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। १२५ ) उपजी तुम हिय उदधित, धारणी सुधा समान । जिहि पीवत भविजन लहहि. अजर अमर पदथान १२॥ कहहिं सार तिलोक को, ये सुरचामर दोय । भावसहित जो नित नमे,तसु गति ऊरय होय ॥२३॥ सिंहासन गिरि मेरु सम, प्रभुधुनि गरजत घोर । श्याम सुतनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ।२४। छवि-हत होत प्रशोकदल, तुम भामण्डल देख । वीतराग के निकट रह. रहत न राग विशेष २५, सीख कहै तिहुंलोकको, यह सुरदुन्दुभिनाद । शिवपप सारथिवाह जिन, भजहु तजह परमाद ।२६। तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागरण छविदेत । त्रिवियरूप धरि मनह शशि, सेवत नखत समेत ।२७।
पद्धरी-छन्द प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम,परताप-पुंज जिम शुद्ध हेम । अति धवल सुजस रूपा समान,तिनके गढ तीन विराजमान । सेवहिं सुरेन्द्र कर नमतिभाल,तिन शीशमुकुट तज देहि माल । तुमचरण लगत लहलहे प्रीति,नहि रमहि और जन सुमनरीति। प्रभु भोग-विमुख तन कर्मदाह,जन पार करत भवजल निवाह। ज्यो माटीकलश सुपक्क होय, ले भार अधोमुख तिरहि तोय।। तुम महारान निधन निराश, तज विभव २ सब जग विकास। अक्षर स्वभावसे लिखे न कोय, महिमा अनन्त भगवन्त सोय। कर कोप कमठ निज वैर देख, तिन करी धूल वर्षा विशेष ।