________________
( १०४ ॥
तू चेतन अरु देह अचेतन, यह, जड़ तू ज्ञानी । मिले अनादि यतनते बिछुडै ज्यो पय पर पानी ॥ रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना । जोलौं पुरुष थके न तौलों, उद्यमसों चरना ॥१३॥
अशुचि भावना तू नित पोखे यह सूखे, ज्यों घोवे त्यो मैली। निशदिन करे उपाय देहका, रोगदशा फैली ।। मात-पिता-रज-धीरज मिलकर, बनी देह तेरी। मांस हाड नस लहू राधकी, प्रकट व्याधि घेरी ॥१४॥ काना पोंडा पड़ा हाथ यह, चूस तो रोके । फलै अनन्त जु धर्म ध्यानकी, भूमिविषै बोवें। केसर चन्दन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी। देह परसते होय अपावन, निशदिन मल जारी ॥१५
प्रास्रव भावना ज्यों सर-जल पावत मोरी त्यों, प्रास्रव कर्मन को। दवित जीव देश गहै जब पुद्गल भरमन को।। भापति प्रास्रवभाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को। पाप पुण्य को दोनों करता, कारण बन्धन को ।।१६।। पन मिथ्यात योग पन्द्रह, द्वादश अविरत जानो। पञ्चरु बीस कषाय मिले, सब सत्तावन मानो। मोहभाव की ममता टार, पर परगल खोते। करे मोख का यतन निरालय, ज्ञान जनी होते ॥१७॥