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( ७६ ) करकज चार भूषन सो भूरि भरा है। भवि वृन्द को आनन्द कन्द पूरि करा है । जुग भान कान कुण्डल सो जोति घरा है। शिर शीस फूल २ सो प्रतुल घरा है ।जिन० ॥१२॥ मुख चन्द को अमद देख चन्द भी थम्भा । छवि हेर हार हो रहा रम्भा को अचम्भा ॥
ग तीन सहित लाल तिलक भाल धरे है। विकसित मुखारविन्द सो प्रानन्द भरे है जिन०॥१३॥ जो आपको त्रिकाल लाल चाह सो घ्यावे । विकराल भूमिपाल उसे भाल झुकावे ॥ जो प्रीत सो प्रतीति सपरीत्ति बढावे । सो ऋद्धि सिद्धि बृद्धि नवोनिधि को पावै ।जिन० ॥१४॥ जो दीप दान के विधान से तुम्हे जपे । सो पाप के निधान तेज पुज्ज से दिपै । जो भेद मन्त्र वेद मे निवेद किया है। सो बाघ के उपाय सिद्ध साध लिया है ।। जिन० ॥१५॥ धन धान्य का अर्थो है सो धन धान्य को पावै। सतान का अर्थी है सो सतान खिलाये।। निजराज का अर्थी है सो फिर राज लहावै । पद भ्रष्ट सुपद पायक मनमोव वढावै ॥ जिव० ।।१६।। ग्रह क्रूर व्यन्तराल व्याल जाल पूतना । तुम नाम के सुन हांक सौ भागे है भूतना ।।