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काय छहो प्रतिपाल, पंचेन्द्रो मन वश करो।
संजमरतन सभाल, विषय चोर बहु फिरत हैं ।। उत्तम संजम गहु मन मेरे, भवभव के भाजै अघ तेरे । सुरग-नरफपशुगति मे नाही, पालस-हरन करनसुख ठाहीं।
ठाही पृथ्वी जल अग्नि मारत, रूख बस फरना घरो। सपरसन रसना प्रान नैना, कान मन सब यश करो। जित विना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग कोच में।
इक घरी मत विसरो फरो नित, प्रायु जममुख वीचमे।६, ॐ ह्री उत्तमसंयमधर्मागाय अयं निर्वपामोति स्वाहा।
तप चाहे सुर राय, परमशिखर को वन है।
द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्तिसम । उत्तम तप सव माहि बखाना, करमशिखरको वज्र समाना। बस्यो अनादि निगोद मंझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा।
धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल प्रायु निरोगता । श्रीजनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगिता ।। प्रति महादुर्लभ त्याग विषय, कपाय जो तप आदर ।
नरभव अनुपम कनक घरपर, मणिमयी कलशा घर।७। ॐ ह्री उत्तमसयमधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
दान चार परकार, चार सघको दीजिये ।।
धन विजली उनहार, नरभव लाहो लीजिये ।। उत्तम त्याग कहो जग सारा, प्रौषधि शास्त्र अभय अहारा निहचे राग-द्वेष निरवार, ज्ञाता-दोनों-दान-संभार ।