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। ६३ ) - जिनदेव देवेश्वर वही मेरे हृदय में लीन है ॥१६॥ संसारको सब वस्तुप्रोमे ज्ञान जिसका व्याप्त है,
___जो कर्म-बन्धन-हीन, बुद्ध, विशुद्ध सिद्धि प्राप्त है । जो ध्यान करने से मिटा देता सकल कुविकारको,
देवेश वह शोभित करे मेरे हृदय-प्रागार को ॥१७॥ सम-सद्ध जैसे सूर्य किरणों को न छू सकता कही,
उस भांति कर्म-कलडू दोषाकर जिसे छूता नहीं। नो है निरंजन वस्त्वपेक्षा, नित्य भी है एक है,
उस प्राप्त प्रभुको शरणमे हूं प्राप्त, जो कि अनेक है ।१८। वह दिवसनायक लोकका जिसमे कभी रहता नहीं,
त्रैलोक्य-भासक ज्ञान रवि पर है वहां रहता सही। जो देव स्वात्मामे सदा स्थिर-रूपता को प्राप्त है, ___मैं हूँ उसीकी शरणमे, जो देववर है, प्राप्त है ।१९। अवलोकने पर शानमें जिसके सकल ससार ही,
है स्पष्ट दिखता एकसे हैं दूसरा मिलकर नहीं। जो शुद्ध, शिव है, शान्त भी है, नित्यता को प्राप्त है,
उसकी शरण को प्राप्त है, जो देववर है. प्राप्त है ।२० वृक्षावली जैसे अनलकी लपटसे रहती नहीं,
____त्यों शोक मन्मथ, मानको रहने दिया जिसने नहीं। भय, मोह, नींद, विषाव, चिन्ता भी न जिसको व्याप्त है, - उसको शरणमें हूं गिरा, जो देववर है, प्राप्त है ।२१॥ विधिवत शुभासन घासका या भूमिका बनता नहीं ।