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२७. भरत पौर ऐरावतमाहि घटती बढती काल कहाहिं । उतसर्पिरिण अवसर्पिरिण काल, तिनके छं छं भेद निराल | २०| २८. शेष भूमि राजति है और, तिनमे नहीं कालकी दौर । सदाकाल इककाल सुहान, तीन पत्यली श्रायु प्रमान ॥२१॥ २६ हिमवतमे इक पल्य सुजान, दो हरिवर्षक क्षेत्र बखान । भूमि देवकुरु तीन सु कही, ३० यही भांति उत्तरकुल लही२२ ३१, विदेहक्षेत्र संख्यात सु काल. कोटि पूर्व उतकृष्टसु हाल । ३२. जम्बूद्वीप क्षेत्र अनुराग, ताके इकसौ नव्वं भाग ||२३|| भरतक्षेत्र चौडाई जान, ३३ दूनी घातकी खण्ड बखान । ३४. श्रागे पुष्करद्वीप सु जान, रचना धातकी खंड प्रमान२४ मानुषोत्र पर्वतके उरे, ३५ नहि मानुष पर्वत के परे । ३६. दो प्रकार के मानुष कहे, धारज और मलेच्छ स् लहे २५ ३७. भरतक्षेत्र ऐरावत मान, और विदेह कर्मभुम्र जान । देवकुरु उत्तरकुरु थान, भोग भूमि तहें कही सुखदान |२६| श्रायु पल्य त्रय ३८ नर उतकृष्टि, प्रन्त मुहूरत जघनसु दृष्टि । उत्तम भोगभूमि मनुजान, ३६ श्ररु तिर्यंच श्रायु इह मान ॥२७ दोहा - तत्त्वार्थ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल ।
तृतीय अध्याय पूरण भयो, मिथ्यातम को शूल ॥ २८ ॥ ॥ इति तृतीयोध्याय || रोडा छन्द
१. देव सु चतुरनकाय २. तीन मे पीतलौं लेश्या । ३. दश परकार निहार भवनवासी सु त्रिदशया ||