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________________ नमार भावना अनममरन मग जरा रोगमे, सदा दुपी रहता। द्रव्य क्षेत्र पर मालभायभव, परिवर्तन सहता ।। ऐदन मेदन नरफ परागति, यप बन्धन सहना । रागउदयसे पुप सुरगतिमे, कहाँ सुपी रहना ॥ भोगि पुण्यफल हो पइन्द्री, क्या इसमे लाली । कुतवाली दिन चार पही फिर, दुरपा घर जाली ।। मानुपजन्म अनेक विपतिमय, काही ग सुख देगा । पचमति तुम मिल, शुभाशुभका मेटा लेखा पर भागना जन्म मरे प्रपोला चेतन, पुक्षय का भोगी । और शिमीका पपा फदिन यह, देह जुदा होगी। कमला चलतम पंड जाप, मरघट सफ परिवारा। अपने अपने मुग्यको रो, पिता पुन दारा ॥१०॥ ज्यों मेले मे पंयोजन मिलि, नेह फिर घरते । ज्यों सरयर रेन बसेरा, पंछी प्रा करते ॥ कोस फोई दो फोस फोई, फिर एक पफ हारे। जाय अकेला हंस संगमे, कोई न पर मार ॥११॥ भिम भावना मोहम्टप मृगतृष्णा जगमें, मिथ्या जल चमकं । मृग चेतन नित श्रम में उड उठ, वोर्ड थफ पफ ।। बल नहिं पापं प्राण गमाये, भटक भटफ मरता । वस्तु पराई मान अपनी, भेव नहीं करता ।।१२।।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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