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मुख कर जैसा लख तैसा, कपट प्रीति अंगारसी ।। नहि लहै लक्ष्मी अधिक छलकर, करमवंब विशेषता ।
भय त्यागि दूध बिलाव पोवै, आपदा नहिं देखता ॥३॥ ॐ ह्रीं उनमाजववर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
कठिन वचन नत वोल, परनिंदा अरु भू तज ।
रांच जवाहर खोल, सतवादी जग मे सुखी ।। उत्तम सत्यवरत पालीज, पर-विश्वास-घात नहिं कीजै । साँचे भूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो।
पेखो तिहायत पुरुष सांचेको, दरव सब दीलिये । मुनिराज श्रावक्रकी प्रतिष्ठा, सांचगुन लख लीलिये ॥ ऊँचे सिंहासन वैठि बनुनृप, घरमका भूपति भया ।
वच झंक सेती नरक पहुँचा, सुरगमें नारद गया ॥४॥ ॐ ह्री उत्तमसत्यवर्मागाय अयं निर्वपाति स्वाहा।
घरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देहसो ।
शौच सदा निरदोष, घरम बड़ो संसार मे ।। उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोन पाप को वाप बखाना । आशा-पान महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ।।
प्रानी मदा शुचि शील नप तप, ज्ञान-ध्यान-प्रभावते । नित गंगजमुन समुद्र न्हाये, अशुचि दोष सुभावते ॥ ऊपर अमल मलभरयो भीतर, कौनविधि घटशुचि कहूँ ।
वह देह मैलो सुगुन थैली, शौचगुन सावू लहै ॥५॥ ॐ ह्रीं उत्तमात्रधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।