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कर्मनिकन्दन महिमासार, अशरण शरण सुजश विस्तार | नह से प्रभु तुमरे पाय,तो मुझ जन्म प्रकारथ जाय ।४१। सुरगरण वन्दित दयानिधान, जगतारण जगपति जग जान | दुखसागर ते मोहि निकास, निर्भय थान देहु सुखराशि |४२ ।
तुम चरण कमल गुन गाय, बहुविधि भक्ति करो मनलाय जन्म जन्म प्रभु पावहु तोहि, यह सेवाफल दोजे मोहि |४३| दोघकान्त बेमरी छन्द पट्पद
मैं
इहि विधि श्री भगवन्त, सुजस जे भविजन भाषह । ते निज पुन्य-भण्डार सचि चिर पाप प्रणाशहि । रोम रोम हुलसति श्रङ्ग प्रभु गुण मन ध्यावहं । स्वर्ग - सम्पदा भुंज बेग, पचमगति पावहं ।
यह कल्यारण मन्दिर कियो, कुमुदचन्द्र की बुद्धि ।
भाषा कहत 'बनारसी', कारण समकित शुद्धि । ४४ । इति । एकीभाव स्तोत्र
दोहा - वादिराज मुनिराज के चरण कमल चितलाय । भाषा एकीभाव की, करूं स्वपर सुखदाय || ( रोला छन्द ) जो श्रति एकीभाव भयो मानो श्रनिवारी, सो मुझ कर्म-प्रबन्ध करत भव-भव दुखभारी । ताहि तिहारी भक्ति, जगत-रवि जो निरवार, सो अब और कलेश कौन, सो नाहि बिदारं ॥१॥