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( ८६ ) चौपई-जय धीचन्द्र दया के सागर,देहरेवाले ज्ञान उजागर । शाति छवि मूरति अति प्यारी, वेष दिगम्बर धारा भारी॥ नाता पर है दृष्टि तुम्हारी, मोहिनी मूरति कितनी प्यारी । देवो के तुम देव कहावो, कष्ट भक्त के दूर हटायो। समन्तभद्र मुनिवर ने घ्यावा, पिंडी फटी दरश तक पाया । तुम जग मे सर्वज्ञ कहावो, अष्टम तीर्थडर कहलायो। महासेन के राजदुलारे, मात लक्ष्मणा के हो प्यारे ॥ चन्द्रपुरी नगरी पनि नामी, जन्म लिया चन्दा प्रनु स्वामी । पोष वदो ग्यारस को जन्में, नरनारी हरषे तब मन मे ।। काम क्रोध तृष्णा दुखकारी,त्याग सुखद मुनि दीक्षा धारी। फाल्गुन वदी सप्तमी भाई, केवलज्ञान हुआ सुखदाई। फिर सम्मेद शिखर पर नाके, मोक्ष गये प्रभु आप वहां से । लोन मोह और छोडी माया, तुमने मान कषाय नताया ।। रागी नहीं, नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित उपदेशी । पंचम काल महा दुख दाई, धर्म कर्म भूले सब भाई ।। प्रलवर प्रान्त नगर तिजारा, होय जहां पर दर्शन प्यारा । उत्तर दिशि मे 'देहरा' माहीं,वहां पाकर प्रभुता प्रकटाई।। सावन सुदि दशमी शुभ नामी,मान पधारे त्रिभुवन स्वामी । चिह्न चन्द्र का लख नर नारी,चन्द्र प्रभ की मूरति मानी।। मूर्ति आपकी प्रति उजियाली, लगता होरा भी है नाली । अतिशय चन्द्रप्रभ का भारी, सुनकर पाते यात्री भारी ॥ फाल्गुन सुदी सप्तमी प्यारी, जुडता है मेला यहां भारी।