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१३२ । 'कुमरेश' साधु वे हैं महान, उनसे पावे जग नित्य त्राण । मैं करूं वन्दना बार बार, वे करें भवार्णव मुझे पार ।। पत्ता-मुनिवर गुणधार पर-उपकारक भवदुख हारक सुखकारी
वे करम नशायें सुगुरग दिलायें, मुक्ति मिलायें भव-हारी ।। ॐ ही श्रीप्रकम्पनाचार्यादि नप्तशतमुनिन्यो महाय॑ निर्व० । सौरा-श्रद्धा भक्ति समेत, जो जन यह पूजा करे । वह पाये निज ज्ञान, उत्ते न व्यापे जगत-दुख ।।
इत्यागीर्वाद चौसठ-ऋद्धि ( समुच्चय ) पूजा (गीता छन्द)-संसार सकल तार जामे सारता कछु है नहीं,
धनधाम घरणी और गृहरणो त्यागि लीनी वनमही।
ऐसे दिगम्बर हो गये, अरु होयगे बरतत सदा, इस थापि पूजो मन वचन करि देह मंगल विधि तदा ।११
ॐ ह्री भूतभविष्यवर्तमानकालसम्बन्धि पंचप्रकारसर्वऋषीश्वरा अत्र अवतरत अवतरत सवाषट् । मत्र तिष्ठत तिष्ठत ० ० । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् ।
चाल रेखता लाय शुभ गगजल भरिक, कनक भृडार धरि करिक । जन्म जरमृत्यु के हरनन, यजो मुनिराज के चरणन ॥२॥
ॐ ह्री भूतभविष्यवर्तमानकालसम्बन्धिपुलाकवकुशकुशील निग्रंथस्नातकपत्रप्रकारतर्वमुनीश्वरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि० । घसो काश्मीर संग चंदन मिलावो केलिको नन्दन । करत भवतापको हरनन, यजो मुनिराज के चरणन ।।चदन