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( १३६ ) सब जीवन को बन्दी छोर, राग-द्वेष बन्धन तोर । रजमति तजि शिवतियों मिले,नेमिनाथ बन्दी सुख-निले २२ दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि प्रायो फनिधार । गये कमठ शठ मुखकर श्याम,नमो मेरुसम पारस-स्वामि।२३। भवसागरते जीव अपार, धरमपोत मे घरे निहार । डूबत काढे दया विचार, वर्धमान बन्दों बहुबार । २४ । वोहा-चौबीसों पद कमलजुग, बन्दों मनवचकाय । 'धानत' पढे सुनै सदा, सौ प्रभु क्यों न सहाय ॥
वैराग्य भजन संत साधु बनके विचरू, वह घडी कब प्रायगी। शान्ति तब मन मे मेरे, वैराग्य की छा जायगी । टेर। मोह ममता त्याग दूं मै, सव कुटुम्ब परिवार से । छोड़ दूं झूठी लगन, धन धाम अरु घरबार से ॥ मोह तज दू महलो-मन्दिर, और चमन गुलजार से । बन मे जा डेरा कलं, मुंह मोड इस ससार से ॥१॥ इस जगत मे जो पदारथ, पा रहे मुझको नजर । थिर नहीं है एक इनमें, हैं ये सब के सब प्रथिर ।। जिन्दगी का क्या भरोसा, यह रही हरदम गुजर । दम है जब तक दम मे वम है, दममे वम से बे-खबर ॥२॥ कौनसी वह चीज है, जिस पर लगाऊ दिल यहां। पाच जीवन बन रहा, जो कल भला वह फिर कहां ॥