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पापवान वा पुण्यवान सो देव बताये। तिनके प्रोगुन कह नाहि तू गुरणी कहावं ।। निज सुभावते अम्बु-राशि निज महिमा पार्य । स्तोक सरोबर कहे कहा उपमा बढि जावं ॥११॥ कर्मन को पिति जन्तु अनेक कर दुखकारी । सो पिति बहु परकार कर जीवन को स्वारी । भव-समुद्र के माहि देव दोनो के साखी । नाशिक नाब समान माप वाणी में भाषी ॥१२॥ सुबको तो दुख कहे गुणनफ दोष विचार । धर्म करनके हेत पाप हिरदै विच पार ।। तेल निकासन काजलिको पलं पानी। तेरे मतसों बाह्य इसे जे जीव प्रजानी ।।१३॥ विष मोचे ततकाल रोगकों हर ततच्छन । मणि प्रौषध रसारण मंत्र जो होप सुलच्छन ।। ये सब तेरे नाम सुपुदी यो मन परिहैं । भ्रमत अपरजन वृथा नहीं तुम सुमिरन करिहैं ॥१४॥ किचित् भी चित माहि माप फछु करो न स्वामी । जे राख चित माहि मापको शुभ-परिणामी ।। हस्तामलवत लखें जगत की परिणति जेती। तेरे चितकै बाह्य तोउ जीव सुख सेती ॥१५॥ तीन लोक तिरकाल माहि तुम जानत सारी। सामी इनकी संख्या थी तिसनीहि निहारी।