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। ८० ) कफ वात पित्त रक्त रोग शोक शाकिनी । तुम नाम ते उरी मही परात डाकिनी जिन ॥१८॥ भयभीत को हरनी है हो मात भवानी । उपसर्ग दुर्ग द्रावतो दुर्गावती रानी। तुम सा तमत्त कष्ट काटनी दानी ।। सुखतार की करनी, हू शकरीश महारानी । जिन. ॥१८॥ इस वतने जिन भक्त को दुख व्यक्त सतावै । प्रय मात तु देखिके क्या ना आवै । तब दिनले तो करती रही जिन भक्त पै छाश। किस वास्ते उस बातको ऐ मात भुलाया। जिन. ।। १६ ।। हो मात मेरे सर्वही अपराध छिमा कर । होता नहीं क्या बाल से कुवाल यहां पर । कुपुत्र तो होते हैं जगत माहि सरासर । माता न त तिनसो कभी नह जल्म भर । जिन. ॥२०॥ अब मात मेरी बात को सब भान सवारो। सन कामना को लिख करो विघ्न विधारो। मति देर करो मेरी भोर नेक निहारो । करकज की छाया करो दुख दर्द निवारो जिन.॥२१॥ ब्रह्माण्डनो बलमनी सुखमण्डनो स्याता । दुख टारिके परिवार सहित दे मुझे ताता ।। तज के विलम्ब अम्बनी अवलम्ब जिये । वृष चन्द नन्द वृन्दको मानन्द कीजिये ।। जिन० ॥२२॥