________________
( १६० )
हित-प्रनहित को समझ माहि ह मन्दमतो हम ॥ सब प्रारिपन के हेत नाथ तुम बालवैद सम ।। ५ ।। दाता हरता नाहिं भानु सवको बहकावत । प्राज काल के छलकरि नितप्रति दिवस गुमावत ।। हे अच्युत जो भक्त नमै तुम चरन-फमल को । छिनक एकमे श्राप देत मनवाछित फल को ।।६।। तुमसो सन्मुख रहै भक्तिसों सो सुख पावे । जो सुभावते विमुख प्रापत दुर्खाह बढावै ।। सदा नाथ प्रवदात एक ति रूप गुसाई । इन दोनो के हेत स्वच्छ दपरणवत झाई ॥७॥ है अगाध जलनिधि समुद-जल है जितना ही। मेरू तु ग सुभाव शिखरो उच्च भन्यो हो । वसुधा पर सुरलोक एहु इस भाति सई है । तेरो प्रभुता देव भुवनिकू लंघि गई है ॥८॥ है अनवस्था धर्म परम सो तत्त्व तुम्हारे । कहो न आवागमन प्रभू मत माहिं तिहारे ।। दृष्ट पदारथ छाडि प्राप इच्छति अदृष्टको । विरुष वृत्ति तव नाथ समजस होय सृष्टको ॥६॥ कामदेव को किया भस्म जग-त्राता थे ही। लोनी भस्म लपेटि नाम सभू निज देही ।। सूतो होय अचेत विष्णु वनिता फरि हारयो। तुमको काम न कहै पाप घट सदा उजारयो ॥१०॥