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अथिर जान जग अनित विसारी,बालपने प्रभु दीक्षा धारी ॥ शात भाव पर कर्म विनाशे, तुरतहि केवलज्ञान प्रकाशे। जर चेतन त्रय जग के सारे, हस्त रेखवत् तु है निहारे । लोक प्रलोक द्रव्य षट् जाना, द्वादशांग का रहस्य बखाना । पशु यज्ञ का मिटा कलेशा, दया धर्म देकर उपदेशा।। बहुमत और कुवादी दण्डी, रहने न दियो एक पाखण्डी। पञ्चम कान विष जिनराई, चान्दनपुर प्रभुता प्रगटाई ।। क्षण मे तोपनि बाढि हटाई, भक्तन के तुम सदा सहाई । मूरख नर नहिं अक्षर ज्ञाता,सुमिरत पण्डित होय विख्याता॥ पूरनमल रचकर चालीसा, हे प्रभु तोहि नवावत शीशा । दोहा-करे पाठ चालीस दिन, नित चालीसहि बार। .
खेव धूप सुगन्ध पढि, श्री महावीर प्रगार ॥ जन्म दरिद्री होय जो, होय कुवेर समान । नाम वंश जगमे चले, जिनके नहिं संतान ॥
श्री पद्मप्रभ चालीसा दोहा-शीश नवा अरिहन्त को, सिद्धन करू प्रणाम ।
उपाध्याय प्राचार्य का, ले सुखकारी नाम । सर्व साधु पोर सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार । पद्मपुरी के 'पद्म' को, मन मन्दिर में धार ।
चौपाई जय श्री पमप्रभ गुणधारो, भविजन के तुम हो हितकारी।