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मेरी द्रव्य पूजा
१० जु
कृमिकुल पलित नोर है जिसमे मच्छ
हैं नरते श्री वहीं जनमते प्रभो मलादिक भी करते ||
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मेटफ फिरते ।
दूध निकालें लोग सुदाफर, बच्चे को पीते पीते ।
है उच्छिष्ट नीतिलब्ध यो योग तुम्हारे नहिं बोले ||१||
प्रिया
दही धूनादिक भी वैसे है कारण उनका दूध यथा । फूलों को भ्रमरादिक तू घे, ये भी है उच्छिष्ट तथा ॥ दीपक तो पन फापानल, जलते जिनपर फोट सदा । त्रिभुवन सूयं प्रापको प्रथवा दीप दिखाना नहीं भला ॥२॥ फल मिष्टान्न अनेक यहां पर उनमें ऐसा एक नहीं । ने को. ग्राफर प्रभुवर छुपा नहीं || यो पवित्र पदार्थ प्ररचिकर, तू पवित्र सब गुरण घेरा । किस वि क्या हि चढाऊ, चित्त डोलता है मेरा ॥३॥ प्रौ श्राता है ध्यान तुम्हारे, क्षुधा तृपा का लेग नहीं । नाना रस युत ग्रन पान का, ग्रतः प्रयोजन रहा नहीं । नहि वादा न विनोद भाव नहि, राग श्रंशका पता कहीं । इमसे व्यर्थ चढाना होगा, श्रीषघ सम जव रोग नहीं । यदि तुम कहो रत्न वस्त्रादिक, भूपरण क्यों न चढाते हो । ग्रन्थ सदा पाचन हैं पर्पण करते वर्षों सकुचाते हो || तो तुमने निःसार समझ जब खुशी खुशी उनको त्यागा । हो वैराग्य-लीनमति स्वामिन् ! इच्छा का तोड़ा तागा ॥५॥