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१८१ नवग्रह परिष्ट जय होय पाय, तव पूजे भो जिनदेव पाय । मन वच तन मनसुख सिंधु होय. प्रहशांति रीत यह कही जोय
ॐ ह्री मयंग्रहारिष्टनिवारक श्रीच मितितीयंहार-जिनेन्द्राय पवरल्याणरुप्राप्नाय मध्य निर्वपामीति स्वाहा । दोहा-चौबीसौं जिनदेव प्रभु. ग्रह सम्बन्ध विचार । पुनि पूनों प्रत्येक तुम, जो पासुख सार ।
ज्याशीर्वाद ।।
कलि-कुण्ड पार्श्वनाथ पूजा सबके मध्य लिखा हींकार फिर पहुं ओर ब्रह्म अक्षर । उसके बाद लिखा स्वर खींचो पाठ वन रेखा दुर्द्धर ॥१॥ प्रणव वज्र रेखा प्रागे है मध्य प्रनाहत युगल लिखा । ह-भ-म-र-घ-भ-स-य पिण्ड युक्त निजवरणं सहित सशुद्ध लिखा पीछे वेष्टित किया यथाविधि यही मन्त्र फलिकुण्ड महान । पर-कृत विघ्न निवारक है पर चोर शाकिनी नाशक जान ३ जो मंत्रज्ञ डाभ से इसफो कास्य पात्र मे लिखते हैं । करते हैं श्रीखण्ड लेख जो उनको सत्सुख मिलते है ।॥४॥ दोहा-रोग शोक नाशक विमल, सिद्ध सु महिमावान । कशुद्ध संस्थापना, श्री कलिफुण्ड महान ।
ह्री श्री क्ली ऐ प्रह, पालिकुण्डदण्ड श्रीपाश्र्वनाथ घरगेन्द्र पद्यावती-सेवित अतुल-बलवीर्यपरामम सर्वविघ्नविनाशक | अत्र अवतर अवतर सवौपट पाहाननम् । अत्र तिष्ठतिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अब मम सन्निहितो भव भव वपट् सन्निधिकरणम् । शुभ तीर्थ गंगा नदी द्रह पदमादिप मै नाय के । शीतल सुगधित और शुद्ध पवित्र जल भर लायक ।।