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को लोकादिक हुते अनन्ते हि मेरा । तेऽपि भलकते पानि नाका घोर न तेरा ॥ १६२ है प्रगम्य तव रूप कर्द सुरपति प्रभु सेवा ।
ना कछु तुम उपकार हेत देवन के देवा " भक्ति तिहारी नाथ इन्द्र के तोषित नको ? ज्यो रवि सन्मुख छत्र करं छाया निज नको ॥१७॥ वीतरान्ता कहा कहा उज्देन सुखाकर । तो इच्छा प्रतिकूल वचन किम होय जिनेसर प्रतिकूली भी वचन जनतकू प्यारे ऋति हो । हम कुछ जानी नाहि तिहारी तत्यासति हो ॥ १६ ॥ उच्च प्रकृति तुम नाथ किचित् न घर | तो प्रापति तु की नाहि सो घने सुरमते " उच्च प्रकृति जल दिना भूमिधर मी प्रकासँ जलघि नीर भरो नदी का एक निकासे ॥१६७ तीन लोन के जीव करो जिनवर की सेवा । नियम थक कर दण्ड घरचो देवन से देवा ॥ प्रतिहार्य तौ बने इन्द्र के वने न तेरे ।
तेरे नै तिहारे निमित्त परेरे ॥२०॥ तेरे सेवक नाहि इसे से पुरुष होन घन । धनवानो को और लखत के नाहि वक्त पत जैसे तमति किये लखत परकास- थितीकू । तैसे सूत नाहिं तम-यिती मन्दमतीकू ॥२१॥