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( १२६ ) मेरो मन सर्वाग परस प्रभुको सुख पावै, । अब सो कौन कल्याण जो न दिन दिन ढिग आवै ।। भव तज सुखपद बसे काम-मद-सुभट संहारे, - जो तुमको निरखंत सदा प्रियदास तिहारे। । - ' तुम बचनामृत-पान भक्ति-अंजुलिसो पीवै, । - तिन्हे भयानक क्रूर रोग-रिपु कैसे छोये । ८ । मानथंभ पाषारण प्रान पाषाण पटतर, ऐसे और अनेक रत्न दीखै जग-अन्तर । देखत दृष्टिप्रमाण मान मद तुरत मिटावे, जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्यों कर पाये । ६ प्रभुतन पर्वत परस पवन उरमे निवत है, तासों ततछिन सकल रोगरज बाहिर हहै। जाके ध्यानाहूत बसो उर-अंबुन माहीं, ' कौन जयत उपकार करल समरथ सो नाहीं । १० । जन्म-जन्म के दुःख सहे सब ते तुम जानो। । - याद किये मुझ हिये लग प्रायुध से मानो। . तुम क्याल जगपाल स्वामि मैं शरण गही है, . । जो कुछ करनो होय करो परमान बही है। ११ । मरण समय तुम नाम मंत्र जीवकतै पायो, . पापाचारी स्वान प्रारण तज अमर कहायो। जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरन्तर । इन्द्र-सम्पदा सहै कौन, संशय इस अन्तर । १२॥