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जीवरु पुद्गल नाचे यामै, कर्म उपाधी है ॥ २२ ॥ पाप पुन्यसों जीव जगतमे नित सुख दुख भरता । अपनी करनी श्राप भरे शिर-प्रौरन के धरता ।। मोहकर्म को नाश मेटकर सब जग की प्राशा । निज पदमे थिर होय लोकके, शीश करो ब्रासा ॥ २३ ॥ बोधिदुर्लभ भावना
दुर्लभ है निगोद से थावर, श्ररु त्रसगति प्रानी । नरकाया को सुरपति तरसं, सो दुर्लभ प्रानी ॥ उत्तम देश सुसङ्गति दुर्लभ, श्रावककुल पाना । दुर्लभ सम्यक दुर्लभ सयम, पञ्चम गुणठाना ||२४|| दुर्लभ रत्नत्रय प्राराधन, दीक्षा का धरना । दुर्लभ मुनिवर को व्रत पालन, शुद्धभाव करना ॥ दुर्लभ ते दुर्लभ है चेतन, बोधि ज्ञान पावे । पाकर केवलज्ञान नहीं, फिर इस भव में आवै ।। २५ ।। धर्म भावना हो सुछन्द जग पाप करें, सिर करता के लावै । कोई छिनक कोई करता से, जगमे भटकावै ।। २६ ।। वीतराग सर्वज्ञ दोष बिन, श्रीजिन की बानी । सप्त तत्त्वका वर्णन जामै, सबको सुखवानी ॥ इनका चितवन बार बार कर श्रद्धा उर धरना । 'मंगत' इसी जतनतै इकदिन, भवसागर तरना ॥२७॥ ॥ इति ॥