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( २८ )
इस तन मे क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरण हो है । तेजकाति बल नित्य घटत है, या सम अथिर सु को है ।। पाचो इन्द्रो शिथिल भई प्रव, स्वास शुद्ध नहिं आवै । तापर भी ममता नहिं छोड, समता उर नहिं लाये ॥१७॥ मृत्युराज उपकारी जियको, तनी तोहि छुड़ावै । नातर या तन बन्दीगृह मे, परचो परयो विललावै ॥ पुद्गल के परमाणु मिलके, पिण्डरूपतन भासी । याही मूरत मै अमूरती, ज्ञानज्योति गुरगवासी ॥१८॥ रोगशोक प्रादिक जो वेदन, ते सब पुद्गल लारे । मै तो चेतन व्याषि बिना नित, है सो भाव हमारे ।। या तनसो इस क्षेत्र सम्बन्धी. कारन पान बन्यो है । खान पान दे याको पोष्यो, अब सम भाव ठन्यो है ॥१६॥ मिथ्यादर्शन प्रात्मज्ञान बिन, यह तन प्रपनो मान्यो । इन्द्रीभोग गिने सुख मैने, पापो नाहिं पिछान्यो । तन विनशनत नाश जानि,निज यह अयान दुखदाई ।। कुटुम्ब आदि को अपनी जान्यो,भूल अनादि छाई ॥२०॥ अब निज भेद जथारथ समझ्यो, मै हूँ ज्योतिस्वरूपी । उपजे विनशै सो यह पुद्गल, जान्यो याको रूपी ॥ । इष्ट अनिष्ट जेते सुख दुख हैं, सो सब पुद्गल लागें । मैं जब अपनी रूप विचारो, तब वे सब दुख भागें ॥२१॥ बिन समता तनऽनन्त धरे मै, तिनमें ये दुख पायो । शस्त्रघाततै अनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो ।