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वही रहे वह लोभी कौरव, जून मरे रन मे । गये राज तल पाडव वनको, प्रगति लगी तनमें ॥ मोह नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को ।
हो दयाल उपदेश करें, गुरु बारह भावन को ॥ २ ॥ अधिर भावना
सूरज चांद छिपे निकले ऋतु फिर फिर कर आ । प्यारी बायु ऐसी बोते, पता नहीं पावें ।
पर्वत - पतित नदी सरिता जल, बहकर नह हटता । स्वास चलत यो घटै काठ ज्यो, आरेसों कटता ॥४॥ श्रोतवृन्द ज्यों गलं धूपमे, वा अजुलि पानी । छिन छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ॥ इन्द्रजाल श्राकाश नगर सब, जगतम्पत्ति सारी । अथिर रूप संसार विचारों, सब नर अरु नारी ॥५॥
अशरण भावना
कालसिंहने मृगचेतन को घेरा भव वन मे । नहीं बचावनहारा कोई, यो समभो मन मे । मन्त्र यन्त्र सेना धन सम्पत्ति, राज पाट छूटे | वश नहि चलता काल लुटेरा, काया नगरी लूटे | चकरतन हलधर सा भाई, काम नहीं आया । एक तीरके लगत कृष्णकी, विनश गई काया ॥ देव धर्म गुरु शरण जगतमे, और नहीं कोई भ्रम से फिर भटकता चेतन, यू हि उमर खोई ॥ ७ ॥