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( १९४) तू भविजन तारक स्मि होइ, ते चित पार तिरहिं ले तोहि । यह ऐसे तरि जान स्वभाव,तिहिं मसक ज्यो गमिन बाउ।११ जिह सब देव किये वश वाम, ते जिनमे जीत्यो सो काम । ज्यो नत करें अग्निकुनहानि, बडवानल पोवं नो पानि ।१२। तुम अनन्त गरवागरा लिये,क्योरि भक्ति धरूं निज हिये। व लघुरूप तिरहिं संघार,यह प्रभु महिमा अगम अपार •१३॥ कोष निवार कियो मनशांत म सुभट जीते विहि नांत । यह परतर देखह संसार नीलवृक्ष ज्यो वह तुषार 1१४॥ मुनिजन हिये कमल निज टोहि, सिद्धल्पसम ध्याहिं तोहि । कमल-करिणका दिन नहि और,लमलबीज उपजनकी ठौरा१५ जब तब ज्यान वर मुनिकोय, तव विवेह परमातम होय । जैसे धातु-शिला तन त्याग,कनर-स्वरूप धरै जब आग ।१६। जाके मत तुम करहु निवास, विनशि जाय क्यो विग्रह तास । ज्यो महन्त बिच आवै कोय, विग्रह-मूल निवारं सोय ।१७ करहिं विवुध ले प्रातम ध्यान, तुम प्रभावत होय निदान । जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विष-विकार की हान ११८ तुम भगवन्त विमल गुगलोन, समल रूप मानहिं मतिहीन । ज्यो पोलिया रोग हग गहै, वर्ण विवर्ण शंखसौ कहै ।१६ दोहा-निकट रहत उपदेश सुनि, तरखर भयो अशोक ।
ज्यो रवि ऊगत जीव सब, प्रक्ट होत भुविलोक १२० सुमनवृष्टि जो सुर करहि, हे बोठमुख' तोहि । त्यों तुम सेवत सुमनजन, बंध अधोमुख होहिं ।२१ १. डण्ठत का मुख नीचे की ओर