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( १r ने नर निमल जान मान शुचि चारित साध, प्रनर्याप सुर को सार भक्ति-रची नांह हाये। सो शिव-वांचा पुरप मोसपद केम उघार, मोह-मुहर दिढकरो मोक्षमन्दिर के द्वार । १३ । शिवपुर केरो पय पापतमसो प्रति यायो, दुख-सरप बहु फूप-सासों विपट बतायो । स्वामी सुन सो तहा कौन जन मारग लागे, प्रभु-प्रवचन मरिणदीप जो न ह प्रामे प्राग । १४ ॥ कर्म-पटल माहि दयो यातमनिधि भारी, देखत प्रति सुख होप विमुखजन नाहि उघारी । तुम सेवक तत्काल ताहि निश्चय कर धार, स्तुति-कुदाल सो खोद बन्द-भू कठिन विदाई । १५॥ म्याहाद-गिरि उपज मोक्ष- सागर लो घाई, तुम चरणाम्बुज परस भक्ति-गङ्गा सुखवाई । मो चित निर्मल पयो न्हौन रुचि पूरव ताने, प्र वह हो न मलीन कौन जिन संशय याम । १६ । तुम शिवसुरुमय प्रकट करत प्रभु चितवन तेरो, में भगवान समान, भाव यों वरते मेरो। यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावं, तुम प्रसाट सफला जीव वाछित फल पावै । १७० यचन-जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्याप, भग तरंगिनि विकथ-वाव-मल मलिन उथा।