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दोनो सभारे कूप जलसम, दरद घर मे परिनया। निज हाय दीजे साथ लीजे, खाया खोया वह गया ।। धनि साध शास्त्र अभयदिवया, त्याग राग विरोध कों।
विन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाही वोधको ।। ॐ ह्री उत्तमत्यागधर्मागाय अयं निर्वपामीति म्वाहा।
परिग्रह चौविस भेद, त्याग कर मुनिराजजी ।
तृष्णाभाव उछेद, घटती जान घटाइये ।।८।। उत्तम प्राकिञ्चन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुखही मानो। फांस तनकसी तनमे साल, चाह लंगोटो की दुख भाल ॥
भाले न समता सुख कभी नर, विना मुनि-मुद्रा धरे । धनि नगन-पर-तन नगन ठाडे, सुर असुर पानि परै ॥ घरमाहि तृष्णा जो घटाव, रुचि नहीं संमार सौं।
वह धन वराह भला कहिये लीन पर-उपकारसौं ।। ॐ ह्री उमत्तग्राकिचन्यधर्मागाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
शील वाडि नौ राख, ब्रह्मभाव अन्तर लखो।
करि दोनो अभिलाख, करह सफल नर भव सदा ॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन प्रानौ, माता बहिन सुता पहिचानौ । सहैं वान-वर्षा बहु सूरे, टिक न नयन-बान लखि कूरे ।।
कूरे तिया के अशुचि-तन मे, कामरोगी रति करें। बहु मृतक सहि मसानमाही, काक ज्यो चोचे भरं ।। संसार में विष बेलि नारी, तजि गये जोगीश्वरा ।
'धानत' धरम दशपैडि चढिके, शिवमहल मे पगधरा।१० ॐ ह्री उतमब्रह्मचर्यधर्मागाय गय निर्वपामीति स्वाहा ।