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मन में प्रति हषित होते हैं, अपने दिल का मल धोते हैं। सुमने यह अतिशय दिखलाया, भूत प्रेत को दूर भगाया । भूत प्रेत दुख देते जिसको, चरणों में लाते हैं उसको। जब गंपोषक छींटा मारे, भूत प्रेत तब पाप बकारे ।। अपने से जब नाम तुम्हारा, भूत प्रेत सब करे किनारा । ऐसी महिमा बतलाते हैं, अन्धे भी प्रांखें पाते हैं । प्रतिमा श्वेतवर्ण कहलाये, देखत ही हृदय को भाये । ध्यान तुम्हारा जो धरता है. इस भव से वह नर तरता है ।। अन्धा बेले गूंगा गाये, लंगड़ा पर्वत पर चढ़ जाये। बहरा सुन सुन कर खुश होवे,जिस पर कृपा तुम्हारी होवे। मैं हूँ स्वामी दास तुम्हारा, मेरी नैया करवो पारा । चालोसे को 'चन्द्र' बनावे, पद्मप्रभ को शीश नवावे ।। सोरठा-नित चालीसहि बार, पाठ करे चालीस दिन ।
खेय सुगन्ध प्रपार, पद्मपुरी में प्राय के ॥ होप कुवेर समान, जन्म दरिद्री होय जो । बिनके नहि सन्तान, बाम वंश जग में चले ॥
।। इसि पचप्रम चालीसा ।।
यो चन्द्र प्रभ चालीसा वीतराग सर्वज्ञ जिन, जिनवाणी को ध्याय । लिखने का साहस करू, चालीसा सिर नाय ॥१॥
बेहरे के श्री चन्द्र को, पूजौं मन बच काय । ' ऋद्धि सिद्धि मंगल करें, विघ्न दूर हो जाय ॥२॥