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त्रिभुवन तिहुंकाल मझार कोय, नहिं तुमविन निजसुखदाय होय मो उर यह निश्चय भयो आज,दुख जलषि उबारन तुम जहाज दोहा-तुम गुरणगरण-मरिण गणपती, गणत न पाहि पार । 'दौल' स्वल्पमति किम कहै, नमू त्रियोग सम्हार ।।
___ विनती भूधरदासजी कृत अटो जगत गुरु एक, सुनियो अरज हमारी। तुम हो दीन दयालु, मैं दुखिया ससारी ॥ इस भव बनमे वादि, काल अनादि गमायो। भ्रमत चतुर्गति माहि, सुख नहीं दुख बहु पायो। फर्म महारिपु जोर, एक न कान कर जी। मन मानो दुख देय, काहूं सो नाहीं डरै जी ।। कवहूं इतर निगोद, कबहूँ नरक दिखावे । सूर नर पशु गति माहि, बहु विधि नाच नचावें । प्रभु इनको परसंग, भन भव माहिं कुरो जी । जो दुव देखे देव ! तुम से नाहि दुरोजी ।। एक जनम की बात, कहि न सकों सुन स्वामी । तुम अनन्त परजाय, जानत अन्तरजामी । मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे । कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे । ज्ञान महानिधि लूट, रडू निबल कर डारयो । इन ही तुम मुझ माहि, हे जिन ! अन्तर पारयो ।।