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________________ ( १४ } समाधिमरण भाषा करो से इस जग में में धन्त मम में भव भने तपार नया मैं भव भवन नरम जो भुजा राई | प्रभु मेरि जोहो । परमोद राई ** { II पायो । में मातदिन त पायो ॥ नाम लोनो । भव भव नृपदि भव भव से मना भव भव में मैं भयो नग, घाराम गुल नहि भव भव में सुरपदयो पाई सामु प्रति भोगे । पर इस पाये विधि योगे || ॥२। भव भव में गति भ पापो प्रति भागे। म भव मे मामको सग मिहिनकारी ॥ ३ ॥ भव भव में जिनजन बीनी, दान सुपात्रहि दोनो । भव भव में में ना में, देवो जिन नीनो एती वस्तु मिलो भव भव में मध्य महि पायो । नहि समाधित मरण कियो में, सात जग भरमायो ॥४॥ कान मनादि भयो जग भ्रमतं सदा कुमराह कोनों ( एकबार हु सम्यक्त में, निज ग्राम नहि चोह्नों" जो निज पर को ज्ञान होय तो, भरा समय दुख कोई | बेह विनाशी में निज भामो, ज्योति स्वरूप मचाई ॥५॥ में निर्धन योनि
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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