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[ ५५ प्रति धवल अक्षत खंड-वजित, मिष्ट राजन भोग के । कलधौत-थारा भरत सुन्दर, चुनित शुभ उपयोग के ।म ।३। ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धि पारी-सप्त-ऋपिभ्यो अक्षतान् नि० ॥३॥ बहु वर्ण सुवरण-सुमन पाछे, अमल कमल गुलाब के। केतकी चंपा चारु मरुमा, चुने निज कर चाव के म.॥४॥ ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धिधारी-सप्त-ऋषिभ्य पुष्प नि० ॥४॥ पकवान नानाभांति चातुर, रचित शुद्ध नये नये । समिष्ट लाडू प्रादि भर बहु, पुरटके थारा लये ॥म.॥५॥ ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण ऋद्धिधारी-सप्तऋषिभ्य नैवेद्य नि० । कलधौत दीपक जड़ित नाना, भरित गोघृतसारसो। अति ज्वलितजगमग ज्योति जाकी, तिमिरनाशनहारसों।म.६ ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धिघारी-सप्तऋपिम्य दीप नि० ॥६॥ दिक्चक्र गधित होत जाकर, धूप दश-अगी कही। सो लाय मनवचकाय शुद्ध, लगायकर खेऊ सही मन्वादि। ॐ ह्री श्रीमन्वादिचारण-ऋद्धिधारी-सप्तऋपिम्य धूपं नि० ॥७॥ वर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायकै । द्रावड़ी दाडिम चार पुगी, थाल भर भर लायक । मन्वादि.। ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धिधारी-सप्तऋपिम्य फल नि० ॥८॥ जल-गंध-अक्षत-पुष्प-चरुवर, दीप धूप सु लावना । फल ललित पाठो द्रव्यमिषित, अर्घ कीजे पावना । मन्वादि। ॐ ह्री श्रीमन्वादि-चारण-ऋद्धिधारी-सप्तऋषिभ्यो अध्यं नि० ॥६॥