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( ७२ । लख आग मे काया। झट वारि मसलधार से उपसर्ग बुझाया । हो दोन० ॥१६॥ जिननाथ ही को माथ नहाता था उदारा। घेरे मे पडा था वह कुभकरण विचारा। उस वक्त तम्हे प्रेम से सकट मे उबारा । रघुवीर ने सब पीर तहां तुरत निवारा। हो. ॥१७॥
रणपाल कुवर के पड़ी थी पाव में बेरी , उस वक्त तुम्हें ध्यान में आया था सबेरी । तत्कात ही सुकुमार की सब झड पडी बेरी । तुम राजकु वर की सभी दुख द्वन्द्व निवेरी हो.१०
जब सेठ के नन्दन को डसा नाग जु कारा। उस वक्त तुम्हे पोर मे धर धीर पुकारा । तत्काल ही उस बालका विषभूरि उतारा । वह जाग उठा सो के मानो सेज सकारा हो १६॥
मुनि मानतुंग को दई जब भूप ने पोरा । ताले में किया बंद भारी लोह जंजीरा । मुनीश ने मादीश की थुति की है गंभीरा । चक्रेश्वरी तब पान के झट दूर की पीरा हो।२०। शिवकोटि ने हठ था किया सामतभन्न सों। शिवपिंड को बंदन करो शकों अभद्र सो । उस वक्त स्वयंभू रचा गुरु भाव भद्र सो। जिन चन्द्र को प्रतिमा तहा प्रगटी सुभद्रसों हो.२१
सूवेने तुम्हे प्रानके फल ग्राम चढाया । मैढक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया । उन दोनों को अभिराम स्वर्गधाम बसाया। हम आपसे दातार को लख आज ही पाया हो।२२
कपि स्वान सिंह नवल अज बैल विचारे । तिर्यञ्च जिन्हे रंच न था बोष चितारे । इत्यादि को सुरधाम दे शिवधाम मे