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( १११ ) कारागार बनिता बेडी परजन है रखवारे । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप ये जिय को हितकारी । ये ही सार प्रसार और सब यह चक्री चित धारी ॥१३॥ छोडे चौवहरत्न नवोनिधि और छोडे सग साथी । कोडि अठारह घोड़े छोडे चौरासी लख हाथी । इत्यादिक सम्पति बहु तेरी जीर्ण तृणवत् त्यागी । नीति विचार नियोगी सुत को राज्य दियो बडभागी ॥१४॥ होइ निःशल्य अनेक नपति सग भूषण वसन उतारे । श्री गुरु चरण घरी जिन मुद्रा पंच महाव्रत धारे । धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम धन्य यह धैर्य धारी । ऐसी सम्पति छोड बसे वन तिन पद घोक हमारी ॥१५॥ दोहा-परिग्रह पोट उतार सब, दीनो चारित्र पंथ । निज स्वभाव मे थिर भये,बज्रनाभि निग्रंथ ॥इति।।
गुरु स्तुति (१) बन्दो दिगम्बर गुरुचरन, तरन तारन जान । जे भरम भारी रोगको, है राजवैद्य महान ।। जिनके अनुग्रह बिन कभी, नहीं कट कर्म जंजीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ॥१॥ यह तन अपायन अशुचि है, संसार सफल असार । ये भोग विष पकवान से, इस भाति सोचविचार ।। तप विरचि बीमुनि बन बसे, सब त्यागि परिग्रह भीर । ते साधु मेरे मन बसो, मेरो हरो पातक पीर ॥