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मुनि गराघरादि मेयन महास, नव वेचन-नाहितरमा घन्त। तुम शामन नेय प्रमेय नोव पिव गये जाहिजे. नदीव । भवमागर में दुर क्षार वानि, तानगोप्रोन मार हानि यह लधिनिज दुग्म गहरा काज,तुमही निमित्तकाररा इलाज जाने तात में मरा प्राय, उरी निज दुप जो विर लहाय । मैं भ्रन्यो प्रपनपो विमरि पाप, अपनाये विधि फर पुण्यपाप निजको पन्को पता पिचान, परमे प्रनिष्टता इट ठान IE पाकुलित भयो प्रजान पारि, ज्यो मृग मृग-तपणा जानिवानि. तन-परगति ने प्रापो चितार,क्वहू न अनुभवो स्व-पदसार तुम को जाने बिन जो कलेग,पाये मो तुम जानत जिनेश । पशु नारफ-नर-मुर-गति मार,भव घर२ मरयो अनन्तवार। प्रय काल-लब्धि बलते दयानु तुम दर्शन पाय भयो सुशाल । मन मात भयो मिहि नकलद्वन्द,चारयो स्वातमरत दुख निक्द तात प्रब ऐसी करहु नाय, विटुडे न कभी तुम चरण साथ । तुम गुरागरण को ना छेव देव, जगतारण को तुम विरद एव प्रातम के प्रहित विषय फपाय,इनमे मेरी परिणति न जाय । मैं रहूँ प्रापमे आप लोन, सो करो होउ जो निजाधीन ।। मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश । मुझ कारज के कारण प्राप, शिव करहु हरहु मम मोह ताप शशि शातिकरण तपहरण हेत,स्वयमेव तथा तुम कुशल देत पीवत पियूप ज्यो रोग जाय त्यो तुम अनुभव ते भव नशाय