________________
-
[ ९७ अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
अथाष्टक क्षीर उदधि समान निर्मल, तथा मुनि-चित सारसों। भरमृग मरिणमय नीर सुन्दर, तृषा तुरित निवारसों ।। जहँ सुभग ऋषि मण्डल विराजे पूजि मन वच तन सदा । तिस मनोवाछित मिलत सब सुख स्वप्नमे दुख नहिं कदा । ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवविनाशनसमर्थाय यन्त्रसम्बन्धिपरमदेवाय जलं ॥१॥ मलय चन्दन लाय सुन्दर, गंध सों अलि झंकरै । सो लेहु भविजन कुम्म भरिके तप्त दाह सबै हरै।
__जहं सुभग ऋषि० ॥ तिस मनो० ॥ चदनं ।। इन्दु किरण समान सुन्दर, ज्योति मुक्ता की हरै । हाटक रकेबी धारि भविजन, अखय पद प्राप्ती करै ।।
जहँ सुभग ऋषि । तिस मनो० ॥ अक्षत ।। पाटल गुलाब जुही चमेली, मालती बेला धने । जिस सुरभित कलहस नाचत, फून गुथि माला बने ।
जहें सुभग ऋषि० ॥ तिस मनो० ॥ पुष्पं ॥ अद्ध चन्द्र समान फेनी, मोदकादिक ले घने । घृतपक्व मिश्रित रस सु पूरे, लख क्षुधा डाइनि हने ।
जहें सुभग ऋषि० ॥ तिस मनो० ॥ नैवेद्यं ।। मरिण दीप ज्योति जगाय सुन्दर, वा कपूर अनूपकं । हाटक सुथाली माहि धरिके, वारि जिनपद भूपकं ।
जहं सुभग ऋषि० ॥तिस मनो० ॥ दीपं ॥