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( ११२ । जे काच कंचन सम गिन, अरि मित्र एक सरूप । निन्दा बडाई सारिखी, वन खंड शहर अनूप ।। सुख दुःख जीवन मरन मे, नहिं खुशी नहि दिलगीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हो पातक पीर ॥३॥ जे बाह्य परवत वन बस, गिरि गुहा महल मनोग । सिल सेज समता सहचरी, शशिकरण दीपकजोग । मृग मित्र भोजन तप मई, विज्ञाव निरमल नीर । ते साधु मेरे मन बसौ, मेरी हरो पातक पीर ॥४॥ सूखै सरोवर जल भरे, सूखै तरङ्गनि-तोय । वाट बटोही ना चले, जहँ घाम गरमी होय ॥ तिस काल मुनिवर तप तप, गिरि शिखर ठाडे धीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ।।५।। घनघोर गरजे घनघटा, जल परै पावसकाल । नहुँ ओर चमक बीजुरी, प्रति चले शीतल व्याल (र) तरहेट तिष्ठ तब जती, एकात अचल शरीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ॥६।। जब शीतमास तुषारसौ, दाहैं सकल बनराय । जब जमै पानी पोखरा, थरहरै सबकी काय ।। तब नगन निवस चौहटै, अथवा नदी के तीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ॥७॥ कर जोर 'भूधर' बीनवै, कब मिले वे मुनिराज । यह पास मनकी कब फले, मेरे सरे सगरे काज ।।