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तिहू जगभीतर श्रीजिनमन्दिर, बने ग्रकीर्तम प्रति मुखदाय । नर मुर खगरि वदनीक जे, तिनको भविजन पाठ कराय ॥ धनधान्यादिकमपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय । मुर युग इन्द्र होयके, करम नाश शिवपुर सुख थाय ।। (उत्याशीर्वाद पुपाजन क्षिपेत् )
स्व • त्यागी दौननगमजी वर्णी कुन श्री ऋषि-मण्डल पूजा
स्थापना || दोहा || चौवीस जिन पद प्रथम नमि, दुतिय सुगरणधर पाय । तृतीय पञ्च परमेष्ठि को, चौथे शारद माय ॥ मन चच तन ये चरन युग, करहु सदा परनाम | ऋषि मण्डल पूजा रचों, बुधि वल द्यो श्रभिराम ॥ ग्रडिन्न छन्द- चौविस जिन वसु वर्ग पञ्च गुरु जे कहे । रत्नत्रय चव देव चार श्रवधी लहे ||
भ्रष्ट ऋद्धि चव दोय रहत दश दिग्पाल
ह्रीं तीन जू ।
सूर यन्त्र मे लीन जू ॥
दोहा - यह सब ऋषि मण्डल विषै, देवी देव प्रपार । तिष्ठ तिष्ठ रक्षा करो, पूजूं वसु विधि सार ॥
ॐ ह्रीं वृषभादि चौवीसतीथंङ्कर, श्रटवर्ग ग्रहंदादि पञ्चपददर्शन ज्ञान चारित्रमहितचतुर्निकायदेव, चार प्रकार अवधि वारक श्रमण, श्रष्टऋद्विसयुक्त चतुर्विंशति सूरि, तीन ही, ग्रद् विम्ब, दसदिग्पाल यत्रमम्वन्धिपरमदेव श्रत्र श्रवतर २ सर्वोपट् श्राह्वानन 1