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विषापहार भाषा दोहा-नमो नाभिनन्दन वली, तत्य प्रकाशनहार । तुर्यकालको यादि में, भये प्रथम अवतार ॥
ताच्य या रोना द॥ निज प्रातम में लीन ज्ञान करि व्यापत सारे । जानत सब व्यापार संग नहिं कछु तिहारै ।। बहुत काल के हो पुनि जरा न देह तिहारी। ऐसे पुरुष पुगन फरह रक्षा जु हमारी ॥ १ ॥ परकरिक ज अचिन्त्य भार जगको प्रति भारो। सो एकाको भयो वृषभ कोनो निसतारो॥ करि न सके जोगीन्द्र स्तवन मै फरिही ताफो। भानु प्रकाश न फर दीप तम हर गुफा को ।।२।। स्तवन करन को गवं तज्यो शो वह ज्ञानी। में नहिं तर्जी कदापि स्वल्प, ज्ञानी शुभध्यानी ॥ अधिक प्रर्थको कहें यथाविधि वैठि झरोक । जालान्तर घरि अक्ष भीमघरको जु विलोक ॥ सकल जगत को देखत पर सबके तुम ज्ञायक । तुमको देखत नाहि नाहिं जानत सुखदायक ॥ हो किसाक तुम नाथ और फितनाक बखाने । ताते युति नहि धनं अशक्ती भये सयाने ॥४॥ बालकवत निज दोष यकी इहलोक दुखी प्रति । रोग-रहित तुम कियो कृपा करि देव भुवनपति ।