्दो मन-वच-तनकरि सुसेव ।।३।। जिनकी धुनि ह ओंकार रूर निर पक्षरमय महिला अनूप । दशष्ट महाभाषा समेत. लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥४॥ सो स्याहारमय सप्त भङ्ग, गणवर गूथे बारह तु पन। रवि शशिन हरसोतम हराय, सो शास्त्र नमो बहु प्रीति ल्या