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छवि वीतरागी नग्न मुद्रा, हष्टि नाशा पे धरै। वसु प्रातिहार्य अनन्त गुण युत कोटि रवि छवि को हरै ।। मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदय रवि प्रातम भयो। मो उर हरष ऐसो भयो मनु र चिन्तामणि लयो।। मै हाथ जोडि नवाय मस्तक बोनऊ तव चरणजी । सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन सुनहु तारन तरनजी ।। याचू नहीं सुरवास पुनि नर राज परिजन साथजी । 'बुध' याचहूँ तुम भक्ति भव भव दीजिये शिवनाथजी ।
दर्शन पाठ (पं० दौलतरामजी कृत) दोहा-सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन । सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज-रहस-विहीन ।।
पद्धरि छन्द जय वीतराग विज्ञान पूर, जय मोह-तिमिर को हरन सर । जय ज्ञान अनन्तानन्त धार, हग-सुख-बोरज-मण्डिस अपार । जय परम शान्ति मुद्रा समेत. भवि-जनको निज अनुभूति देता भवि-भागनवश जोगे वशाय,तुम ध्वनि है सुनि विभ्रम नशाय। तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक,प्रकटे विघटे प्रापद अनेका तुम जगभूषण दूषण-विमुक्त,सब महिमायुक्त विकल्प-मुक्त । अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप । शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन,स्वाभाविक परणतिमय अछीन प्रधादश दोष विमुक्त धीर, स्वचतुष्टय मय राजत गंभीर ।