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( १०६ ) साधु समीप विनय कर बैठो चरणो दृष्टि दीनी। गुरु उपदेशो धर्म शिरोमरिण सुन राजा वैरागी ।। राज्य रमा वनितादिक जो रस सो सब नीरस लागी ॥२॥ मुनि सूरज कथनी किरणावलि लगत भर्म बुद्धि भागी। भव तन भोग स्वरूप विचारो मरम धर्म अनुरागी ।। या ससार महा वन भीतर, भर्म छोर न पावै । जनम मरन जरा दोवावे जीव महादुख पावे ॥३॥ कबहुँ कि जाय नर्क पद भुजे छेदन भेदन भारी । कबहुं कि पशु पर्याय घरे तहां बघ बन्धन भयकारी ।। सुरगति मे पर सम्पति देखे राग उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपतिमय सब सुखी नहिं कोई ।।४॥ कोई इष्ट वियोगी विलखे कोई अनिष्ट संयोगी । कोई दोन दरिद्री दीखे कोई तन का रोगी । किस ही घर कलिहारी नारी, के बैरी सम भाई। किस ही के दुख बाहर दोखे किस ही उर दुचिताई ।।५।। कोई पुत्र बिना नित भूरे होय मरै तब रोवै । खोटो सगति से दुख उपजे क्यों प्रारणी सुख सोवे ।। पुण्य उदय जिनके तिनको भी नाहिं सदा सुख साता। यह जग बास यथारथ दीखे सवही है दुख पाता ॥६॥ जो संसार विष सुख हो तो तीर्थर क्यो त्यागे । काहे को शिव साधन करते संयम से अनुरागे॥ देह अपावन प्रथिर घिनावन इसमे सार न कोई ।