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महा शूल को जो तन घारे, होवे रोग प्रसाध्य निवारे । व्याल फराल होय फरणधारी, विषको उगले क्रोध कर भारी । महाकाल सम करें उसन्ता, निविष कसे प्राप भगवन्ता । महामत्त गज मद को भारं, भगं तुरत जब तोहि पुकारं ॥ फार डाट सिंहादिक श्राव, ताको हे प्रभु तुही भगावं । होकर प्रवल अग्नि जो जारै, तुम प्रताप शीतलता धारे ॥ शस्त्रधार प्रति युद्ध लडंता, तुम दृष्टि हो विजय तुरन्ता । पवन प्रचंड चलै झकझोरा, प्रभु तुम हरो होय भय चोरा । झारखड गिरि श्रटवी माहों, तुम बिन शररण तहा कोउ नाहीं । वज्रपात करि घन गरजा, मूसलधार होय तडका || हे प्रथाह प्रवाह सुनोरा, पडते भवर मिटावे पीरा । होय पुत्र दरिद्र सन्ताना, सुमिरत होय कुवेर समाना । बदीगृह मे वधी जंजीरा, कठ सुई प्रनि मे सकल शरीरा ॥ राज दण्ड करि शूल घरावे, ताहि सिंहासन तुही बिठावं । न्यायाधीश राज दरबारी, विजय करे हो कृपा तुम्हारी || जहर हलाहल दुष्ट पिलन्ता, प्रमृत सम प्रभु करो तुरन्ता । चढे जहर जीवादि उसन्ता, निर्विष क्षरण मे श्राप करन्ता ॥ एक सहस वसु तुमरे नामा, जन्म लियो कुण्डलपुर धामा । सिद्धारथ नृप सुत कहलाए, त्रिशला मात उदर प्रगटाये ॥ तुम जनमत भयो लोक प्रशोका, अनहद शब्द भयो तिहुं लोका इन्द्र ने नेत्र सहस करि देखा, गिरि सुमेर कियो प्रभिषेखा ।। कामादिक तृसना संसारी, तज तुम भए बाल ब्रह्मचारी ।