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वसुविधिहरि वसु भू बसे, वसुगुरगयुत शिव ईश । नमूनाम वसु अङ्ग तिन, दायक पद जगदीश ॥३॥ पाप धरै प्राचार शुभ, पर अचरावन हार । सो आचारज गुणनघर, नमू शीष कर धार ।।४।। आप अङ्ग पूरव पढे, शिषिन पढ़ावत सोय । ते उवझाय सु नाय सिर, नमूदेव घी मोय ।।५।। मोक्ष मार्ग साधन उदित, धरै मूलगुरण साध । मै शिव साधन साधु पद, नमूहरन भव बाध ।।६।। इहि विधि पंचनि प्रगमिकर, रचू पूज सुखकार । सातै प्रथमहिं पढनि को, समुचय जजिहूं सार पुष्पाजलि
(अथ पच परमेष्ठी सामान्य पूजा) (अडिल्ल)-प्रथम नमूरिहन्त सिद्ध अरु सूर ही,
उपाध्याय सब-साधु नमूगुण पूरही। परम इष्ट यह पंच जजों जुग पादही,
माह्वानन विधि करू सगुण गण गायही ॥ ॐ ह्री श्रीमरहतादि सर्वसाधुपर्यन्त पचपरमेष्ठिन् । अत्रावतर अवतर सवौषट् आह्वाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ , स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्, सन्निधिकरणम् ।
॥अथाष्टक-गीता छन्द ।। वर मिष्ट स्वच्छ सुगन्ध शीतल, सुर सरित जल लाइये । भरि कनक भारी धार देतें, जन्म मृत्यु नशाइये ।। अरिहन्त सिद्ध भाचार्य, अध्यापक सुपद सब साध ही।