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( १२८ ) तुम जिन ज्योतिम्बम्प दुरित अन्थियार निवारी, सो गागेश गुरु कहै, तत्त्व-विद्याधन घारी । मेरे चित-घर माहि, वमो तेजोमय यावत, पापतिमिर अवकाश, तहा मो क्यो फरि पावत ।२ प्रानन्द प्रामू बदन घोय तुमसो नित मान, गदगद सुरसो सुयश मन्त्र पढि पूजा ठाने । ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवामी, भाज थानक छोड देहमियो के वामी ।३। दिन्ति प्रावनहार भये भवि-भाग उदय-बल, पहले ही सुर प्राय कनकमय कोन महीतल । मन-गृह ध्यान-दुवार श्राय, निवसो जगनामी, जो सुवर्ण तन करो, कौन यह अचरज स्वामी ।४। प्रभु सब जग के बिना हेतु, वाधव उपकारी, निरावर्ण सर्वज्ञ शक्ति, जिनराज तिहारी। भक्ति-रचित मम चित्त-सेज नित वास करोगे, मेरे दुख सताप देख, किमि घोर घरोगे ।५। भववन मे चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न माई, तुम थुति-कथा पियूष-वापिका भागन पाई । शशि तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम, करत न्हौन ता माहिं क्यो न भवताप बुझे मम ।६। श्री विहार परिवाह होत शुचि रूप सकल जग, कमल कनक प्राभास सुरभि श्रीवास धरत पग ।